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लांछन

स्वदेश परमार

प्रकाशक : प्रतिभा प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1581
आईएसबीएन :81-88266-25-6

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सैन्य सेवा की पृष्ठभूमि पर रोचक शैली में लिखित उपन्यास ‘लांछन’, जो अपनी हृदयस्पर्शिता और मार्मिकता के कारण पठनीय बन पड़ा है।

Lanchhan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

"कश्मीर, मैं तुम्हारी सफलता पर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम एक योग्य अफसर हो और मैं चाहता हूँ, तुम बँगलादेश के अपने सैनिक अनुभव, अपने सुझाव और टिप्पणियाँ लिखकर मुझे प्रस्तुत करो।"
"राइट सर ! वह मैं सहर्ष कर दूँगा। परंतु सर, इसमें एक बाधा है।" वह बोला।
"वह क्या है ?"
"मेरे सुझाव कुछ उच्चाधिकारियों के विरुद्ध होंगे।" कश्मीर ने कहा।
"ब्रिगेडियर तुम्हारा उचित मूल्यांकन नहीं कर सका था।"
"सर, मेरा मूल्यांकन उनके और आपके विचार का विषय है। इसमें मैं कुछ नहीं कह सकता।"
"हाँ, परंतु मैं उसे अवगत करा दिया था।" कोर कमांडर ने संकेत से कह दिया।

कश्मीर समझ चुका था कि उसका उच्चाधिकारी मन- वचन से समान आचरण नहीं कर पाया है। आज प्रथम बार उसे यह भास हुआ कि सेना का एक उच्चाधिकारी किस प्रकार अपनी अयोग्यता को छुपाने का प्रयत्न करता है। यदि युद्ध कालीन स्थिति न होती, सभी ओर से निश्चित तिथि से पूर्व कार्य को समाप्त करने के कठोर आदेश न होते तो उसे अपनी सूझ- बूझ को प्रदर्शित करने का समय नहीं मिलता। उस अभाव में वह अपने उच्चाधिकारी की ईर्ष्या का ग्रास बन जाता है। आज उसे प्रथम बार अनुभव हुआ कि छल-कपट सेना की वरदी पहनकर भी हो सकता है।

इसी उपन्यास से

परिचय


भारतीय सेना के उत्तराधिकार में वे सभी परंपराएँ तथा मान्यताएँ आई थीं जो स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् अंग्रेज छोड़ गए थे। अनुशासन के कठिनतम मापदंड अफसर-सैनिक के मध्य संबंध की दूरी, मध्य वर्गीय अधिकारी तथा निम्नाधिकारी संचालित ब्रिटिश भारतीय सेना में कुछ ऐसी भी परंपरागत मान्यताएँ थीं, जो अलिखित होने पर भी लिखित नियमों की भाँति न केवल मान्य ही थीं, बल्कि उन्हें तोड़ना अब भी कानून के विरुद्ध माना जाता है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत जिस तीव्रता से हमारी सामाजिक परंपराएँ, धारणाएँ तथा मूल्य विघटित हो गए हैं उसी तीव्रता से सेना में भी अनुशासन की कठोरता में अब कमी आ गई है। ब्रिटिश शासन में नियम और अनुशासन के जिस उल्लंघन को दंडनीय समझा जाता था, अब ऐसे उल्लंघन प्रायः हो रहे हैं। उसका कारण यह है कि अब अनुशासन चालक तथा अनुशासित भारतीय समाज के सभी वर्गों से हो गए हैं। जीवन तथा सैनिक सेवा के प्रति सबका दृष्टिकोण एक जैसा नहीं रह गया है। कुछ लोग, जो प्राचीन परंपराओं में बँधे लकीर के फकीर रह गए हैं वे सामाजिक उथल-पुथल तथा जीवन मूल्यों के अवमूल्यन की सत्यता से अनभिज्ञ रह गए हैं।

सामाजिक तथा सैनिक परंपराओं में जो अंतर्द्वद्व चल रहा है, इस कथानक की वस्तुकथा के मूल में इसी विषय को प्रस्तुत किया गया है। रोचक तथा हृदयग्राही शैली में शब्दबद्ध यह उपन्यास एक अद्वितीय विषय प्रस्तुत कर रहा है, जो सुघड़, रोचक तथा मँजी हुई शैली में लिखने का मैंने प्रयास किया है।

कर्नल स्वदेश परमार

लांछन
एक

चिन्मयानंदाश्रम, जो संदीपनि हिमालय तपोवन ट्रस्ट के नाम से विख्यात है, हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा जिले में सिद्धबाड़ी गाँव से लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर मसरेड रोड पर पड़ता है। राम परिवार मंदिर हनुमान मूर्ति, शिवलिंग भवनों की श्रृंखला को तीनों ओर से घेरे हुए हैं तथा पश्चिमी भाग के साथ-साथ सड़कें गुजरती हैं। पहाड़ी पर स्थित होने के कारण सड़क के किनारे-किनारे ऊँची दीवार चिनकर पहाड़ी के गिराव को रोक दिया गया है। अभी कुछ ही वर्ष पूर्व तक इस स्थान पर केवल गाँव वालों के पशु चरते थे। नितांत निर्जन तथा एकांत यह स्थान, जहाँ दोपहर की प्रचंड धूप में भूत-प्रेतों की चहलकदमी का भास होने लगता था, इतने रमणीक तथा उपयोगिता पूर्ण स्थान में परिणति हो जाएगा, दस वर्ष पूर्व तक इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। वेद वेदांत की शिक्षा प्रशिक्षा का यह केंद्र पास वाले ग्रामों की कई प्रकार से सेवा कर रहा है।

 निःशुल्क चिकिस्ता, निःशुल्क प्रशिक्षण, स्त्रियों के ग्राम स्तर पर परिचारिका प्रशिक्षण, बालक-बालिकाओं के लिए उचित शिक्षा के प्रबंध की दिशा में भरसक प्रयत्न, चिन्मयानंद स्वामी की यदा-कदा धार्मिक गोष्ठियाँ न केवल प्रांत के लोगों को ही लाभान्वित कर रही हैं अपितु हजारों दूसरे लोग भी यहाँ आकर हिमाचल प्रदेश की विख्यात धौलाधार पर्वत श्रृंखलाओं से पल्वित, पुष्पित काँगड़ा घाटी के सौंदर्य का विहंगावलोकन करते हुए वेद वेदांत के गूढ़ मर्म को समझने का यत्न करते हैं। आश्रम में उगे पेड़-पौधे तथा शांत वातावरण भक्तजनों के मन को एकाग्र कर आत्मा में लीन होकर स्वयं को समझने परखने का भरपूर अवसर प्रदान करते हैं। शहरों की गहमागहमी से ऊबे हुए उद्योगपति एवं पूँजीपति यहाँ आकर पर्वतों की पवित्र जलवायु में सुख-शांति का अनुभव करते हुए मानसिक तथा आधिभौतिक चिंताओं से छुटकारा पाकर आत्मा एवं परमात्मा को समझने का यत्न करते हैं। जीवन की आपा-धापी तथा समय चक्र के थपेड़े खाते-खाते जो लोग हताश होकर फिर से जीवन मर्म को समझने तथा परखने की दिशा में प्रयत्नशील होना चाहते हैं उन्हें चिन्मयानंदाश्रम फिर से सन्मार्ग पर अग्रसर होने में सहायता करता है तथा जीवन को समझने की दिशा प्रदर्शित करता है। जो लोग केवल धन संचय में ही लगे रहकर जीवन मर्म को समझने में असमर्थ हो गए हैं, धर्माचरण से विमुख होकर मायाजाल में उलझकर रह गए हैं, उन्हें यहाँ धौलाधार के प्रांगण में आकर ही सुख-शांति प्राप्त होती है। यह इस आश्रम का प्रभाव है अथवा सुख-शांति से भरपूर वातावरण की महिमा है, यह केवल वही व्यक्ति बता सकता है जिसका जीवन इन दोनों तथ्यों से शून्य रह गया हो।
चिन्मयानंदाश्रम एक पहाड़ी पर स्थित है।

इस पहाड़ी के उत्तर तथा पश्चिम में वादी पड़ती है, जिसे धौलाधर पर्वत से उतरकर आई कूलें तथा पानी के स्रोत सदा सिंचित रखते हैं, जिससे वहाँ की हरियाली बनी रहती है। इस वादी से उभरती हुई इस ओर एक पहाड़ी है जो चिन्मयानंदाश्रम के शिवलिंग तथा हनुमान मूर्ति को बिलकुल सामने देखती है। बीच की दूरी एक डेढ़ किलोमीटर से अधिक नहीं है। परंतु इस पहाड़ी से प्रायः समतल होने के कारण चिन्मयानंदाश्रम का दृश्य अति भव्य और रमणीक लगता है। लोगों का कथन है कि चिन्मयानंदाश्रम जितना आनंदमय तथा रमणीक इस पहाड़ी से दिखता है, अन्यत्र कहीं नहीं दिखता। अभी-अभी इस पहाड़ी पर आश्रम को ध्रुव मानकर एक मकान की रूपरेखा उभरने लगी थी। जैसे ही नींव से ऊपर दीवारों का कार्य आरंभ हुआ, दरवाजों की चौखटें और फिर खिड़कियों की चौखटें रखी जाने लगीं। इतनी ऊँचाई पर बिलकुल एकांत में मकान पड़ता देखकर लोगों के मन में कौतूहल तथा जिज्ञासा का प्रादुर्भाव होना स्वाभाविक था। वैसे तो इस पहाड़ी पर भी खेतों के आकार दिखते हैं, कुछ चाय के पौधे लगे हुए भी दिखते हैं, दो-तीन खंडहर भी दिखाई देते हैं; परंतु यहाँ पिछले सौ डेढ़ सौ वर्ष से न ही कोई आबादी रही है और न ही किसी ने इन खेतों में बिजाई की है। अतः भूमि ऊसर पड़ी रह गई है; केवल घास ही उगता है और वर्ष भर गाँव वालों के ढोर से इस पहाड़ी पर चरकर अपना पेट भरते हैं। क्योंकि मालिक अपनी नौकरी के कारण भूमि का प्रबंध करने में असमर्थ था, इसलिए यह भूमि गाँव के चरागाह में परिणत होकर रह गई थी। ठीक यही हाल उस पहाड़ी की भूमि का भी था, जो अब चिन्मयानंदाश्रम के भव्य भवनों से सुशोभित हो गई है।

"यह किसका मकान बनने लगा है ? दो वृद्ध सज्जन चिन्मयानंदाश्रम से उतरकर सड़क पर टहलते हुए सिद्धबाड़ी की ओर जा रहे थे। इनमें से एक का नाम माया प्रसाद था और दूसरे का रामनाथ। माया प्रसाद उत्तर प्रदेश के चीफ कंजरवेटर पद से तथा रामनाथ डी.ए.वी. कॉलेज चंडीगढ़ के प्राध्यापक पद से सेवानिवृत्त हुए थे। रामनाथ अब चिन्मयानंदाश्रम में ही रहकर अपनी सेवाएँ संस्था को प्रदान कर रहे थे। उन्हें सेवा के बदले में कुछ आर्थिक लाभ मिल जाता था और सेवा तथा शांति की प्राप्ति अनायास फोकट में ही मिल रही थी। इस ओर पहाड़ी की ओर संकेत करते हुए माया प्रसाद ने यह प्रश्न रामनाथ से पूछा था। रामनाथ इस समय श्रीरामचंद्र मंदिर के पिछली ओर भूमि के कटाव को रोकने के लिए बन रहे डंगे को देख रहे थे।

उन्होंने माया प्रसाद के प्रश्न को लगभग अनसुना कर दिया और बोले, "भाई, यह डंगा तो और आगे तक लगाना पड़ेगा, तभी जाकर भूमि के इस कटाव को रोका जा सकेगा।"
इसपर माया प्रसाद ने घूमकर उन्हें देखा और रामनाथ की बात को समझते हुए बोला, "रामनाथ, तुमने सारी उम्र मास्टरी की है। अब तुम इंजीनियरिंग के चक्कर में क्यों पड़ रहे हो ?"
"पर इसमें इंजीनियरिंग की तो कोई बात ही नहीं है। क्या देखकर तुम नहीं कह सकते कि डंगा आगे तक लगना चाहिए ?"
"हाँ, सो तो है। परंतु यह कार्य तो सुब्रमणियम का है, जो इस संस्थान का इंजीनियर है।"
"ठीक है, उसी से बात करूँगा।" रामनाथ ने विषय को वहीं पर समाप्त करते हुए कह दिया। वह संस्थान का प्रबंधक तो था ही।

इसपर माया प्रसाद ने अपना प्रश्न फिर दोहरा दिया, वह जो सामने मकान बन रहा है, उसकी बात कर रहे हो ?"
रामनाथ बोला, "हाँ।"
माया प्रसाद ने कहा, "यहाँ सिद्धबाड़ी में एक कर्नल कटोच रहते हैं, यह उन्हीं का है।"
"कर्नल कटोच ? ऐसा स्मरण आता है, हम उनसे पहले मिल चुके हैं।"
"कभी-कभी मंदिर में आते हैं। हमें गाय का दूध उन्हीं से मिलता है।"
"तो क्या उन्होंने डेयरी खोल रखी है ?"
"तीन-चार गायें पाल रखी हैं। डेयरी चलाने का विचार रखते हैं।"
"तुम उनसे प्रायः मिलते हो ?"
"जब भी यहाँ आते हैं, मिलते हैं।"

"फौजी अफसर कुछ अद्भुत प्रकृति के जीव होते हैं। क्या यह कर्नल साहब भी वैसे ही हैं ?" माया प्रसाद ने पूछा।
"हाँ, कुछ विलक्षण तो हैं।" रामनाथ ने कहा।
"किस विषय पर बात चली थी ?"
"वे समय से पूर्व ही सेवानिवृत्त होकर आ गए हैं। मैंने इसका कारण पूछा था।"
"तो क्या उत्तर दिया था ?"
"कहने लगे-प्रिंसिपल साहब, मनुष्य शरीर तो बेच सकता है, पर उसे अपनी आत्मा को सदैव सुरक्षित रखना चाहिए।"
"वे चिन्मयानंद स्वामी के व्याख्यान सुनने आते हैं ?"
"मैंने उन्हें आते कभी नहीं देखा।"

"तुमने कभी इस बारे में भी पूछा था ?"
"हाँ।"
"तो उन्होंने क्या कहा ?"
"कहते हैं कि कर्म से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। आपके गुरुदेव भी तो यही शिक्षा देते हैं।"
"धर्मग्रंथों का अध्ययन किया प्रतीत होता है !"
"प्रायः ‘गीता’ के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।"
"प्रतीत होता है, उन्होंने अपनी आत्मा को सुरक्षित रखने के लिए त्यागपत्र दिया है।"



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