नारी विमर्श >> गूँज गूँजमहावीर प्रसाद
|
5 पाठकों को प्रिय 68 पाठक हैं |
प्रस्तुत है श्रेष्ठ उपन्यास..
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
प्रस्तुत उपन्यास में एक ऐसी प्रगतिशील लड़की का चरित्र चित्रण है, जो
आडंबरपूर्ण मान्यताओं और रुढ़िवादिता के विरुद्ध खुलकर सामने आती है और अनेक नवयुवकों व युवतियों को प्रेरणा देती है। उपन्यास में अंडरवर्ल्ड की वास्तविकताओं और
मुंबई तथा दुबई आदि में बैठे माफिया सरगनाओं की देश-विरोधी गतिविधियों आदि का
सप्रमाण वर्णन पुस्तक के कद को बढ़ा देता है।
भूमिका
देश के विभिन्न भागों से लगभग तीन लाख लोग दिसंबर 1992 में राम-मंदिर के
निर्माण हेतु कारसेवा के लिए अयोध्या में इकट्ठा हुए थे। वे लोग तथाकथित
बावरी मसजिद के ढाँचे से हटकर कंक्रीट के बने चबूतरे पर निर्माण का काम
करना चाहते थे। सरकार तथा अदालत ने उन्हें ऐसा करने से रोका था और तब
‘न रहेगा बाँस’ न बजेगी बाँसुरी’ को
चरितार्थ करते हुए
कारसेवकों ने तथाकथित बावरी मसजिद के ढांचे को उसी तरह ध्वस्त कर दिया था
जिस तरह आज से सदियों पहले वहीं पर बने रामजन्मभूमि मंदिर को बाबर के
हुक्म से उसके सेनापति मीर बाकी ने किया था।
6 दिसंबर, 1992 को कारसेवकों द्वारा तथाकथित बावरी मसजिद ढहा दी गई थी। और वहाँ पर रामलला की मूर्ति की स्थापना कर दी गई थी। आम जनता ने भजन-पूजन का कार्यक्रम प्रारम्भ कर दिया था।
अब उस दिन से हंगामा मचा हुआ है कि हिंदुओं ने बहुत बड़ा पाप कर दिया है। कोई आततायी हमारी माँ को जबरदस्ती उठाकर ले जाए और कैद करके रखे तो हमारा यह फर्ज बनता है या नहीं कि हम उस आततायी की गरदन मरोड़कर अपनी मां को उसके चंगुल से मुक्त कराएँ ?
हिंदुओं ने किसी भी दूसरे धर्म के माननेवालों के पूजास्थलों को न कभी अपवित्र किया है और न तोड़ा है; लेकिन मुसलमानों का इतिहास इसके विपरीत रहा है। कुछ लोग कह रहे हैं कि तथाकथित बावरी मसजिद के ढाँचे के विध्वंस के लिए हिंदुओं को माफी माँगनी चाहिए। क्यों ? क्या इसलिए कि हिंदुओं ने अपने पूजास्थल को वापस ले लिया ? जो लोग हिंदुओं को यह पाठ पढ़ा रहे हैं, वे मुसलमानों को क्यों नहीं पढ़ाते कि वे अपने पुरखों द्वारा किए गए पापों के लिए माफी माँगें और हिंदुओं को उनके पूजास्थलों को लौटा दें ? तथाकथित प्रगतिशील, मानवतावादी और धर्मनिपेक्षता के फर्माबरदार कहते हैं कि मंदिरों में क्या रखा है ? मैं उनसे विनयपूर्वक पूछना चाहता हूँ कि फिर मसजिदों में क्या रखा है ? अगर मंदिरों में भगवान् नहीं है तो फिर मसजिदों में भी अल्लाह नहीं है-और उन मसजिदों में तो कतई नहीं है, जो किसी धर्म के पूजास्थलों को तोड़कर बनाई गई हैं।
एक ढाँचा, जो मंदिर को तोड़कर बनाया गया था और जिसमें 22-23 दिसंबर, 1949 की रात में हिंदुओं द्वारा राम की मूर्ति की स्थापना कर दी गई थी और तब से वहाँ पूजा-पाठ चल रहा था, जहाँ उस समय से आज तक एक वक्त की भी नवाज अदा नहीं की गई थी, उसके गिरा दिए जाने पर मुसलमानों ने पाकिस्तान और बँगलादेश में सैकड़ों की तादात में मंदिरों को वहां की सरकारों की सहायता से तोड़ा, सैकड़ों की तादात में हिंदू औरतों की अस्मतों को लूटा, हजारों की संख्या में हिंदुओं का कत्लेआम किया; लेकिन इसके खिलाफ एक शब्द किसी ने नहीं कहा। उलटे बँगलादेश तथा पाकिस्तान की संसदों में प्रस्ताव पारित किए गए और उसके पुनर्निर्माण की बात कही गई। भारत की संसद भी तथाकथित बाबरी मसजिद के ढाँचे के गिराए जाने पर बरसी, लेकिन बँगलादेश और पाकिस्तान में की गई बदतमीजी और गुंडागर्दी पर खामोश रही।
बँगलादेश के मुसलिम कट्टरपंथियों का तो अजीब हाल है। वे बेहया की तरह तथाकथित बावरी मसजिद के निर्माण के लिए अयोध्या कूच करते हैं (हालाँकि बँगलादेश की सरकार ने वैसे लोगों को सरहद पर रोक दिया)। अगर बँगलादेश में तोड़े गए मंदिरों के निर्माण के लिए हिंदुस्तान की जनता भी ढाका कूच का निर्णय ले ले तो क्या होगा ?
जो तथाकथिक धर्मनिरपेक्ष लोग मुसलमानों के दुष्कृत्य को जायज ठहराने के लिए उनकी भावनाओं के उत्तेजित होने की बात करते हैं, मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि हिंदुओं की भावनाएँ नहीं होती क्या ? जिस तरह एक ढांचे के गिरने पर मुसलमान उत्तेजित हो गए, अगर सैकड़ों की तादात में गिराए गए मंदिरों के लिए हिंदू उत्तेजित हो जाएँ, तब क्या होगा ? तस्लीमा नसरीन की किताब ‘लज्जा’ पढ़ें तो लोगों की आँखें खुल जाएँगी। मंदिरों को तोड़ना, वहाँ रखी हुई मूर्तियों को अपवित्र करना और तोड़ना, हिंदुओं की बहू-बेटियों की इज्जत लूटना तथा हिंदुओं पर अत्याचार करना और उनका कत्ल करना बँगलादेशी तथा पाकिस्तानी मुसलमानों का रोजमर्रे का कार्य रहा है और उसके उन कार्यों का समर्थन वहाँ की सरकारें करती रही हैं।
मसजिद तोड़ने में और मंदिरों को तोड़कर बनाई गई मसजिदों को तोड़ने में फर्क है। गाँधी जी ने भी कहा था, ‘मंदिरों को तोड़कर बनाई गई मसजिदें गुलामी के चिह्न हैं।’ (‘नवजीवन’ पत्रिका, 27 जुलाई, 1937)।
एक देश में दो मापदंड नहीं चलेंगे। हिंदूपरस्ती अगर गुनाह है तो मुसलिमपरस्ती भी देश को रसातल में ले जाएगी। देश का बँटवारा हिंदुओं ने नहीं कराया। मुसलमानों ने अंग्रेजों का दलाल बनकर खूँरेजी और जोर-जबरदस्ती द्वारा देश को दो टुकड़ों (अब तीन टुकड़ों) में बाँटा। मुहम्मद अली जिन्ना, अल्लामा इकबाल, लियाकत अली, सुहरावर्दी आदि लोगों ने मुसलमानों के लिए जन्नत का इंतजाम किया और गाँधी, नेहरू, पटेल आदि ने खामोशी से उसे कबूल कर लिया। बँटवारे के वक्त यह तय हुआ था कि हिंदुस्तान के सारे मुसलमान जन्नत में जाएँगे और उस भाग में बसे हिंदू इस तरफ हिंदुस्तान में तशरीफ ले आएँगे। लगभग तीन करोड़ मुसलमान जानबूझ कर जन्नत का सुख भोगने नहीं गए (अच्छा हुआ कि नहीं गए, वरना वे भी ‘मुहाजिर’ ही कहलाते और वहाँ लात-जूता खाते) और कुछ लाख हिंदू भी जन्नत वाले भाग में पता नहीं किस मजबूरी में लात-जूता खाने के लिए रह गए।
मुसलमानों को हम (उनके द्वारा किए गुनाहों के बावजूद) अपने सिर-आंखों में बिठाकर रखे हुए हैं; जबकि पाकिस्तान और बँगलादेश में रह रहे हिंदुओं की जिन्दगी जानवरों से भी बदतर है; ऐसे हालात में अगर हिंदू भागकर यहाँ आते हैं तो हमें उनका स्वागत करना ही चाहिए; लेकिन धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा लगाए कुछ भारतीय राजनीतिज्ञों को एतराज है कि बँगलादेश या पाकिस्तान से आए हिंदुओं का स्वागत तो हम ‘शरणार्थी’ कहकर करते हैं, लेकिन दोनों देशों से आए करोड़ों मुसलमानों को हम ‘घुसपैठिया’ क्यों कहते हैं ? पता नहीं, यह दर्द तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोगों के सीने में क्यों उभरता है ? हिंदू तो सुबह के भूले शाम को अपने घर लौट रहे हैं, बँगलादेशी या पाकिस्तानी मुसलमानों का यहाँ क्या है ? चोरी भी और सीनाजोरी भी ? हिंदुस्तान क्या सराय या धर्मशाला है ? जिन लोगों ने लड़कर जन्नत हासिल की है, वे वहाँ का मजा लूटें; हमारी छाती पर मूँग दलने के लिए वे लोग यहाँ घुसपैठ क्यों कर रहे हैं ? हाँ, अगर उनके हुक्मरानों ने उनके जीवन को नरक बना दिया है तो वहीं रहकर वे संघर्ष करें और इतिहास द्वारा की गई गलती को दुरुस्त कराएँ। हिंदुस्तान, पाकिस्तान और बँगलादेश अगर एकताबद्ध हो जाएँ और हम तथा वे एक-दूसरे से गले मिलकर रहने लगें तो इससे अच्छी बात और क्या होगी !
लेकिन यहाँ तो पाकिस्तान कह रहा है कि कश्मीर में जनमत-संग्रह कराया जाए, क्योंकि कश्मीर के मुसलमान हिन्दुस्तान के साथ रहना नहीं चाहते हैं। ठीक है, अगर कश्मीर के मुसलमानों की ख्वाहिश हिंदुस्तान के साथ रहने की नहीं है तो वे अपना बोरिया- बिस्तर बाँधें और सीमा पार करके खुशी-खुशी पाकिस्तान अधिकृत इलाके में चले जाएँ। वैसे गद्दारों को यहाँ रखना कौन चाहता है ? लेकिन कश्मीर की धरती हिंदुस्तान की है और हिंदुस्तान की रहेगी। देशद्रोही पाकिस्तानी मुसलमानों के चलते एक भी हिंदू न तो पाकिस्तानी होना चाहेगा और न खानाबदोश की जिंदगी जीने के लिए मजबूर किया जा सकेगा।
यह तो पं. जवाहरलाल नेहरू की गलती थी, जो माउंटबेटन के कहने पर पाकिस्तानी घुसपैठियों से कश्मीर का पूरा इलाका खाली कराए बिना कश्मीर का मसला संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गए थे। कश्मीर का एक तिहाई हिस्सा आज भी पाकिस्तान के कब्जे में है। वास्तविक नियंत्रण रेखा को ही सीमा रेखा मान लिया जाना चाहिए, इसी में दोनों देशों की भलाई है। जोर-जबरदस्ती से न इधर का इलाका पाकिस्तान दखल कर सकेगा और न हिंदुस्तान ही युद्ध का खतरा मोल लेकर उधर के हिस्से को अपने कब्जे में लेने की कोशिश करेगा। और फिर, उधर के सिरफिरों को लेकर हम करेंगे क्या ?
रही हिंदुस्तानी इलाकों में मुस्लमानों की बात, तो उन्हें यह समझना चाहिए कि जब बारह करोड़ मुसलमान हिंदुस्तान के हिंदुओं के साथ मिलकर रह सकते हैं तो कश्मीर राज्य के चौंतीस-पैंतीस लाख मुसलमान क्यों नहीं रह सकते ? और अगर मुसलमान होने की वजह से वे लोग हिंदुस्तान के साथ नहीं रह सकते तो बारह करोड़ मुसलमानों को भी हिंदुस्तान में रहने का क्या हक है ? पाकिस्तानी हुक्मरानों को अपनी पालकी यहाँ भेजनी चाहिए, जिसपर आराम से बैठकर यहाँ के मुसलमान जन्नत जाएँ।
लेकिन हमारे यहाँ के नेतागण ही अजीब हैं। कश्मीर के मुसलमानों के दिलों को जीतने की बात कही जा रही है। किसने दिल तोड़ा है उनका ? कश्मीर के तीन लाख पंडितों को जोर-जुल्म-जबरदस्ती के बल पर कश्मीर से हट जाने के लिए मजबूर कर दिया गया। वे शरणार्थी बनकर जम्मू, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली आदि में रहकर नारकीय जिंदगी जी रहे हैं। दिल पंडितों का टूटा है, हिंदुओं का टूटा है, हिंदुस्तान का टूटा है; मगर सेंकने-माड़ने की बात उनके लिए की जा रही है, जो खामोशी से बिना वजह बदतमीजी-पर-बदतमीजी किए जा रहे हैं। भिंडरावाले का भूत जब खत्म किया जा सकता है तो कश्मीर के दहशतगर्द किस खेत की मूली हैं !
मंदिरों को तोड़कर मसजिदें बनाई गईं, इसके लिए लोगों को कैसा सबूत चाहिए ? काशी के ज्ञानवापी पर बनी मसजिद को वहाँ जाकर लोग अपनी नंगी आँखों से देख लें, किसी दूरबीन की जरूरत उन्हें नहीं पड़ेगी। मंदिर की दीवारों पर बनी मसजिद की दीवार उन्हें साफ नजर आ जाएगी और मंदिर की टूटी दूसरी-तीसरी दीवारों के अवशेष भी मसजिद की चारदीवारी के अंदर सीना ताने खड़े उन्हें दूर से दिख जाएँगे। मथुरा के कृष्ण जन्मस्थान को तोड़कर बनाई गई मजार की सही जानकारी के लिए किसी को भी ज्यादा कसरत करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। रहा रामजन्मभूमि का सवाल, तो बाबर क्या इतना सहिष्णु हो गया था कि उसने तथाकथित बाबरी मसजिद के परिसर में हिंदुओं के दिलों में प्रेम पैदा करने के लिए ‘सीता रसोई’ के नाम से पूजास्थल का निर्माण करा दिया था ?
बेकार के विवाद को छोड़कर हिंदुस्तान की सरकार को चाहिए कि जिस तरह सोमनाथ के मंदिर को तोड़कर बनाए गए मजार के स्थान पर भव्य मंदिर का निर्माण करा दिया गया था उसी तरह अयोध्या, काशी और मथुरा में भी उन्हीं स्थानों पर भव्य मंदिरों का निर्माण करा दिया जाए, ताकि मुसलमान शासकों द्वारा इतिहास के माथे पर लगाए गए कलंक को धोया जा सके। मुसलमानों तथा उनके नेताओं को भी खुशी-खुशी इस बात को कबूल करके इसलाम मजहब के दामन पर लगे दाग को हमेशा के लिए धो देना चाहिए। यही देश और समाज तथा हिंदुओं और मुसलमानों के लिए सुकून की बात होगी। वोट बैंक की राजनीति से न देश का भला होगा, न समाज का, न हिंदुओं का और न मुसलमानों का।
6 दिसंबर, 1992 को जब तथाकथित बाबरी मसजिद का ढाँचा टूटा और देश-विदेश में जब इसकी जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई तथा बहुत सी अनर्गल तथा बेतुकी बातों को कहने का सिलसिला शुरू हुआ तो इस उपन्यास को लिखने की बात मेरे मन में आई, ताकि लोगों को सही बातों की जानकारी दी जा सके। इससे पहले भी जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति को आधार बनाकर मैंने अपने उपन्यास ‘बोया पेड़ बबूल का’ में एक छोटी सी टिप्पणी की थी कि इसलामी समाज में औरतों को जहालत की जिंदगी जीनी पड़ती है और उसके लिए जिम्मेवार उनका मजहब, उनके पैगंबर और उनका कुरान शरीफ है; तो ऐसा हंगामा मचा था कि कुछ मत पूछिए। लेकिन सच बात तो कहनी ही पड़ती है, कोई बुरा माने या भला !
इस उपन्यास में मैंने मुसलिम समाज के आचार, विचार, व्यवहार और उनकी मानसिकता का गंभीर चित्रण किया है। साथ-ही-साथ सांप्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता, हिंदुत्व तथा मुसलिमपरस्त वोट बैंक की राजनीति का भी मैंने बेबाक विश्लेषण किया है। धर्म और मजहब के नाम पर लोगों को बाँटकर सिर्फ अपना उल्लू सीधा करने की कोशिशें की गई हैं।
हिंदुस्तान में मुसलिम बिरादरी को हम तीन भागों में बाँट सकते हैं। इनका एक छोटा सा तबका है, जो सही माने में समझदार है, ईमानदार है, मानवीयता से ओतप्रोत है और देशभक्त है। एक छोटा सा दूसरा तबका है, जो निहायत ही दुष्ट, बेईमान, हिंसक और गद्दार हैं। इनकी शेष विशाल जमात अपने धंधे और कारोबार में लगी हुई है; लेकिन वक्त आने पर यह विशाल जमात दुष्टों और गद्दारों के पीछे एकजुट हो जाती है, जिससे देशभक्त तबका अलग-थलग पड़ जाता है।
मेरे इस उपन्यास की नायिका शहनाज और उसका परिवार भारतीयता से ओतप्रोत मुसलिम हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है और इसलिए उसे मुसलिम समाज की कट्टरता, कूपमंडूकता, अंधविश्वास, असभ्यता, दरिंदगी और जंगलीपने से चिढ़ है। वह मुसलमान मर्द की बाँदी बनकर रहना पसन्द नहीं करती है। अतः जब वह एक प्रगतिशील हिंदू युवक अशोक से शादी करना चाहती है तो मुसलिम समाज में एक बवाल-सा उठ खड़ा होता है। कट्टर मुसलिम समाज अपने बाड़े से एक औरत को आजाद करने के लिए तैयार नहीं होता है। प्रगतिशीलता और धर्मनिरपेक्षता की खाल ओढ़कर चलनेवाले दूसरे लोग भी मुसलिम समाज की हुआँ में हुआँ मिलाने लगते हैं। लेकिन शहनाज और अशोक के बुलंद इरादों को रोकने में कोई भी बाधा कामयाब नहीं हो पाती है और दोनों संघर्ष करते हुए अपनी मंजिल को पा लेते हैं।
यह उपन्यास मैंने सन् 1994 में ही पूरा कर दिया था; लेकिन इसे प्रकाशित करने के लिए कोई उत्साही और जागरूक प्रकाशक सामने नहीं आया। कई प्रकाशकों ने तो पांडुलिपि पढ़ने के बाद इसलिए इसे छापने से इनकार कर दिया था कि उसे मुसलिम समाज का कोपभाजन बनना पड़ेगा। मैं अपने द्वारा इसे प्रकाशित करने के मूड में नहीं था; क्योंकि इसके पहले चानी आक्रमण को आधार बनाकर सन् 1963 में मेरे द्वारा प्रकाशित उपन्यास ‘चट्टान और धारा’ तथा सन् 1969 में कांग्रेस विभाजन पर प्रकाशित मेरे उपन्यास ‘सफेद हाथियों का सरकस’ को प्रचार और प्रसार का जबरदस्त कष्ट भोगना पड़ा था और ‘बोया पेड़ बबूल का’ पर तो मुसलमान बंधुओं द्वारा किए गए हंगामों के कारण तीन राज्य सरकारों द्वारा प्रतिबंध भी लगा दिया गया था और बिहार की पुलिस ने वाराणसी जाकर प्रेस से ही उसकी 985 प्रतियों को जब्त कर लिया था। मैं हर तरह से जुल्म और दरिंदगी के खिलाफ हूँ। मेरी लेखनी जुल्म और दरिंदगी का विरोध करती रहेगी।
मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि कट्टरपंथ, अंधविश्वास और कूपमंडूकता के खिलाफ कही गई मेरी बातें साहसी लोगों के दिल और दिमाग में वनजीवन का संचार करेंगी।
6 दिसंबर, 1992 को कारसेवकों द्वारा तथाकथित बावरी मसजिद ढहा दी गई थी। और वहाँ पर रामलला की मूर्ति की स्थापना कर दी गई थी। आम जनता ने भजन-पूजन का कार्यक्रम प्रारम्भ कर दिया था।
अब उस दिन से हंगामा मचा हुआ है कि हिंदुओं ने बहुत बड़ा पाप कर दिया है। कोई आततायी हमारी माँ को जबरदस्ती उठाकर ले जाए और कैद करके रखे तो हमारा यह फर्ज बनता है या नहीं कि हम उस आततायी की गरदन मरोड़कर अपनी मां को उसके चंगुल से मुक्त कराएँ ?
हिंदुओं ने किसी भी दूसरे धर्म के माननेवालों के पूजास्थलों को न कभी अपवित्र किया है और न तोड़ा है; लेकिन मुसलमानों का इतिहास इसके विपरीत रहा है। कुछ लोग कह रहे हैं कि तथाकथित बावरी मसजिद के ढाँचे के विध्वंस के लिए हिंदुओं को माफी माँगनी चाहिए। क्यों ? क्या इसलिए कि हिंदुओं ने अपने पूजास्थल को वापस ले लिया ? जो लोग हिंदुओं को यह पाठ पढ़ा रहे हैं, वे मुसलमानों को क्यों नहीं पढ़ाते कि वे अपने पुरखों द्वारा किए गए पापों के लिए माफी माँगें और हिंदुओं को उनके पूजास्थलों को लौटा दें ? तथाकथित प्रगतिशील, मानवतावादी और धर्मनिपेक्षता के फर्माबरदार कहते हैं कि मंदिरों में क्या रखा है ? मैं उनसे विनयपूर्वक पूछना चाहता हूँ कि फिर मसजिदों में क्या रखा है ? अगर मंदिरों में भगवान् नहीं है तो फिर मसजिदों में भी अल्लाह नहीं है-और उन मसजिदों में तो कतई नहीं है, जो किसी धर्म के पूजास्थलों को तोड़कर बनाई गई हैं।
एक ढाँचा, जो मंदिर को तोड़कर बनाया गया था और जिसमें 22-23 दिसंबर, 1949 की रात में हिंदुओं द्वारा राम की मूर्ति की स्थापना कर दी गई थी और तब से वहाँ पूजा-पाठ चल रहा था, जहाँ उस समय से आज तक एक वक्त की भी नवाज अदा नहीं की गई थी, उसके गिरा दिए जाने पर मुसलमानों ने पाकिस्तान और बँगलादेश में सैकड़ों की तादात में मंदिरों को वहां की सरकारों की सहायता से तोड़ा, सैकड़ों की तादात में हिंदू औरतों की अस्मतों को लूटा, हजारों की संख्या में हिंदुओं का कत्लेआम किया; लेकिन इसके खिलाफ एक शब्द किसी ने नहीं कहा। उलटे बँगलादेश तथा पाकिस्तान की संसदों में प्रस्ताव पारित किए गए और उसके पुनर्निर्माण की बात कही गई। भारत की संसद भी तथाकथित बाबरी मसजिद के ढाँचे के गिराए जाने पर बरसी, लेकिन बँगलादेश और पाकिस्तान में की गई बदतमीजी और गुंडागर्दी पर खामोश रही।
बँगलादेश के मुसलिम कट्टरपंथियों का तो अजीब हाल है। वे बेहया की तरह तथाकथित बावरी मसजिद के निर्माण के लिए अयोध्या कूच करते हैं (हालाँकि बँगलादेश की सरकार ने वैसे लोगों को सरहद पर रोक दिया)। अगर बँगलादेश में तोड़े गए मंदिरों के निर्माण के लिए हिंदुस्तान की जनता भी ढाका कूच का निर्णय ले ले तो क्या होगा ?
जो तथाकथिक धर्मनिरपेक्ष लोग मुसलमानों के दुष्कृत्य को जायज ठहराने के लिए उनकी भावनाओं के उत्तेजित होने की बात करते हैं, मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि हिंदुओं की भावनाएँ नहीं होती क्या ? जिस तरह एक ढांचे के गिरने पर मुसलमान उत्तेजित हो गए, अगर सैकड़ों की तादात में गिराए गए मंदिरों के लिए हिंदू उत्तेजित हो जाएँ, तब क्या होगा ? तस्लीमा नसरीन की किताब ‘लज्जा’ पढ़ें तो लोगों की आँखें खुल जाएँगी। मंदिरों को तोड़ना, वहाँ रखी हुई मूर्तियों को अपवित्र करना और तोड़ना, हिंदुओं की बहू-बेटियों की इज्जत लूटना तथा हिंदुओं पर अत्याचार करना और उनका कत्ल करना बँगलादेशी तथा पाकिस्तानी मुसलमानों का रोजमर्रे का कार्य रहा है और उसके उन कार्यों का समर्थन वहाँ की सरकारें करती रही हैं।
मसजिद तोड़ने में और मंदिरों को तोड़कर बनाई गई मसजिदों को तोड़ने में फर्क है। गाँधी जी ने भी कहा था, ‘मंदिरों को तोड़कर बनाई गई मसजिदें गुलामी के चिह्न हैं।’ (‘नवजीवन’ पत्रिका, 27 जुलाई, 1937)।
एक देश में दो मापदंड नहीं चलेंगे। हिंदूपरस्ती अगर गुनाह है तो मुसलिमपरस्ती भी देश को रसातल में ले जाएगी। देश का बँटवारा हिंदुओं ने नहीं कराया। मुसलमानों ने अंग्रेजों का दलाल बनकर खूँरेजी और जोर-जबरदस्ती द्वारा देश को दो टुकड़ों (अब तीन टुकड़ों) में बाँटा। मुहम्मद अली जिन्ना, अल्लामा इकबाल, लियाकत अली, सुहरावर्दी आदि लोगों ने मुसलमानों के लिए जन्नत का इंतजाम किया और गाँधी, नेहरू, पटेल आदि ने खामोशी से उसे कबूल कर लिया। बँटवारे के वक्त यह तय हुआ था कि हिंदुस्तान के सारे मुसलमान जन्नत में जाएँगे और उस भाग में बसे हिंदू इस तरफ हिंदुस्तान में तशरीफ ले आएँगे। लगभग तीन करोड़ मुसलमान जानबूझ कर जन्नत का सुख भोगने नहीं गए (अच्छा हुआ कि नहीं गए, वरना वे भी ‘मुहाजिर’ ही कहलाते और वहाँ लात-जूता खाते) और कुछ लाख हिंदू भी जन्नत वाले भाग में पता नहीं किस मजबूरी में लात-जूता खाने के लिए रह गए।
मुसलमानों को हम (उनके द्वारा किए गुनाहों के बावजूद) अपने सिर-आंखों में बिठाकर रखे हुए हैं; जबकि पाकिस्तान और बँगलादेश में रह रहे हिंदुओं की जिन्दगी जानवरों से भी बदतर है; ऐसे हालात में अगर हिंदू भागकर यहाँ आते हैं तो हमें उनका स्वागत करना ही चाहिए; लेकिन धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा लगाए कुछ भारतीय राजनीतिज्ञों को एतराज है कि बँगलादेश या पाकिस्तान से आए हिंदुओं का स्वागत तो हम ‘शरणार्थी’ कहकर करते हैं, लेकिन दोनों देशों से आए करोड़ों मुसलमानों को हम ‘घुसपैठिया’ क्यों कहते हैं ? पता नहीं, यह दर्द तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोगों के सीने में क्यों उभरता है ? हिंदू तो सुबह के भूले शाम को अपने घर लौट रहे हैं, बँगलादेशी या पाकिस्तानी मुसलमानों का यहाँ क्या है ? चोरी भी और सीनाजोरी भी ? हिंदुस्तान क्या सराय या धर्मशाला है ? जिन लोगों ने लड़कर जन्नत हासिल की है, वे वहाँ का मजा लूटें; हमारी छाती पर मूँग दलने के लिए वे लोग यहाँ घुसपैठ क्यों कर रहे हैं ? हाँ, अगर उनके हुक्मरानों ने उनके जीवन को नरक बना दिया है तो वहीं रहकर वे संघर्ष करें और इतिहास द्वारा की गई गलती को दुरुस्त कराएँ। हिंदुस्तान, पाकिस्तान और बँगलादेश अगर एकताबद्ध हो जाएँ और हम तथा वे एक-दूसरे से गले मिलकर रहने लगें तो इससे अच्छी बात और क्या होगी !
लेकिन यहाँ तो पाकिस्तान कह रहा है कि कश्मीर में जनमत-संग्रह कराया जाए, क्योंकि कश्मीर के मुसलमान हिन्दुस्तान के साथ रहना नहीं चाहते हैं। ठीक है, अगर कश्मीर के मुसलमानों की ख्वाहिश हिंदुस्तान के साथ रहने की नहीं है तो वे अपना बोरिया- बिस्तर बाँधें और सीमा पार करके खुशी-खुशी पाकिस्तान अधिकृत इलाके में चले जाएँ। वैसे गद्दारों को यहाँ रखना कौन चाहता है ? लेकिन कश्मीर की धरती हिंदुस्तान की है और हिंदुस्तान की रहेगी। देशद्रोही पाकिस्तानी मुसलमानों के चलते एक भी हिंदू न तो पाकिस्तानी होना चाहेगा और न खानाबदोश की जिंदगी जीने के लिए मजबूर किया जा सकेगा।
यह तो पं. जवाहरलाल नेहरू की गलती थी, जो माउंटबेटन के कहने पर पाकिस्तानी घुसपैठियों से कश्मीर का पूरा इलाका खाली कराए बिना कश्मीर का मसला संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गए थे। कश्मीर का एक तिहाई हिस्सा आज भी पाकिस्तान के कब्जे में है। वास्तविक नियंत्रण रेखा को ही सीमा रेखा मान लिया जाना चाहिए, इसी में दोनों देशों की भलाई है। जोर-जबरदस्ती से न इधर का इलाका पाकिस्तान दखल कर सकेगा और न हिंदुस्तान ही युद्ध का खतरा मोल लेकर उधर के हिस्से को अपने कब्जे में लेने की कोशिश करेगा। और फिर, उधर के सिरफिरों को लेकर हम करेंगे क्या ?
रही हिंदुस्तानी इलाकों में मुस्लमानों की बात, तो उन्हें यह समझना चाहिए कि जब बारह करोड़ मुसलमान हिंदुस्तान के हिंदुओं के साथ मिलकर रह सकते हैं तो कश्मीर राज्य के चौंतीस-पैंतीस लाख मुसलमान क्यों नहीं रह सकते ? और अगर मुसलमान होने की वजह से वे लोग हिंदुस्तान के साथ नहीं रह सकते तो बारह करोड़ मुसलमानों को भी हिंदुस्तान में रहने का क्या हक है ? पाकिस्तानी हुक्मरानों को अपनी पालकी यहाँ भेजनी चाहिए, जिसपर आराम से बैठकर यहाँ के मुसलमान जन्नत जाएँ।
लेकिन हमारे यहाँ के नेतागण ही अजीब हैं। कश्मीर के मुसलमानों के दिलों को जीतने की बात कही जा रही है। किसने दिल तोड़ा है उनका ? कश्मीर के तीन लाख पंडितों को जोर-जुल्म-जबरदस्ती के बल पर कश्मीर से हट जाने के लिए मजबूर कर दिया गया। वे शरणार्थी बनकर जम्मू, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली आदि में रहकर नारकीय जिंदगी जी रहे हैं। दिल पंडितों का टूटा है, हिंदुओं का टूटा है, हिंदुस्तान का टूटा है; मगर सेंकने-माड़ने की बात उनके लिए की जा रही है, जो खामोशी से बिना वजह बदतमीजी-पर-बदतमीजी किए जा रहे हैं। भिंडरावाले का भूत जब खत्म किया जा सकता है तो कश्मीर के दहशतगर्द किस खेत की मूली हैं !
मंदिरों को तोड़कर मसजिदें बनाई गईं, इसके लिए लोगों को कैसा सबूत चाहिए ? काशी के ज्ञानवापी पर बनी मसजिद को वहाँ जाकर लोग अपनी नंगी आँखों से देख लें, किसी दूरबीन की जरूरत उन्हें नहीं पड़ेगी। मंदिर की दीवारों पर बनी मसजिद की दीवार उन्हें साफ नजर आ जाएगी और मंदिर की टूटी दूसरी-तीसरी दीवारों के अवशेष भी मसजिद की चारदीवारी के अंदर सीना ताने खड़े उन्हें दूर से दिख जाएँगे। मथुरा के कृष्ण जन्मस्थान को तोड़कर बनाई गई मजार की सही जानकारी के लिए किसी को भी ज्यादा कसरत करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। रहा रामजन्मभूमि का सवाल, तो बाबर क्या इतना सहिष्णु हो गया था कि उसने तथाकथित बाबरी मसजिद के परिसर में हिंदुओं के दिलों में प्रेम पैदा करने के लिए ‘सीता रसोई’ के नाम से पूजास्थल का निर्माण करा दिया था ?
बेकार के विवाद को छोड़कर हिंदुस्तान की सरकार को चाहिए कि जिस तरह सोमनाथ के मंदिर को तोड़कर बनाए गए मजार के स्थान पर भव्य मंदिर का निर्माण करा दिया गया था उसी तरह अयोध्या, काशी और मथुरा में भी उन्हीं स्थानों पर भव्य मंदिरों का निर्माण करा दिया जाए, ताकि मुसलमान शासकों द्वारा इतिहास के माथे पर लगाए गए कलंक को धोया जा सके। मुसलमानों तथा उनके नेताओं को भी खुशी-खुशी इस बात को कबूल करके इसलाम मजहब के दामन पर लगे दाग को हमेशा के लिए धो देना चाहिए। यही देश और समाज तथा हिंदुओं और मुसलमानों के लिए सुकून की बात होगी। वोट बैंक की राजनीति से न देश का भला होगा, न समाज का, न हिंदुओं का और न मुसलमानों का।
6 दिसंबर, 1992 को जब तथाकथित बाबरी मसजिद का ढाँचा टूटा और देश-विदेश में जब इसकी जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई तथा बहुत सी अनर्गल तथा बेतुकी बातों को कहने का सिलसिला शुरू हुआ तो इस उपन्यास को लिखने की बात मेरे मन में आई, ताकि लोगों को सही बातों की जानकारी दी जा सके। इससे पहले भी जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति को आधार बनाकर मैंने अपने उपन्यास ‘बोया पेड़ बबूल का’ में एक छोटी सी टिप्पणी की थी कि इसलामी समाज में औरतों को जहालत की जिंदगी जीनी पड़ती है और उसके लिए जिम्मेवार उनका मजहब, उनके पैगंबर और उनका कुरान शरीफ है; तो ऐसा हंगामा मचा था कि कुछ मत पूछिए। लेकिन सच बात तो कहनी ही पड़ती है, कोई बुरा माने या भला !
इस उपन्यास में मैंने मुसलिम समाज के आचार, विचार, व्यवहार और उनकी मानसिकता का गंभीर चित्रण किया है। साथ-ही-साथ सांप्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता, हिंदुत्व तथा मुसलिमपरस्त वोट बैंक की राजनीति का भी मैंने बेबाक विश्लेषण किया है। धर्म और मजहब के नाम पर लोगों को बाँटकर सिर्फ अपना उल्लू सीधा करने की कोशिशें की गई हैं।
हिंदुस्तान में मुसलिम बिरादरी को हम तीन भागों में बाँट सकते हैं। इनका एक छोटा सा तबका है, जो सही माने में समझदार है, ईमानदार है, मानवीयता से ओतप्रोत है और देशभक्त है। एक छोटा सा दूसरा तबका है, जो निहायत ही दुष्ट, बेईमान, हिंसक और गद्दार हैं। इनकी शेष विशाल जमात अपने धंधे और कारोबार में लगी हुई है; लेकिन वक्त आने पर यह विशाल जमात दुष्टों और गद्दारों के पीछे एकजुट हो जाती है, जिससे देशभक्त तबका अलग-थलग पड़ जाता है।
मेरे इस उपन्यास की नायिका शहनाज और उसका परिवार भारतीयता से ओतप्रोत मुसलिम हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है और इसलिए उसे मुसलिम समाज की कट्टरता, कूपमंडूकता, अंधविश्वास, असभ्यता, दरिंदगी और जंगलीपने से चिढ़ है। वह मुसलमान मर्द की बाँदी बनकर रहना पसन्द नहीं करती है। अतः जब वह एक प्रगतिशील हिंदू युवक अशोक से शादी करना चाहती है तो मुसलिम समाज में एक बवाल-सा उठ खड़ा होता है। कट्टर मुसलिम समाज अपने बाड़े से एक औरत को आजाद करने के लिए तैयार नहीं होता है। प्रगतिशीलता और धर्मनिरपेक्षता की खाल ओढ़कर चलनेवाले दूसरे लोग भी मुसलिम समाज की हुआँ में हुआँ मिलाने लगते हैं। लेकिन शहनाज और अशोक के बुलंद इरादों को रोकने में कोई भी बाधा कामयाब नहीं हो पाती है और दोनों संघर्ष करते हुए अपनी मंजिल को पा लेते हैं।
यह उपन्यास मैंने सन् 1994 में ही पूरा कर दिया था; लेकिन इसे प्रकाशित करने के लिए कोई उत्साही और जागरूक प्रकाशक सामने नहीं आया। कई प्रकाशकों ने तो पांडुलिपि पढ़ने के बाद इसलिए इसे छापने से इनकार कर दिया था कि उसे मुसलिम समाज का कोपभाजन बनना पड़ेगा। मैं अपने द्वारा इसे प्रकाशित करने के मूड में नहीं था; क्योंकि इसके पहले चानी आक्रमण को आधार बनाकर सन् 1963 में मेरे द्वारा प्रकाशित उपन्यास ‘चट्टान और धारा’ तथा सन् 1969 में कांग्रेस विभाजन पर प्रकाशित मेरे उपन्यास ‘सफेद हाथियों का सरकस’ को प्रचार और प्रसार का जबरदस्त कष्ट भोगना पड़ा था और ‘बोया पेड़ बबूल का’ पर तो मुसलमान बंधुओं द्वारा किए गए हंगामों के कारण तीन राज्य सरकारों द्वारा प्रतिबंध भी लगा दिया गया था और बिहार की पुलिस ने वाराणसी जाकर प्रेस से ही उसकी 985 प्रतियों को जब्त कर लिया था। मैं हर तरह से जुल्म और दरिंदगी के खिलाफ हूँ। मेरी लेखनी जुल्म और दरिंदगी का विरोध करती रहेगी।
मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि कट्टरपंथ, अंधविश्वास और कूपमंडूकता के खिलाफ कही गई मेरी बातें साहसी लोगों के दिल और दिमाग में वनजीवन का संचार करेंगी।
महावीर प्रसाद ‘अकेला’
गूँज
शहनाज और सुनीता एक-दूसरे पर जान लुटाती हैं। दोनों ने इसी वर्ष हिंदी से
एम. ए. किया है और दोनों डॉ. अनुग्रह प्रसाद के निर्देशन में पी. एच. डी.
कर रही हैं। सुनीता अपने परिवार के साथ वाराणसी स्थित लंका महल्ला में
रहती है और शहनाज अपने माता-पिता के साथ जंगमबाड़ी में। आज जब काशी हिंदू
विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी से दोनों लौटीं तो सुनीता ने आग्रह के साथ
शहनाज को अपने घर पर रोक लिया। नाश्ता-चाय के पश्चात् दोनों गपशप में
मशगूल हो गईं। सुनीता ने कहा, ‘‘शहनाज मैं तेरी जुदाई
बरदाश्त
नहीं कर सकूँगी।’’
‘‘हम दोनों जुदा ही क्यों होंगे ?’’ शहनाज ने पूछा।
‘‘वह तो होंगे ही शादी के बाद मैं कहीं और चली जाऊँगी, तुम कहीं और।’’
‘‘मैं तो यहीं रहूँगी वाराणसी में, तुम अपनी सोचो।’’
‘‘तुम्हारी शादी यहाँ हो सकती है, मेरी तो असंभव है।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘मेरे पिताजी जहाँ भी बात चलाते हैं, चार-पाँच लाख से कम की बात नहीं होती है। पता नहीं, समाज कब बदलेगा !’’
शहनाज ने कहा, ‘‘इसे बदलने में तो सदियाँ बीत जाएँगी।’’
‘‘काश, मैं मर्द होती !’’
‘‘अगर मर्द होती तो क्या करतीं तुम ?’’
सुनीता ने कहा, ‘‘तुम्हें ब्याह कर अपने घर लाती।’’
‘‘मुझमें ऐसी क्या खूबी है ?’’
‘‘तुम्हें पता नहीं, शहनाज, कि तुम कितनी खूबसूरत हो ! तुम तो सौंदर्य की साक्षात् देवी हो। जी तो करता है कि तुम्हें चूम लूँ, हृदय से लगा लूँ।’’
‘‘फिर तो तुलसीदास की बात गलत साबित हो गई।’’
शहनाज की बात को न समझते हुए सुनीता ने पूछा, ‘‘वह कैसे ?’’
‘‘तुलसीदास ने रामायण में लिखा है- मोह न नारि नारि कै रूपा।’’
‘‘लेकिन तुम सीता की तरह अपवाद हो।’’
‘‘वह कैसे ?’’
‘‘तुलसीदास ने ही सीता के लिए रामायण में लिखा है-रंगभूमि जब सिय पगु धारी, देखि रूप मोहे नर नारी।’’
‘‘तुमने तो मुझे कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया। कहाँ सीता, कहाँ मैं !’’
‘‘तुम हो ही ऐसी, शहनाज। तुम्हारे रूप सौंदर्य को देखकर तो एक-से-एक फिल्मी हस्तियाँ अपनी जान न्योछावर करने के लिए तैयार हो जाएँगी।’’
‘‘ईश्वर ने बना दिया तो मैं क्या करूँ ?’
’
‘‘उस मर्द के भाग्य खुल जाएँगे, जिसे तुम मिलोगी। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जिस मर्द के साथ तुम्हारी शादी हो उसी के साथ में भी निकाह पढ़ा लूँ ?’’
‘‘मेरी दोस्ती की खातिर तुम अपना मजहब छोड़ दोगी ?’’
‘‘क्यों नहीं ? तुमसे मुझे इतना प्यार जो है। लेकिन मैं ऐसे किसी मर्द को पसंद नहीं करूँगी, जिसका मन एक औरत से न भरता हो।’’
‘‘तुम्हारे मजहब में तो मर्दों को चार-चार औरतें रखने की छूट है।’’
‘‘मैं इसे गलत मानती हूँ।’’
‘‘अगर तुम्हें ऐसा ही मर्द मिल गया तो ?’’
‘‘मैं उसे छोड़ दूँगी।’’
‘‘बशर्ते काजी इजाजत देगा। तुम्हारे मजहब में मर्द तीन बार ‘तलाक’ शब्द का उच्चारण करके छुट्टी पा सकता है, लेकिन औरत ऐसा नहीं कर सकती। उसे खुला1 के लिए काजी का दरवाजा खटखटाना पड़ता है। फैसला ज्यादातर मर्द के पक्ष में होता है। तुम्हारा मजहब मर्दपरस्त है, औरतें तो उनकी खेतियाँ2 हैं।’’
तभी तो मैंने फैसला कर लिया है कि मैं अपनी शादी अपनी मर्जी से करूँगी।’’ शहनाज ने कहा।
लेकन करोगी किससे ?’’
‘‘जो मेरे मन के अनुरूप होगा।’’
‘‘तेरा मजहब औरतों की आजादी का पक्षधर नहीं है।’’
‘‘लेकिन मेरा परिवार सभी प्रकार की आजादी का पक्षधर है।’’
‘‘यह तो मैं देख रही हूँ। एक तुम ही हो, जो बिना बुर्का के यहाँ आती हो, वरना सभी मुसलिम लड़कियाँ बुर्के में रहती हैं। कॉलेज के बाहर होते ही अपने को काले लबादे में कैद कर लेती हैं। पता नहीं, इस इक्कीसवीं सदी में भी पढ़ी-लिखी औरतें क्यों इस रूढ़िवादी परंपरा को ढो रही हैं।’’
------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
1. औरतों द्वारा मर्द को तलाक दिए जाने को ‘खुला’ कहते हैं।
2. कुरान शरीफ में औरतों को मर्दों की ‘खेतियाँ’ कहा गया है। कुरान शरीफ, शूरे बकर, पारा 2, रूकू 28, आयत 223, पृष्ठ 77, शेरवानी संस्करण, किताबघर, लखनऊ।
‘‘यह मुस्लिम औरतों की विवशता है। वे चाहकर भी इसलाम की सड़ी-गली मान्यताओं से छुटकारा नहीं पा सकतीं। हमारा समाज वहशी दरिंदों का समाज है। अभी कश्मीर में बुर्का नहीं पहननेवाली मुसलिम लड़कियों पर गुंडे किस्म के कुछ कट्टरपंथी मुसलमानों ने तेजाब फेंक दिया-समाज तो मुँह देखता रह गया। वोट की भूखी सरकार भी चुप्पी साध गई। तुम्हारा हिंदू समाज इन सब मामलों में बेहतर है तुम्हारे यहाँ समाज-सुधार की लहर चली और परदा-प्रथा उठ गई। लोगों ने आवाज उठाई और घिनौनी सती-प्रथा का अंत हो गया। ऊँचे खयालात के लोगों ने कदम कदम बढ़ाए और विधवा-विवाह शुरू हो गया। मेरे मजहब में तो आवाज उठाने वालों का गला घोंट दिया जाता है। मैंने तो फैसला कर लिया है कि मैं अपने भाग्य का निर्णय स्वयं करूँगी।’’
‘‘तुम्हारा समाज तुम्हें ऐसा करने की इजाजत नहीं देगा।’’
‘‘जरूरत पड़ने पर मैं समाज को ठोकर मार दूँगी।’’
‘‘ठीक है, फिर हम दोनों ऐसा ही करेंगे।’’
‘‘क्यों ? तुम्हारे मजहब में तो किसी चीज की पाबंदी नहीं है।’’
‘‘पाबंदी तो नहीं है, लेकिन एक-से-एक दरिंदे हमारे समाज में भी हैं, जिनकी कथनी और करनी में जमीन-आसमान का अंतर है। किंतु हम दोनों ऐसे ही मर्दों को अपने लिए ढूँढ़ेंगे, जो समाज के कहने पर हम लोगों को नहीं छोड़ेंगे। दुनिया में कुछ अच्छे मर्द तो हैं ही।’’
‘‘जरूर शहनाज हँसकर बोली, ‘‘लेकिन अपने लिए अलग-अलग।’’
‘‘सौ फीसदी अलग-अलग। सुख में बँटवारा कौन चाहता है !’’
‘‘हम लोग कहाँ चाहते हैं ! चाहता तो मर्द है, जो दर्जन भर बीवियों से भी संतुष्ट नहीं होता है। रखैल रखने की बात करता है और कोठा आबाद करने पर फख्र महसूस करता है। पता नहीं ऐसा समाज कब बनेगा, जब इस तरह के नीच लोगों को सरेआम गोलियों से उड़ा दिया जाएगा।’’
शहनाज अपने माता-पिता की अकेली संतान है। उनका भरपूर प्यार उसे मिला हुआ है। माता-पिता के ऊँचे खयालात होने की वजह से किसी प्रकार की बंदिश का सामना उसे बचपन से लेकर आज तक नहीं करना पड़ा है। चंचल हिरणी की तरह घर-बाहर विचरती रही है और जब भी दूसरे लोगों ने उसपर बंदिशें लगाने की कोशिशें की हैं, उसने उन्हें ऐसा करारा जवाब दिया है कि उन्हें दिन में तारे दिखाई देने लगे हैं।
एक बार जब शहनाज की बुआ ने बिना बुर्का के कॉलेज जाने से उसे रोका था तो उसने कहा था, ‘ बुआ जी आप इस मकड़जाल में अपने को जकड़े रहिए, मैं तीन जन्म में भी इस गलीज चीज को हाथ नहीं लगाऊँगी।’
‘और जब तेरा शौहर बुर्का लेकर आएगा तो क्या करेगी तू ?’
‘मैं वैसे आदमी से ब्याह करने से इनकार कर दूँगी।’
‘फिर तो तेरा निकाह भी नहीं पढ़ाया जा सकेगा।’
‘आपसे किसने कहा कि मैं निकाह पढ़ाऊँगी ?’
‘सभी लड़कियों को शादी की रस्म पूरी करने के लिए निकाह पढ़ाना लाजमी है।’
‘मैं उन लड़कियों में से नहीं हूँ।’
‘यह क्या कह रही है तू ?’
‘मैं ठीक कह रही हूँ, बुआजी। औरत की अस्मत बाजार की चीज नहीं है, जिसपर नीलामी की बोली लगाई जाए।’
‘बिटिया रानी, दैन-मेहर की रकम मर्दों को बाँधने के लिए है, ताकि वे लोग छुट्टा साँड़ न हो जाएँ।’
‘छुट्टा साँड़ तो आज का तकरीबन हर मर्द है। वह जब जिसको चाहे, हरम में डाल ले और जब चाहे, तीन बार ‘तलाक’ कहकर छुट्टी पा ले।’
‘नहीं, बिटिया रानी, दैन-मेहर की रकम अदा करने के डर से ही तो मर्द तलाक देने से हिचकिचाता है।’ बुआ ने कहा।
‘और जिसके पास दैन-मेहर अदा करने के लिए ताकत होती है, वह तीन बार तलाक बोलकर औरत को बेसहारा छोड़ देता है। ऐसे मर्द भावनाओं से न जुड़कर उसके जिस्म से खिलवाड़ करते हैं।’
‘फिर अगर औरत-मर्द में न पटे तो तलाक कैसे हो ?’
‘स्वेच्छा से, आपसी समझ-बूझ के आधार पर, दोनों की मरजी से। यहाँ तो अजीब गोरख-धंधा है। मर्द को सनक चढ़े या किसी औरत से मन भर जाए तो ‘तलाक-तलाक-तलाक’ कहकर छुट्टी पा ले और अगर नरक-सी जिंदगी से ऊबकर बेचारी कोई औरत अपने मर्द को छोड़ना चाहे तो उसे काजी के दरबार में हाजिर होना पड़े। यह कहाँ का न्याय है ?’ शहनाज ने उत्तेजित होकर पूछा।
‘फिर औरत-मर्द के बीच नहीं पटने का फैसला कैसे हो, बेटी ?’
‘जिस तरह मर्दों को फैसला करने का अधिकार है उसी तरह औरतों को भी होना चाहिए।’
‘यह बात कुरान शरीफ में नहीं है। फिर हम लोग कुरान शरीफ की बातों से बाहर कैसे जा सकते हैं ?’
‘आप लोग नहीं जा सकती हैं, लेकिन मैं तो जाऊँगी।’
‘यह तू क्या कह रही है, बिटिया रानी ?’
‘वही, जो आज हर तरक्कीपसंद इनसान को कहना चाहिए। जिंदगी को किसी एक किताब के दायरे में बाँध कर रखना सरासर जुर्म है, दरिंदगी है।
‘‘हम दोनों जुदा ही क्यों होंगे ?’’ शहनाज ने पूछा।
‘‘वह तो होंगे ही शादी के बाद मैं कहीं और चली जाऊँगी, तुम कहीं और।’’
‘‘मैं तो यहीं रहूँगी वाराणसी में, तुम अपनी सोचो।’’
‘‘तुम्हारी शादी यहाँ हो सकती है, मेरी तो असंभव है।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘मेरे पिताजी जहाँ भी बात चलाते हैं, चार-पाँच लाख से कम की बात नहीं होती है। पता नहीं, समाज कब बदलेगा !’’
शहनाज ने कहा, ‘‘इसे बदलने में तो सदियाँ बीत जाएँगी।’’
‘‘काश, मैं मर्द होती !’’
‘‘अगर मर्द होती तो क्या करतीं तुम ?’’
सुनीता ने कहा, ‘‘तुम्हें ब्याह कर अपने घर लाती।’’
‘‘मुझमें ऐसी क्या खूबी है ?’’
‘‘तुम्हें पता नहीं, शहनाज, कि तुम कितनी खूबसूरत हो ! तुम तो सौंदर्य की साक्षात् देवी हो। जी तो करता है कि तुम्हें चूम लूँ, हृदय से लगा लूँ।’’
‘‘फिर तो तुलसीदास की बात गलत साबित हो गई।’’
शहनाज की बात को न समझते हुए सुनीता ने पूछा, ‘‘वह कैसे ?’’
‘‘तुलसीदास ने रामायण में लिखा है- मोह न नारि नारि कै रूपा।’’
‘‘लेकिन तुम सीता की तरह अपवाद हो।’’
‘‘वह कैसे ?’’
‘‘तुलसीदास ने ही सीता के लिए रामायण में लिखा है-रंगभूमि जब सिय पगु धारी, देखि रूप मोहे नर नारी।’’
‘‘तुमने तो मुझे कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया। कहाँ सीता, कहाँ मैं !’’
‘‘तुम हो ही ऐसी, शहनाज। तुम्हारे रूप सौंदर्य को देखकर तो एक-से-एक फिल्मी हस्तियाँ अपनी जान न्योछावर करने के लिए तैयार हो जाएँगी।’’
‘‘ईश्वर ने बना दिया तो मैं क्या करूँ ?’
’
‘‘उस मर्द के भाग्य खुल जाएँगे, जिसे तुम मिलोगी। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जिस मर्द के साथ तुम्हारी शादी हो उसी के साथ में भी निकाह पढ़ा लूँ ?’’
‘‘मेरी दोस्ती की खातिर तुम अपना मजहब छोड़ दोगी ?’’
‘‘क्यों नहीं ? तुमसे मुझे इतना प्यार जो है। लेकिन मैं ऐसे किसी मर्द को पसंद नहीं करूँगी, जिसका मन एक औरत से न भरता हो।’’
‘‘तुम्हारे मजहब में तो मर्दों को चार-चार औरतें रखने की छूट है।’’
‘‘मैं इसे गलत मानती हूँ।’’
‘‘अगर तुम्हें ऐसा ही मर्द मिल गया तो ?’’
‘‘मैं उसे छोड़ दूँगी।’’
‘‘बशर्ते काजी इजाजत देगा। तुम्हारे मजहब में मर्द तीन बार ‘तलाक’ शब्द का उच्चारण करके छुट्टी पा सकता है, लेकिन औरत ऐसा नहीं कर सकती। उसे खुला1 के लिए काजी का दरवाजा खटखटाना पड़ता है। फैसला ज्यादातर मर्द के पक्ष में होता है। तुम्हारा मजहब मर्दपरस्त है, औरतें तो उनकी खेतियाँ2 हैं।’’
तभी तो मैंने फैसला कर लिया है कि मैं अपनी शादी अपनी मर्जी से करूँगी।’’ शहनाज ने कहा।
लेकन करोगी किससे ?’’
‘‘जो मेरे मन के अनुरूप होगा।’’
‘‘तेरा मजहब औरतों की आजादी का पक्षधर नहीं है।’’
‘‘लेकिन मेरा परिवार सभी प्रकार की आजादी का पक्षधर है।’’
‘‘यह तो मैं देख रही हूँ। एक तुम ही हो, जो बिना बुर्का के यहाँ आती हो, वरना सभी मुसलिम लड़कियाँ बुर्के में रहती हैं। कॉलेज के बाहर होते ही अपने को काले लबादे में कैद कर लेती हैं। पता नहीं, इस इक्कीसवीं सदी में भी पढ़ी-लिखी औरतें क्यों इस रूढ़िवादी परंपरा को ढो रही हैं।’’
------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
1. औरतों द्वारा मर्द को तलाक दिए जाने को ‘खुला’ कहते हैं।
2. कुरान शरीफ में औरतों को मर्दों की ‘खेतियाँ’ कहा गया है। कुरान शरीफ, शूरे बकर, पारा 2, रूकू 28, आयत 223, पृष्ठ 77, शेरवानी संस्करण, किताबघर, लखनऊ।
‘‘यह मुस्लिम औरतों की विवशता है। वे चाहकर भी इसलाम की सड़ी-गली मान्यताओं से छुटकारा नहीं पा सकतीं। हमारा समाज वहशी दरिंदों का समाज है। अभी कश्मीर में बुर्का नहीं पहननेवाली मुसलिम लड़कियों पर गुंडे किस्म के कुछ कट्टरपंथी मुसलमानों ने तेजाब फेंक दिया-समाज तो मुँह देखता रह गया। वोट की भूखी सरकार भी चुप्पी साध गई। तुम्हारा हिंदू समाज इन सब मामलों में बेहतर है तुम्हारे यहाँ समाज-सुधार की लहर चली और परदा-प्रथा उठ गई। लोगों ने आवाज उठाई और घिनौनी सती-प्रथा का अंत हो गया। ऊँचे खयालात के लोगों ने कदम कदम बढ़ाए और विधवा-विवाह शुरू हो गया। मेरे मजहब में तो आवाज उठाने वालों का गला घोंट दिया जाता है। मैंने तो फैसला कर लिया है कि मैं अपने भाग्य का निर्णय स्वयं करूँगी।’’
‘‘तुम्हारा समाज तुम्हें ऐसा करने की इजाजत नहीं देगा।’’
‘‘जरूरत पड़ने पर मैं समाज को ठोकर मार दूँगी।’’
‘‘ठीक है, फिर हम दोनों ऐसा ही करेंगे।’’
‘‘क्यों ? तुम्हारे मजहब में तो किसी चीज की पाबंदी नहीं है।’’
‘‘पाबंदी तो नहीं है, लेकिन एक-से-एक दरिंदे हमारे समाज में भी हैं, जिनकी कथनी और करनी में जमीन-आसमान का अंतर है। किंतु हम दोनों ऐसे ही मर्दों को अपने लिए ढूँढ़ेंगे, जो समाज के कहने पर हम लोगों को नहीं छोड़ेंगे। दुनिया में कुछ अच्छे मर्द तो हैं ही।’’
‘‘जरूर शहनाज हँसकर बोली, ‘‘लेकिन अपने लिए अलग-अलग।’’
‘‘सौ फीसदी अलग-अलग। सुख में बँटवारा कौन चाहता है !’’
‘‘हम लोग कहाँ चाहते हैं ! चाहता तो मर्द है, जो दर्जन भर बीवियों से भी संतुष्ट नहीं होता है। रखैल रखने की बात करता है और कोठा आबाद करने पर फख्र महसूस करता है। पता नहीं ऐसा समाज कब बनेगा, जब इस तरह के नीच लोगों को सरेआम गोलियों से उड़ा दिया जाएगा।’’
शहनाज अपने माता-पिता की अकेली संतान है। उनका भरपूर प्यार उसे मिला हुआ है। माता-पिता के ऊँचे खयालात होने की वजह से किसी प्रकार की बंदिश का सामना उसे बचपन से लेकर आज तक नहीं करना पड़ा है। चंचल हिरणी की तरह घर-बाहर विचरती रही है और जब भी दूसरे लोगों ने उसपर बंदिशें लगाने की कोशिशें की हैं, उसने उन्हें ऐसा करारा जवाब दिया है कि उन्हें दिन में तारे दिखाई देने लगे हैं।
एक बार जब शहनाज की बुआ ने बिना बुर्का के कॉलेज जाने से उसे रोका था तो उसने कहा था, ‘ बुआ जी आप इस मकड़जाल में अपने को जकड़े रहिए, मैं तीन जन्म में भी इस गलीज चीज को हाथ नहीं लगाऊँगी।’
‘और जब तेरा शौहर बुर्का लेकर आएगा तो क्या करेगी तू ?’
‘मैं वैसे आदमी से ब्याह करने से इनकार कर दूँगी।’
‘फिर तो तेरा निकाह भी नहीं पढ़ाया जा सकेगा।’
‘आपसे किसने कहा कि मैं निकाह पढ़ाऊँगी ?’
‘सभी लड़कियों को शादी की रस्म पूरी करने के लिए निकाह पढ़ाना लाजमी है।’
‘मैं उन लड़कियों में से नहीं हूँ।’
‘यह क्या कह रही है तू ?’
‘मैं ठीक कह रही हूँ, बुआजी। औरत की अस्मत बाजार की चीज नहीं है, जिसपर नीलामी की बोली लगाई जाए।’
‘बिटिया रानी, दैन-मेहर की रकम मर्दों को बाँधने के लिए है, ताकि वे लोग छुट्टा साँड़ न हो जाएँ।’
‘छुट्टा साँड़ तो आज का तकरीबन हर मर्द है। वह जब जिसको चाहे, हरम में डाल ले और जब चाहे, तीन बार ‘तलाक’ कहकर छुट्टी पा ले।’
‘नहीं, बिटिया रानी, दैन-मेहर की रकम अदा करने के डर से ही तो मर्द तलाक देने से हिचकिचाता है।’ बुआ ने कहा।
‘और जिसके पास दैन-मेहर अदा करने के लिए ताकत होती है, वह तीन बार तलाक बोलकर औरत को बेसहारा छोड़ देता है। ऐसे मर्द भावनाओं से न जुड़कर उसके जिस्म से खिलवाड़ करते हैं।’
‘फिर अगर औरत-मर्द में न पटे तो तलाक कैसे हो ?’
‘स्वेच्छा से, आपसी समझ-बूझ के आधार पर, दोनों की मरजी से। यहाँ तो अजीब गोरख-धंधा है। मर्द को सनक चढ़े या किसी औरत से मन भर जाए तो ‘तलाक-तलाक-तलाक’ कहकर छुट्टी पा ले और अगर नरक-सी जिंदगी से ऊबकर बेचारी कोई औरत अपने मर्द को छोड़ना चाहे तो उसे काजी के दरबार में हाजिर होना पड़े। यह कहाँ का न्याय है ?’ शहनाज ने उत्तेजित होकर पूछा।
‘फिर औरत-मर्द के बीच नहीं पटने का फैसला कैसे हो, बेटी ?’
‘जिस तरह मर्दों को फैसला करने का अधिकार है उसी तरह औरतों को भी होना चाहिए।’
‘यह बात कुरान शरीफ में नहीं है। फिर हम लोग कुरान शरीफ की बातों से बाहर कैसे जा सकते हैं ?’
‘आप लोग नहीं जा सकती हैं, लेकिन मैं तो जाऊँगी।’
‘यह तू क्या कह रही है, बिटिया रानी ?’
‘वही, जो आज हर तरक्कीपसंद इनसान को कहना चाहिए। जिंदगी को किसी एक किताब के दायरे में बाँध कर रखना सरासर जुर्म है, दरिंदगी है।
|
लोगों की राय
No reviews for this book