ऐतिहासिक >> हेमचन्द्र विक्रमादित्य हेमचन्द्र विक्रमादित्यशत्रुघ्न प्रसाद
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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!
तिरेपन
गांव के बड़े-बूढ़ों ने गजेन्द्रसिंह को समझाया कि ब्याह के बाद उसे अपने गांव जाना चाहिए। अपने घर में बहू का स्वागत-सत्कार हो। कुलदेवता की पूजा हो, धरती से घर बस जाय। अब यह भटकन क्यों ? इस तरह भटकना सम्मान की बात नहीं है। खुदादीन बाजीगर भला मानूष है। वह नहीं रोकेगा, इस तरह भटकने से कभी भी संकट आ सकता है। तुर्कों का बोलबाला है, स्त्री को घर में छिपकर रहना पड़ता है। मुखड़े पर बूंघट डालकर पुरुषों की देख-रेख में आना-जाना होता है। तुर्क औरत तो सात परदों के भीतर रहती है, इस सच्चाई पर हमेशा ध्यान रखना होगा।
गजेन्द्र सर नीचा कर सुन रहा था, दो क्षण सोचकर कहा-'आप सबकी आज्ञा सर आंखों पर है, घर में मां रास्ता देख रही होंगी। मैं गांव जाना चाहता हूं, पर शंका होती है कि गांव वाले कैसा व्यवहार करेंगे।'
'अनजान स्त्री को बहू मानने में लोग आना-कानी कर सकते हैं। कुल-मर्यादा की बात उठ सकती है, पर इस शंका से भटकना ठीक नहीं है, घर जाना चाहिए। उन्हें समझाना चाहिए।' एक अधेड़ ने अपना विचार रखा।
'पुरोहितजी और आप उन्हें समझा सकते हैं, मेरी बात को कौन मानेगा?'
हम तैयार हैं, हम चलेंगे, हम साखी हैं।' यह कहकर उस अधेड़ सज्जन ने खुदादीन और मैना से बातचीत की, वे सहर्ष तैयार हो गये। वे स्वयं चाहते थे कि इन दोनों का घर बस जाय।
सभी गजेन्द्र और चन्दा के साथ गांव की ओर चल पड़े। खुदादीन को खेल-तमाशा नहीं दिखाना था, इस बार तो बेटी को ससुराल चाने की बात थी, उत्साह के साथ यह दल बढ़ता जा रहा था। थोड़ा पहुंविश्राम करते हुए सभी बढ़ते गए।
गजेन्द्र ने चन्दा की ओर देखा, चन्दा मुस्करा उठी, उसका हृदय शंकाओं से मुक्त हो उठा। उसने कल्पना की कि वह गांव के पास पहुंचेगा। उसके मित्र दौड़कर घर पर संवाद देंगे, मां की सारी उदासी दूर हो जायगी, वह पास-पड़ोस को बटोरकर अक्षत और फूलों से स्वागत करेगी, भाभी का गीत गूंज उठेगा। बहू का घर में प्रवेश होगा, घर जगमगा उठेगा। जब गांव के लोग पूछताछ करेंगे तब वह क्या उत्तर देगा !
गजेन्द्र का मुख इस बात पर आकर उदासी में डूबने लगा। चन्दा ने बांसुरी को संभाल लिया था, वह गजेन्द्र के चेहरे के बदलते रंग को देख नहीं सकी। वह तो सोच रही थी, बांसुरी वाला बांसुरी बजायेगा और वह उसी धुन पर थिरक-थिरककर घर को सजायेगी। बांसुरी को छीन कर भोजन करायेगी। कभी-कभी वह बांसुरी बजा लेगी। सासु मां का हृदय प्रसन्नता से भर उठेगा। पर वे कैसी होंगी? प्यार देंगी? कुल परिवार के बारे में पूछने पर वह क्या बता सकेगी ? बताना तो पड़ेगा। बिना कुल गोत्र की मर्यादा के प्रतिष्ठा कहां ? क्या उन्हें विश्वास होगा? खुदादीन की बात मानी जायगी? इस नट की बात को कौन मानेगा? उसने सड़क पर नाचा है। उसने बांसुरी बजाकर बाजीगर-नट के तमाशे को पूरा किया है। बाजीगर के साथ रहती है, सभी तो यही जानते हैं। सड़क-चौराहे से घर के आंगन में पहुंचना कठिन है, यही भाग्य चक्र है !! ये क्या हैं ? गिराया है तो उठायेंगे ? बांसुरी वाले ने तो उठाया है। उसने गिरे हुए पर कृपा नहीं की है। उसने तो हृदय दिया है, उसने मन से प्यार किया है। छोटे कुल का सैनिक मानुष बहुत ऊंचा है। अब गांव-घर के लोगों को प्यार देना है। ये प्रेमकथा सुनते हैं, ये प्रमगीत गाते हैं, पर प्रेम करने वालों पर क्रोध करते हैं। ये दया भी नहीं करते। वह तो मुसलमान के साथ रहती रही है। लोग क्या सोचेंगे ? उसका हृदय सिहर उठा।
गजेन्द्र ने देखा कि गांव निकट आ रहा है। उसे रोमांच हो उठा, खुदादीन का दल आगे-आगे था। पुरोहित जी थे। गांव वाले थे, पीछेपीछे चन्दा चल रही थी। रास्ते में लोग कौतूहल से देखते, कुछ पूछते और चुप रह जाते। वे बहू को देखने के लिए ठहर जाते, आंखों में प्रशंसा का भाव तर जाता। पर इस बारात को देख कर उन्हें हंसी आती।
गांव में संवाद फैल गया। लोग इकट्ठे होने लगे, किशोरों और नौजवानों में जिज्ञासा थी। बड़े-बूढ़े सन्देह की दृष्टि से देखने लगे। गजेन्द्र का हृदय धड़क उठा, उसके पैर अपने घर के पास पहुंच रहे थे। घर के पास स्त्रियों की भीड़ आ गयी है। अब क्या होगा ? स्वागतसत्कार या दुत्कार...? मां हैं ! भाभी हैं ! गीत नहीं गूंज रहा है !
पुरोहितजी और गांव वाले अधेड़ के साथ गजेन्द्र आगे बढ़ा। मैना ने चन्दा को साथ कर लिया। वह गजेन्द्र के साथ घूघट में धीरे-धीरे बढ़ने लगी। द्वार पर सभी आ गए, पड़ोस के चाचा ने कहा--'गजेन्द्र ! रुक जाओ। यह स्त्री कौन है ?'
'चाचा जी बहू है, पुरोहितजी साथ में हैं। वे साक्षी हैं।' उत्तर देता गजेन्द्र मां और भाभी को ढूंढ़ने लगा। वे द्वार पर आ गयी थीं, पर शीश नवा कर खड़ी थीं। कभी-कभी देख लेती थीं, पर स्वागत करने का साहस नहीं कर पा रही थीं। पड़ोसी चाचा का तीखा स्वर सुनायी पड़ा- 'तुम बाजीगर के पीछे-पीछे चले गए थे। इस स्त्री के लिए घर-द्वार को छोड़ कर गए थे। यह बाजीगर की बेटी है न ! कुलवधू बनेगी ! ब्याह कैसे हो गया ?'
'मैंने गांव के लोगों की सहमति से यह विवाह कराया है। साक्षी के रूप में ये आये हैं।' पुरोहित ने समझाने की चेष्टा की।
'मेरे गांव ने बेटी का ब्याह किया। हम बेटी को विदा करने आए हैं, आपको विश्वास दिलाने आये हैं।' अधेड़ ग्रामीण ने बताया।
‘मान लिया कि आपने पुरोहित को भरपूर दक्षिणा देकर विवाह करा दिया। बड़ा अच्छा किया, पर बाजीगर-नट की बेटी इस घर की बहू कैसे बनेगी ?'
'यह नट की बेटी नहीं है। मेरी बेटी नहीं है, यह तो मारकाट के समय उजाड़ गांव में रोती हुई मिल गयी थी। मैंने बेटी समझ कर पाला है, यह अच्छे कुल की है।' खुदादीन ने भ्रम को दूर करने की कोशिश की।
मैना ने चाहा कि वह स्त्रियों के पास जाकर समझा दे। पर सब कुछ सहमा-सहमा था, दूरी बनी हुई थी। वह दो कदम बढ़ी, किसी ने मिलने का उत्साह नहीं दिखाया। वह रुक गयी। पड़ोसी चाचा बोल उठे-'मतलब यह है कि किसी को कुलगोत्र का पता नहीं है। इतना तो "पता है कि वह बाजीगर-नट के साथ रहती रही है। गजेन्द्र भी भ्रष्ट हो चुका है, गांव नहीं अपनाएगा।'
'मेरे बेटे पर आप लोग बैठ कर विचार करें। इस दुखिया मां पर दया करें।' गजेन्द्र की मां सिसकती हुई बोल पड़ी।
गजेन्द्र और चन्दा दोनों के अन्तर में थोड़ी आशा जगी। वे दोनों कभी मां को देखते और कभी पड़ोसी चाचा को। पड़ोसी चाचा ने 'घोषणा कर दी-'गजेन्द्र की मां चाहें तो इस नटिन को बहू बना लें। इसके बाद वे जाने और उनका काम !'
यह सुनकर मां की आंखें पथरा-सी गयीं। भाभी धरती की ओर देखती रह गयी, चन्दा ने चाहा कि वह कुछ बोले। वह अपने कुलगोत्र को बता दे। पर वह नहीं बताएगी। उसे कृपा नहीं चाहिए। वह बांसुरीवाले प्रेम को चाहती है। उस प्रेम की मान्यता चाहती है, उसने अपने से छोटे कुल को अपनाया है - प्रेम के कारण, वह भी छोटा समझ कर अपनावे। वह गिड़गिड़ाएगी नहीं, वह बांसुरीवाले के साथ भटक कर जी लेगी। मां में प्यार उमड़ आया है, इतना बहुत है। मां को एक बार प्रणाम कर लौट भी सकती है।
'मैं पुरोहित हूं, मेरी बात को आप नहीं मान रहे हैं। यह अचरज की बात है, आप विवाहिता कन्या को ठुकरा रहे हैं। यह अनुचित है।' पुरोहित ने एक और प्रयत्न किया।
'ठीक है, विवाहिता है। गांव में ठहर सकती है, पर हम तो कुलगोत्र को समझ कर ही अपनायेंगे। गजराज सिंह आ जाय तो विचार हो सकता है।'
'गांव के बाहर ठहर कर प्रतीक्षा करनी होगी?'
'हां--यही एक रास्ता है।'
'मैं बेटी को अपने गांव ले जाऊंगा। आप पता लगाते रहिये, इच्छा हो तो संवाद भेज दें।' अधेड़ ग्रामीण ने स्वाभिमान के साथ कहा।
'यही ठीक है, हम अपना निर्णय भेज देंगे।' चाचा ने उत्तर दिया।
मां और भाभी सिसकती हुई आगे बढ़ीं। पुरोहित के संकेत पर गजेन्द्र और चन्दा दोनों चरणों पर झुक गए। आंसुओं से आशीष मिली, चन्दा का हृदय जुड़ा गया। मां और भाभी दोनों ने चन्दा को उठाया, दोनों देखती रह गयीं। यह देवी का रूप है, किसी राजकुमारी का रूप है। नटिनी नहीं हो सकती, कुलकन्या है। पर वे क्या करें ? कैसे घर में ले जायें ? गांव ने नहीं माना है, सबसे अलगाव...गांव से बाहर...जाति से बाहर यह कैसे सहा जाएगा? कैसे जिया जाएगा? गजराज कब आएगा?
अधेड़ ग्रामीण ने ऊंचे स्वर में कहा-'बेटी चलो ! मेरे गांव चलो, इन्हें समझने का समय दो।'
मां और भाभी चन्दा को छोड़ नहीं पा रही थीं। घर में ले जा नहीं सकती थीं, गांव की स्त्रियां दूर रह कर कुछ बोल रही थीं। चाचा ने, जो गांव के प्रधान भी थे, आदेश दिया कि वे अब जा सकते हैं। गजराज के आने पर विचार करेंगे।
चन्दा को पीछे मुड़ना पड़ा, गजेन्द्र भीतर-ही-भीतर उबल रहा था। मां और भाभी सिसक रही थीं, खुदादीन को इनके इस व्यवहार पर तरस आ रहा था। इसी व्यवहार से कहीं-कहीं लोग धर्म बदलने को मजबूर होते हैं।
सब मन मार कर लौटने लगे, चाचा गांव के प्रधान ने सबको भोजन और विश्राम के लिए कहा। सबने ठुकरा दिया, भाभी घर से दही-शक्कर लेकर आ गयी, चन्दा और गजेन्द्र को दही-शक्कर खिलाया, और प्यार से आशीष दी।
गजेन्द्र के साथी दूर-दूर खड़े थे। चाह कर भी निकट नहीं आ पा रहे थे। गांव के बड़े-बुजुर्गों का भय था।
सभी लौट पड़े, गजेन्द्र बार-बार मां और भाभी को देख रहा था। अपने मित्रों पर दृष्टि डाल रहा था, एक करुण वातावरण में सनी लौट चले।
गजेन्द्र के मित्र सोचने लगे कि यह ठीक नहीं हुआ। इतना कठोर नियम-कानून ! पर कोई उपाय नहीं है, उनमें से एक चुपके से गजेन्द्र के पास पहुंच गया। गांव को सीमा तक पहुंचाने साथ चलता रहा। गजेन्द्र के मन को थोड़ा ढांढ़स मिला, पर गांव दूर होता गया।
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