उपन्यास >> देह कुठरिया देह कुठरियाजया जादवानी
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देह कुठरिया
समाज में वर्गीकरण और विभेद के अनेक स्तर हैं। सम्भवतः स्त्री-पुरुष का लैंगिक विभाजन सबसे प्राचीन और सबसे सामान्य है। अस्मितामूलक विमर्शों के दौर आने से पूर्व इस लैंगिक विभाजन के द्वित्व से बाहर सोचना हमारे सामाजिक और वैयक्तिक समीकरणों से बाहर था। अस्मितामूलक विमर्श के दौर में, जब सप्रेस्ड आईडेंटिटी पर बातचीत होने लगी है, तब तृतीय लिंगी समुदाय भी हमारे सरोकारों के दायरे में है। इन तृतीय लिंगी समुदाय के लोगों को समाज अनेक अशिष्ट सम्बोधनों से नवाजता है मसलन-ट्रांसजेण्डर, किन्नर, हिजड़ा आदि इन्हीं ट्रांसजेण्डरों के जीवन को अपनी कथावस्तु बनाता है-देह कुठरिया।
उपन्यास हमें ऐसे मानव-समूहों से जोड़ता है जो सामाजिक उपेक्षा के शिकार रहे हैं। जो मनुष्य होकर भी मनुष्य नहीं हैं। समाज में होकर भी समाज के नहीं हैं। शायद परिवार के भी नहीं हैं। जो सिर्फ़ ट्रेनों में या चौराहों पर ताली बजाते या भीख माँगते दिखते हैं या बच्चों के जन्म पर नाचते-गाते दिखते हैं।
ट्रांसजेण्डरों की ज़िन्दगी इतनी ही नहीं है, जितनी हम देखते हैं या जितना अनुमानतः समझते हैं। वे भी मनुष्य हैं। उनकी भी भावनाएँ वैसी ही हैं, जैसी एक सामान्य स्त्री या पुरुष की होती है। प्रेम, राग, आकर्षण, स्नेह, घृणा, क्रोध, ईष्या इत्यादि वे सभी भाव उनके अन्दर भी होते हैं। सामाजिक जीवन के सामान्यीकरण और सामान्य के विशिष्टिकरण की उनकी भी इच्छा होती है।
समाज द्वारा बहिष्कार का जो नजरिया अपनाया जाता है उससे उनकी सारी इच्छाएँ, सारी भावनाएँ कुण्ठा में तब्दील हो जाती हैं। जीवन में कुछ कर गुज़रने की हसरत अस्तित्व के संघर्ष में विलीन हो जाती है। त्रासद यह है कि इनके बहिष्कार की शुरुआत इनके घर से ही होती है, इनके स्वजनों द्वारा होती है। इसी का प्रसारण आगे समाज के स्तर पर होता है जो इनके जीवन के अन्त तक चलता है।
उपन्यास का कथानक उन पात्रों से गढ़ा गया है जिन्होंने लैंगिक विभेदन के आधार पर अपने जीवन की त्रासदियों और विडम्बनाओं का अनुभव किया है। विडम्बनाओं और त्रासदियों की एक नहीं, अनेक कहानियाँ उपन्यास में हैं।
अपनी मुश्किलों को जानते, समझते हुए भी यह वर्ग उसके खातमे के लिए संघर्ष करने से परहेज करता है। उपन्यास की एक पात्र रवीना बरिहा कहती हैं-‘ट्रांसजेण्डर अपने अधिकार को लेकर कभी नहीं लड़ते हैं क्योंकि किससे लड़ें ? लड़ेंगे तो परिवार से जो एक टूटा-फूटा रिश्ता बना हुआ है, वह भी टूट जाएगा।’
उपन्यास की भाषा इसकी रोचकता और संवेदना दोनों का विस्तार करता है। उपन्यासकार ने ट्रांसजेण्डरों की भाषा, उसकी शैली को यथारूप रखा है। उनके अपने शब्द हैं, अपने शब्दकोश। उसका सामान्यीकरण या साधारणीकरण करने का प्रयास नहीं किया है। ट्रांसजेण्डरों द्वारा प्रयुक्त शब्द उनके प्रति समझ का विस्तार करते हैं। अपनी भाषा और अपने कथावस्तु के आधार पर जया जादवानी द्वारा लिखित यह उपन्यास निश्चित रूप से पठनीय है।
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