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साक्षात्कार - संभावना और यथार्थ

पंकज मिश्र अटल

प्रकाशक : बोधि प्रकाशऩ प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :319
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 16032
आईएसबीएन :9789389831719

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पूर्वोत्तर के हिन्दी रचनाधर्मियों से साक्षात्कार

पूर्वोत्तर में हिन्दी का यथार्थ और संभावनाएं

 

बात कहाँ से शुरू करूँ, क्योंकि अपने बारे में या अपने लेखन के सम्बन्ध में कुछ लिखना या कुछ भी कहना समीचीन नहीं लगता है, फिर भी बातचीत तो करनी ही है। मैं पहले भी पूर्वोत्तर में रह चुका हूँ और आजकल भी पूर्वोत्तर में ही रह रहा हूँ, पूर्वोत्तर को काफी नज़दीक से देखा है, महसूस किया है और जिया भी है। एक अजीब सी ताज़गी भी महसूस की है। ज़िन्दगी को लोग कैसे जीते हैं, आनन्दानुभूति क्या होती है, खुद में उस आनन्द को कैसे खोजा जाता है, आस-पास बिखरे हुए सुख को कैसे समेटा जाता है, मन की उन्मुक्तता क्या होती है, ये सब मैंने अपने पूर्वोत्तर प्रवास के दौरान पूर्व में महसूस किया था और वर्तमान में भी इसकी सुखानुभूति कर रहा हूँ।

सच तो यह है कि पूर्वोत्तर ने मुझे छू लिया क्योंकि कहीं न कहीं कुछ ऐसा अवश्य था जो कि पूर्वोत्तर को शेष भारत से भिन्न होने का आभास कराता है और मुझे निरन्तर अपनी ओर खींच रहा है। मैं जितना पूर्वोत्तर में झाँकता हूँ पूर्वोत्तर मुझे उतना ही रहस्यमय प्रतीत होता है। अप्रतिम प्रकृतिक सौन्दर्य, जीवन में सादगी, आधुनिकता  और परम्पराओं का समन्वयन, खानपान और जीवन शैली में वैविध्य, लोक साहित्य, लोक नृत्यों और लोकगीतों में अनूठापन कुल मिलाकर इतनी विविधताओं के साथ पूर्वोत्तर को समझ पाना नामुमकिन सा लगता था परन्तु मन यह कहता था कि इसे समझना भी है और मन की गहराइयों में उतारना भी है, इसलिए पूर्वोत्तर को निकट से देखना ही नहीं इसको भली-भाँति जानना भी है। कभी-कभी मुझे ये वो गैलरी लगती है जिसमें घुसने के बाद यही मन में आता है कि धरती का तमाम सौन्दर्य यहीं आकर ठहर सा गया है।

मंगोलाइड जनजातियाँ, उनकी बोलियाँ, जीवन शैलियाँ, उनके प्रवजन का अद्भुत रोमांचक इतिहास, रंगारंग पर्व, पहाड़ी और मैदानी क्षेत्रों में बहती हवाओं में  मिलकर बहती उनके उन्मुक्त जीवन की खशबू जहाँ न कोई प्रतिबन्ध हैं न ही बिखराव पूर्ण सम्बन्ध हैं, यदि कुछ है तो आत्मीयता, समर्पण, प्रेम और निश्छल विश्वास ही है ये सब कुछ मुझे निरन्तर प्रेरित करता रहा कि मैं शब्दों से कुछ उकेरूं, कुछ लिखू, कुछ अभिव्यक्त करूँ।

अनेकानेक बार मन में आया कि शेष भरत के लोग इस पूर्वोत्तर को क्यों नहीं जानना चाहते हैं, शायद या तो अनभिज्ञ हैं या फिर जानने के प्रयास ही नहीं किए गए या फिर इस दिशा में किसी ने कभी सोचा ही नहीं, जबकि कभी इस बूढ़े लुईत (ब्रह्मपुत्र) के पास से गुजरता हूँ तो इसका अपनापन मन की गहराइयों में उतर जाता है, बहुत कुछ सोचने को विवश कर देता है। मैं इतिहास के पन्ने नहीं पलट रहा हूँ परन्तु उन पृष्ठों पर उंगलियाँ अवश्य फिरा रहा हूँ क्योंकि इनमें छिपी कथाएं अपनी ओर खींच रही हैं। कृष्ण, रूकमणि, भीम, हिडिम्वा, नागकन्या उलूपी या फिर उषा, अनिरूद्ध आदि के प्रसंग, रोइंग, भीष्मक नगर, अग्निगढ़, लेखावाली, मालनीथान, सिलापथार जैसे ऐतिहासिक संदर्भो से जुड़े स्थान, साथ-साथ श्रीमंत शंकरदेव और माधवदेव के संदेश और आहोम राजा शुगाफा के महाराजा हर्ष के साथ आत्मीय सम्बन्धों के प्रसंग, कहीं न कहीं पूर्वोत्तर और उत्तर भारत के मध्य अतीत के सम्बन्धों की महागाथा लिखते प्रतीत होते हैं और इतिहास में साहित्य या फिर साहित्य में इतिहास की कल्पना को साकार करते हुए एक नए पूर्वोत्तर की ओर मुड़ने और उससे जुड़ने को प्रेरित भी करते हैं।

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