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कीचड़ और कमल

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1577
आईएसबीएन :81-7315-320-5

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प्रस्तुत है उत्कृष्ट उपन्यास...

Keechar Aur Kamal

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

देश में कभी भी आंभियों और जयचंदों की कमी नहीं रही है; पर साथ ही ऐसे पराक्रमी देशभक्तों की भी कमी नहीं रही है, जो अपनी मातृभूमि की समृद्धि के लिए उसकी सुरक्षा के लिए प्राणपण से जीवन भर लगे रहे। प्रस्तुत उपन्यास में तत्कालीन कालिंजर व त्रिपुरि राज्यों की समृद्धि व स्थापत्य कला का ऐसा सजीव वर्णन है, जो भुलाए न भूले।

कीचड़ और कमल
1

आठ सौ वर्ष से ऊपर हो गए, जब खजुराहो को खर्जूरवाहक भी कहते थे।
कार्तिक का महीना लग गया था। खजुराहो की शिवसागर झील से कुछ दूरी पर खेत थे, जिनमें बोहनी हो चुकी थी। कहीं-कहीं गेहूँ, चने के बीज के कल्ले फूट निकले थे। दिन डूबने वाला था। स्वर्ण किरणें खेतों के कूँड़ों में से झाँकते हुए उन कल्लों को चूम रही थीं। एक खेत के दूसरे छोर से एक पुष्टकाय पुरुष हाथ में लाठी लिये और कमर में म्यान में पड़ी हुई छुरी लटकाए अपने खेत के उगते कल्ले को निरखता हुआ दूसरे लगे हुए खेत के मेंड़ से जरा हटकर हरी दूबा पर जा बैठा।

वहीं निकट से मार्ग खजुराहो की ओर गया था। पास ही खजूर के कुछ छोटे-बड़े पेड़ों का कुंज-सा था। कुंज की ओट से दूसरा पुरुष निकला। कृशकाय था, परंतु छरेरे शरीर का। यह भी लाठी लिए था और कमर में छुरी बाँधे था। पहले से आए हुए को देखकर एक क्षण ठिठका; भौंहें सिकुड़ीं, तनी और फिर ज्यों-की-त्यों हो गईं। धीरे से ‘उँह’ कहकर उस पुरुष से थोड़ी-सी दूरी पर वह भी दूबा पर बैठ गया। पुष्टकाय इससे कुछ आयु का था। उन दोनों के खेत लगे हुए थे। चौड़ी सी मेंड़ भर बीच में थी। पुष्टकाय ने हलका सा नमन किया। दूसरे ने भी शिष्टाचार बरता। वे दोनों खजुराहो के रूपकार थे—पत्थरों की मूर्तियाँ बनानेवाले और किसान भी।

जवानी पुष्टकाय के चेहरे पर और देह से भी छलक रही ती, दूसरे—नवागंतुक—देह पुष्ट नहीं थी, मूँछों पर तिलचाँवरी रंग आ बसा था; परंतु आँखों से शक्ति झाँक-झाँक पड़ती थी।
ऋतु और कृषि की थोड़ी सी चर्चा के बाद कृशकाय ने बातचीत के क्रम में कहा, ‘चंदेलों का सतयुग सल्लक्षणवर्मदेव महाराज के साथ चला गया। अकाल पड़े, खेती-पाती रोई और कला भी अब सोई सी पड़ी है।’
‘उनके पीछे राजाओं ने भी तो कुछ किया; पर अपने करम-कुकरम जो कुछ न कराएँ थोड़ा है।’ पुष्टकाय ने थके स्वर में प्रतिवाद किया।

‘करम-कुकरम तो लगे ही रहते हैं, भैया, और सदा से चले आ रहे हैं; परंतु राजा के अच्छे या ऐसे-वैसे होने पर भी तो बहुत कुछ निर्भर रहता है। अच्छे राजाओं के युग में हमारे-तुम्हारे पुरखों ने सुंदर शिल्पकारी की, विकट युद्ध लड़े। कितना उपजता था ! और अब ?’
‘राजा देवता का अवतार होता है, इसे न भूलना, दादा।’
‘लल्ला, देवता भी तो उठते-बैठते, गिरते-पड़ते, और सोते-जागते रहते हैं। वैसी ही उनकी भक्तों की भी दशा होती जाती है।’

राजा की बुराई मत करो, राजा और जदगीश में जो अन्तर माने और भेद करे वह बुरा है।’
तो फिर ये विपत्तियाँ क्यों पड़ीं ? माना कि राजा देवता का अवतार होता है, और अपने राजा तो किसी-न-किसी देवता के अवतार हैं ही; परंतु कई वर्षों से पानी क्यों कम बरस रहा है ? पर साल हरे-भरे खेत कैसे उजड़ गए ?’
‘पापियों के पाप से, दुष्टों के कुकर्मों से। पानी कम बरसने पर भी हमारे खेत में पिछले वर्ष उपज हरिया रही थी, जब तुम्हारे बैलों ने रात में चर ली और रौंद डाली ! इसमें राजा का क्या दोष था ? राजा की निंदा पर आ गए अब !’
‘मैंने कोई निंदा नहीं की। उस झगड़े की पंचायत हुई और उसमें न्याय हुआ कि हमारा कोई अपराध नहीं था, फिर भी तुम यह बकवास कर रहे हो !’’

गरमी बढ़ गई। दोनों के नथने फूल उठे।
‘सँभल के बोल। रूपकार बना फिरता है, गँवार कहीं का !’
‘गँवार होगा तू और तेरी सात पीढ़ी। नीच !’ दोनों निकट आ गए।

‘चुप बे गधे ! जीभ खींच लूँगा।’ और पुष्टकाय ने एक थप्पड़ जड़ दिया। कृशकाय ने झपटकर उसे लात मारी। दूसरे ने कमर से तुरंत छुरी निकाली और पैंतरा बदला। झपटकर दूसरे ने भी छुरी निकाली और उस पर वार कर दिया। वार उसके बाएँ हाथ पर पड़ा। कृशकाय ने बिजली की तरह कौंधकर पुष्टकाय की पसलियों के नीचे छुरी भोंक दी। वह गिर पड़ा। तड़पने लगा। वार करनेवाले ने इधर-उधर देखा। आसपास कोई न था। छुरी उसने वहीं गडढा खोद कर गाड़ दी और मिट्टी से ढक दी। पुष्टकाय कुछ क्षण कराहता रहा, फिर स्तब्ध हो गया, जैसे मर गया हो।

सूर्यास्त हो गया। मारनेवाला वहाँ से सावधानी के साथ चला और खजूरों के ऊँचे पेड़ों के नीचे की नई खजूर के झुरमुट की आड़ में जा खड़ा हुआ। कुछ दूर पर घायल की कराहें फिर सुनाई पड़ीं। कृशकाय ने बाएँ हाथ की कलाई के ऊपर बाँह से बहते हुए रक्त की धार पोंछी। पीड़ा बढ़ी। उसने दबाने का प्रयास किया। अँधेरा छाने लगा और बढ़ता रहा। चाँदनी के उगने में देर थी। वह आहट लेता हुआ धीरे-धीरे अपने घर की ओर बढता रहा। घर वहाँ से आधे कोस से कम दूरी पर न था। लुकते-छिपते देर में पहुँच पाया।  द्वार के किवाड़ बंद थे, परंतु साँकल नहीं चढ़ी थी। धीरे से खोले और साँकल चढ़ाकर पौर में जा खड़ा हुआ। पौर में दीपक का मंद प्रकाश था। उसके कानों में सनसनाहट थी, जिसमें होकर उस घायल की कराह गूँज रही थी। पास के मंदिरों से बाजों की ध्वनि आ रही थी।

घर में एक लड़का था और एक लड़की। लड़के का नाम संतू था, लगभग चौदह वर्ष का—नाक-नक्श सब सुंदर, रंग साफ। लड़की होगी सात-आठ वर्ष की, संतू से भी अधिक सुंदर। परमा—प्रथमा—के दिन उसका जन्म हुआ था, इसलिए ‘परमी’ कहते थे। वैसे ज्योतिषी ने उसका नाम प्रमिला रख दिया था। इन दोनों की माता का देहांत कई वर्ष पहले हो चुका था। घर-गृहस्थी और रसोई का काम ये ही करते थे। बचे समय में संतू मूर्तिकला सीखने में लगा रहता, और प्रमिला अपनी सहेलियों के साथ नृत्य-गान सीखने में। पड़ोस में ही इनका एक निकट संबंधी रहता था। उसके यहाँ भी यही काम होता था। आँगन में धँसते ही संतू का सामना हुआ। अपने पिता के हाथ से रक्त बहता हुआ देखकर चीख पड़ा।
पिता ने उसे छाती से लगा लिया और कहा, ‘अभी बतलाता हूँ सब बात, धीरज धरो।’

संतू भय और शंका के कारण तुरंत चुप हो गया। प्रमिला चौके में थी। दौड़कर आई। घबरा गई। पिता ने उसे भी शांत किया। भीतर के कक्ष में ले जाकर उन दोनों को सारी कहानी सुनाई। वे रो रहे थे। दीपक के धुँधले प्रकाश में भी उनके बहते आँसू दिखलाई पड़ रहे थे।
पिता ने सांत्वना देते हुए समझाया, ‘जो हुआ सो हुआ। उस मूर्ख ने बहुत बुरा बर्ताव किया। पहले हाथ उसी ने उठाया। मैं बेबस हो गया। अब तुरंत आगे की सोचना है। बहुत करके वह बचेगा नहीं। बच गया तो बदला लेगा और न बचा तो उसका लड़का या उसके निकट संबंधी प्रतिकार चुकाने में कुछ कसर उठा नहीं रक्खेंगे। हम दोनों कुछ समय के लिए किसी दूसरे राज्य में जा ठहरेंगे।

फिर देखा जाएगा।’
‘और मैं ?’ प्रमिला ने सिसकते हुए कहा।
पिता के भी आँसू आ गए। बाँह का रक्त और आँखों के आँसू पोंछते हुए बोला, ‘उस घर में बनी रहेगी। लड़कियों से बदला नहीं लिया जाता। बहुत सी धन-सम्पत्ति छोड़ जाऊँगा, कोई कष्ट नहीं होगा। हम किसी ठीक अवसर पर लौट आएँगे।’
बड़ी कठिनाई से प्रमिला ने माना। रोती-सिसकती रही। पिता ने अविलंब सोना-चाँदी और सिक्के इकट्ठे किए। कुछ अपनी कमर में बाँधे और अधिकांश एक अँगोछे में कुछ वस्त्रों के साथ सुरक्षित रख दिया। आहट ली। धीरे से किवाड़ खोले।

मंदिरों की घण्टे-घड़ियाल बन्द हो चुके थे। कहीं-कहीं से केवल गायन-वादन की मंद ध्वनि शीतल-मंद पवन के साथ आ रही थी। चन्द्रमा का उदय अब भी नहीं हुआ था। उस पुरे में सूनसान सा था। अपने दोनों बच्चों को लेकर वह पड़ोस के एक घर में गया। निकट का नातेदार था। उसे हाथ का घाव दिखलाया और सारी कथा सुनाई। अपना निश्चय प्रकट किया। प्रमिला को नातेदार के हाथ सौंपा और वह गठरी उसे दे दी। पड़ोसी ने प्रमिला की रक्षा का आश्वासन दिया।

प्रमिला रोने लगी। उसकी सिसकियों में से फूट रहा था, ‘मैं तो अपने घर पर रहूँगी। घर नहीं छोड़ूँगी। कब आ जाओगे, दादा ? भैया कब लौटेंगे ?’
उसके पिता का कलेजा धड़क-धड़क जा रहा था। प्यारी पुत्री के आँसुओं की धारा और सिसकें एक ओर, दूसरी ओर वहाँ से निकल जाने का निश्चय। लड़की के ऊपर कोई हाथ नहीं उठाएगा और वह संबंधी उसकी पूरी देखभाल और रक्षा करता रहेगा—यह धारणा प्रबल हो गई। संतू ने भी अपने आँसू पोंछे और धीरज इकट्ठा किया। बहन को पुचकारा, समझाया। निकट संबंधी ने परमी को गोद में लेकर, सौगंधें खा-खाकर आश्वासन दिया। बहुत थक गई थी, चुप हो गई।
‘जैसे ही अच्छे दिन आए, संतू को साथ लेकर लौट आऊँगा। मौज के साथ रहना। कोई चिंता मत करना, भला।’ पुचकारों के साथ उसके पिता ने कहा।

निकट संबंधी ने और भी भरोसा दिया, ‘अरी बेटी, ये दोनों लौट आएँगे। और, मैं तो हूँ। आज रात तुम अपने घर रहना चाहती हो तो रह जाना, मैं भी वहाँ रह जाऊँगा। भोर होने पर जब बात चलेगी, कह दूँगा कि बहुत रो रही थी तो मैं पहुँच गया।’
परमी बोली, ‘मैं यहीं सो जाऊँगी।’
बाप-बेटा कमर में हथियार बाँधे, सिर पर गठरी लादे, आँसू पोंछते हुए अँधेरे में निकल गए। परमी को उस निकट संबंधी पड़ोसी ने बड़े प्यार-दुलार के साथ लिटा दिया। थोड़ी देर में वह सो गई।

पड़ोसी ने अपनी पत्नी से कहा, ‘अपने घर में यह कैसे आई, यह बात कल उठेगी। मैं कह दूँगा—और तुम भी कह देना कि यह अकेली रह गई थी, बिसूर रही थी तो तुम गईं और यहाँ लिवा लाईं। उसके पिता और भाई का पता नहीं कि कब कहाँ चले गए। रह गया वह सामान, जो यहाँ रख गए हैं, उसके संबंध में बतला देंगे कि परमी उठा लाई। इस लड़की को भी समझा देना। बहुत चतुर और होनहार है।’
उसकी पत्नी सहमत हो गई।

जिस पुरुष को अधमरा जानकर खेत की मेंड़ पर छोड़ दिया गया था, वह अधमरा तो हो ही गया था, घड़ी भर पीछे उसे कुछ चेत आया। कराहते-चीखते अब मरणासन्न था। पास से कुछ खजुराहो निवासी निकले। भूत-प्रेत का भय हुआ। दूर स्थित एक मंदिर से मशालों सहित एक भीड़ ले आए। घायल को पहचान लिया। उसके मरने में कुछ देर थी। बहुत धीरे-धीरे बोल सकता था। उसने मारनेवाले का नाम बतलाया और कुछ अधिक सचेत हुआ। भीड़ को आशा हुई, शायद बच जावे। उसके घर सूचना भेजी गई। उसके एक पुत्र था और पत्नी, बस। दोनों रोते-कलपते, हाँफते आ गए। मरते व्यक्ति ने मारनेवाले का नाम लेते हुए टूटे-फूटे शब्दों में अपने पुत्र से कहा, ‘लाहड बेटे, पलटा चुकाना।’
और उसका देहांत हो गया।

लाहड—उसका पुत्र—और अन्य लोग शव उठा लाए। रात बहुत बीत चुकी थी, दाह नहीं हो सकता था। माँ-बेटे को रोते-पीटते भोर हुआ।
लाहड की माता रुग्ण और दुर्बल तो पहले से ही थी, इस दुर्घटना की चोट को सह न सकी। भोर होने के उपरांत उसका भी देहावसान हो गया। पति-पत्नी के शवों का दाह एक ही स्थान पर हुआ।

दोपहर से अधिक दिन चढ़ आया था, जब लाहड और अन्य लोग श्मशान से लौटे। लाहड का चेहरा सूखा, बड़ी-बड़ी आँखें लाल, घनी भौंहें बिखरी हुईं सी। पंद्रह-सोलह वर्ष की आयुवाला, देह पुष्ट, और बलिष्ठ। कुश्ती का धनी था और मूर्तिकला—रूपकारी—में कुशलता प्राप्त करने पर घोर परिश्रम करनेवाला। उसकी मुट्ठी बार-बार कस जाती थी। घर आते ही पता लग गया कि हत्यारा और उसका पुत्र संतू रात में ही कहीं भाग गए हैं। कभी तो मिलेंगे। बदला लिए बिना न छोड़ूँगा, उसने ऩिश्चय किया।

तीन दिन की शौच-रीति का निर्वाह करने के उपरांत अपने पिता का वध करनेवाले के घर के सामने से निकला। घर का द्वार खुला था। लाहड की भौंहें सिकुड़ीं और मुट्ठी कस गई। उसी क्षण परमी दिखलाई पड़ी—सौंदर्य और भोलेपन की छोटी सी प्रतिमा। लाहड की मुट्ठी ढीली पड़ गई। उँगलियों से उसने अपनी ठोड़ी खुजलाई और भौंहें जहाँ-की-तहाँ। वे दुष्ट पापी भाग गए हैं, इस लड़की से क्या लेना-देना ? इसने बिगाड़ा ही क्या है ? उसके मन में उठा और वह श्मशान की ओर चला गया। भस्म आदि उठवानी थी और एक घोर रीति का भी निभाव करना था।

उसने अपने पिता के शवदाह स्थान से जली हड्डी का एक छोटा-सा टुकड़ा उठाया, माथे से लगाया और अपने कुरते के भीतर से लाल रेशम का गंडा निकालकर हड्डी के टुकड़े को उसमें सावधानी से बाँधा-और छलकती आँखों गले में कुरते के नीचे पहन लिया। बदला लेने की भाषा में, उसने गुनगुनाया, ‘जब तक बदला नहीं चुका लिया, यह हड्डी गंडे के रूप में गले में पड़ी रहेगी।’ कहाँ गए होंगे ये बाप-बेटे, उसने सोचा और अटकल लगाए। ढूँढ़-खोज करने से कहीं-न-कहीं तो मिल ही जाएँगे। हो सकता है, बहुत समय पीछे हाथ लग पावें। इस बीच में कला का क्या होगा ? वे दोनों यहाँ कहीं निकट तो रहेंगे नहीं, दूर चलते ही जाएँगे। ढूँढ़-खोज व्यर्थ जाएगी। वे एक दिन यहाँ अवश्य आएँगे; क्योंकि वह लड़की, छोटी सी लड़की, यहीं है—मैं बाहर नहीं जाऊँगा, यहीं रहूँगा। लड़की के साथ कभी-कभी अच्छा बरताव करने से कभी-न-कभी पता लग जाएगा। लाहड ने संकल्प किया।

:2:


प्रमिला को जिस पड़ोसी नातेदार के घर छोड़ दिया गया था, वह बहुत सहृदय था। बाप-बेटे के गृह-त्याग के सवेरे परमी नित्य के—पिता और भाई के—प्यार को न पाकर व्याकुल होने को ही थी कि पड़ोसी नातेदार और उसकी पत्नी ने उसके मन बहलाने का पूरा प्रयत्न किया। बच्चे घर में थे ही, जिनके साथ वह खेला-कूदा और नाचा करती थी, इस कारण कसक अधिक नहीं पड़ी। घर गई और सूनेपन से उकताकर लौट आई। नातेदार ने अन्य पड़ोसियों को यह नहीं बतलाया कि प्रमिला के पिता और भाई उससे मिलकर गए। भेंट नहीं हो पाई, लड़की का रोना-कल्पना सुनकर उसे लिवा लाए। उसने इतना ही कहा था कि पिता के हाथ से रक्त की धारा बह रही थी। स्वादिष्ट भोजन, खेलकूद और यह विश्वास कि पिता और भाई कुछ दिनों उपरांत लौट आएँगे और इस समय उनका कहीं चला जाना अच्छा ही रहा, उसके मन को सांत्वना दे रहे थे।

संध्या के उपरांत वह नातेदार परमी को दवारी नाम के मंदिर में ले गया, जो बहुत दूर नहीं था। जब पहुँचा, वहाँ गायन-वादन हो रहा था। उसमें परमी का मन कुछ लगा, कुछ भटका। उसके उपरांत जब नृत्य हुआ तब उसे बहुत सुहावना लगा। प्रसन्न थी। कभी-कभी घुटने व पाँव के पंजे थिरक जाते थे। नातेदार को संतोष हुआ। नृत्य हो चुकने पर कुछ लोग चले गए, कुछ बैठे रहे। बातें करने लगे। वह नातेदार भी भाग ले रहा था।

प्रमिला उसकी बगल में बैठी थी। उकताने लगी। जमुहाइयाँ लेकर बोली, ‘मुझे भूख लग रही है, दादा।’
नातेदार उसे घर ले आया, खिलाया-पिलाया और सुला दिया। उसके बच्चे भी जब सो गए तब अपनी पत्नी से अकेले में धीरे-धीरे बातचीत करने लगा, ‘संतू और उसका बरसों-बरसों पीछे कभी लौटें तो लौटें, वैसे हमें तो कई आशा नहीं।’
‘कोई आशा नहीं, हमें-तुम्हें सँभाल करनी पड़ेगी परमी की।’
‘सो तो करेंगे ही, भरोसा दे चुके हैं। लाहड कुनबुनाया सा है।’

‘कहा तो कुछ नहीं, चेहरे से मुझे ऐसा ही लगा। उसकी कोई चिंता नहीं। परमी के भविष्य की सोच रहा हूँ।’
‘क्या सोचा ?’
उसने अपनी पत्नी को रह-रह कर निश्चय सुनाया।
पत्नी अंत में सहमत हो गई, ‘हाँ, यही ठीक जान पड़ता है।’
भोर होने के बाद जब प्रमिला स्नान और कलेवा कर चुकी, नातेदार की पत्नी ने एकांत में उससे बड़े मीठे शब्दों में कहा, ‘कल रात का गाना-नाचना तुम्हें कैसा लगा ?’

‘बहुत ही अच्छा। दादा जाएँगे आज साँझ की वेला वहाँ ? जाएँगे न ? प्रमिला बोली।
‘हाँ, स्यात जावें।’
‘मैं जाऊँगी उनके साथ। दादा और संतू भैया मुझे सुलाकर यहाँ-वहाँ चले जाया करते थे, मंदिर नहीं ले जाते थे। कब तक लौटेंगे ? कहाँ गए हैं ?’
‘कुछ ठीक नहीं, बेटी, कब लौटें। हम लोग तो हैं यहाँ। तुम्हारे यह दादा जैसे कल तुम्हें लिवा गए थे वैसे आज भी साथ ले जाएँगे। खाना खाकर चली जाना, अच्छा !’

‘नहीं, मैं तो लौटकर खाऊँगी और फिर सो जाऊँगी।’
‘अच्छा, यह बतलाओ कि तुम गाना सीखोगी ?’
‘वैसा गाना ? अरे राम ! बड़ा कठिन है वह तो। कभी सीखूँगी, धीरे-धीरे सीख लूँगी, हाँ-आँ।’
‘और नाचना ? नाचना सीखोगी ?’
‘बहुत अच्छा लगा, सीखूँगी। कब ? कब ?’

‘जब तुम्हारे मन में आवे।’
‘उसके लिए तो अभी तैयार हूँ।’ प्रमिला हँस पड़ी।
जब स्त्री ने दुलार किया। बोली, ‘मंदिर में तो इस समय गाना-नाचना नहीं होता।’
‘तो कहाँ होता होगा ? कहाँ सीखूँगी ?’
‘यहाँ से थोड़ी दूर पर नृत्य-गान सिखलाने की पाठशाला है, उसमें पढ़ाई-लिखाई के साथ वह कला भी सिखलाई जाती है।’
‘कला क्या, माताजी ?’

‘नाचने-गाने की विद्या को भी कला कहते हैं।’
‘मुझे पहले किसी ने नहीं सिखलाया। कुएँ से पानी भर लाती और रोटी बनाने में हाथ बँटाती। बचा समय खेलकूद में जाता। तो कब जाऊँगी पाठशाला ?’
‘एकाध दिन में ही बिठला दी जाओगी उस पाठशाला में।’
‘आज ही क्यों नहीं ?’
‘आज दादाजी पाठशालावालों से बात कर लेंगे।’

‘अभी क्यों नहीं कर लेते ?’
‘इस समय वह काम में लगे हैं। साँझ की वेला बात हो जाएगी, फिर तुम्हें मन्दिर ले जाएँगे।’
प्रमिला आशा की हिलोड़ में मग्न हो गई—मैं भी वैसा नाच सीखूँगी, बार बार उसके मन में उठा।

संध्या के पहले वह नातेदार अपने काम पर से लौट आया। पत्नी से बात हुई। संतुष्ट हुआ। थोड़ी देर बाद वह पाठशाला में गया। स्वीकृति में संदेह ही नहीं था, सूचना भर देनी थी। लौटने पर प्रमिला को बतला दिया—दूसरे ही दिन भरती हो जाएगी। वह हर्षमग्न हो गई। संध्या के उपरांत वह अपने उस नातेदार के साथ मंदिर गई। उस दिन आरती के समय ही पहुँच गई थी। उसके भोले मन पर पूजा का प्रभाव हुआ—आँखें मूँदकर देवता की मूर्ति-छवि पर मुग्ध होती रही—इन्हींकी कृपा से मुझे नृत्य-गान विद्या आएगी। संतू भैया और पिताजी आएँगे, उसके भीतर संकल्प ने घर किया। नृत्य-गान के समय वह बहुत आनंदमग्न थी।

दूसरे दिन नातेदार उसे पाठशाला ले गया। वहाँ एक स्थान पर हंसवाहिनी सरस्वती देवी की मूर्ति थी। एक खंड में लिखाने-पढ़ाने का प्रबंध था, दूसरी ओर भवन के एक खंड में साज-बाज रखे थे। बालक-बालिकाएँ थीं और शिक्षक भी। वहां लाहड भी था। वह नृत्य-गान की भी शिक्षा प्राप्त करता था। जितना पढ़ना था उतना पढ़ चुका था। नृत्य-गान सीखता था और सिखलाता भी था। प्रमिला कुछ भयभीत हुई—इसीके पिता को मेरे पिताजी ने मारा है। क्यों मारा ? जो कुछ भी हो, अच्छा नहीं हुआ।

प्रमिला को दीक्षा देने की घड़ी आ गई। वहाँ की प्रधान शिक्षक उसको सरस्वती देवी की मूर्ति के सामने ले गया। वहीं लाहड भी खड़ा था। सोच रहा था—अकेली रह गई है ! वह प्रधान शिक्षक के निकट सरस्वती देवी की मूर्ति के बिलकुल पास था।
विद्यारंभ की रीति, हवन-पूजन इत्यादि के बाद प्राध्यापक ने प्रमिला को रोली का टीका लगाया, और कहा, ‘पाँव पड़ो।’
प्रमिला ने हाथ जोड़े, आँखें मूँदी और पाँव पड़ने के लिए झुक गई। फिर जुड़े हुए हाथ लाहड के पैरों की ओर बढ़े। जैसे ही छूने को हुए, लाहड ने हाथ पकड़ लिये। उसका सिर अपने पेट से चिपका लिया। देह में बिजली-सी कौंध गई। आँखें छलक आईं। बोला, ‘‘यह क्या ? सरस्वती माता के पैर छुओ।’

‘अभी छूती हूँ। आप भी तो मेरे बड़े हैं और यहाँ नाच-गाना सिखलाने वाले !’
उस छोटी सी बालिका में बुद्धि की ऐसी प्रखरता और बात करने की इतनी निर्द्वंद्वता सभी को अच्छी लगी। लाहड के मन में इतना और जागा—‘इस लड़की को अपने बाप के कुकर्म का बहुत पछतावा है। बड़ी होनहार है !’
प्रमिला के नातेदार की प्रसन्नता आपे से बाहर हो गई, ‘घर भर में अच्छी है। बहुत बड़ा भविष्य है इसका !’
रीति के पूरे किए जाने के उपरांत उसको काठ की पाटी पर वर्णमाला के कुछ अक्षर पहले बतलाए गए। नई बात थी। उसे अच्छी लगी। परंतु नृत्य-गान की शिक्षा के आरम्भ के लिए वह अधिक उत्सुक थी। उसके नातेदार को अपने काम पर जाना था।



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