आलोचना >> महामारी और कविता महामारी और कविताश्रीप्रकाश शुक्ल
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किसी भी कला रूप में समय का स्पन्दन गहरा होता है या होना चाहिए। इसीलिए सार्थक कलाओं की सार्थकता मनुष्य के सुख-दुख को, प्रकाश-अन्धकार को उसके सफेद-स्याह के साथ अभिव्यक्त करने में है। सभ्यता के स्याह पक्ष से, हम मानव समाज के नागरिक के रूप में, पिछले कई वर्षों से लगातार जूझ रहे हैं।
इस त्रासदी को हृदयंगम करना एक संवेदनशील नागरिक की अनिवार्यता है। पर श्रीप्रकाश शुक्ल जैसे सुहद कवि ने इसे हृदयंगम कर छोड़ नहीं दिया, बल्कि उनके बौद्धिक मनष् ने इस विडम्बना को कालों में पसरा देखा। इस अन्तर्दृष्टि ने उनमें वर्तमान से अतीत की यात्रा करवाई। इस यात्रा में उन्हें अपने जैसे अनेक सुहृद मिले; इतिहास की गलियों में महामारी के ताण्डवीय दौर के अनेक कालखण्ड मिले। मिली उससे बार-बार लड़कर बाहर आ जाने की जिजीविषा। इस तरह आलोचना का अभिनव और दुर्लभ स्फीयर तैयार हुआ; जहाँ तिहास, मानवीय संवेदना, जिजीविषा और साहित्य कदमताल करते हुए, महामारी के प्रतिपक्ष बन जाते हैं। क्रिएटीविटी और शोध के सन्तुलन से निर्मित यह यात्रा ‘महामारी और कविता’ नाम से सम्पन्न हुई जिसका मुख्य आधार ‘कोरोजीविता से कोरोजयता तक’ की समूची प्रक्रिया को समझने में है। निश्चित रूप से ‘कोरोजीवी कविता’ की नयी सैद्धान्तिकी से सम्पन्न इस अनूठी पुस्तक से हिन्दी समाज में एक बौद्धिक हलचल निर्मित होगी, जहाँ अनेक पाठक व अध्येता इससे प्रेरित होकर न केवल इसका स्वागत करेंगे बल्कि इतिहास में महामारियों के समानान्तर कविता की उर्ध्वमुखी भूमिका को लेकर आश्वस्त भी हो सकेंगे।
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