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ऐतिहासिक >> हेमचन्द्र विक्रमादित्य

हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


अपनी बात

ऐतिहासिक उपन्यास लिखना तलवार की धार पर चलना है। उपन्यास इतिहास नहीं बन जाय, यह सावधानी उपन्यासकार को शब्ददर-शब्द बरतनी होती है। अतीत रस में खो जाना तो प्रमाद माना जाएगा और सामंतवाद की चकाचौंध में अटकना कुंठा का परिचायक। यह अवश्य है कि इतिहास सतत गतिशील मानव जीवन के यथार्थ के एक बड़े अंश को प्रस्तुत करता है। इससे आज का जीवन सीधा जुड़ा हुआ है। आज का यथार्थ आने वाले कल की भूमिका होता है। इस भूमिका पर टिककर रचनाकार ऐतिहासिक यथार्थ के सहारे सृजन करता है। ऐतिहासिक यथार्थ को औपन्यासिक रचना के लिए प्रगतिशील जीवनदर्शन की अपेक्षा है क्योंकि हम उपन्यास में जीवन्त मानव और उसकी समस्याओं को समझना चाहते हैं। परन्तु अपने राष्ट्रजीवन को समझने के लिए कोई आग्रह प्रबल न हो, यह भी एक शर्त है।

‘सिद्धियों के खण्डहर' और 'शिप्रा साक्षी है' में मैंने कोशिश की है कि ऐतिहासिक यथार्थ प्रगतिशील राष्ट्रीय दृष्टि से प्रस्तुत हो। समीक्षकों ने तटस्थ होकर इन्हें समुचित माना है। इसीलिए प्रगतिशील सृजनात्मक दृष्टि की तीसरी रचना 'हेमचन्द्र विक्रमादित्य' को पाठकों के सामने रखने का साहस किया है।

'हेमचन्द्र विक्रमादित्य' हिन्दी के ऐतिहासिक उपन्यास साहित्य में एक नया कदम है, नया तेवर है जिसकी एक झलक 'सिद्धियों के खण्डहर' से मिलने लगी थी। युगीन यथार्थ की सम्पूर्णता, सन्तुलित दृष्टि और वर्तमान से जुड़ने का स्वाभाविक प्रयास ऐतिहासिक औपन्यासिक रचना के लिए आवश्यक है। मेरे इस तीसरे उपन्यास में ऐतिहासिक यथार्थ अपनी मार्मिकता के कारण बेधक सत्य के रूप में आकार पर गया है।

'हेमचन्द्र विक्रमादित्य' में १६वीं सदी का पूर्वार्द्ध अपने सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक सन्दर्भ के साथ चिह्नित हुआ है। सामाजिक जीवन में विषमता के स्थान पर समता की आवाज उठने लगी थी। सांस्कृतिक नवोत्थान भक्ति आन्दोलन के रूप में उभर रहा था। कबीर पंथी, सूफी शायर और कृष्णभक्त कवि सामाजिक परिवर्तन की चेतना के साथ नयी उदात्त मनोरचना कर रहे थे, नयी आस्था जगा रहे थे। राजनीति के क्षेत्र में शेरशाह और उनके वंशजों के शासन काल में प्रजा का त्रास कुछ कम हुआ था। परन्तु राजनीतिक उथल-पुथल कम नहीं थी। अफगान कमजोर पड़ रहे थे। मुगलों के पुनराक्रमण की आशंका बढ़ रही थी। इसी परिवेश में सर्वहारा हेमचन्द्र (हेमू) अपने दर्द और द्वन्द्व के साथ भटकता हुआ आगरा पहुंचकर कुछ सोचने लगा था। अवसर की अनुकूलता से एक शरणार्थी के व्यक्तित्व का विकास होने लगा था। एक नयी राजनीति की चर्चा इसी व्यक्तित्व से उभरी थी। उसने हिन्दू, हिन्दी, मुसलमान और अफगानों को जोड़ने की बात की और कोशिश भी की जिससे बहिरागत मुगलों के आक्रमण की आशंका का निवारण हो सके। परिस्थितियों के कारण उसे स्वयं सबको लेकर मुगलों से लड़ना पड़ा, स्वाधीनता एवं स्वतन्त्रता के लिए रक्त देना पड़ा। उसकी असफलता पर ही मुगल राज्य कायम हो सका।

इतिहास का यह सत्य अभी तक उपेक्षित रहा है। अपने सम्पूर्ण द्वन्द्वों और सीमाओं के साथ यह सत्य इस उपन्यास में साकार हुआ है। इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता, सहमति-असहमति पर चर्चा हो सकती है। सुधी समीक्षकों के प्रत्येक शब्द को सुनना-समझना चाहूंगा। लिखना है तो सुनना-समझना भी है।

-शत्रुघ्न प्रसाद

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