आलोचना >> उषा यादव के उपन्यासों में स्त्री-विमर्श उषा यादव के उपन्यासों में स्त्री-विमर्शडॉ. मोनिका
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उषा यादव के उपन्यासों में स्त्री-विमर्श
उषा यादव के लिए लेखन समय काटने का जरिया नहीं है। इर्द-गिर्द विद्यमान सामाजिक विसंगतियों को देखकर वह मन-ही-मन आहत होती हैं। इसी भयावह यथार्थ को रूपायित करने और समाज को दिशा-दृष्टि देने के लिए उनकी कलम से रचना स्वयं को लिखवा लेती है।
वह मानती हैं कि अपने समय के सच को बयान न करना भी लेखकीय पद की दायित्वहीनता है। इसलिए एक जागरूक साहित्यकार होने के नाते वह अपने युग को खुली आँखों से न केवल देखती हैं, अपितु चित्रित भी करती हैं।
आज समाज में स्त्री को पहचान तो अवश्य मिली है, पर भूमंडलीकरण के दौर में बाजारवादी और उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव भी बेहद चिंतनीय हैं। उषा यादव के उपन्यासों का स्त्री-विमर्श समाज में फैली कुरीतियों और पितृसत्ता के वर्चस्व के खिलाफ आवाज तो उठाता है, पर वह आवाज महज विरोध करने के लिए नहीं है। उसका प्रयोजन अपने लिए स्थान बनाने का प्रयास भर है।
नारी जानती है कि जब तक वह स्वयं अपने अधिकारों के लिए नहीं बोलेगी, कोई अन्य उसके लिए उठकर खड़ा नहीं होगा। इसी संवेदना से संयुक्त स्त्री विमर्श को सामने लाना प्रस्तुत पुस्तक का उद्देश्य है।
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