नारी विमर्श >> गलत ट्रेन में गलत ट्रेन मेंआशापूर्णा देवी
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प्रस्तुत है उत्कृष्ठ उपन्यास..
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
इस उपन्यास की नायिका सुचारिता जो नायक निखिल की पत्नी है एक स्वाभिमानी
नारी है। वह अपने भाग्य की विडंबना को अपने पति के गलत निर्णयों को जीवन
भर सिर उठाकर झेलती है,पर अंत में उसका साहस साथ छोड़ जाता है,अपने पति की
एक अंतिम गलती के लिए वह उसे क्षमा नहीं कर सकी और जीवन के आगे हार गई।
भूमिका
उपन्यास का मुख्य चरित्र निखिल हालदार दुनिया के उन सैकड़ों जोशीले
नौजवानों में से एक है, जिन्हें अपनी सही मंजिल का होश नहीं, पर नियम का
व्यक्तिक्रम बनने का जोश है। यही जोश निखिल को आँधी की तरह जीवन के सरल
रास्ते से उठाकर अंधी गलियों में पटक देता है। उसे अपने जीवन को फिर से
सँवारने का मौका मिल जाता है; परंतु घर का सुख-चैन उसे नहीं भाता। वह सुख
की तलाश में फिर गुमराह हो जाता है। जीवन के अंतिम छोर पर आ उसे इस सत्य
की उपलब्धि होती है कि जिस शांति की खोज में वह गली-गली भटकता रहा, वह
उसकी प्रतीक्षा में आँखें बिछाए बैठी है उसी के अपने घर में।
अपने जीवन के सारे गलत फैसलों को सुधारने की एक अंतिम चेष्टा करता है वह, परंतु इस बार भाग्य के हाथों मजबूर होकर वह एक और गलती कर बैठता है। इस गलती के परिणाम को झेलने की शक्ति वह नहीं जुटा पाता है और फिर से खो जाता है। गुमनामी के अँधेरे में।
इस उपन्यास की नायिका सुचरिता, जो नायक निखिल की पत्नी है, एक स्वाभिमानी नारी है। वह अपने भागय की विडंबना को, अपने पति के गलत निर्णयों को जीवन भर सिर उठाकर झेलती है, पर अंत में उसका साहस साथ छोड़ जाता है; अपने पति की एक अंतिम गलती के लिए वह उसे क्षमा नहीं कर सकी और जीवन के आगे हार गई।
अपने जीवन के सारे गलत फैसलों को सुधारने की एक अंतिम चेष्टा करता है वह, परंतु इस बार भाग्य के हाथों मजबूर होकर वह एक और गलती कर बैठता है। इस गलती के परिणाम को झेलने की शक्ति वह नहीं जुटा पाता है और फिर से खो जाता है। गुमनामी के अँधेरे में।
इस उपन्यास की नायिका सुचरिता, जो नायक निखिल की पत्नी है, एक स्वाभिमानी नारी है। वह अपने भागय की विडंबना को, अपने पति के गलत निर्णयों को जीवन भर सिर उठाकर झेलती है, पर अंत में उसका साहस साथ छोड़ जाता है; अपने पति की एक अंतिम गलती के लिए वह उसे क्षमा नहीं कर सकी और जीवन के आगे हार गई।
गलत ट्रेन में
1
यह चिट्ठी अगर टेलीग्राम आने से थोड़ी देर पहले भी पहुँच जाती तो इस
टेलीग्राम-रहस्य को भेद करने में उत्तर कलकत्ता के मल्लिक लेन पर स्थित इस
हालदार परिवार की निस्तब्ध दुपहरी इस प्रकार उत्ताल नहीं हो उठती।
घर की प्रौढ़ गृहिणी सुचरिता हालदार ऐसे बेहाल होकर चीख पड़ीं-बहू ! जैसे सहारे के बिना अब काम नहीं चलेगा। उन्हीं के नाम से तार आया है। घर में ऐसे समय में केवल यही दो महिलाएँ मौजूद हैं। मगर वह युग नहीं रहा, जब अचानक टेलीग्राम का नाम सुनते ही लोग राम-राम जपने लगते थे। इसके अलावा मल्लिक लेन का यह हालदार परिवार भी अब उतना प्राचीनपंथी नहीं रहा कि हस्ताक्षर देकर टेलीग्राम लेने में ही घर की पुरनारियों की आँखों के आगे अँधेरा छा जाय और पढ़ने की क्षमता न होने के कारण घर के पुरुषों के आगमन की प्रतीक्षा में बैठी पल गिनती रहें।
सुचरिता किसी जमाने की मैट्रिक पास हैं। उनकी पुत्रवधू प्रतीति तो पूरी तरह विदुषी ही हैं।
फिर भी बहू की ओर टेलीग्राम बढ़ाकर उन्होंने कहा, ‘‘देखो तो, क्या लिखा है ? कौन आ रहा है ? ठीक से समझ में नहीं आ रहा है।’’
जबकि नहीं समझ पाने का कोई कारण नहीं है। यह तो पुराने जमाने की तरह टेलीग्राम ऑफिस के किसी डाक कर्मचारी के श्रीहस्त की लिखावट नहीं है। पतले कागज की ‘टेप’ पर टाइप किए हुए अक्षर हैं-‘रीचिंग फ्राइडे मॉर्निंग’ फिर भी-
प्रतीति ने भी उस टेलीग्राम को किसी दुर्बोध्य लिपि में लिखे ताम्रपत्र की तरह उलट-पलटकर देखा। धीरे से बोली, ‘‘कल ही तो शुक्रवार है।’’
फिर सास की ओर देखकर बोली, ‘कल सवेरे आ रहे हैं।’’
‘‘वह तो मैंने भी देखा है, बहू ! मगर कहाँ से आ रहा है, कौन आ रहा है-ठीक से यह तो बताओ ? कहाँ से टेलीग्राम किया गया है ?’’
‘‘बनारस से ! नीचे नाम लिखा है-निखिल।’’
प्रतीति ने एक नवीन शिक्षार्थी की भाँति पाठ्य वस्तु को बिना समझे ही किसी तरह पढ़ डाला।
बरामदे में रखी चौकी पर सुचरिता तो करीब-करीब लेट ही गई थीं, अब अचानक तनकर बैठ गईं। तीखे स्वर में बोल उठीं, ‘‘क्यों ? किसलिए इस घर की चौखट फिर पार करने आ रहे हैं ? किसने खुशामद की आने के लिए ?’’
प्रतीति थोड़ा दुःखी होकर बोली, ‘‘ऐसे क्यों कह रही हैं, माँजी ? शायद अचानक आने की इच्छा हुई होगी, तो आएँगे नहीं ?’’
सुचरिता का गोरा रंग इधर कुछ धीमा पड़ गया था। उम्र अपने कदमों की निशानी चेहरे और ललाट पर ही तो अधिक छोड़ती जाती है।
डीलडौल से जल्दी पता नहीं चलता, इसी वैशाख में सुचरिता उनसठ पार कर चुकी हैं। हमेशा का गोरा-चिट्टा रंग हाथ-पाँव और सभी जगह एक-सा है। केवल चेहरे का रंग जैसे धूप से जले ताँबे जैसा हो गया हालाँकि धूप में वह निकलीं ही कब ? बल्कि आजकल की लड़कियों को ही घूमना पड़ता है। प्रतीति को ही लें। बहुत अधिक तो नहीं, फिर भी बाहर निकलना ही पड़ता है। सुचरिता तो हमेशा ही चारदीवारी के भीतर रहीं। फिर, हो सकता है कि वह छाप भीतर के उत्ताप की हो। फिर भी अचानक उत्तेजित हो जाने पर या क्रोध आने पर वही चेहरा लाल होकर तमतमा उठता है, जैसा अभी हुआ।
बोल उठीं, ‘‘अचानक आने की इच्छा होने से ही क्या आना पड़ेगा ?
इस घर में फिर से प्रवेश करने का अधिकार उन्हें है क्या ?’’
प्रतीति ने फिर एक बार अपनी सास की ओर एकटक देखा और हिम्मत करके थोड़ा हँसकर बोली, ‘‘अधिकार तो सोलहों आने का है, माँजी। उन्हीं के बाप-दादा का घर है।’’
‘‘ओह ! अच्छा। यह याद नहीं रहा।’’ सुचरिता फिर से लेट गईं और भारी स्वर में बोलीं, ‘‘ठीक है, आने दो, जब सोलहों आना अधिकार है ही; मगर बुटान के दफ्तर में अभी एक फोन कर दो। सारी बात कहकर यह बता देना कि शाम को घर लौटते ही ऑफिस की गाड़ी जल्दी में न छोड़ दें। मुझे भोला के घर पहुँचा देना होगा।’’
तीखे स्वर में प्रतीति बोली, ‘‘इसका मतलब ? उनके आने से पहले ही आप घर छोड़कर चली जाना चाहती हैं ?’’
‘‘वही चाहती हूँ, बहू !’’ दृढ़ स्वर में सुचरिता बोलीं।
मगर उनकी बहू भी कोई इतनी अल्हड़ नहीं थी। वह भी उसी प्रकार दृढ़ स्वर में बोली, ‘‘ठीक है ! यही कह देती हूँ। फिर दोनों माँ-बेटे मिलकर जो ठीक समझें, वही करेंगे।’’
कहकर वह बगलवाले कमरे में चली गई। यह घर आधुनिक साँचे का फ्लैट नहीं है। स्क्वेयर-फीट के हिसाब से कमरों की नाप और गिनती नहीं की जाती है। काफी खुला-खुला दो मंजिलों का मकान है। ढाई मंजिल भी कहा जा सकता है; परंतु दो मंजिलों के ऊपर की वह आधी मंजिल घर के सदस्यों के इस्तेमाल के लिए नहीं है। वह देवलोक है।
तैंतीस कोटि देवी-देवताओं में से जिनको भी मानव-साहचर्य मिला, वे सभी जड़ फैलाकर बैठ गए हैं।
फिर भी पहली और दूसरी मंजिल में जितने कमरे हैं, इस जमाने में जरूरत से काफी अतिरिक्त हैं। इसीलिए उनका इस्तेमाल भी ढीले-ढाले ढंग से होता है।
वह जो बगलवाला कमरा है-वह बैठक और भीतर के कमरों के बीच पड़ा एक फातलू कमरा है। उसे बैठक अथवा ड्राइंगरूम का नाम नहीं दिया जा सकता। फिर भी उसी कमरे में टेलीफोन रखा गया है। सबकी सुविधा देखकर ही यह व्यवस्था की गई है। कई बार अड़ोस-पड़ोसवाले भी तो फोन करने चले आते हैं। बाहर का दरवाजा तो प्रायः खुला ही रहता है।
मगर अभी दोपहर का समय है। बाहर का दरवाजा बंद है, भीतरवाले का पल्ला भी भिड़काया हुआ है। ऐसी शांत दुपहरी में पति को दफ्तर में फोन करना एक प्रकार से प्रतीति का नित्यकर्म ही है; परंतु सुचरिता को कमरे या बरामदे, कहीं से भी उनके कथोपकथन का पता नहीं चल पाता है। आज पता चला। बरामदे की उस चौकी पर लेटे-लेटे ही पता चल गया कि घर का यह आकस्मिक समाचार बेटे को बताया नहीं जा सका।....हालदार साहब अभी दफ्तर में नहीं हैं। किसी जरूरी काम से बाहर गए हैं। कब लौटेंगे, उत्तरदाता को पता नहीं।
प्रतीति ने इस कमरे में आकर देखा कि सुचरिता मानो सो रही थीं। थोड़ा रुक गई वह।
सो जाना तो संभव ही नहीं। पास जाकर अपने आप ही बुदबुदाकर बोली, ‘‘नहीं कर सकी। दफ्तर में नहीं हैं।’’
सुचरिता ने अपनी आँखों पर से हाथ नहीं हटाया; पर थके हुए स्वर में बोलीं, ‘‘जानती हूँ, सुना है।’’
थोड़ी देर और ठहरकर प्रतीति चली गई। विश्राम के समय थोड़ी सी बाधा आ गई। अब हाथ में समय ही कितना बचा है। थोड़ी देर के बाद ही बेटा स्कूल से लौटेगा, उसके थोड़ी देर बाद बेटी। उनको थोड़ा सजा-सँवारकर अपने लिए तैयारी करनी पड़ेगी।
एक महिला कॉलेज के सांध्य विभाग में बँगला की अध्यापिका है प्रतीति हालदार।
ऊपर जाकर अपने कमरे में सो गई तो, पर विश्राम का सुख नहीं मिला उसे। उसके दिमाग में भी टेलीग्राम के वे शब्द चक्कर काटने लगे-‘रीचिंग फ्राइडे मॉर्निंग।’
प्रतिदिन के अभ्यस्त अतिव्यक्त दैनिक जीवन में भी एक शांत छंद का अनुभव होता है, वह अचानक जैसे टूटने को है ! क्या कोई भयंकर छंद पतन होगा, या फिर कोई नया छंद उभरकर आएगा ?
परंतु जिस आदमी ने खबर भेजी है कि अगली सुबह पहुँच रहे हैं, उसने यह नहीं बताया है कि वे कितने दिनों के लिए आ रहे हैं। रहने के लिए आ रहे हैं या नहीं, कौन जाने। ऐसा कोई संकेत तो नहीं है।
अभी किसी निश्चय पर पहुँचाना संभव नहीं। सोचने की बात अब यही है कि कल सुबह का चेहरा कैसा होगा !
अब सोचने लगी तो प्रतीति को डर सा महसूस होने लगा।
सुचरिता की प्रतिक्रिया याद आ गई उसे। उस समय तो सास के दृष्टिकोण को अमानवीय जतलाने के लिए वह उस आदमी की तरफदारी कर रही थी, जिसे कभी देखा तक नहीं, परंतु अब तो अपने भीतर से ही तरह-तरह के सवाल उठने लगे। अपनी मुट्ठी के भीतर सजी-सजाई इस गृहस्थी का नक्शा अब आगे कैसा होगा ? अनाबिल की प्रतिक्रिया भी कैसी होगी, कौन जाने।....
निस्तरंग तालाब में जैसे कहीं से एक चट्टान आकर गिरी है। कमरे के जिस ओर सपाट दीवार है, सोचकर अब तक जो एक निश्चितता थी, अचानक देखा गया कि मजबूत कुंडी लगी हुई एक खिड़की थी वहाँ ! धूल और मकड़ी के जाले से ढकी पड़ी थी, इसलिए दिखाई नहीं देती थी। अचानक एक तूफान के थपेड़े से दोनों पल्ले सपाट खुल गए। अब उस खुली खिड़की से क्या समा जाएगा अंदर ? आँधी की धूल-मिट्टी ? बरसात के छींटे ? या कि स्निग्ध समीर ?...
क्या प्रतीति फिर एक बार फोन करेगी अनाबिल के दफ्तर में ? कहेगी, जल्दी घर आ जाओ ? एक मुसीबत आन पड़ी है अचानक। उसी के साथ सास के बतलाए हुए संकल्प की बात भी कर लेगी।
कैसी अद्भुत परिस्तिथि है !
ऐसा भी तो हो सकता है कि अचानक बहुत बीमार हो जाने पर आश्रम में रहना संभव नहीं हो पा रहा है। तब तो मारे गए !
थोड़ी देर पहले की मानविकता की अनुभूति अब फीकी पड़ने लगी।...प्रतीति ने सोचा, अच्छा तमाशा है। इतने अरसे बाद अचानक एक लाइन का एक टेलीग्राम ! यह उचित है क्या ? यहाँ की हालत के बारे में कुछ पता भी है उन्हें ? बस, फट से बता दिया-‘आ रहा हूँ।’ वह भी कुछ घंटों की ही नोटिस पर।
चिंता फैलती गई अपने ही जाल बुनते-बुनते।
वह जाल टूट गया।
‘डोर बेल’ जोर से झनझना उठी। साथ ही दरवाजे पर लगी पुरानी कुंडी भी खटखटाने लगा कोई। डोर बेल लगने के बाद यह कुंडी फिर भी रह गई, बिलकुल बेकार होते हुए भी। कारण कुछ नहीं, उखाड़कर फेंकने के उद्यम की कमी है।
अनाबिल ने कहा था, ‘उसे उखाड़कर जब तक फेंका नहीं जाएगा, लोग उसे खटखटाते जाएँगे।’’
कुंडी खटखटाने का रिवाज बड़ा पुराना लगता है। तभी तो दरवाजे पर घंटी लगी है, फिर भी अभी तक इसे निकालकर फेंक नहीं सके। मध्यवर्गीय परिवारों में अकसर ऐसा होता है। बेकार की चींजें पड़ी हैं, फेंक देना ही जरूरी है, फिर भी वह काम हो नहीं पाता। जगह घेरकर वह चीज पड़ी रह जाती है।...अगर परिवार में किसी नये व्यक्ति का हस्तक्षेप होता है तो निर्मम होकर वही इन फातलू चीजों को बुहारकर निकाल सकता है।
अनाबिल अगर ममता से उबर भी आता है तो उसके उद्यम की कमी रह ही जाती है। यह ‘कमी’ घर में यहाँ-वहाँ देखने को मिल जाती है। लोहे के ये दो भारी कुंडे उसी के निदर्शन हैं।
अतः दरवाजे पर खड़े व्यक्ति ने धीरज खोकर उसका भी इस्तेमाल किया।
प्रतीति का कलेजा धड़क उठा। यह क्या ? कल सुबह तक रुक नहीं सके क्या ? आज शाम को ही आ धमके ?
और सुचरिता को क्या हुआ ? क्या यही सोचकर उनका कलेजा मुँह को नहीं आ गया ? मगर नहीं।
ऐसी अवास्तव घटना कैसे घट सकती है ? आखिर ट्रेन में ही आ रहा है। उड़कर तो नहीं आ सकता ?
आतंक चीज ही ऐसी है; तर्क की परवाह नहीं करती।
बात दरअसल यह है कि एक नया पोस्टमैन आया है। उसने अपनी उपस्थिति जतलाने के लिए दोनों चीजों का इस्तेमाल कर दिया है।
प्रतीति और सुचरिता-दोनों ने एक ही साथ चैन की साँस ली। तभी उन्हें कामवाली लड़की छंदा की कर्कश आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘चिट्ठी देने आए हो देकर चले जाओ। डाकू की तरह ऐसे हमला काहे करते हो ?...क्या ? दस्तखत करके लेना होगा ? मनीऑर्डर है क्या ? नहीं ! तब क्या चिट्ठी है ? चिट्ठी भी दस्तखत करके लेना पड़ता है ? अच्छा ! रजिस्टरी चिट्ठी है का ?’’
प्रतीति के नीचे उतरते-उतरते छंदा ने इतनी बातें कर लीं।
प्रतीति ने डाँट लगाई, ‘‘इतना बकती क्यों है ?’’ फिर दस्तखत करके चिट्ठी ले ली उसने।
चिट्ठी अनाबिल हालदार के नाम थी। अतः उनकी वैद्य अर्धांगिनी ले ही सकती थी।
मगर उसे पढ़ कहाँ सकी। पहले तो थोड़ा संकोच हुआ। चिट्ठी भेजनेवाला भी वही निखिल था, निखिल हालदार। ग्राम्य कौतूहलवश अभी इसे खोलेगी नहीं प्रतीति।...और इसी बीच तितिल आ गया-और वह भी शिकायतों का तूफान लेकर।
‘‘मम्मी ! आज बरामदे पर क्यों नहीं खड़ी थीं ? क्यों ? क्यों ? मुझे डर नहीं लगता है क्या ?’’
‘‘ओ माँ ! डर किस बात का ? डर लगेगा क्यों ?’’
‘‘डर नहीं लगेगा ? अगर घर में तुम न होतीं। अगर तुम्हारी तबीयत खराब हो गई होती।’’
‘‘अरे मेरे दुलारे ! तबीयत खराब होने पर भी तो मैं जाकर खड़ी होती ही हूँ ! नहीं ?’’
‘‘वही तो। खड़ी तो होती ही हो। इसीलिए तो और डर लगा। आज क्या बना है ?’’
‘‘क्या बनना है। कुछ भी नहीं।’’
‘‘अच्छा ! ये तो हो ही नहीं सकता। चने की घुँघनी बनाई है जरूर ?
क्यों ? ज्यादा करके बनाई हो या नहीं ? दीदी को इतनी पसंद है। वही तो कह रही थी कल।’’
ऐसी सुनहरी गृहस्थी है प्रतीति की। क्या अचानक एक चील के पंखों की छाया पड़नेवाली है उसपर ?...क्या यह प्रकाश ढक जाएगा ? क्या पंख-से हलके ये दिन पत्थर की तरह भारी हो जाएँगे ?
इस अनजानी चिंता के साथ-साथ दराज के भीतर रखा ढेर सारे डाक टिकटों से लिपटा वह लिफाफा भी क्रमशः भारी होता जा रहा है।
मगर बार-बार कहने के लिए सोचकर भी प्रतीति इसके बारे में सुचरिता से बोल नहीं सकी।
क्यों ?
क्या पता ?
मानो उसके भीतर कोई भयंकर चीज रखी हुई हो, जो खुलते ही बिखर जाएगी; पूरे वायुमंडल में फैल जाएगी।
साँच को आँच नहीं। अपने को दोषमुक्त रखने के लिए तर्क है उसके पास। जिसके नाम चिट्ठी है, वही आकर खोलेगा। यही तो तरीका है।
क्या सुचरिता प्रतीति को कठघरे में खड़ी करके कह सकेगी, ‘‘क्यों बहू ! अभी तक तुमने कहा तो नहीं कि चिट्ठी आई है ?’’
प्रतीति के पास इसका जवाब है।
आई है तो क्या हुआ ? रजिस्टर्ड चिट्ठी है। जिसके नाम की चिट्ठी है, वह अनुपस्थित है। इसलिए उसके लिए दस्तखत करके चिट्ठी ले ली, बस। जिसकी चिट्ठी है, वही आकर खोलेगा, पढ़ेगा। मैं क्यों टाँग अड़ाऊँ उसमें ? इतना फालतू कौतूहल नहीं है मुझमें !
दिल मजबूत हो गया।
मन में स्थिरता आई।
अरे बाप रे ! जॉली की बस आने ही वाली है।...अभी कल सुबह का चेहरा कैसा होगा, चिट्ठी में क्या लिखा होगा, यह सब सोचने के लिए समय कहाँ है ?
घर की प्रौढ़ गृहिणी सुचरिता हालदार ऐसे बेहाल होकर चीख पड़ीं-बहू ! जैसे सहारे के बिना अब काम नहीं चलेगा। उन्हीं के नाम से तार आया है। घर में ऐसे समय में केवल यही दो महिलाएँ मौजूद हैं। मगर वह युग नहीं रहा, जब अचानक टेलीग्राम का नाम सुनते ही लोग राम-राम जपने लगते थे। इसके अलावा मल्लिक लेन का यह हालदार परिवार भी अब उतना प्राचीनपंथी नहीं रहा कि हस्ताक्षर देकर टेलीग्राम लेने में ही घर की पुरनारियों की आँखों के आगे अँधेरा छा जाय और पढ़ने की क्षमता न होने के कारण घर के पुरुषों के आगमन की प्रतीक्षा में बैठी पल गिनती रहें।
सुचरिता किसी जमाने की मैट्रिक पास हैं। उनकी पुत्रवधू प्रतीति तो पूरी तरह विदुषी ही हैं।
फिर भी बहू की ओर टेलीग्राम बढ़ाकर उन्होंने कहा, ‘‘देखो तो, क्या लिखा है ? कौन आ रहा है ? ठीक से समझ में नहीं आ रहा है।’’
जबकि नहीं समझ पाने का कोई कारण नहीं है। यह तो पुराने जमाने की तरह टेलीग्राम ऑफिस के किसी डाक कर्मचारी के श्रीहस्त की लिखावट नहीं है। पतले कागज की ‘टेप’ पर टाइप किए हुए अक्षर हैं-‘रीचिंग फ्राइडे मॉर्निंग’ फिर भी-
प्रतीति ने भी उस टेलीग्राम को किसी दुर्बोध्य लिपि में लिखे ताम्रपत्र की तरह उलट-पलटकर देखा। धीरे से बोली, ‘‘कल ही तो शुक्रवार है।’’
फिर सास की ओर देखकर बोली, ‘कल सवेरे आ रहे हैं।’’
‘‘वह तो मैंने भी देखा है, बहू ! मगर कहाँ से आ रहा है, कौन आ रहा है-ठीक से यह तो बताओ ? कहाँ से टेलीग्राम किया गया है ?’’
‘‘बनारस से ! नीचे नाम लिखा है-निखिल।’’
प्रतीति ने एक नवीन शिक्षार्थी की भाँति पाठ्य वस्तु को बिना समझे ही किसी तरह पढ़ डाला।
बरामदे में रखी चौकी पर सुचरिता तो करीब-करीब लेट ही गई थीं, अब अचानक तनकर बैठ गईं। तीखे स्वर में बोल उठीं, ‘‘क्यों ? किसलिए इस घर की चौखट फिर पार करने आ रहे हैं ? किसने खुशामद की आने के लिए ?’’
प्रतीति थोड़ा दुःखी होकर बोली, ‘‘ऐसे क्यों कह रही हैं, माँजी ? शायद अचानक आने की इच्छा हुई होगी, तो आएँगे नहीं ?’’
सुचरिता का गोरा रंग इधर कुछ धीमा पड़ गया था। उम्र अपने कदमों की निशानी चेहरे और ललाट पर ही तो अधिक छोड़ती जाती है।
डीलडौल से जल्दी पता नहीं चलता, इसी वैशाख में सुचरिता उनसठ पार कर चुकी हैं। हमेशा का गोरा-चिट्टा रंग हाथ-पाँव और सभी जगह एक-सा है। केवल चेहरे का रंग जैसे धूप से जले ताँबे जैसा हो गया हालाँकि धूप में वह निकलीं ही कब ? बल्कि आजकल की लड़कियों को ही घूमना पड़ता है। प्रतीति को ही लें। बहुत अधिक तो नहीं, फिर भी बाहर निकलना ही पड़ता है। सुचरिता तो हमेशा ही चारदीवारी के भीतर रहीं। फिर, हो सकता है कि वह छाप भीतर के उत्ताप की हो। फिर भी अचानक उत्तेजित हो जाने पर या क्रोध आने पर वही चेहरा लाल होकर तमतमा उठता है, जैसा अभी हुआ।
बोल उठीं, ‘‘अचानक आने की इच्छा होने से ही क्या आना पड़ेगा ?
इस घर में फिर से प्रवेश करने का अधिकार उन्हें है क्या ?’’
प्रतीति ने फिर एक बार अपनी सास की ओर एकटक देखा और हिम्मत करके थोड़ा हँसकर बोली, ‘‘अधिकार तो सोलहों आने का है, माँजी। उन्हीं के बाप-दादा का घर है।’’
‘‘ओह ! अच्छा। यह याद नहीं रहा।’’ सुचरिता फिर से लेट गईं और भारी स्वर में बोलीं, ‘‘ठीक है, आने दो, जब सोलहों आना अधिकार है ही; मगर बुटान के दफ्तर में अभी एक फोन कर दो। सारी बात कहकर यह बता देना कि शाम को घर लौटते ही ऑफिस की गाड़ी जल्दी में न छोड़ दें। मुझे भोला के घर पहुँचा देना होगा।’’
तीखे स्वर में प्रतीति बोली, ‘‘इसका मतलब ? उनके आने से पहले ही आप घर छोड़कर चली जाना चाहती हैं ?’’
‘‘वही चाहती हूँ, बहू !’’ दृढ़ स्वर में सुचरिता बोलीं।
मगर उनकी बहू भी कोई इतनी अल्हड़ नहीं थी। वह भी उसी प्रकार दृढ़ स्वर में बोली, ‘‘ठीक है ! यही कह देती हूँ। फिर दोनों माँ-बेटे मिलकर जो ठीक समझें, वही करेंगे।’’
कहकर वह बगलवाले कमरे में चली गई। यह घर आधुनिक साँचे का फ्लैट नहीं है। स्क्वेयर-फीट के हिसाब से कमरों की नाप और गिनती नहीं की जाती है। काफी खुला-खुला दो मंजिलों का मकान है। ढाई मंजिल भी कहा जा सकता है; परंतु दो मंजिलों के ऊपर की वह आधी मंजिल घर के सदस्यों के इस्तेमाल के लिए नहीं है। वह देवलोक है।
तैंतीस कोटि देवी-देवताओं में से जिनको भी मानव-साहचर्य मिला, वे सभी जड़ फैलाकर बैठ गए हैं।
फिर भी पहली और दूसरी मंजिल में जितने कमरे हैं, इस जमाने में जरूरत से काफी अतिरिक्त हैं। इसीलिए उनका इस्तेमाल भी ढीले-ढाले ढंग से होता है।
वह जो बगलवाला कमरा है-वह बैठक और भीतर के कमरों के बीच पड़ा एक फातलू कमरा है। उसे बैठक अथवा ड्राइंगरूम का नाम नहीं दिया जा सकता। फिर भी उसी कमरे में टेलीफोन रखा गया है। सबकी सुविधा देखकर ही यह व्यवस्था की गई है। कई बार अड़ोस-पड़ोसवाले भी तो फोन करने चले आते हैं। बाहर का दरवाजा तो प्रायः खुला ही रहता है।
मगर अभी दोपहर का समय है। बाहर का दरवाजा बंद है, भीतरवाले का पल्ला भी भिड़काया हुआ है। ऐसी शांत दुपहरी में पति को दफ्तर में फोन करना एक प्रकार से प्रतीति का नित्यकर्म ही है; परंतु सुचरिता को कमरे या बरामदे, कहीं से भी उनके कथोपकथन का पता नहीं चल पाता है। आज पता चला। बरामदे की उस चौकी पर लेटे-लेटे ही पता चल गया कि घर का यह आकस्मिक समाचार बेटे को बताया नहीं जा सका।....हालदार साहब अभी दफ्तर में नहीं हैं। किसी जरूरी काम से बाहर गए हैं। कब लौटेंगे, उत्तरदाता को पता नहीं।
प्रतीति ने इस कमरे में आकर देखा कि सुचरिता मानो सो रही थीं। थोड़ा रुक गई वह।
सो जाना तो संभव ही नहीं। पास जाकर अपने आप ही बुदबुदाकर बोली, ‘‘नहीं कर सकी। दफ्तर में नहीं हैं।’’
सुचरिता ने अपनी आँखों पर से हाथ नहीं हटाया; पर थके हुए स्वर में बोलीं, ‘‘जानती हूँ, सुना है।’’
थोड़ी देर और ठहरकर प्रतीति चली गई। विश्राम के समय थोड़ी सी बाधा आ गई। अब हाथ में समय ही कितना बचा है। थोड़ी देर के बाद ही बेटा स्कूल से लौटेगा, उसके थोड़ी देर बाद बेटी। उनको थोड़ा सजा-सँवारकर अपने लिए तैयारी करनी पड़ेगी।
एक महिला कॉलेज के सांध्य विभाग में बँगला की अध्यापिका है प्रतीति हालदार।
ऊपर जाकर अपने कमरे में सो गई तो, पर विश्राम का सुख नहीं मिला उसे। उसके दिमाग में भी टेलीग्राम के वे शब्द चक्कर काटने लगे-‘रीचिंग फ्राइडे मॉर्निंग।’
प्रतिदिन के अभ्यस्त अतिव्यक्त दैनिक जीवन में भी एक शांत छंद का अनुभव होता है, वह अचानक जैसे टूटने को है ! क्या कोई भयंकर छंद पतन होगा, या फिर कोई नया छंद उभरकर आएगा ?
परंतु जिस आदमी ने खबर भेजी है कि अगली सुबह पहुँच रहे हैं, उसने यह नहीं बताया है कि वे कितने दिनों के लिए आ रहे हैं। रहने के लिए आ रहे हैं या नहीं, कौन जाने। ऐसा कोई संकेत तो नहीं है।
अभी किसी निश्चय पर पहुँचाना संभव नहीं। सोचने की बात अब यही है कि कल सुबह का चेहरा कैसा होगा !
अब सोचने लगी तो प्रतीति को डर सा महसूस होने लगा।
सुचरिता की प्रतिक्रिया याद आ गई उसे। उस समय तो सास के दृष्टिकोण को अमानवीय जतलाने के लिए वह उस आदमी की तरफदारी कर रही थी, जिसे कभी देखा तक नहीं, परंतु अब तो अपने भीतर से ही तरह-तरह के सवाल उठने लगे। अपनी मुट्ठी के भीतर सजी-सजाई इस गृहस्थी का नक्शा अब आगे कैसा होगा ? अनाबिल की प्रतिक्रिया भी कैसी होगी, कौन जाने।....
निस्तरंग तालाब में जैसे कहीं से एक चट्टान आकर गिरी है। कमरे के जिस ओर सपाट दीवार है, सोचकर अब तक जो एक निश्चितता थी, अचानक देखा गया कि मजबूत कुंडी लगी हुई एक खिड़की थी वहाँ ! धूल और मकड़ी के जाले से ढकी पड़ी थी, इसलिए दिखाई नहीं देती थी। अचानक एक तूफान के थपेड़े से दोनों पल्ले सपाट खुल गए। अब उस खुली खिड़की से क्या समा जाएगा अंदर ? आँधी की धूल-मिट्टी ? बरसात के छींटे ? या कि स्निग्ध समीर ?...
क्या प्रतीति फिर एक बार फोन करेगी अनाबिल के दफ्तर में ? कहेगी, जल्दी घर आ जाओ ? एक मुसीबत आन पड़ी है अचानक। उसी के साथ सास के बतलाए हुए संकल्प की बात भी कर लेगी।
कैसी अद्भुत परिस्तिथि है !
ऐसा भी तो हो सकता है कि अचानक बहुत बीमार हो जाने पर आश्रम में रहना संभव नहीं हो पा रहा है। तब तो मारे गए !
थोड़ी देर पहले की मानविकता की अनुभूति अब फीकी पड़ने लगी।...प्रतीति ने सोचा, अच्छा तमाशा है। इतने अरसे बाद अचानक एक लाइन का एक टेलीग्राम ! यह उचित है क्या ? यहाँ की हालत के बारे में कुछ पता भी है उन्हें ? बस, फट से बता दिया-‘आ रहा हूँ।’ वह भी कुछ घंटों की ही नोटिस पर।
चिंता फैलती गई अपने ही जाल बुनते-बुनते।
वह जाल टूट गया।
‘डोर बेल’ जोर से झनझना उठी। साथ ही दरवाजे पर लगी पुरानी कुंडी भी खटखटाने लगा कोई। डोर बेल लगने के बाद यह कुंडी फिर भी रह गई, बिलकुल बेकार होते हुए भी। कारण कुछ नहीं, उखाड़कर फेंकने के उद्यम की कमी है।
अनाबिल ने कहा था, ‘उसे उखाड़कर जब तक फेंका नहीं जाएगा, लोग उसे खटखटाते जाएँगे।’’
कुंडी खटखटाने का रिवाज बड़ा पुराना लगता है। तभी तो दरवाजे पर घंटी लगी है, फिर भी अभी तक इसे निकालकर फेंक नहीं सके। मध्यवर्गीय परिवारों में अकसर ऐसा होता है। बेकार की चींजें पड़ी हैं, फेंक देना ही जरूरी है, फिर भी वह काम हो नहीं पाता। जगह घेरकर वह चीज पड़ी रह जाती है।...अगर परिवार में किसी नये व्यक्ति का हस्तक्षेप होता है तो निर्मम होकर वही इन फातलू चीजों को बुहारकर निकाल सकता है।
अनाबिल अगर ममता से उबर भी आता है तो उसके उद्यम की कमी रह ही जाती है। यह ‘कमी’ घर में यहाँ-वहाँ देखने को मिल जाती है। लोहे के ये दो भारी कुंडे उसी के निदर्शन हैं।
अतः दरवाजे पर खड़े व्यक्ति ने धीरज खोकर उसका भी इस्तेमाल किया।
प्रतीति का कलेजा धड़क उठा। यह क्या ? कल सुबह तक रुक नहीं सके क्या ? आज शाम को ही आ धमके ?
और सुचरिता को क्या हुआ ? क्या यही सोचकर उनका कलेजा मुँह को नहीं आ गया ? मगर नहीं।
ऐसी अवास्तव घटना कैसे घट सकती है ? आखिर ट्रेन में ही आ रहा है। उड़कर तो नहीं आ सकता ?
आतंक चीज ही ऐसी है; तर्क की परवाह नहीं करती।
बात दरअसल यह है कि एक नया पोस्टमैन आया है। उसने अपनी उपस्थिति जतलाने के लिए दोनों चीजों का इस्तेमाल कर दिया है।
प्रतीति और सुचरिता-दोनों ने एक ही साथ चैन की साँस ली। तभी उन्हें कामवाली लड़की छंदा की कर्कश आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘चिट्ठी देने आए हो देकर चले जाओ। डाकू की तरह ऐसे हमला काहे करते हो ?...क्या ? दस्तखत करके लेना होगा ? मनीऑर्डर है क्या ? नहीं ! तब क्या चिट्ठी है ? चिट्ठी भी दस्तखत करके लेना पड़ता है ? अच्छा ! रजिस्टरी चिट्ठी है का ?’’
प्रतीति के नीचे उतरते-उतरते छंदा ने इतनी बातें कर लीं।
प्रतीति ने डाँट लगाई, ‘‘इतना बकती क्यों है ?’’ फिर दस्तखत करके चिट्ठी ले ली उसने।
चिट्ठी अनाबिल हालदार के नाम थी। अतः उनकी वैद्य अर्धांगिनी ले ही सकती थी।
मगर उसे पढ़ कहाँ सकी। पहले तो थोड़ा संकोच हुआ। चिट्ठी भेजनेवाला भी वही निखिल था, निखिल हालदार। ग्राम्य कौतूहलवश अभी इसे खोलेगी नहीं प्रतीति।...और इसी बीच तितिल आ गया-और वह भी शिकायतों का तूफान लेकर।
‘‘मम्मी ! आज बरामदे पर क्यों नहीं खड़ी थीं ? क्यों ? क्यों ? मुझे डर नहीं लगता है क्या ?’’
‘‘ओ माँ ! डर किस बात का ? डर लगेगा क्यों ?’’
‘‘डर नहीं लगेगा ? अगर घर में तुम न होतीं। अगर तुम्हारी तबीयत खराब हो गई होती।’’
‘‘अरे मेरे दुलारे ! तबीयत खराब होने पर भी तो मैं जाकर खड़ी होती ही हूँ ! नहीं ?’’
‘‘वही तो। खड़ी तो होती ही हो। इसीलिए तो और डर लगा। आज क्या बना है ?’’
‘‘क्या बनना है। कुछ भी नहीं।’’
‘‘अच्छा ! ये तो हो ही नहीं सकता। चने की घुँघनी बनाई है जरूर ?
क्यों ? ज्यादा करके बनाई हो या नहीं ? दीदी को इतनी पसंद है। वही तो कह रही थी कल।’’
ऐसी सुनहरी गृहस्थी है प्रतीति की। क्या अचानक एक चील के पंखों की छाया पड़नेवाली है उसपर ?...क्या यह प्रकाश ढक जाएगा ? क्या पंख-से हलके ये दिन पत्थर की तरह भारी हो जाएँगे ?
इस अनजानी चिंता के साथ-साथ दराज के भीतर रखा ढेर सारे डाक टिकटों से लिपटा वह लिफाफा भी क्रमशः भारी होता जा रहा है।
मगर बार-बार कहने के लिए सोचकर भी प्रतीति इसके बारे में सुचरिता से बोल नहीं सकी।
क्यों ?
क्या पता ?
मानो उसके भीतर कोई भयंकर चीज रखी हुई हो, जो खुलते ही बिखर जाएगी; पूरे वायुमंडल में फैल जाएगी।
साँच को आँच नहीं। अपने को दोषमुक्त रखने के लिए तर्क है उसके पास। जिसके नाम चिट्ठी है, वही आकर खोलेगा। यही तो तरीका है।
क्या सुचरिता प्रतीति को कठघरे में खड़ी करके कह सकेगी, ‘‘क्यों बहू ! अभी तक तुमने कहा तो नहीं कि चिट्ठी आई है ?’’
प्रतीति के पास इसका जवाब है।
आई है तो क्या हुआ ? रजिस्टर्ड चिट्ठी है। जिसके नाम की चिट्ठी है, वह अनुपस्थित है। इसलिए उसके लिए दस्तखत करके चिट्ठी ले ली, बस। जिसकी चिट्ठी है, वही आकर खोलेगा, पढ़ेगा। मैं क्यों टाँग अड़ाऊँ उसमें ? इतना फालतू कौतूहल नहीं है मुझमें !
दिल मजबूत हो गया।
मन में स्थिरता आई।
अरे बाप रे ! जॉली की बस आने ही वाली है।...अभी कल सुबह का चेहरा कैसा होगा, चिट्ठी में क्या लिखा होगा, यह सब सोचने के लिए समय कहाँ है ?
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