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हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


सैंतालीस



'मैना ! देखो, गांव के लोगों ने चन्दा के ब्याह के लिए आटा, घी और शक्कर दिया है, संभालो।' खुदादीन ने पास के गांव से लौटते हुए कहा।

मैना बड़े उत्साह के साथ खेमे से बाहर आयी, देखा कि गठरियों में आटा और शक्कर है, मिट्टी के बर्तन में घी है। उसका मन गद्गद हो उठा। वह सब सामान उठाकर रखने लगी, अचानक उसे कुछ ध्यान में आया। वह बोल उठी-'आप कपड़ा खरीदने गए थे। कपड़े का नाम भी नहीं है।'

'कपड़े भी हैं, पहले आटा की गठरी और तब कपड़े। रंग-बिरंगे कपड़े हैं।'

'मुझे तो लगा कि आप भूल गये, बाजीगर की बुद्धि का क्या ठिकाना !'

'बाजीगर की बुद्धि पर आज तक विश्वास नहीं हुआ, मैना ?'

'बाजीगरी से किसी को मूर्ख बनाना बुद्धि का काम है तब तो यह संसार बाजीगरी से ही चलेगा।'

'अपना तो काम चल रहा है, मैना ! हम दोनों चन्दा के उजड़े संसार को बसाने जा रहे हैं।'

'हां, हमने उसे प्यार देकर जीना सिखा दिया, यह पिछले जन्म का पुण्य है कि आपने एक कुलीन कन्या को बरबादी से बचा लिया। प्यार के मंडवे तले ब्याह का गीत गूंजेगा, बड़ा पुण्य होगा।'
'बरबादी से तो तुमने बचाया है, मैना रानी! तुम बहुत अच्छी हो। शाही हुक्म गरजता रह गया, कमाल हो गया।'
'यही धरम है, धरम-करम को कैसे भूला जाय ! इस मारकाट, खन-खराबी के जमाने में किसी दुखी को शरण देना धरम है और हां, गांव के पंडितजी को आने को कहा है न?'
'जरूर कहा है, पहले तो वे तैयार नहीं हुए। खुदादीन के खेमे में आकर वे क्या करते ? उन्हें समझाया गया कि वर-वधू दोनों क्षत्री हैं, तब वे तैयार हो गये।'

'आपकी बुद्धि को मान गयी, अब शिकायत नहीं है।'

'तो अब खिलाओ-पिलाओ, बहुत दौड़ चुका हूं। दोपहर का सूरज सर पर आ गया है।' यह कहकर खुदादीन ने गमछी में बंधे कपड़े को दे दिया और हाथ-पैर धोने लगा।

उधर पोखर के पास मंडवा बनाया जा रहा था। गजेन्द्र दूर बैठा बांसुरी बजा रहा था। चन्दा खुदादीन काका को खाना खिलाने आ गयी। वह कभी काका को देखती, कभी मैना काकी को, कभी पोखर के किनारे देखने लगती, बांसुरी बज रही थी। वह सोच रही थी इसी बांसुरी ने उसके जीवन में अनुराग जगाया है। इसी बांसुरी के गीत पर उसकी हथेलियों में हल्दी लगेगी और फिर ब्याह। इस पोखर के किनारे जीवन का चक्र कहां से कहां पहुंचा देता है। यदि काका-काकी का स्नेह नहीं मिलता तो क्या वह सड़कों पर नाचती-फिरती, कभी नहीं ! यदि यह बांसुरी वाला नहीं आता तो क्या वह भटकती रहती ? नहीं। क्या कोई तुर्क सरदार या सिपाही उसे छू लेते ? वह ज्वाला बनकर जला देती। पर वह कुलवंश-गोत्र-नाम से दूर रहकर जी रही है।

थोड़ी प्रतिष्ठा तो बची है, ब्याह के बाद बांसुरी वाले के सामने बात खुलेगी, उसे कैसा लगेगा? वह एक साधारण सैनिक परिवार का है और वह...। अब यह नहीं सोचना है। दोनों में किसी को कुछ नहीं सोचना है। समतल पर यह मिलना होता है। मन प्राण एक हों। कोई गांठ न रहे। बांसुरी ने गांठ नहीं आने दी है। अब एक नयी गांठ में एक साथ बंध जाना है। यह गांठ साथ-साथ जीने की है।

चन्दा ने काका को भोजन करा दिया। हाथ धो लिया। बांसुरी का स्वर चरम बिन्दु पर पहुंच रहा था, चन्दा ने आंख मूंदकर हाथ जोड़ दिया। सूर्य की लाली पश्चिम में फैल रही थी। गांव के पुरुष, स्त्री और बच्चे आ पहुंचे। पंडितजी भी साथ आये, पूजा का सामान लेते आये। मंडवे तले ब्याह का विधान होने लगा। अब बांसुरी अन्तर में बजने लगी। बाहर ढोलक का स्वर वातावरण को मंगलमय बनाने लगा। चंदा नयी साड़ी में आयी, गजेन्द्र पग्गड़ बांधे तलवार लिये और बांसुरी संभाले आया। पंडितजी ने सूखी लकड़ियों को जोड़कर आग जला दी। मंत्रपाठ करने लगे, मैना का हृदय भर आया। गांव के लोग मंडवे के पास बैठकर श्रद्धा-स्नेह से ब्याह देखने लगे।

सहसा दूर से धूल उड़ती नजर आयी, कोलाहल सुनायी पड़ने लगा। एक ग्रामीण ने आकर सूचना दी कि अफगान बादशाह की फौज ग्वालियर से जीत कर लौट रही है।

यह सुनकर गांव के लोग घबराकर एक-दूसरे को देखने लगे और फिर सभी लाठियों-भालों को लेकर खड़े हो गये। विवाह-विधान होता रहा। ग्रामीण आपस में बातचीत करने लगे कि उन्मत्त सिपाहियों पर विश्वास नहीं है, दूल्हा-दुल्हिन को छिपाना चाहिए, खुदादीन भी यही सोच रहा था, कोलाहल निकट आ रहा था। पंडितजी ने स्थिति को भांप लिया। उन्होंने अग्निदेवता के सात फेरा लगवाकर विधान को पूरा किया। ढोलक बजना बन्द हो गया। सभी गांव में छिपाने के लिए उतावले हो उठे, खेमे गिरा दिये गये। मैना के इशारे पर गजेन्द्र चन्दा के साथ गांव की ओर बढ़ा। गांव के लोग अपने शस्त्रों की छाया में उन्हें गांव में लाये। वे दोनों एक घर में छिपा दिये गये। सारे द्वार बन्द हो गये, खिड़कियां भी खुली नहीं रह सकीं।

गजेन्द्र एक अंधेरी कोठरी में चन्दा के साथ बैठा हुआ था। चन्दा चूंघट में सर झुकाकर बैठी थी, एक नन्हा-सा दीया जलने लगा। कोलाहल निकट आ रहा था। गजेन्द्र का हृदय धड़क उठा। वह तो शस्त्रधारी होकर छिपा हुआ है। शाही फौज के कारण गांव को छिप जाना पड़ता है, यह परिपाटी हो गयी है। भैया भी शाही फौज में हैं। वे नदी तट के प्रहरी हैं, इस फौज में नहीं होंगे। सुनने में आया है कि हेमचंद्र ने हिन्दुओं को फौज में शामिल किया है। हो सकता है कि उसके गांव के कुछ लोग हों। उसने चन्दा के लिए तलवार की जगह बांसुरी को अपनाया है। इसी बांसुरी के कारण चन्दा मिली, आज विवाह हो गया। पर आतंक में बांसुरी चुप है। मन में तो बज रही है, उसने मन के अनुराग को सबसे ऊपर माना, इसके लिए सब छोड़ दिया। उसने कुल-परिवार की भी चिन्ता नहीं की। शायद चन्दा भी अच्छे कुल की है। नहीं रहती तो भी वह अपनाता, प्रेम की भावना के सामने जाति-कुल नहीं।

'आप क्या सोच रहे हैं ?' चन्दा बोल उठी।
'मधुर रात के तीसरे पहर में कोयल कूक उठी है और मैं कोइली के पास आ गया हूं।' गजेन्द्र ने उत्तर दिया।
‘पर कोइली तो बांसुरी की टेर पर फुदकती हुई आ गई है।'
'दोनों एक-दूसरे के मन के संगीत पर सुध-बुध खो रहे हैं।'
'परन्तु शाही सेना के कोलाहल ने।'
'बांसुरी के संगीत पर राधाजी का बेसुध होना सत्य है। शाही सेना का कोलाहल इस बेसुधी को बार-बार आहत कर देता है। आहत की पीड़ा...ओह !' चन्दा के स्वर में व्यथा उभर आई। गजेन्द्र विकल हो उठा, उसने उस विकलता में खिड़की खोल दी।

गांव से थोड़ी दूर सड़क से होकर फौज लौट रही थी। कुछ शब्द उड़ते हुए आ रहे थे। बादशाह जिन्दाबाद ! हेमचन्द्र जिदाबाद ! सिपहसालार इब्राहिम खां जिन्दाबाद !

वह सोचने लगा कि शायद इस फौज में भैया हों। वे नहीं होंगे, तो भी उसे छिपना है। कहीं यह फौज उपद्रव कर दे तो...। पर यह फौज बिना उपद्रव किए लौट रही है, और पहली बार एक गैर-मुस्लिम का जयघोष हो रहा है। यह तो विचित्रता है !

उधर ग्वालियर-आगरा सड़क से फौज जा रही थी। हेमचन्द्र ने बादशाह आदिलशाह से सलाह कर सिपहसालार इब्राहिम खां से अर्ज किया था जिससे फौज अगल-बगल गांवों को नुकसान न पहुंचाए। इसलिए फौज जिन्दाबाद के नारे लगाती लौट रही थी, बादशाह जीत पर खुश थे। उन्हें हेमचन्द्र की वफादारी और बहादुरी पर एतबार हो गया था, लेकिन बादशाह के बहनोई सिपहसालार इब्राहिम को चिढ़ हो रही थी। वह गुस्से में था। सरवर अली की सलाह से उसने हेमचन्द्र को जंग में आगे बढ़ने दिया। वह बादशाह के साथ रहा। ताज खां के दबाव बढ़ने पर बादशाह ने हेमचन्द्र की राय मान ली। उसी के मुताबिक लड़ाई लड़ी गई। मालवा से दौलत खां नहीं आ सका। ताज खां हार कर भाग गया, हेमचन्द्र का नाम आकाश तक उछलने लगा।

ताज खां को आगे बढ़कर पकड़ने की बात आई। हेमचन्द्र ने बहत जोर दिया। उसने बात नहीं मानी, ताज खां को छोड़ दिया गया। उसकी इज्जत रह गई, लेकिन फिर उसकी शान बढ़ गई। हिन्दू और हिन्दी मुसलमानों ने उसके इशारे पर अपनी बहादुरी दिखाई है। बादशाह बहुत खुश हैं, और वह नाखुश...वह क्या करे? दिल पर पत्थर रखकर लौट रहा है। वह हेमचन्द्र को नुकसान नहीं पहुंचा सका। सरवर की सलाह सही थी, लेकिन वह कामयाब नहीं हो सका। कामयाबी का सेहरा तो हेमचन्द्र के सर पर ही रहा !

हेमचन्द्र सोच रहा था यदि पूरी ईमानदारी से अफगान, हिन्दी मुसलमान और हिन्दू एकजुट होकर खड़े हो जाएं तो मुगल कुछ नहीं कर सकेंगे। इस लड़ाई में तो सबने मिलकर युद्ध किया है, उसे भी पहली बार युद्ध करने का अवसर मिला। सफलता भी मिल गई, लेकिन यह सिपहसालार इब्राहिम खां ऐसा क्यों कर रहा है ? यह तो बादशाह का नजदीकी रिश्तेदार है। एकदम अपना है, फिर ऐसा क्यों ? उसका विरोध क्यों ? सरवर की सलाह से चल रहा है। सावधान और सतर्क रहना पड़ेगा !

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