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निदान चिकित्सा हस्तामलक-1

वैद्य रणजितराय देसाई

प्रकाशक : वैद्यनाथ प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :732
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15787
आईएसबीएन :0

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प्रस्तावना

तस्माद्‌ दोषौषधादीनि परीक्ष्य दश तत्त्वतः।

कुर्याच्चिकित्सितं प्राज्ञो न योगैरेव केवलम्‌॥ च.चि.अ ३०

समीक्ष्य दोषौषधदेशकालासात्म्याग्निसत्त्वौकबलानि। च.थि.अ. ३०

आयुर्वेद-सिद्धान्तानुसार प्रत्येक रोग की चिकित्सा में उक्त दोषौषधादि परीक्षण अत्यावश्यक है। केवल अमुक योग (नुस्खा) से अमुक रोग नष्ट हो जाता है इतना ही जानकर चिकित्सा करना उचित नहीं, क्योंकि “न योगैरेव केवलम्‌” यह डिण्डिमघोष आयुर्वेद में प्रसिद्ध है। इस डिण्डिमघोष को ध्यान में रख कर ही “निदान-चिकित्सा- हस्तामलक” नामक यह पुस्तक लिखने का उपक्रम हुआ है।

आयुर्वेदिक साहित्य में रोग-निवारण के लिए अनेक प्रकार की चिकित्साबिधियों का वर्णन मिलता है। यथा-उपशय नाम से १८ प्रकार की चिकित्साविध का वर्णन चरक और वाग्भट आदि ग्रन्थों में प्रसिद्ध है। इसमें देश तथा काल का भी समावेश करने से बीस प्रकार के उपशय अर्थात्‌ चिकित्सा का संकेत भी मिलता है।

इसके अतिरिक्त मणि, मन्त्र, स्वस्त्ययन, बलि-उपहार-प्रार्थना, स्तोत्रपाठ सूर्य-रश्मि, जल, मृत्तिका और भस्म आदि का प्रयोग भी विविध रोगों के नाश के लिए आयुर्वेदीय साहित्य में वर्णित है।

तात्पर्य यह है कि वर्तमानकाल में संसार में जितने प्रकार की चिकित्सा पद्धतियाँ पायी जाती हैं, उन सब का वर्णन आयुर्वेदिक साहित्य में यत्र-तत्र उपलब्ध है और आवश्यकतानुसार इन सभी प्रकार की चिकित्सा-पद्धतियों का उपयोग प्राणाभिसर-प्रकार से करने का आदेश आयुर्वेदिक साहित्य में उपलब्ध है।

इन सब प्रकार की चिकित्सा-पद्धतियों में से किसी एक ही पद्धति को सर्वथा सर्वंदा मुख्यता दे देना आयुर्वेद के सिद्धान्त में अभीष्ट नहीं है।

प्रस्तुत निदान-चिकित्सा हस्तामलक पुस्तक के प्रारम्भिक १० अध्यायों में रोग-परीक्षा के लिए अत्यावश्यक ज्ञेय पदार्थों का विस्तृत वर्णन किया है। उदाहरणतः- व्याधि सामान्य विज्ञानीय-प्रथम अध्याय में काय चिकित्सा का प्राधान्य; काय-चिकित्सा से अभिप्रेत कायाग्नि का महत्त्व, व्याधिस्वरूप, दोषमहत्त्व, वात-दोष महत्त्व, दोष शब्द का महत्त्व-आदि अपेक्षित ज्ञातव्य विषयों का दिग्दर्शन किया गया है।

द्वितीय अध्याय में रोगलक्षण-प्रसंग में प्रकृति ज्ञानाधीन विकृति-ज्ञान होने से विकृति-वर्णन से प्रथम प्रकृति-वर्णन के रूप में स्वस्थ-लक्षण-समीक्षा की गई है। अनन्तर रोगभेदों की असंख्यता की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया गया है तथा जीवाणु-कारणवाद के बारे में आयुर्वेद-साहित्य का मन्तव्य स्पष्ट किया गया है। इसी प्रकरण में “भूतेभ्यो हि परं यस्मान्नास्ति चिन्ता चिकित्सिते” इस सुश्रुतोक्त वचन का व्यापक प्रामाण्य शल्यतन्त्र के बाहर कायचिकित्सा या भूतचिकित्सा, मानस रोगों में भी मानना संगत नहीं क्योंकि मानसरोग-रोगद्वेषादि भौतिक नहीं हैं। अतएव “भूतेभ्यो हि परं यस्मान्नास्ति चिन्ता चिकित्सिते’’ इस वचन को केवल शल्यतन्त्र में ही मान्यता देना उचित होगा क्योंकि शल्यतन्त्रवादी प्रायः पहले से ही प्रत्यक्ष प्रमाण को मान्यता देते आ रहे हैं। इसका प्रमाण “प्रत्यक्षतो हि यद्दुष्टं शास्त्रदृष्टं च यद्भवेत्‌” इत्यादि सुश्रुतोक्त वचन हैं। किन्तु कायचिकित्सक तो प्रत्यक्ष को अल्प तथा अप्रत्यक्ष को अनल्प मानते हैं। यथा – “अल्प हि प्रत्यक्षमनल्पमप्रत्यक्षम्‌। यैरेव तावदिन्द्रियेः प्रत्यक्षं भवति तान्येव सन्ति चाप्रत्यक्षाणि।” इत्यादि चरकसंहिता के वचन इस ओर संकेत करते हैं। इसलिए यह प्रसिद्ध है कि – “अनुमानेन कुर्वन्ति वैद्यक न प्रतिज्ञया” (यो. र.)।

इसी प्रकरण में यह कह देना उचित होगा कि मानसरोगों को आगन्तु रोग मान लेना भ्रान्त होगा, क्योंकि मानस दोष-रजोगुण तथा तमोगुण आगन्तु नहीं प्रत्युत ये मन के आश्रय में रहते हैं।

तृतीय अध्याय में दोषों के नानात्मज रोगों का विस्तृत वर्णन है। मेरे विचार से ‘‘निदान-चिकित्सा हस्तामलक” इस नाम के अनुसार इसी अध्याय में इन रोगों की चिकित्सा-विधि का भी वर्णन साथ-साथ हो जाता तो इन रोगों की सम्प्राप्ति का भंग किस प्रकार हो सकता है यह भी भली प्रकार हृदयंगम करने में छात्रों को सुविधा होती।

रक्त धातु को भी कुछ लोग दोष मानते हैं, अतएव दोषज रोगों के बाद चतुर्थ अध्याय में रक्‍त-जन्य रोग तथा धातु-प्रसंग से रसादि धातुस्थ रोगों का भी अपेक्षित वर्णन किया गया है।

इस प्रकार प्रायः उपद्रवरूप में पाए जानेवाले साधारण रोगों का वर्णन पढ़ लेने के बाद ज्वर, अतिसार आदि विशेष रोगों का वर्णन शीघ्र समझ में आ सकेगा-इस विचार से प्रथमतः यही वर्णन-क्रम उत्तम समझा गया है। आशा है, पाठक इससे लाभान्वित होंगे।

पञ्चम अध्याय में आदिबल इत्यादि से प्रवृत्त रोगों का वर्णन इसलिए किया गया है कि, चिकित्सा करते समय इस प्रकार के वर्गीकरण से उन-उन रोगों का बलाबल भली प्रकार समझकर उनकी यथासम्भव सफल चिकित्सा की जा सके।

षष्ठम अध्याय में वर्णित रोग-भेद का प्रकार भी ऊपर निर्दिष्ट प्रयोजन अर्थात्‌ चिकित्सा में सुकरता लाने के लिए ही किया गया है।

सप्तम अध्याय में रोग-परीक्षा के लिए उपयुक्त प्रत्यक्षवादि प्रमाणों का विवेचन किया गया है तथा साथ ही प्रश्नादि द्वारा भी रोग-परीक्षा कहाँ तक उपयुक्त है-इसका भी विवेचन किया गया है।

अष्टम अध्याय में परीक्षणीय विषय प्रकृति, सारसंहनन, सात्म्य, सत्त्व आदि का वर्णन किया गया है।

नवम अध्याय में दोष तथा दूष्यों का अपेक्षित संक्षिप्त वर्णन किया है तथा स्रोतों का भी उपयुक्त वर्णन दिया गया है।

दशम अध्याय में मधु-कोश की व्याख्या के अनुसार निदान पंचक का वर्णन किया गया है।

इस प्रकार प्रसक्तानुप्रसक्त रूप से उपयुक्त ज्ञेय विषयों का संकलन कर के इस “निदान-चिकित्सा हस्तामलक’’ नामक ग्रन्थ का निर्माण किया गया है।

पाश्चात्य विद्वद्वरों द्वारा प्रचारित ग्रन्थलेखन की शैली के अनुसार निबन्ध-रूप में लिखे गए इस ग्रन्थ की शैली, आज-कल के पठन-पाठन प्रकार के अनुकूल ही है; इसलिए यह ग्रन्थ सामयिक पाठकों की रुचि बढ़ाता हुआ लोकोपयोगी होगा, ऐसी आशा है। लेखक की भाषा-शैली विषय को रुचिपूर्ण तथा बोधगम्य बनाने में सफल हुईं है। इसका प्रमाण वाचक स्थान-स्थान पर प्राप्त करेंगे।

लेखक ने यत्र-तत्र प्राचीन प्रचलित शब्दों के प्रयोग में औचित्य प्रदर्शित किया है, जो स्तुत्य है। पर प्रस्तुत पुस्तक में ‘प्रमाण’ शब्द को प्रत्यक्षादि प्रमाणों के लिए तथा “मान-तौल” आदि के लिए भी प्रयुक्त करके संकीर्ण कर दिया है। जबकि प्राचीन ग्रन्थों में ‘‘मान-तौल” के लिए ‘परिमाण’ शब्द का उचित प्रयोग प्रसिद्ध है, अतएव मेरे विचार में प्रस्तुत ग्रन्थकार “मान-तौल” के लिए ‘परिमाण’ शब्द का प्रयोग करें तो ठीक होगा।

आयुर्वेद में निदान अर्थात्‌ रोगों का निदान विस्तार से वर्णित नहीं है – ऐसी धारणा प्रायः शिक्षित वैद्यसमाज में पायी जाती है। यह इसलिए की निदान सम्बन्धी सभी साहित्य किसी एक ही ग्रन्थ में और एक जगह श्रृंखलाबद्ध – एक ही प्रकरण में प्राप्त नहीं है। यद्यपि आयुर्वेद के वाङ्मय में इतस्ततः ऐसा साहित्य मिलता है- जिसके संकलन से निदान के विषय में संक्षिप्त तथा आकांक्षित साहित्य शून्य स्थलों का प्रतिसंस्कार किया जा सकता है तथापि ऐसा यत्न करके लिखे ग्रन्थ हमें उपलब्ध नहीं है। इस श्रेणी के उपलब्ध ग्रन्थों में-माधव निदान आदि ग्रन्थों से भी आवश्यकता की पूर्ति नहीं हो पाती। उदाहरणतः माधव निदान के प्रारम्भ में ही ज्वर-निदान-प्रकरण में ज्वर का निदान ही वर्णित नहीं है केवल ज्वर की संप्राप्ति से ही इस प्रकरण का श्रीगणेश कर दिया गया है। चरकसंहितोक्त ज्वर के विविध निदानों का वर्णन माधव निदान में नहीं पाया जाता। अतः सम्प्रति ऐसी सामयिक निदान-चिकित्सा पुस्तक की अत्यन्त आवश्यकता है।

‘‘निदान-चिकित्सा हस्तामलक” नामक इस पुस्तक की भूमिका लिखने का आदेश मेरे अन्यतम सुहृद्वर श्री रणजितराय देसाई ने दिया था। अत्यन्त कार्यव्यस्तता के कारण मैं इस कार्य को शीघ्रतया सुचारुरूप से पूर्ण न कर सका, एतदर्थ क्षमा चाहता हूँ। मेरे विचार में यह पुस्तक प्राचीन आयुर्वेद के सिद्धातों की व्याख्या पाश्चात्य विज्ञान-मत से भी करने में अच्छी मार्गदर्शक है। ऐसे ग्रन्थों से इस समय पठन-पाठन में अच्छी सहायता मिल सकती है, क्योंकि काल-बल से आज के युग में जनता पाश्चात्य विज्ञान पर अधिक श्रद्धा रखती है। वह भारतीय प्राच्य विज्ञान को भी पाश्चात्य विज्ञान की कसौटी पर कस कर ही उसका मूल्य निर्धारण करना उचित समझती है। अतएव ऐसे समय में इस प्रकार की पुस्तकें अवश्य आयुर्वेदसिद्धान्तों का ज्ञान पाश्चात्य विज्ञान के सहयोग से जनता तक पहुँचाने में उपयोगी होगी। शमिति।

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