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			 कविता संग्रह >> महामानव - रामभक्त मणिकुण्डल महामानव - रामभक्त मणिकुण्डलउमा शंकर गुप्ता
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युगपुरुष श्रीरामभक्त महाराजा मणिकुण्डल जी के जीवन पर खण्ड-काव्य
आत्म-कथ्य
मानव एक सामाजिक प्राणी है। प्राणी से सामाजिक प्राणी बनने का यात्राक्रम विभिन्न चरणों से होकर गुजरा है। रीति नीति, कर्तव्य, व्यवहार, आचरण, आराधन, मान्यतायें, भावना, सम्बन्ध, परम्परायें, घटनायें एवं इनसे प्रेरित होकर सुधार के द्वारा मनुष्य आज की स्थिति में पहुंचा है। आज भी अलग अलग स्थानों पर, अलग अलग समय पर प्रथक प्रथक मान्यतायें या परम्परायें दिखती है। दरअसल यह स्थानिक एवं परिस्थितियों वश आये परिवर्तन हैं। यह परिवर्तन जब अल्पकाल के स्थान पर दीर्घकालीन हो जाते है तो यही स्थायी मान्यता का रूप धर लेते हैं।
रघुकुल की मान्यता रही है कि वे अपने प्राणों का बलिदान करके भी अपने वचन का पालन करते थे। रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्राण जाय पर वचन न जाई" महाराजा दशरथ ने भी अपने प्राणों का उत्सर्ग करके भी अपने वचनों की रक्षा की। अपने सबसे प्रिय पुत्र राम को वनवास भेजने का निर्णय कितना कष्टकारी रहा होगा। इसका अनुमान तो सामान्यजन सहज ही लगा लेगा परन्तु सर्वप्रिय राम के वनगमन से अयोध्या की प्रजा कितना किंकर्तव्यविमूढ़ हो गयी थी, यह ध्यान देने योग्य है। प्रजाजनों में भी धर्मप्रिय, वैश्य समाज की स्थिति तो और अधिक कष्टकर थी। गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है-"भयऊ विकल बड़ वनिक समाजू। बिनु रघुवीर अवध नहि काजू।" अतएव अयोध्या के वैश्य समाज ने वैश्य श्रेष्ठि मणिकौशल के पुत्र बालक मणिकुण्डल के आह्वान पर निर्णय लिया कि यदि हम लोग प्रभु श्री राम को वनवास जाने से न रोक सके तो हम लोग भी उनके साथ वन चलेंगे। एक रात्रि जब प्रभु श्री राम रात्रि में चुपचाप चले गये और प्रातः अयोध्यावासियों ने देखा कि राम, सीता और लक्ष्मण कहीं जा चुके है तो अन्य समाज के अयोध्यावासी दुखी होकर अयोध्या लौट गये। परन्तु अयोध्या के वैश्य समाज को प्रेरणा देते हुये बालक मणिकुण्डल ने कहा कि "जहां राम तहँ अवध है, नहीं अवध बिनु राम। बिना राम वन अवध है, अवध बचा क्या काम।।" इस प्रकार अयोध्यावासी वैश्य अयोध्या नहीं लौटे और अनुमान से चारों दिशाओं में प्रभु श्री राम को ढूंढने निकल पड़े। यही कारण है कि भारत वर्ष के विभिन्न प्रांतों एवं नेपाल आदि में शताब्दियों से अयोध्यावासी वैश्य विविध विविध उपनामों में निवास करते हैं।
						
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