नारी विमर्श >> चरित्रहीन चरित्रहीनशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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एक श्रेष्ठतम उपन्यास...
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
दो शब्द
एक बार शरत् की अन्य पुस्तकों के साथ उनकी चरित्रहीन की पाण्डुलिपि, जो
लगभग पांच सौ पृष्ठों की थी, जल गई। इससे हताश वे अवश्य ही बहुत हुए
परन्तु निराश नहीं। अपने असाधारण परिश्रम से उसे पुन: लिखने से समर्थ हुए।
प्रस्तुत रचना उनकी बड़ी लगन और साधना से निर्मित वही कलाकृति है।
शरत् बाबू ने अपनी इस अमर कृति के सम्बन्ध में अपने काव्य-मर्मज्ञ मित्र प्रमथ बाबू को लिखा था, ‘‘केवल नाम और प्रारम्भ को देखकर ही चरित्रहीन मत समझ बैठना। मैं नीतिशास्त्र का सच्चा विद्यार्थी हूं। नीतिशास्त्र समझता हूं। कुछ भी हो, राय देना...लेकिन राय देते समय मेरे गम्भीर उद्देश्य को याद रखना। मैं जो उलटा-सीधा कलम की नोक पर आया, नहीं लिखता। आरम्भ में ही उद्देश्य लेकर चलता हूं। वह घटना चक्र में बदला नहीं जाता।’’
अपने दूसरे पत्र में शरत् बाबू प्रस्तुत पुस्तक के सम्बन्ध में लिखते हैं-
‘‘शायद पाण्डुलिपि पढ़कर वे (प्रमथ) कुछ डर गये हैं।
उन्होंने सावित्री को नौकरानी के रूप में ही देखा है। यदि आँख होती और कहानी के चरित्र कहां किस तरह शेष होते हैं, किस कोयले की खान से कितना अमूल्य हीरा निकल सकता है, समझते तो इतनी आसानी से उसे छोड़ना न चाहते। अन्त में हो सकता है कि एक दिन पश्चात्ताप करें कि हाथ में आने पर भी कैसा रत्न उन्होंने त्याग दिया ! किन्तु वे लोग स्वयं ही कह रहे हैं, ‘चरित्रहीन का अन्तिम अंश रवि बाबू से भी बहुत अच्छा हुआ है। (शैली और चरित्र-चित्रण में) पर उन्हें डर है कि अन्तिम अंश को कहीं मैं बिगाड़ न दूँ। उन्होंने इस बात को नहीं सोचा, जो व्यक्ति जान-बूझकर मैस की एक नौकरानी को प्रारम्भ में ही खींचकर लोगों के सामने उपस्थित करने की हिम्मत करता है वह अपनी क्षमताओं को समझकर ही ऐसा करता है। यदि इतना भी मैं न जानूँगा तो झूठ ही तुम लोगों की गुरुआई करता रहा।’’
बंगला के सफल लेखक श्री रमेन्द्र बनर्जी अब कई वर्ष से हिन्दी में लिख रहे हैं। आशा है उनका प्रस्तुत अनुवाद पाठकों को विशेष रुचिकर होगा।
शरत् बाबू ने अपनी इस अमर कृति के सम्बन्ध में अपने काव्य-मर्मज्ञ मित्र प्रमथ बाबू को लिखा था, ‘‘केवल नाम और प्रारम्भ को देखकर ही चरित्रहीन मत समझ बैठना। मैं नीतिशास्त्र का सच्चा विद्यार्थी हूं। नीतिशास्त्र समझता हूं। कुछ भी हो, राय देना...लेकिन राय देते समय मेरे गम्भीर उद्देश्य को याद रखना। मैं जो उलटा-सीधा कलम की नोक पर आया, नहीं लिखता। आरम्भ में ही उद्देश्य लेकर चलता हूं। वह घटना चक्र में बदला नहीं जाता।’’
अपने दूसरे पत्र में शरत् बाबू प्रस्तुत पुस्तक के सम्बन्ध में लिखते हैं-
‘‘शायद पाण्डुलिपि पढ़कर वे (प्रमथ) कुछ डर गये हैं।
उन्होंने सावित्री को नौकरानी के रूप में ही देखा है। यदि आँख होती और कहानी के चरित्र कहां किस तरह शेष होते हैं, किस कोयले की खान से कितना अमूल्य हीरा निकल सकता है, समझते तो इतनी आसानी से उसे छोड़ना न चाहते। अन्त में हो सकता है कि एक दिन पश्चात्ताप करें कि हाथ में आने पर भी कैसा रत्न उन्होंने त्याग दिया ! किन्तु वे लोग स्वयं ही कह रहे हैं, ‘चरित्रहीन का अन्तिम अंश रवि बाबू से भी बहुत अच्छा हुआ है। (शैली और चरित्र-चित्रण में) पर उन्हें डर है कि अन्तिम अंश को कहीं मैं बिगाड़ न दूँ। उन्होंने इस बात को नहीं सोचा, जो व्यक्ति जान-बूझकर मैस की एक नौकरानी को प्रारम्भ में ही खींचकर लोगों के सामने उपस्थित करने की हिम्मत करता है वह अपनी क्षमताओं को समझकर ही ऐसा करता है। यदि इतना भी मैं न जानूँगा तो झूठ ही तुम लोगों की गुरुआई करता रहा।’’
बंगला के सफल लेखक श्री रमेन्द्र बनर्जी अब कई वर्ष से हिन्दी में लिख रहे हैं। आशा है उनका प्रस्तुत अनुवाद पाठकों को विशेष रुचिकर होगा।
-प्रकाशक
चरित्रहीन
पश्चिम हिन्दुस्तान के एक बड़े नगर में जाड़े की ऋतु लगभग आ पहुंची थी।
रामकृष्ण परमहंस के एक नये शिष्य को किसी एक शुभ कार्य की भाषण-सभा में
उपेन्द्र को सभापति बनाया जाये, और उस पद की मर्यादा के अनुकूल जो कुछ
कर्तव्य हैं, उनका भी अनुष्ठान पूरा करा लिया जाये, इसी प्रस्ताव को लेकर
एक दिन सवेरे कॉलिज के विद्यार्थियों का दल उपेन्द्र के पास पहुंच गया।
उपेन्द्र ने पूछा, ‘‘शुभ कार्य क्या है, जरा मैं भी तो सुनूं।’’
उन लोगों ने बताया कि अभी तक इस बात को वे भी नहीं जान पाये। स्वामीजी ने कहा है, इसी बात को वे सभा में ठीक तरह से समझाकर बतायेंगे और सभा बुलाने की तैयारी और आवश्यकता बहुत अंशों में इसी के लिए है।
उपेन्द्र इस बात पर सहमत हो गये। ऐसी ही थी उनकी आदत। विश्व-विद्यालय की परीक्षाओं को उन्होंने इतनी अच्छी तरह उत्तीर्ण कर लिया था कि छात्रों की मण्डली में उनकी प्रतिष्ठा की कोई सीमा नहीं थी। इसलिए, काम-काज, आपद-विपद, में वे लोग जब कभी आ जाते थे, तब वे उनके निवेदन और अनुरोधों की उपेक्षा, उनके प्रति ममता के कारण नहीं कर सकते थे। विश्वविद्यालय की सरस्वती को पार करके अदालत की लक्ष्मी की सेवा में नियुक्त हो जाने के पश्चात् भी, लड़कों के जिमनास्टिक के अखाड़े से लेकर फुटबॉल, क्रिकेट और डिबेटिंग क्लब तक के ऊंचे-स्थान पर उनको ही बैठना होता था।
लेकिन इन स्थानों पर सिर्फ चुपचाप बैठे रहना ही नहीं था, कुछ बोलना आवश्यक था। एक लड़के की ओर देखकर उन्होंने कहा, ‘‘कुछ बोलना तो अवश्य पड़ेगा। सभापति बनकर सभा के उद्देश्य के सम्बन्ध में एकदम ही अनभिज्ञ रहना तो मुझे अच्छा नहीं लगता, क्या कहते हैं आप लोग ?’’
यह बात ठीक ही थी। लेकिन उनमें से किसी को भी कुछ मालूम नहीं था। बाहर के आंगन में, फलों से लदे एक पुराने उड़हल के पेड़ के नीचे, लड़कों का यह दल जब उपेन्द्र को बीच में बैठाकर दुनिया के सभी सम्भव-असम्भव अच्छे कामों की सूची तैयार करने में व्यस्त हो उठा था, उसी समय दिवाकर के कमरे से एक आदमी सबकी नजरों से बचकर बाहर चला आया। दिवाकर उपेन्द्र का ममेरा भाई है। बचपन में मातृ-पितृहीन होकर मामा के घर रहकर गुजारा कर रहा था। बाहर की एक छोटी-सी कोठरी उसे दे दी गई थी। अवस्था प्राय: उन्नीस की थी। एफ.ए. उत्तीर्ण करके वह बी.ए. में पढ़ रहा था।
इस भगोड़े पर उपेन्द्र की ज्यों ही नजर पड़ी, त्यों ही उन्होंने पुकारकर कहा, ‘‘सतीश, तू भागा कहां जा रहा है ? इधर आ !’’
पकड़ में आ जाने पर सतीश भयभीत-सा पास आकर खड़ा हो गया। उपेन्द्र ने पूछा, ‘‘इतने दिन तुम थे कहाँ ?’’
भय का उपक्रम छोड़ सतीश हंसकर बोला, ‘‘इतने दिन मैं यहां था ही नहीं, उपेन भैया। अपने चाचा के यहां इलाहाबाद गया हुआ था।’’
बात ठीक तरह पूरी भी न हो सकी थी कि एक युवक, जिसकी दाढ़ी-मूंछ सफाचट थीं, और बाल सवारे हुए थे, आंखों को तनिक दबाकर दांत निकालकर बोल उठा, ‘‘मन के दु:ख के कारण ही क्या सतीश !’’
हाईस्कूल की परीक्षा में इस बार भी उसे भेजा नहीं गया, इस बात को सभी जानते थे। इसलिए यह बात ऐसी भद्दी सुनाई पड़ी कि सभी उपस्थित लोगों ने लज्जा से मुंह नीचे झुका लिया। लेकिन सतीश अपना हंसी भरा मुंह लेकर बोला, ‘‘भूपति बाबू, मन रहने से ही मन में दु:ख होता है। पास करने की आशा कहिए या इच्छा ही कहिए, मैंने ठीक तरह होश संभालते ही छोड़ दी थी। केवल बाबूजी ही छोड़ नहीं सके थे। इस कारण मन के दु:ख से किसी को यदि देश छोड़ना पड़े तो उनका ही छोड़ना उचित होता, फिर भी वे अटल रह अपनी वकालत का पेशा चलाते रहे हैं ! लेकिन तुम कुछ भी क्यों न कहो, उपेन भैया, इस बार उनकी आँखें खुल गई हैं।’
सब लोग हंस पड़े।
उपेन्द्र ने पूछा, ‘‘क्या इस बार तूने पढ़ना-लिखना छोड़ दिया ?’’
सतीश ने कहा, ‘‘मैंने उसे कब पकड़ रखा था कि आज छोड़ देता ? मैंने नहीं उपेन भैया, लिखने-पढ़ने के धन्धे ने ही मुझे पकड़ रखा था। इस बार मैं आत्मरक्षा करूंगा। ऐसे देश में जाकर रहूंगा जहां स्कूल ही न हों।’’
उपेन्द्र ने कहा, ‘‘लेकिन कुछ करना तो आवश्यक है, मनुष्य एकदम चुप-चाप रह भी नहीं सकता। यह भी ठीक नहीं है।’’
सतीश बोला. ‘‘नहीं, चुपचाप नहीं बैठूँगा। इलाहाबाद से एक नया उद्देश्य प्राप्त करने आया हूँ। इस बार ठीक तरह प्रयत्न करके देखूंगा कि उनके लिए मैं क्या कर सकता हूं।’’
यह जानकर कि इसका विवरण सुनने के लिए सभी उत्सुक हो रहे हैं, वह लज्जायुक्त हंसी के साथ बोला, ‘‘मेरे गांव में जिस तरह मलेरिया है, उसी तरह हैजा भी है। पांच-सात गांवों में ठीक वक्त पर शायद एक भी डाक्टर नहीं मिलता। मैं उसी स्थान पर जाकर होमियौपैथी चिकित्सा शुरू कर दूंगा। मां अपनी मृत्यु के पहले मुझे कई हजार रुपया दे गई हैं। उन्हीं से अपने गांव के घर पर बैठकखाने में, एक चिकित्सालय खोल दूंगा। हंसो मत, उपेन भैया, तुम देख लेना, इस काम को मैं अवश्य करूँगा। बाबूजी को मैंने राजी कर लिया है। एक महीना बीत जाने के बाद ही मैं कलकत्ता जाकर होमियोपैथी स्कूल में दाखिल हो जाऊंगा।’’
उपेन्द्र ने पूछा, ‘‘एक महीने के बाद ही क्यों ?’’
सतीश ने कहा, ‘‘कुछ काम है। दक्खिन टोले में नवनाट्य समाज को तोड़कर एक अलग दल निकल पड़ा है। हमारे विपिन बाबू उस दल के नायक हैं। तार पर तार भेजकर उन्होंने ही मुझे बुलाया है। मैंने कह दिया है कि उनकी कन्सर्ट पार्टी को ठीक करके ही किसी दूसरे कार्य में जुटूंगा।’’
यह सुनकर सभी ठहाका मारकर हंसने लगे। सतीश भी हंसने लगा। थोड़ी देर में हंसी का वेग जब कुछ शान्त पड़ गया तब सतीश बोला, ‘‘एक बंसी-वादक का अभाव था, इसलिए मैं आज दिवाकर के पास यहां आया था। अगर नाटक की रात को वह मेरा उद्धार कर दे तो और अधिक दौड़-धूप नहीं करनी पड़ेगी।’’
उपेन्द्र ने पूछा, ‘‘वह कहता क्या है ?’’
सतीश ने कहा, ‘‘वह कहेगा ही क्या ? कहता है कि परीक्षा नजदीक है। यह बात मेरे दिमाग में घुसती नहीं उपेन भैया, कि दो साल तक पढ़ने लिखने के बाद दी जाने वाली परीक्षा किस तरह लोगों की एक ही रात की अवहेलना से नष्ट हो जाती है। मैं कहता हूं, जिनकी सचमुच ही नष्ट हो जाती है, उनकी वह नष्ट हो जाए तो उचित ही है। इस तरह पास करने की मर्यादा जिनके लिए हो उनको ही रहे, मेरे लिए तो नहीं है। तुम इस बात से रुष्ट न हो सकोगे उपेन भैया, मैं तुमको जितना जानता हूं ये लोग उसका चौथाई भी नहीं जानते। जिमनास्टिक अखाड़े से लेकर फुटबॉल, क्रिकेट तक बहुत दिन मैंने तुम्हारी शागिर्दी की है, साथ-साथ घूमकर बहुत दिन बहुत तरह से तुम्हारा समय नष्ट होते मैंने देखा है, अनेक परीक्षाओं में भाग लेते भी तुमको देखा है और विधिपूर्वक स्कलॉरशिप के साथ पास करते भी देखा, लेकिन किसी दिन तुमको परीक्षा की दुहाई देते नहीं सुना।’’
इस बात को यहीं समाप्त कर देने के उद्देश्य से उपेन्द्र ने कहा, ‘‘मुझे तो बांसुरी बजाना नहीं आता।’’
सतीश ने कहा, ‘‘लेकिन छोड़ो इस बात को-दुपहरिया की धूप में तुम लोगों की यह बैठक किसलिए ?’’
जाड़े की धूप की तरफ पीठ किये माथे पर चादर लपेटकर सभी बैठे थे। इन लोगों की यह बैठक खूब ही जम गई थी। दिन इतना चढ़ आया है इस ओर किसी ने भी लक्ष्य नहीं किया था। सतीश की बात से समय का ध्यान आते ही सभी एक साथ चौंककर खड़े हो गये। सभा भंग होते भूपति ने पूछा, ‘‘उपेन्द्र बाबू, तो अब कैसे होगा ?’’
उपेन्द्र ने कहा, ‘‘मैंने तो कह दिया है, मुझे कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन तुम लोगों के स्वामीजी का उद्देश्य अगर पहले ही मालूम हो जाता तो बड़ा अच्छा होता। एकदम मूर्ख की तरह कहीं जाने में संकोच लगता है।
भूपति ने कहा, ‘‘लेकिन एक भी बात वे नहीं बताते। बल्कि कहते हैं कि जो विषय जटिल और दुर्बोध्य है, उसको विशद रूप से साफ तौर से समझाकर बताने का अवसर और सुविधा न मिलने तक बिलकुल ही न बताना अच्छा है। अन्यथा इससे अधिकांश में सुफल के बदले कुफल ही मिलता है।’’
चलते-चलते बातचीत हो रही थी। इतनी देर में सभी बाहर आ खड़े हुए।
सतीश ने कहा, ‘‘क्या बात है उपेन भैया ?’’
भूपति बीच में बोल पड़ा, ‘‘सतीश बाबू, आपको भी चन्दे के खाते में दस्तखत करना पड़ेगा। इसका कारण इस समय हम लोग ठीक तौर से बता न सकेंगे। परसों अपराह्न में कॉलिज के हॉल में स्वामीजी खुद ही समझाकर बतायेंगे।’’
सतीश ने कहा, ‘‘तब तो मेरा समझना नहीं होगा भूपति बाबू। परसों हम लोगों का रिहर्सल होगा। मेरे अनुपस्थित रहने से काम न चलेगा।’’
आश्चर्य में पड़कर भूपति ने कहा, ‘‘यह कैसी बात आप कह रहे हैं सतीश बाबू ! थियेटर की मामूली हानि होने के डर से ऐसे महान् कार्य में आप सम्मिलित न होंगे। लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे ?’’
सतीश बोला, ‘‘लोग न सुनने पर भी बहुत सी बातें कहते रहते हैं। दूसरों की बात छोड़िए, अपनी हालत देखिए, कुछ भी जानकारी न रहने पर भी आप लोग सन्देह छोड़ इस अनुष्ठान को जितना महान् कहकर विश्वास कर सके है यदि मैं उतना न कर सकूं तो मुझे आप लोग दोषमत दीजिएगा। बल्कि, जिसको मैं जानता हूँ, जिस काम की भलाई-बुराई को समझता हूं, उसकी उपेक्षा करके, उसको हानि पहुंचाकर एक अनिश्चित महत्व के पीछे-पीछे दौड़ना मुझे अच्छा नहीं मालूम देता।’’
उपस्थित छात्र-मण्डली में आयु और शिक्षा की दृष्टि से भूपति ही सबसे अधिक श्रेष्ठ थे, इसलिए वे ही बातचीत कर रहे थे। सतीश की बात सुनकर उन्होंने हंसकर कहा, ‘‘सतीश बाबू, स्वामीजी की तरह महान् व्यक्ति अच्छी ही बात कहेंगे, उनका उद्देश्य अच्छा ही होगा, पर इस पर विश्वास करना तो मुश्किल नहीं।’’
सतीश ने कहा, ‘‘व्यक्ति विशेष के लिए यह कठिन नहीं है, मैं मानता हूं। यही देखिए न, हाईस्कूल पास कर लेना कोई कठिन काम नहीं है, फिर भी पास करना तो दूर रहा, तीन-चार वर्षों में मैं उसके पास तक भी पहुंच न सका। अच्छा, बताइए तो, स्वामीजी नामक मनुष्य को पहले कभी आपने देखा है, या इनके सम्बन्ध में किसी दिन आपने कुछ सुना है।’’
किसी को भी कुछ मालूम नहीं है, यह बात सभी ने मान ली। सतीश बोला, ‘‘यह देखिए, एक गेरुआ कपड़े के अलावा उनका और कोई सर्टिफिकेट नहीं है, फिर भी आप लोग पागल-से हो उठे हैं, और मैं स्वयं अपने काम को नुकसान पहुंचाकर उनका भाषण सुनना नहीं चाहता, इसके लिए आप नाराज हो रहे हैं।’’
भूपति ने कहा, ‘‘पागल क्या यों ही हो रहे हैं। ये गेरुआ वस्त्रधारी संसार को बहुत कुछ दे गए हैं। जो कुछ भी हो, मैं नाराज नहीं होता, दु:ख अनुभव करता हूं। संसार की सभी वस्तुएं सफाई और गवाही साथ लेकर हाजिर नहीं हो सकतीं, इस कारण अगर उन्हें झूठ समझकर छोड़ देना पड़े, तो बहुत-सी अच्छी चीजों से ही हम लोगों को वंचित रह जाना पड़ेगा। भला, आप ही बताइए, जिस समय आप संगीत में सा-रे-गा-मा साधते थे, उस समय आपको कितने रस का स्वाद मिलता था ? उसकी कितनी अच्छाई-बुराई आपकी समझ में आती थी ?’’
सतीश बोला, ‘‘मैं भी यही बात कह रहा हूं। संगीत का एक आदर्श यदि मेरे सामने न रहता, मीठे रस का स्वाद पीने की आशा यदि मैं न करता, तो उस दशा में इतना कष्ट उठाकर मैं सा-रे-गा-मा को साधने नहीं जाता। वकालत के पेशे में रुपये की गन्ध अगर आप इतने अधिक परिमाण में नहीं पाते, तो एक बार फेल होते ही, रुक जाते, बार-बार इस तरह जी-तोड़ मेहनत करके कानून की किताबों को कंठस्थ नहीं करते। उपेन भैया भी शायद किसी स्कूल में अध्यापकी पाकर ही इतने दिनों में सन्तुष्ट हो गए होते।’’
उपेन्द्र हंसने लगे, लेकिन भूपति का मुंह लाल हो गया। तिल का जवाब ताड़ से दिया था। यह बात वे सभी समझ गए।
क्रोध दबाकर भूपति ने कहा, ‘‘आपके साथ बहस करना बेकार है।’’
सब लोग रास्ते के किनारे बैठ गए थे। सतीश उठ खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर बोला, ‘‘क्षमा कीजिए भूपति बाबू ! छ: तरह के प्रमाणों और छत्तीस प्रकार के प्रत्यक्षों की आलोचना इतनी धूप में सही नहीं जा सकती। इससे तो अच्छा यही है कि सन्ध्या के बाद आप बाबूजी की बैठक में आइएगा, जहां आधी रात तक तर्क-वितर्क चल सकेंगे। प्रोफेसर नवीन बाबू, सदरआला गोविन्द बाबू, और घर के भट्टाचार्यजी तक ऐसे ही विषयों पर आधी रात तक बहस किया करते हैं। उनके पास वाले कमरे में मैं रहता हूं। तर्क-वितर्क के दांव-पेंच की बातों से मेरे कान अभी तक पूरे पके तो नहीं हैं, लेकिन मुझ पर रंग चढ़ने लगा है। लेकिन असमय में पेड़ों के नीचे गिरकर, सियार-कुत्तों के पेट में जाना मैं नहीं चाहता। इसलिए इस विषय को छोड़कर अगर और कुछ कहना हो तो कहिए, नहीं तो आज्ञा दें, चलूं।’’
सतीश का हाथ जोड़कर बाते करने का तरीका देखकर सभी हंसने लगे। नाराज भूपति दोगुने उत्तेजित हो उठे। क्रोध के आवेश से तर्क का सूत्र खो गया, और ऐसी दशा में जो ही मुंह से निकला। उसी की गर्जना करके वे कह उठे, ‘‘मैं देख रहा हूं आप ईश्वर को भी नहीं मानते।’’
यह बात बहुत ही असम्बद्ध और बच्चों की सी निकल पड़ी। स्वयं भूपति बाबू के भी कानों में यह बात खटके बिना न रह सकी।
भूपति के लाल चेहरे पर एक बार तीक्ष्ण दृष्टि डालकर फिर उपेन्द्र के चेहरे की तरफ देख सतीश खिलखिला कर हंस पड़ा और भूपति की तरफ देखकर वह बोला, ‘‘आपने ठीक ही किया है भूपति बाबू, ‘चोर-चोर’ के खेल में दौड़ने में लाचार होने पर ‘बुढ़िया’ को छू देना ही अच्छा होता है।’’
इस कड़ी बात से आग-बबूला होकर भूपति ज्यों ही उठ खड़े हुए त्यों ही उपेन्द्र ने हाथ पकडकर कहा, ‘‘तुम चुप रहो भूपति, मैं अभी इस मनुष्य को ठीक करता हूं। बुढ़िया को छू देना, ठिकाने जा पहुंचना, ये सब कैसी बातें हैं रे सतीश ! वास्तव में तेरा जैसा संशयी स्वभाव है, इससे सन्देह हो ही सकता है कि तू ईश्वर तक को भी नहीं जानता।’’
सतीश ने आश्चर्य प्रकट कर कहा, ‘‘हाय रे मेरा भाग्य ! मैं ईश्वर को नहीं मानता। खूब मानता हूं। थियेटर का खेल समाप्त होने के बाद आधी रात को कब्रिस्तान के पास से लौटता हूं। कोई भी आदमी नहीं रहता, डर के मारे छाती का खून बर्फ बन जाता है। हंस रहे हो उपेन भैया, भूत-प्रेत मानता हूं, और ईश्वर को मैं नहीं मानता ?’’
उसकी बात सुनकर कुद्ध भूपति भी हंसने लगे। बोले, ‘‘सतीश बाबू, भूत का भय करने से ही ईश्वर को स्वीकार करना होता है ये दोनों आतें क्या आपके विचार से एक ही है ?’’
सतीश ने कहा, ‘‘हाँ, एक ही हैं। आसपास रख देने से पहचानने का उपाय नहीं है। केवल मेरे लिए ही नहीं, आपके लिए भी यही बात लागू है, उपेन भैया के लिए भी, बल्कि जो लोग शास्त्र लिखते हैं, उनके लिए भी। वह एक ही बात है। नहीं मानते तो अलग बात है, लेकिन मान लेने के बाद जान नहीं बचती है। अभाव में, दु:ख में, विपद में, बहुत तरह से मैंने सोचकर देख लिया है, लेकिन जो अन्धकार पहले था वही अन्धकार अब भी है। छोटा-सा एक निराकार ब्रह्म मानो या हाथ-पांवधारी तैंतीस करोड़ देवताओं को ही स्वीकार करो-कोई युक्ति ही इस में नहीं लगती। सभी एक ही जंजीर में बंधी हुई है। एक को खींचने से सभी आकर उपस्थित हो जाते हैं। स्वर्ग-नरक आ जाएंगे, इहकाल परकाल आ जाएंगे, अमर आत्मा आज जागी, तब कब्रिस्तान के देवताओं को किस चीज से रोकेगे ? कालीघाट के कंगालों की बात लो। चुपके-चुपके तुम किसी एक आदमी को कुछ देकर क्या छुटकारा पा जाओगे ? पलभर में बहुत से कंगले आकर तुमको घेर लेगें ? ईश्वर को मानूं और भूत से डरूं नहीं....?’’
जिस ढंग से उसने बातें कीं उससे सभी ठठाकर हंसने लगे।
झगड़े के जो बादल घिर आये थे, इस सब हंसी की आंधी से न जाने कहां विलीन हो गये।
किसी को होश नहीं आ रहा कि दुपहरिया बहुत पहले बीत चुकी है और इतनी देर हो जाने से घर के भीतर भूख-प्यास से बेचैन नौकरानियां आंगन में चिल्लाहट मचा रही थीं और रसोईघर में रसोइया काम छोड़ देने के दृढ़ संकल्प की बार-बार घोषणा कर रहा था।
उपेन्द्र ने पूछा, ‘‘शुभ कार्य क्या है, जरा मैं भी तो सुनूं।’’
उन लोगों ने बताया कि अभी तक इस बात को वे भी नहीं जान पाये। स्वामीजी ने कहा है, इसी बात को वे सभा में ठीक तरह से समझाकर बतायेंगे और सभा बुलाने की तैयारी और आवश्यकता बहुत अंशों में इसी के लिए है।
उपेन्द्र इस बात पर सहमत हो गये। ऐसी ही थी उनकी आदत। विश्व-विद्यालय की परीक्षाओं को उन्होंने इतनी अच्छी तरह उत्तीर्ण कर लिया था कि छात्रों की मण्डली में उनकी प्रतिष्ठा की कोई सीमा नहीं थी। इसलिए, काम-काज, आपद-विपद, में वे लोग जब कभी आ जाते थे, तब वे उनके निवेदन और अनुरोधों की उपेक्षा, उनके प्रति ममता के कारण नहीं कर सकते थे। विश्वविद्यालय की सरस्वती को पार करके अदालत की लक्ष्मी की सेवा में नियुक्त हो जाने के पश्चात् भी, लड़कों के जिमनास्टिक के अखाड़े से लेकर फुटबॉल, क्रिकेट और डिबेटिंग क्लब तक के ऊंचे-स्थान पर उनको ही बैठना होता था।
लेकिन इन स्थानों पर सिर्फ चुपचाप बैठे रहना ही नहीं था, कुछ बोलना आवश्यक था। एक लड़के की ओर देखकर उन्होंने कहा, ‘‘कुछ बोलना तो अवश्य पड़ेगा। सभापति बनकर सभा के उद्देश्य के सम्बन्ध में एकदम ही अनभिज्ञ रहना तो मुझे अच्छा नहीं लगता, क्या कहते हैं आप लोग ?’’
यह बात ठीक ही थी। लेकिन उनमें से किसी को भी कुछ मालूम नहीं था। बाहर के आंगन में, फलों से लदे एक पुराने उड़हल के पेड़ के नीचे, लड़कों का यह दल जब उपेन्द्र को बीच में बैठाकर दुनिया के सभी सम्भव-असम्भव अच्छे कामों की सूची तैयार करने में व्यस्त हो उठा था, उसी समय दिवाकर के कमरे से एक आदमी सबकी नजरों से बचकर बाहर चला आया। दिवाकर उपेन्द्र का ममेरा भाई है। बचपन में मातृ-पितृहीन होकर मामा के घर रहकर गुजारा कर रहा था। बाहर की एक छोटी-सी कोठरी उसे दे दी गई थी। अवस्था प्राय: उन्नीस की थी। एफ.ए. उत्तीर्ण करके वह बी.ए. में पढ़ रहा था।
इस भगोड़े पर उपेन्द्र की ज्यों ही नजर पड़ी, त्यों ही उन्होंने पुकारकर कहा, ‘‘सतीश, तू भागा कहां जा रहा है ? इधर आ !’’
पकड़ में आ जाने पर सतीश भयभीत-सा पास आकर खड़ा हो गया। उपेन्द्र ने पूछा, ‘‘इतने दिन तुम थे कहाँ ?’’
भय का उपक्रम छोड़ सतीश हंसकर बोला, ‘‘इतने दिन मैं यहां था ही नहीं, उपेन भैया। अपने चाचा के यहां इलाहाबाद गया हुआ था।’’
बात ठीक तरह पूरी भी न हो सकी थी कि एक युवक, जिसकी दाढ़ी-मूंछ सफाचट थीं, और बाल सवारे हुए थे, आंखों को तनिक दबाकर दांत निकालकर बोल उठा, ‘‘मन के दु:ख के कारण ही क्या सतीश !’’
हाईस्कूल की परीक्षा में इस बार भी उसे भेजा नहीं गया, इस बात को सभी जानते थे। इसलिए यह बात ऐसी भद्दी सुनाई पड़ी कि सभी उपस्थित लोगों ने लज्जा से मुंह नीचे झुका लिया। लेकिन सतीश अपना हंसी भरा मुंह लेकर बोला, ‘‘भूपति बाबू, मन रहने से ही मन में दु:ख होता है। पास करने की आशा कहिए या इच्छा ही कहिए, मैंने ठीक तरह होश संभालते ही छोड़ दी थी। केवल बाबूजी ही छोड़ नहीं सके थे। इस कारण मन के दु:ख से किसी को यदि देश छोड़ना पड़े तो उनका ही छोड़ना उचित होता, फिर भी वे अटल रह अपनी वकालत का पेशा चलाते रहे हैं ! लेकिन तुम कुछ भी क्यों न कहो, उपेन भैया, इस बार उनकी आँखें खुल गई हैं।’
सब लोग हंस पड़े।
उपेन्द्र ने पूछा, ‘‘क्या इस बार तूने पढ़ना-लिखना छोड़ दिया ?’’
सतीश ने कहा, ‘‘मैंने उसे कब पकड़ रखा था कि आज छोड़ देता ? मैंने नहीं उपेन भैया, लिखने-पढ़ने के धन्धे ने ही मुझे पकड़ रखा था। इस बार मैं आत्मरक्षा करूंगा। ऐसे देश में जाकर रहूंगा जहां स्कूल ही न हों।’’
उपेन्द्र ने कहा, ‘‘लेकिन कुछ करना तो आवश्यक है, मनुष्य एकदम चुप-चाप रह भी नहीं सकता। यह भी ठीक नहीं है।’’
सतीश बोला. ‘‘नहीं, चुपचाप नहीं बैठूँगा। इलाहाबाद से एक नया उद्देश्य प्राप्त करने आया हूँ। इस बार ठीक तरह प्रयत्न करके देखूंगा कि उनके लिए मैं क्या कर सकता हूं।’’
यह जानकर कि इसका विवरण सुनने के लिए सभी उत्सुक हो रहे हैं, वह लज्जायुक्त हंसी के साथ बोला, ‘‘मेरे गांव में जिस तरह मलेरिया है, उसी तरह हैजा भी है। पांच-सात गांवों में ठीक वक्त पर शायद एक भी डाक्टर नहीं मिलता। मैं उसी स्थान पर जाकर होमियौपैथी चिकित्सा शुरू कर दूंगा। मां अपनी मृत्यु के पहले मुझे कई हजार रुपया दे गई हैं। उन्हीं से अपने गांव के घर पर बैठकखाने में, एक चिकित्सालय खोल दूंगा। हंसो मत, उपेन भैया, तुम देख लेना, इस काम को मैं अवश्य करूँगा। बाबूजी को मैंने राजी कर लिया है। एक महीना बीत जाने के बाद ही मैं कलकत्ता जाकर होमियोपैथी स्कूल में दाखिल हो जाऊंगा।’’
उपेन्द्र ने पूछा, ‘‘एक महीने के बाद ही क्यों ?’’
सतीश ने कहा, ‘‘कुछ काम है। दक्खिन टोले में नवनाट्य समाज को तोड़कर एक अलग दल निकल पड़ा है। हमारे विपिन बाबू उस दल के नायक हैं। तार पर तार भेजकर उन्होंने ही मुझे बुलाया है। मैंने कह दिया है कि उनकी कन्सर्ट पार्टी को ठीक करके ही किसी दूसरे कार्य में जुटूंगा।’’
यह सुनकर सभी ठहाका मारकर हंसने लगे। सतीश भी हंसने लगा। थोड़ी देर में हंसी का वेग जब कुछ शान्त पड़ गया तब सतीश बोला, ‘‘एक बंसी-वादक का अभाव था, इसलिए मैं आज दिवाकर के पास यहां आया था। अगर नाटक की रात को वह मेरा उद्धार कर दे तो और अधिक दौड़-धूप नहीं करनी पड़ेगी।’’
उपेन्द्र ने पूछा, ‘‘वह कहता क्या है ?’’
सतीश ने कहा, ‘‘वह कहेगा ही क्या ? कहता है कि परीक्षा नजदीक है। यह बात मेरे दिमाग में घुसती नहीं उपेन भैया, कि दो साल तक पढ़ने लिखने के बाद दी जाने वाली परीक्षा किस तरह लोगों की एक ही रात की अवहेलना से नष्ट हो जाती है। मैं कहता हूं, जिनकी सचमुच ही नष्ट हो जाती है, उनकी वह नष्ट हो जाए तो उचित ही है। इस तरह पास करने की मर्यादा जिनके लिए हो उनको ही रहे, मेरे लिए तो नहीं है। तुम इस बात से रुष्ट न हो सकोगे उपेन भैया, मैं तुमको जितना जानता हूं ये लोग उसका चौथाई भी नहीं जानते। जिमनास्टिक अखाड़े से लेकर फुटबॉल, क्रिकेट तक बहुत दिन मैंने तुम्हारी शागिर्दी की है, साथ-साथ घूमकर बहुत दिन बहुत तरह से तुम्हारा समय नष्ट होते मैंने देखा है, अनेक परीक्षाओं में भाग लेते भी तुमको देखा है और विधिपूर्वक स्कलॉरशिप के साथ पास करते भी देखा, लेकिन किसी दिन तुमको परीक्षा की दुहाई देते नहीं सुना।’’
इस बात को यहीं समाप्त कर देने के उद्देश्य से उपेन्द्र ने कहा, ‘‘मुझे तो बांसुरी बजाना नहीं आता।’’
सतीश ने कहा, ‘‘लेकिन छोड़ो इस बात को-दुपहरिया की धूप में तुम लोगों की यह बैठक किसलिए ?’’
जाड़े की धूप की तरफ पीठ किये माथे पर चादर लपेटकर सभी बैठे थे। इन लोगों की यह बैठक खूब ही जम गई थी। दिन इतना चढ़ आया है इस ओर किसी ने भी लक्ष्य नहीं किया था। सतीश की बात से समय का ध्यान आते ही सभी एक साथ चौंककर खड़े हो गये। सभा भंग होते भूपति ने पूछा, ‘‘उपेन्द्र बाबू, तो अब कैसे होगा ?’’
उपेन्द्र ने कहा, ‘‘मैंने तो कह दिया है, मुझे कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन तुम लोगों के स्वामीजी का उद्देश्य अगर पहले ही मालूम हो जाता तो बड़ा अच्छा होता। एकदम मूर्ख की तरह कहीं जाने में संकोच लगता है।
भूपति ने कहा, ‘‘लेकिन एक भी बात वे नहीं बताते। बल्कि कहते हैं कि जो विषय जटिल और दुर्बोध्य है, उसको विशद रूप से साफ तौर से समझाकर बताने का अवसर और सुविधा न मिलने तक बिलकुल ही न बताना अच्छा है। अन्यथा इससे अधिकांश में सुफल के बदले कुफल ही मिलता है।’’
चलते-चलते बातचीत हो रही थी। इतनी देर में सभी बाहर आ खड़े हुए।
सतीश ने कहा, ‘‘क्या बात है उपेन भैया ?’’
भूपति बीच में बोल पड़ा, ‘‘सतीश बाबू, आपको भी चन्दे के खाते में दस्तखत करना पड़ेगा। इसका कारण इस समय हम लोग ठीक तौर से बता न सकेंगे। परसों अपराह्न में कॉलिज के हॉल में स्वामीजी खुद ही समझाकर बतायेंगे।’’
सतीश ने कहा, ‘‘तब तो मेरा समझना नहीं होगा भूपति बाबू। परसों हम लोगों का रिहर्सल होगा। मेरे अनुपस्थित रहने से काम न चलेगा।’’
आश्चर्य में पड़कर भूपति ने कहा, ‘‘यह कैसी बात आप कह रहे हैं सतीश बाबू ! थियेटर की मामूली हानि होने के डर से ऐसे महान् कार्य में आप सम्मिलित न होंगे। लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे ?’’
सतीश बोला, ‘‘लोग न सुनने पर भी बहुत सी बातें कहते रहते हैं। दूसरों की बात छोड़िए, अपनी हालत देखिए, कुछ भी जानकारी न रहने पर भी आप लोग सन्देह छोड़ इस अनुष्ठान को जितना महान् कहकर विश्वास कर सके है यदि मैं उतना न कर सकूं तो मुझे आप लोग दोषमत दीजिएगा। बल्कि, जिसको मैं जानता हूँ, जिस काम की भलाई-बुराई को समझता हूं, उसकी उपेक्षा करके, उसको हानि पहुंचाकर एक अनिश्चित महत्व के पीछे-पीछे दौड़ना मुझे अच्छा नहीं मालूम देता।’’
उपस्थित छात्र-मण्डली में आयु और शिक्षा की दृष्टि से भूपति ही सबसे अधिक श्रेष्ठ थे, इसलिए वे ही बातचीत कर रहे थे। सतीश की बात सुनकर उन्होंने हंसकर कहा, ‘‘सतीश बाबू, स्वामीजी की तरह महान् व्यक्ति अच्छी ही बात कहेंगे, उनका उद्देश्य अच्छा ही होगा, पर इस पर विश्वास करना तो मुश्किल नहीं।’’
सतीश ने कहा, ‘‘व्यक्ति विशेष के लिए यह कठिन नहीं है, मैं मानता हूं। यही देखिए न, हाईस्कूल पास कर लेना कोई कठिन काम नहीं है, फिर भी पास करना तो दूर रहा, तीन-चार वर्षों में मैं उसके पास तक भी पहुंच न सका। अच्छा, बताइए तो, स्वामीजी नामक मनुष्य को पहले कभी आपने देखा है, या इनके सम्बन्ध में किसी दिन आपने कुछ सुना है।’’
किसी को भी कुछ मालूम नहीं है, यह बात सभी ने मान ली। सतीश बोला, ‘‘यह देखिए, एक गेरुआ कपड़े के अलावा उनका और कोई सर्टिफिकेट नहीं है, फिर भी आप लोग पागल-से हो उठे हैं, और मैं स्वयं अपने काम को नुकसान पहुंचाकर उनका भाषण सुनना नहीं चाहता, इसके लिए आप नाराज हो रहे हैं।’’
भूपति ने कहा, ‘‘पागल क्या यों ही हो रहे हैं। ये गेरुआ वस्त्रधारी संसार को बहुत कुछ दे गए हैं। जो कुछ भी हो, मैं नाराज नहीं होता, दु:ख अनुभव करता हूं। संसार की सभी वस्तुएं सफाई और गवाही साथ लेकर हाजिर नहीं हो सकतीं, इस कारण अगर उन्हें झूठ समझकर छोड़ देना पड़े, तो बहुत-सी अच्छी चीजों से ही हम लोगों को वंचित रह जाना पड़ेगा। भला, आप ही बताइए, जिस समय आप संगीत में सा-रे-गा-मा साधते थे, उस समय आपको कितने रस का स्वाद मिलता था ? उसकी कितनी अच्छाई-बुराई आपकी समझ में आती थी ?’’
सतीश बोला, ‘‘मैं भी यही बात कह रहा हूं। संगीत का एक आदर्श यदि मेरे सामने न रहता, मीठे रस का स्वाद पीने की आशा यदि मैं न करता, तो उस दशा में इतना कष्ट उठाकर मैं सा-रे-गा-मा को साधने नहीं जाता। वकालत के पेशे में रुपये की गन्ध अगर आप इतने अधिक परिमाण में नहीं पाते, तो एक बार फेल होते ही, रुक जाते, बार-बार इस तरह जी-तोड़ मेहनत करके कानून की किताबों को कंठस्थ नहीं करते। उपेन भैया भी शायद किसी स्कूल में अध्यापकी पाकर ही इतने दिनों में सन्तुष्ट हो गए होते।’’
उपेन्द्र हंसने लगे, लेकिन भूपति का मुंह लाल हो गया। तिल का जवाब ताड़ से दिया था। यह बात वे सभी समझ गए।
क्रोध दबाकर भूपति ने कहा, ‘‘आपके साथ बहस करना बेकार है।’’
सब लोग रास्ते के किनारे बैठ गए थे। सतीश उठ खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर बोला, ‘‘क्षमा कीजिए भूपति बाबू ! छ: तरह के प्रमाणों और छत्तीस प्रकार के प्रत्यक्षों की आलोचना इतनी धूप में सही नहीं जा सकती। इससे तो अच्छा यही है कि सन्ध्या के बाद आप बाबूजी की बैठक में आइएगा, जहां आधी रात तक तर्क-वितर्क चल सकेंगे। प्रोफेसर नवीन बाबू, सदरआला गोविन्द बाबू, और घर के भट्टाचार्यजी तक ऐसे ही विषयों पर आधी रात तक बहस किया करते हैं। उनके पास वाले कमरे में मैं रहता हूं। तर्क-वितर्क के दांव-पेंच की बातों से मेरे कान अभी तक पूरे पके तो नहीं हैं, लेकिन मुझ पर रंग चढ़ने लगा है। लेकिन असमय में पेड़ों के नीचे गिरकर, सियार-कुत्तों के पेट में जाना मैं नहीं चाहता। इसलिए इस विषय को छोड़कर अगर और कुछ कहना हो तो कहिए, नहीं तो आज्ञा दें, चलूं।’’
सतीश का हाथ जोड़कर बाते करने का तरीका देखकर सभी हंसने लगे। नाराज भूपति दोगुने उत्तेजित हो उठे। क्रोध के आवेश से तर्क का सूत्र खो गया, और ऐसी दशा में जो ही मुंह से निकला। उसी की गर्जना करके वे कह उठे, ‘‘मैं देख रहा हूं आप ईश्वर को भी नहीं मानते।’’
यह बात बहुत ही असम्बद्ध और बच्चों की सी निकल पड़ी। स्वयं भूपति बाबू के भी कानों में यह बात खटके बिना न रह सकी।
भूपति के लाल चेहरे पर एक बार तीक्ष्ण दृष्टि डालकर फिर उपेन्द्र के चेहरे की तरफ देख सतीश खिलखिला कर हंस पड़ा और भूपति की तरफ देखकर वह बोला, ‘‘आपने ठीक ही किया है भूपति बाबू, ‘चोर-चोर’ के खेल में दौड़ने में लाचार होने पर ‘बुढ़िया’ को छू देना ही अच्छा होता है।’’
इस कड़ी बात से आग-बबूला होकर भूपति ज्यों ही उठ खड़े हुए त्यों ही उपेन्द्र ने हाथ पकडकर कहा, ‘‘तुम चुप रहो भूपति, मैं अभी इस मनुष्य को ठीक करता हूं। बुढ़िया को छू देना, ठिकाने जा पहुंचना, ये सब कैसी बातें हैं रे सतीश ! वास्तव में तेरा जैसा संशयी स्वभाव है, इससे सन्देह हो ही सकता है कि तू ईश्वर तक को भी नहीं जानता।’’
सतीश ने आश्चर्य प्रकट कर कहा, ‘‘हाय रे मेरा भाग्य ! मैं ईश्वर को नहीं मानता। खूब मानता हूं। थियेटर का खेल समाप्त होने के बाद आधी रात को कब्रिस्तान के पास से लौटता हूं। कोई भी आदमी नहीं रहता, डर के मारे छाती का खून बर्फ बन जाता है। हंस रहे हो उपेन भैया, भूत-प्रेत मानता हूं, और ईश्वर को मैं नहीं मानता ?’’
उसकी बात सुनकर कुद्ध भूपति भी हंसने लगे। बोले, ‘‘सतीश बाबू, भूत का भय करने से ही ईश्वर को स्वीकार करना होता है ये दोनों आतें क्या आपके विचार से एक ही है ?’’
सतीश ने कहा, ‘‘हाँ, एक ही हैं। आसपास रख देने से पहचानने का उपाय नहीं है। केवल मेरे लिए ही नहीं, आपके लिए भी यही बात लागू है, उपेन भैया के लिए भी, बल्कि जो लोग शास्त्र लिखते हैं, उनके लिए भी। वह एक ही बात है। नहीं मानते तो अलग बात है, लेकिन मान लेने के बाद जान नहीं बचती है। अभाव में, दु:ख में, विपद में, बहुत तरह से मैंने सोचकर देख लिया है, लेकिन जो अन्धकार पहले था वही अन्धकार अब भी है। छोटा-सा एक निराकार ब्रह्म मानो या हाथ-पांवधारी तैंतीस करोड़ देवताओं को ही स्वीकार करो-कोई युक्ति ही इस में नहीं लगती। सभी एक ही जंजीर में बंधी हुई है। एक को खींचने से सभी आकर उपस्थित हो जाते हैं। स्वर्ग-नरक आ जाएंगे, इहकाल परकाल आ जाएंगे, अमर आत्मा आज जागी, तब कब्रिस्तान के देवताओं को किस चीज से रोकेगे ? कालीघाट के कंगालों की बात लो। चुपके-चुपके तुम किसी एक आदमी को कुछ देकर क्या छुटकारा पा जाओगे ? पलभर में बहुत से कंगले आकर तुमको घेर लेगें ? ईश्वर को मानूं और भूत से डरूं नहीं....?’’
जिस ढंग से उसने बातें कीं उससे सभी ठठाकर हंसने लगे।
झगड़े के जो बादल घिर आये थे, इस सब हंसी की आंधी से न जाने कहां विलीन हो गये।
किसी को होश नहीं आ रहा कि दुपहरिया बहुत पहले बीत चुकी है और इतनी देर हो जाने से घर के भीतर भूख-प्यास से बेचैन नौकरानियां आंगन में चिल्लाहट मचा रही थीं और रसोईघर में रसोइया काम छोड़ देने के दृढ़ संकल्प की बार-बार घोषणा कर रहा था।
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