नारी विमर्श >> सुंदरी सुंदरीसोनी केदार
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नारी की करुणा भी असीमित है और अभिशाप भी। मातृत्व दीनता के चरम को छू सकता है अपने कोख-जाये को कूड़े के ढेर या कि गटर में फेंककर वहीं महानता के शिखर को स्पर्श कर सकता है
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘‘कभी-कभी मुझे लगता है कि मेरा जीवन उस कैनवास के समान
है, जिसपर कोई चटक रंग बिखर गए थे कभी; पर फिर भाग्य ने उनपर काला रंग पोत दिया और वे रंग सदा के लिए दबकर रह गए।’’ रंग मिलाते
हुए वह बोली।
‘‘ऐसा क्यों सोचती हो ? हो सकता है कि उस काले रंग पर फिर चटक रंगों के छींटे पड़ जाए। दु:ख के बाद सुख अधिक अच्छा लगता है।’’ मैंने कहा।
‘‘पर सबके जीवन में ऐसा नहीं होता। खासतौर से तो मेरे जीवन में ऐसा कभी नहीं हो सकता।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘तुम ही बताओ, क्या हुआ है अब तक मेरे जीवन में ऐसा, जो मुझे भाग्यशाली साबित करें ? पैदा होते ही फेंक दिया गया। प्रेम किया तो वह और फिर बीच में आ गई, जिसने ठोकरें खाने के लिए संसार में मुझे छोड़ दिया था। शादी की तो पति शराबी निकला। अब और क्या होना बाकी है ?’’
‘‘ऐसा क्यों सोचती हो ? हो सकता है कि उस काले रंग पर फिर चटक रंगों के छींटे पड़ जाए। दु:ख के बाद सुख अधिक अच्छा लगता है।’’ मैंने कहा।
‘‘पर सबके जीवन में ऐसा नहीं होता। खासतौर से तो मेरे जीवन में ऐसा कभी नहीं हो सकता।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘तुम ही बताओ, क्या हुआ है अब तक मेरे जीवन में ऐसा, जो मुझे भाग्यशाली साबित करें ? पैदा होते ही फेंक दिया गया। प्रेम किया तो वह और फिर बीच में आ गई, जिसने ठोकरें खाने के लिए संसार में मुझे छोड़ दिया था। शादी की तो पति शराबी निकला। अब और क्या होना बाकी है ?’’
इसी उपन्यास से
नारी की करुणा भी असीमित है और अभिशाप भी। मातृत्व दीनता के चरम को छू
सकता है अपने कोख-जाये को कूड़े के ढेर या कि गटर में फेंककर वहीं महानता
के शिखर को स्पर्श कर सकता है दूसरे की संतान पर अपना सर्वस्व न्योछावर
करके। नारी-मनोविज्ञान पर आधारित यह उपन्यास पाठकों को पसन्द आएगा।
प्रस्तावना
‘सुंदरी’ सरल भाषा में लिखा मानव जीवन की जटिलताओं को
परिलक्षित करता हुआ एक उत्कृष्ट उपन्यास है। लेखिका ने अपनी रचना के
माध्यम से एक स्त्री और उसे जीवन से जुड़े सभी पात्रों और और घटनाओं को
एकसूत्र में पिरोने का खूबसूरत प्रयत्न किया है। मानव मन की कोमल भावनाओं
का उपन्यास में बड़े की उत्कृष्ट ढंग से चित्रण किया गया है। वर्तमान समाज
में जहाँ आज ‘प्रेम’ की महिमामंडित है, वहीं आज भी
ऐसे लोगों
की कमीं नहीं है, जो ‘प्रेम’ को सर्वाधिक महत्व देते
हैं।
लेखिका ने अपने इस उपन्याय की नायिका ‘सुंदरी’ के
माध्यम से
इसी विषय को उजागर करने का प्रयास किया है। ‘सुंदरी’
को एक
देवी के रूप में प्रस्तुत न करके एक साधारण मानवी के रूप में प्रस्तुत
किया गया है, जिसका जीवन सुख-दु:ख और यश-अपयश की गाथा है। मानव क्या है,
केवल ईश्वर के हाथ की कठपुतली ? आँसू और आनन्द क्या है ? केवल एक ही
सिक्के के दो पहलू ? इन्हीं प्रश्नों का छल, कपट, सुख-दु:ख, रहस्य-रोमांच
आदि के ताने-बाने से बुना उपन्यास पाठकों की रुचि के अनुरूप होगा, ऐसा
मेरा विश्वास है।
मैं कामना करता हूँ कि लेखिका भविष्य में भी अपनी लेखिनी से हिन्दी साहित्य जगत् को और भी उत्कृष्ट रचनाओं से पुष्पित, पल्लवित और फलित करती रहेंगी।
मैं कामना करता हूँ कि लेखिका भविष्य में भी अपनी लेखिनी से हिन्दी साहित्य जगत् को और भी उत्कृष्ट रचनाओं से पुष्पित, पल्लवित और फलित करती रहेंगी।
(अशोक कुमार टंडन)
महानिदेशक
सीमा सुरक्षा बल
महानिदेशक
सीमा सुरक्षा बल
अपनी बात
अंग्रेजी साहित्य अध्ययन का विषय होने के कारण मैंने अधिकतर लेखन अंग्रजी
भाषा में ही किया है ; किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि मेरी हिन्दी साहित्य
में रुचि नहीं है।
यद्यपि मैंने हिन्दी में कुछ कविताओं की रचना की है, परन्तु दिसंबर सन् 1994 तक मेरे मन में विचार नहीं था कि मैं हिन्दी में कोई उपन्यास लिखूँगी।
सन् 1994 के दिसंबर माह में श्री एस.एस.रानडे ने अपना काव्य संग्रह ‘अक्षय धन’ मेरे पिताजी को सप्रेम भेंट किया। उससे मुझे हिन्दी में और अधिक काव्य-रचना की प्रेरणा तो मिली ही, साथ ही मेरे मन में हिन्दी के उपन्यास लिखने का विचार भी बैठा। इस विचार को मैंने मूर्त्त रूप दिया मार्च 1995 में।
श्री रानडे ने मुझे प्रोत्साहन दिया। तत्पश्चात् माता-पिता का आशीर्वाद और प्रोत्साहन भी मुझे मिला, जिसके फलस्वरूप मैंने इस उपन्याय की रचना की।
आशा है कि ईश्वर की दया और शुभचिंतकों के प्रोत्साहन से मैं भविष्य में भी लिखती रहूँगी।
यद्यपि मैंने हिन्दी में कुछ कविताओं की रचना की है, परन्तु दिसंबर सन् 1994 तक मेरे मन में विचार नहीं था कि मैं हिन्दी में कोई उपन्यास लिखूँगी।
सन् 1994 के दिसंबर माह में श्री एस.एस.रानडे ने अपना काव्य संग्रह ‘अक्षय धन’ मेरे पिताजी को सप्रेम भेंट किया। उससे मुझे हिन्दी में और अधिक काव्य-रचना की प्रेरणा तो मिली ही, साथ ही मेरे मन में हिन्दी के उपन्यास लिखने का विचार भी बैठा। इस विचार को मैंने मूर्त्त रूप दिया मार्च 1995 में।
श्री रानडे ने मुझे प्रोत्साहन दिया। तत्पश्चात् माता-पिता का आशीर्वाद और प्रोत्साहन भी मुझे मिला, जिसके फलस्वरूप मैंने इस उपन्याय की रचना की।
आशा है कि ईश्वर की दया और शुभचिंतकों के प्रोत्साहन से मैं भविष्य में भी लिखती रहूँगी।
सोनी केदार
सुंदरी
एक
लीला का पत्र आया तो आँखों के सामने उसका चेहरा आ गया- बड़ी-बड़ी भावुक
आँखें, सुतवाँ नाक, कंधे तक कटे घुँघराले बालों से खिला चेहरा। पत्र हाथ
में लिये, यादों के अश्व पर सवार, मैं बहुत पीछे लौट गई। स्मृति-पटल पर
छाई धूल एकाएक हटने लगी। याद आई मुझे लीला से वह पहली मुलाकात, जो वर्षों
पहले एक समारोह में हुई थी।
बात उन दिनों की है जब मेरे पिता एक कोर्स के सिलसिले में दो साल के लिए मुंबई गए। माँ और मैं उनके साथ थे। हमें अकसर ऐसे समारोहों में आमंत्रित किया जाता था, जहाँ फिल्म और संगीत के क्षेत्र की मशहूर हस्तियों से हमारी मुलाकात हो जाती।
ऐसे ही एक समारोह में किसी ने हमें गजल-गायिका सुंदरी और उनकी पुत्री लीला से मिलाया। सुंदरी अपने नाम के अनुरूप थीं। लीला भी कम सुंदर न थी; पर वह उनकी पुत्री बिलकुल नहीं लगती थीं। लीला भी कम सुंदर न थी; पर वह उनकी पुत्री बिलकुल नहीं लगती थी। सुंदरी की जरा-सी झलक भी उसमें नहीं थी। वह पूर्णतया भारतीय थी; जबकि लीला यूरोपियन नवयुवती नजर आती थी। मैं और माँ उन दोनों से काफी समय तक बात करते रहे और कुछ ही क्षणों में हम उन दोनों के काफी निकट आ गए।
‘‘कभी घर आना,’’ लीला ने मुझसे कहा और एक कार्ड पर्स में से निकालकर मेरे हाथ में थमा दिया। उस पर उसका पता सुनहरे अक्षरों में लिखा था। घर लौटी तो मैंने पिताजी को माँ से कहते सुना, ‘‘जानती हो, यह सुंदरी कई शादियाँ कर चुकी है, पर एक के बाद एक सभी पति इसका साथ छोड़ गए।’’
‘‘हाँ, मैंने किसी पत्रिका में पढ़ा था। वैसे इसकी उम्र का अनुमान लगाना कठिन है। क्या उम्र होगी इसकी ?’’ माँ ने पूछा।
‘‘शायद पचपन के आसपास होगी।’’
‘‘अच्छा ! लगती तो तीस की है !’’
‘‘नहीं-नहीं, कोई मुझे बता रहा था कि यह पचपन के लगभग है और पिछले पैंतीस सालों से गा रही है।’’
‘‘और वो लड़की.....वो लड़की तो उसकी बेटी लगती ही नहीं।’’ माँ बोली।
‘‘नहीं, उसी की है। मैंने किसी पत्रिका में पढ़ा था कि इसने किसी विदेशी से शादी की थी।’’
‘‘मैं ये सारी बातें बड़े ध्यान से सुन रही थी अपने कमरे से।’’
‘‘काफी मजेदार कैरेक्टर है यह सुंदरी भी। चलो, पूछा जाए लीला से बातों-बातों में कि क्या पूरा किस्सा।’ मैंने सोचा।
दूसरे दिन छुट्टी थी। मैंने मां से कहाँ कि मैं लीला से मिलने जा रही हूँ।
‘‘अच्छे लोग नहीं है वो। छ:-छ: शादियाँ कर चुकी है सुंदरी। माँ ऐसी है तो लड़की भी ऐसी ही होगी। ऐसे लोगों से मिलान-जुलना ठीक नहीं है।’’ माँ बोली।
‘‘अरे माँ, आप तो जानती हैं कि मुझपर इतनी आसानी से किसी का प्रभाव नहीं पड़ता। मैं तो उसकी जीवन-शैली देखना चाहती हूँ। .......फिर आप तो जानती हैं कि मुझे कहानी लिखने का शौक है। शायद कोई कहानी ही मिल जाए वहाँ जाने से।’’ मैंने कहा।
मेरी ये बातें सुनकर माँ कुछ बोल नहीं पाई। अकसर ऐसा ही होता है। जब भी हमारे बीच बहस होती है, तो मैं ऐसे तर्क देती हूँ कि माँ निरुत्तर हो जाती है और उन्हें मेरी बात माननी ही पड़ती है।
‘‘अच्छा, ठीक है जाओ; पर जल्दी लौट आना।’’
‘‘अच्छा माँ,’’ कहकर मैंने पिताजी से जीप की माँग की। वे दूसरे कमरे में बैठे अखबार पढ़ रहे थे। उन्होंने भी माँ की बात दोहराई। मैंने उन्हें भी वह तर्क दिए जो माँ को दिए थे, तो वे जीप देने के लिए मान गए।
जल्दी से तैयार होकर मैं जीप में बैठ गई। सुबह के दस बजे थे। जीप शहर की भीड़-भरी सड़कों से होती हुई समुद्र के किनारे बने एक अश्लील घर के सामने रुकी। अंदर घुसी तो सुंदर लॉन के चारों ओर हर तरह के फूल थे, गमलों और क्यारियों में। कॉलबेल बजाई तो नौकर ने दरावाजा खोला।
‘‘मैं लीला की दोस्त हूँ और उससे मिलना चाहती हूँ।’’
‘‘आइए।’’ उसने कहा और एक तरफ हटकर खड़ा हो गया।
मैं अंदर पहुँची तो स्वयं को एक विशाल ड्राइंगरूम में पाया। कमरे के दूसरे छोर पर संगमरमर की सीढ़ियाँ थीं, जो ऊपर के कमरों की तरफ जाती थीं। कमरे में एक अधेड़-सा दिखनेवाला व्यक्ति पहले से ही मौजूद था। वह सिगार पी रहा था। उसमे पैनी निगाहों से मेरी ओर देखा, फिर सीढ़ियों की ओर देखने लगा।
मैं ड्राइंगरूम की हर चीज पर सरसरी निगाह डाली। यह कमरा कीमती चीजों से भरा हुआ था। आधे से अधिक सामान विदेशी मालूम देता था। तभी नौकर ने आकर कहा कि लीला मुझे ऊपर कमरे में बुला रही है।
बात उन दिनों की है जब मेरे पिता एक कोर्स के सिलसिले में दो साल के लिए मुंबई गए। माँ और मैं उनके साथ थे। हमें अकसर ऐसे समारोहों में आमंत्रित किया जाता था, जहाँ फिल्म और संगीत के क्षेत्र की मशहूर हस्तियों से हमारी मुलाकात हो जाती।
ऐसे ही एक समारोह में किसी ने हमें गजल-गायिका सुंदरी और उनकी पुत्री लीला से मिलाया। सुंदरी अपने नाम के अनुरूप थीं। लीला भी कम सुंदर न थी; पर वह उनकी पुत्री बिलकुल नहीं लगती थीं। लीला भी कम सुंदर न थी; पर वह उनकी पुत्री बिलकुल नहीं लगती थी। सुंदरी की जरा-सी झलक भी उसमें नहीं थी। वह पूर्णतया भारतीय थी; जबकि लीला यूरोपियन नवयुवती नजर आती थी। मैं और माँ उन दोनों से काफी समय तक बात करते रहे और कुछ ही क्षणों में हम उन दोनों के काफी निकट आ गए।
‘‘कभी घर आना,’’ लीला ने मुझसे कहा और एक कार्ड पर्स में से निकालकर मेरे हाथ में थमा दिया। उस पर उसका पता सुनहरे अक्षरों में लिखा था। घर लौटी तो मैंने पिताजी को माँ से कहते सुना, ‘‘जानती हो, यह सुंदरी कई शादियाँ कर चुकी है, पर एक के बाद एक सभी पति इसका साथ छोड़ गए।’’
‘‘हाँ, मैंने किसी पत्रिका में पढ़ा था। वैसे इसकी उम्र का अनुमान लगाना कठिन है। क्या उम्र होगी इसकी ?’’ माँ ने पूछा।
‘‘शायद पचपन के आसपास होगी।’’
‘‘अच्छा ! लगती तो तीस की है !’’
‘‘नहीं-नहीं, कोई मुझे बता रहा था कि यह पचपन के लगभग है और पिछले पैंतीस सालों से गा रही है।’’
‘‘और वो लड़की.....वो लड़की तो उसकी बेटी लगती ही नहीं।’’ माँ बोली।
‘‘नहीं, उसी की है। मैंने किसी पत्रिका में पढ़ा था कि इसने किसी विदेशी से शादी की थी।’’
‘‘मैं ये सारी बातें बड़े ध्यान से सुन रही थी अपने कमरे से।’’
‘‘काफी मजेदार कैरेक्टर है यह सुंदरी भी। चलो, पूछा जाए लीला से बातों-बातों में कि क्या पूरा किस्सा।’ मैंने सोचा।
दूसरे दिन छुट्टी थी। मैंने मां से कहाँ कि मैं लीला से मिलने जा रही हूँ।
‘‘अच्छे लोग नहीं है वो। छ:-छ: शादियाँ कर चुकी है सुंदरी। माँ ऐसी है तो लड़की भी ऐसी ही होगी। ऐसे लोगों से मिलान-जुलना ठीक नहीं है।’’ माँ बोली।
‘‘अरे माँ, आप तो जानती हैं कि मुझपर इतनी आसानी से किसी का प्रभाव नहीं पड़ता। मैं तो उसकी जीवन-शैली देखना चाहती हूँ। .......फिर आप तो जानती हैं कि मुझे कहानी लिखने का शौक है। शायद कोई कहानी ही मिल जाए वहाँ जाने से।’’ मैंने कहा।
मेरी ये बातें सुनकर माँ कुछ बोल नहीं पाई। अकसर ऐसा ही होता है। जब भी हमारे बीच बहस होती है, तो मैं ऐसे तर्क देती हूँ कि माँ निरुत्तर हो जाती है और उन्हें मेरी बात माननी ही पड़ती है।
‘‘अच्छा, ठीक है जाओ; पर जल्दी लौट आना।’’
‘‘अच्छा माँ,’’ कहकर मैंने पिताजी से जीप की माँग की। वे दूसरे कमरे में बैठे अखबार पढ़ रहे थे। उन्होंने भी माँ की बात दोहराई। मैंने उन्हें भी वह तर्क दिए जो माँ को दिए थे, तो वे जीप देने के लिए मान गए।
जल्दी से तैयार होकर मैं जीप में बैठ गई। सुबह के दस बजे थे। जीप शहर की भीड़-भरी सड़कों से होती हुई समुद्र के किनारे बने एक अश्लील घर के सामने रुकी। अंदर घुसी तो सुंदर लॉन के चारों ओर हर तरह के फूल थे, गमलों और क्यारियों में। कॉलबेल बजाई तो नौकर ने दरावाजा खोला।
‘‘मैं लीला की दोस्त हूँ और उससे मिलना चाहती हूँ।’’
‘‘आइए।’’ उसने कहा और एक तरफ हटकर खड़ा हो गया।
मैं अंदर पहुँची तो स्वयं को एक विशाल ड्राइंगरूम में पाया। कमरे के दूसरे छोर पर संगमरमर की सीढ़ियाँ थीं, जो ऊपर के कमरों की तरफ जाती थीं। कमरे में एक अधेड़-सा दिखनेवाला व्यक्ति पहले से ही मौजूद था। वह सिगार पी रहा था। उसमे पैनी निगाहों से मेरी ओर देखा, फिर सीढ़ियों की ओर देखने लगा।
मैं ड्राइंगरूम की हर चीज पर सरसरी निगाह डाली। यह कमरा कीमती चीजों से भरा हुआ था। आधे से अधिक सामान विदेशी मालूम देता था। तभी नौकर ने आकर कहा कि लीला मुझे ऊपर कमरे में बुला रही है।
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लोगों की राय
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