कविता संग्रह >> बोलना सख्त मना है बोलना सख्त मना हैपंकज मिश्र अटल
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नवगीत संग्रह
बदलते परिवेश की चिंताओं से जन्मे हैं मेरे नवगीत
आज जैसा कि सभी महसूस कर रहे हैं कि जहां एक तरफ जिंदगी की दुरूहताएं बढ़ रही हैं, वहीं जीवन बोझिल भी होता जा रहा है। हर ओर भागमभाग, आपाधापी, ऊहापोह और फैलता संत्रास अजीब-सी घुटन भरी स्थिति सी उत्पन्न कर रहा है। विसंगतियों और विकृतियों के कारण मानव-मन से आनंद तिरोहित होता जा रहा है, ऐसे में मोहभंग की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। यही नहीं बढ़ते भौतिकवाद, प्राग्मैटिक कल्चर और बाजारवाद ने भी कहीं न कहीं लोगों की मानसिकताओं को बदल कर रख दिया है। अपनी एक कविता में मैंने जहां एक ओर रिश्तों को डिस्पोजिविल क्राकरी की भांति बताया है वहीं परिवेशगत समस्त समस्याओं को प्रतीकों और बिग्धों के माध्यम से उभारने की कोशिश भी की है।
सच तो यह है कि हम सभी इतने अधिक आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं कि हमारी स्वार्थपरता के आगे सभी रिश्ते, मूल्य और मान्यताएं भी अपना महत्व खोते जा रहे हैं। आज व्यक्ति, व्यक्ति से दूर होता जा रहा है, परिवार बिखरते जा रहे हैं, सोच भी परिवर्तित हो चुका है, मानव पूर्णतया यंत्रवत हो चुका है, कुल मिलाकर मन और मनोविज्ञान में आए इन परिवर्तनों को रेखांकित करते हुए परिवेशगत चिंताओं को सटीक समाधान प्रदान करने हेतु साहित्यकारों को अपने दायित्वों को बखूबी निभाना होगा, अन्यथा साहित्यकार और उसके द्वारा रचित साहित्य दोनों को ही हाशिए पर आ जाना पड़ेगा।
जहां तक गीत की बात है तो यह कहना अत्युक्ति न होगा कि नवगीत के आविर्भाव से पूर्व जो गीत लिखे जा रहे थे, उनके एक निश्चित दायरे में सीमित रह जाने से वे जहां अतिशय कल्पनाशीलता, भावुकता और व्यष्टिवादिता से दूर नहीं हो सके, वहीं संपूर्ण परिवेश की समस्याओं और विद्रूपताओं को भी अपने कथ्य में या भावों में समाहित नहीं कर सके । हाँ धीमे-धीमे इन तथाकथित गीतों की प्रतिक्रिया में जहां तक गीत की बात है तो यह कहना अत्युक्ति न होगा कि नवगीत के आविर्भाव से पूर्व जो गीत लिखे जा रहे थे, उनके एक निश्चित दायरे में सीमित रह जाने से वे जहां अतिशय कल्पनाशीलता, भावुकता और व्यष्टिवादिता से दूर नहीं हो सके, वहीं संपूर्ण परिवेश की समस्याओं और विद्रूपताओं को भी अपने कथ्य में या भावों में समाहित नहीं कर सके । हाँ धीमे-धीमे इन तथाकथित गीतों की प्रतिक्रिया में नए सोच और शिल्प के रूप में नवगीत की आहट सुनाई दी। यही नहीं वर्तमान शताब्दी के चतुर्थ दशक से ही नवगीत को परिवेश मिलना प्रारम्भ हो गया और वह अपना आकार भी लेने लगा। निराला के गीतों में नवगीत की गंध आने लगी थी।
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- गीत-क्रम