नई पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद्गीता - भावप्रकाशिनी हिन्दी टीका श्रीमद्भगवद्गीता - भावप्रकाशिनी हिन्दी टीकाडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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श्रीमद्भगवद्गीता - काव्यरूप हिन्दी टीका
भारतीय दर्शन में प्रस्थान का आशय जीवात्मा से है स्थूल शरीर से नहीं। अधिभूत से अक्षर ब्रह्म तक जाने का मार्ग अध्यात्म है। समय-समय पर इस मार्ग का निरूपण अनेकों ऋषियों ने किया है। उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और श्रीमद्भगवद्गीता इसके निरूपक हैं। अतः तीनों की प्रस्थानत्रयी कहा जाता है। उपनिषद् वेदों के सार हैं। वे मंत्रबद्ध हैं, ब्रह्मसूत्र सूत्रबद्ध हैं और वे उपनिषदों के सार हैं। श्रीगीता श्लोकबद्ध है जिसमें दोनों की व्याख्या है।
वैदिक युग से पौराणिक काल तक हुई यह व्याख्या ही वेदान्त तत्व है। कालान्तर में इनकी व्याख्या, इनके अनुवाद और इन पर ही भाष्य हुए। तीनों ग्रंथों के भाष्यकार जगद्गुरु होते हैं। इनमें श्लोकबद्ध होने के कारण और सबका समाहार होने के कारण श्रीमद्भगवद्गीता अधिक प्रसिद्ध है क्योंकि गीता का उद्देश्य लोकजीवन है। आरण्यक जीवन से सामाजिक जीवन तक मानवीय विकास में श्रीगीता ही समाज के अनुकूल है। इसलिए श्रीगीता कोई ग्रंथ नहीं, आचरण है। उसका व्यवहार दर्शन लोक के निकट है।
उपनिषद् वेद की चर्चा नहीं करते पर गीता में लोक और वेद का समन्वय है। भगवान कृष्ण ने बार-बार लोक और वेद का उल्लेख किया है। श्रीगीता में औपनिषदिक साधना का महत्व कायिक यौगिक साधना का उल्लेख करते हुए भी एक सहज और सर्वजन सुलभ मार्ग भक्ति को अधिक महत्व दिया गया है। श्रीगीता के हर भाषा में अनुवाद और भाष्य मिलते हैं। जीवन के हर क्षेत्र में गीता के महत्व और उनकी ग्राह्यता पर विमर्श हुआ है। जीवनचर्या, जीवन्मुक्ति, क्रान्ति और शान्ति सब में गीता की प्रेरणा मिलती है। इसलिए यह ग्रंथ सार्वभौमिक, सार्वकालिक है।
श्रीगीताजी का मूल रूप संस्कृत में है। उस मूल स्वर को हिंदी में अंतरित करना ही इस पुस्तक का उद्देश्य है। यह न श्रीगीता का भाष्य है, न व्याख्या। प्रत्येक श्लोक के साथ उसका हिंदी में विन्यास केवल उनके लिए है जो संस्कृत पाठ में या समझने में त्रुटि कर सकते हैं। आज संस्कृत का शुद्ध उच्चारण करने वाले कम हैं पर श्रीगीता के अध्येता और उस पर श्रद्धा कम नहीं। ऐसे पाठकों को मूल सहित पाठ में कुछ सहायता मिली तो इस प्रयास को प्रभुकृपा मानकर संतोष का अनुभव होगा ।
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