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जियें तो जियें ऐसे

महेश जेठमलानी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15666
आईएसबीएन :978-1-61301-692-3

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जीवन जीने के लिये मार्गदर्शक पुस्तक

1.

सफलता क्या है?

What is Success

राजेश एक बी ए पास महत्वाकांक्षी नौजवान था, वह दिल से नौकरी नहीं करना चाहता था, वह एक उद्योगपति और अपना मालिक खुद बनना चाहता था। इस संसार में कौन व्यक्ति अमीर नहीं बनना चाहता, कौन बंगले, गाड़ियों और नौकर-चाकरों से नफ़रत करता है — रोज़ सुबह उठकर उस 8 घंटे की नौकरी पर कौन जाना चाहता है, कोई भी नहीं।

क्या आपको मालूम है कि सभी के लिए रविवार का दिन सबसे अच्छा क्यों होता है? क्योंकि उस दिन जल्दी नहीं उठना पड़ता, नौकरी वालों को बॉस की सुननी नहीं पड़ती। मस्तिष्क में कोई तनाव नहीं होता। शनिवार की रात को भी लंबा खींच सकते हैं, दोस्तों के साथ बैठकर पार्टी वगैरह कर सकते हैं। पूरा दिन अपनी मर्ज़ी से जो चाहे कर सकते हैं।

किसी भी नौकरी करने वाले की यही सोच होती है। उनके लिए 8 घंटे की नौकरी कर लेना ही बस जीवन होता है। सप्ताहांत में जो भी समय मिले उसे वे जेल से छूटे क़ैदी की तरह मनोरंजन या खराब करने में काम में लेना चाहते हैं।

राजेश कुछ समय पहले उस नौकरी को छोड़कर दूसरी और अच्छी नौकरी में चला गया था जहां वेतन ज़्यादा था पर ज़िम्मेवारी भी ज़्यादा थी। यहाँ उसने तीन साल नौकरी की और काम सीखकर फिर उसने कंपनी बदली और उससे भी ऊंची तंख्वाह पर 5 साल से काम कर रहा था और अब उसकी बैंक में काफी जमा पूंजी हो गयी थी और अब वह नौकरी छोड़कर उसके सपनों की दुनिया में जाना चाहता था। उसका सपना था कि उसका एक अच्छा उद्योग हो जिससे उसको फिर कभी नौकरी न करनी पड़े और दुनिया की सभी सुख सुविधाएं जो धनाड्य वर्ग में होती हैं वे उसे भी मिलें।

परंतु समस्या वही थी कि एक मध्यम वर्ग के व्यक्ति को बचपन से ही यह सिखा दिया जाता है कि बड़े सपने मत देखना, हवा में मत उड़ना, तू क्रिकेट तो अच्छी खेलता है पर सचिन बनने के सपने मत देखना, तू सचिन नहीं बन सकता है, तू म्यूजिक तो अच्छा बजा लेता है पर ए आर रहमान जैसा संगीतकर नहीं बन सकता, तू जिम में जाकर हैल्थ तो अच्छी बना लेगा पर अर्नोल्ड श्वार्ज़्नेगर नहीं बन सकता। इसलिए अच्छी पढ़ाई लिखाई करो और कोई सरकारी नौकरी पकड़कर शादी-वादी करके घर बसालो। सुखी रहोगे।

यह सलाह होती है हमारे मध्यम वर्ग के लोगों की — अपने बच्चों, पड़ोसियों और रिश्तेदारों के लिए।

हाल ही में राजेश को एक सफल व्यक्ति से मिलने का मौका मिला और उसने उसकी सलाह से कुछ किताबों का अध्ययन किया और उस कुछ अध्ययन से उसकी पूरी विचारधारा ही बदल गयी। उसकी सोच अब कुछ भी कर सकने की बन गयी थी। वो अपने सपनों को प्राप्त करने के लिये कुछ भी करने को तैयार था।

पर क्यों? क्योंकि उसे लगता था कि उसमें कुछ अलग है जो उसे बाकी लोगों से आगे ले जा सकता है। उसे इस मध्यमता (mediocrity) से बाहर निकलना था।

उसने एक दिन अपने मित्र रमन से यूं ही थाह लेने के लिए पूछा, “यार कुछ धंधा पानी करने की सोच रहा हूँ? नौकरी तो बहुत हो गयी अब ज़रा धंधा भी करके देख लिया जाए, तुमारी क्या राय है “?

रमन आश्चर्य से बोला, “क्या बात कर रहा है नौकरी छोड़ेगा? पागल हो गया है क्या? धंधे-वंदे चलते नहीं हैं आजकल – फिर तेरे कौन से खानदान वालों ने धंधे किए हैं? भैया धंधे वाले लोग अलग ही होते हैं। अपन लोग उन लोगों से अलग हैं। कहाँ वो (राजा भोज) और कहाँ हम (गंगू तेली)। हाँ साइड में कोई छोटा-मोटा धन्धा करना है तो ट्राइ कर ले पर नौकरी मत छोड़ना। आजकल बड़ी मुश्किल से मिलती है। और नौकरी में कोई जिम्मेवारी तो होती नहीं। शाम के 5 बजे और जय राम जी की। मालिक जाने और उसका धन्धा, अपना क्या? अपने राम तो पहली तारीख़ को तंख्वाह ली और एक महिने की छुट्टी। काम भी ऐसे करो कि मालिक हमेशा आप पर निर्भर रहे। अगर सब कुछ उसे आ गया तो तुमको कौन रखेगा। खटके की नौकरी करो भैया। तुम उस पर नहीं वो तुम पर निर्भर होना चाहिए।“

राजेश ने रमन का धन्यवाद दिया और तुरंत वहाँ से निकल गया। उसे लगा कि अगर थोड़ी देर और उसने रमन से बात की तो फिर उसे घर जाकर अपने आप को उसकी दी गई नकारात्मकता (Negativity) को निकालने के लिए कुछ ज़्यादा ही करना पड़ेगा। उसे रमन जैसे लोगों से यही उम्मीद थी। उसे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। आखिर राजेश खुद भी तो मध्यम वर्गीय परिवार से ही था, उसे खुद को भी तो उसके परिवार वालों से यही सीख मिली थी।

जिसकी नौकरी कर रहे हो उसी को अपने आप पर निर्भर करने की बात भला सोची भी कैसे जा सकती है। मालिक नौकर को तंख्वाह देता है तो नौकर उस पर निर्भर या मालिक उस पर? हाँ, एक काम करते आदमी को कोई निकालना नहीं चाहेगा। कारण कि फिर नया आदमी ढूंढो, उसे सिखाओ, उसे बताओ, और सीखते-सीखते समय लगता है तब तक फिर मालिक की सिरदर्दी। पर इसका मतलब ये तो नहीं कि मालिक आप पर निर्भर हो गया। और फिर किसी की मजबूरी का फायदा उठाना कौनसी अच्छी बात है।

पर रमन जैसे लोग शायद ये भूल जाते हैं कि नौकर, नौकर होता है और मालिक, मालिक। वो जिस दिन चाहे आपको नौकरी से निकाल दे, फिर क्या करोगे? दूसरी नौकरी ढूँढने में तो फिर तुमको भी टाइम लगेगा। मालिक को तो दूसरा मिल जायेगा। तुम ही तो कह रहे हो नौकरी मुश्किल से मिलती है यानि नौकरी ढूँढने वाले ज़्यादा है और नौकरियाँ कम, तो फिर मालिक को तो नौकर एक ढूंढो दस मिलने वाली बात है। पर कहते हैं न, किसी की शराफ़त का नाजायज़ फ़ायदा उठाना। वो बात है, मालिक बेचारा गलतियाँ माफ़ कर देता है और नौकरी से नहीं निकालता है तो तुम्हें लगता है वो तुम पर निर्भर हो गया है। बेवकूफ़ी की इससे बड़ी हद क्या होगी?

घर पहुँचकर राजेश ने अपनी माँ को बताया कि वो क्या सोच रहा था। परंतु माँ ने भी उसे वही सलाह दी जो रमन ने दी थी। माँ भी मध्यम परिवार से ही थी और उनकी भी मानसिकता वैसी ही थी। परंतु राजेश को चैन कहाँ था। उसके अंदर से तो जैसे कोई चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा था कि तुम बहुत कुछ कर सकते हो, सफल हो सकते हो - शुरू तो करो, तुम नौकरी करने के लिये पैदा नहीं हुए हो, अपने आप को मुक्त करने की शुरुआत तो करो। तुम धरती पर जीतने के लिए पैदा हुए हो। तुम अपने जन्म के साथ ही कुछ बड़े सपने सच करने का अधिकार लेकर आए हो, अपने जन्मसिद्ध अधिकार का प्रयोग तो करो।

प्रायः ऐसा होता ही है कि जिसे कुछ नया, बड़ा या अनोखा करना होता है उसकी अंतरात्मा ही उसको प्रेरणा देती है और वो उस काम पर निकल जाता है। कई बार तो कहते हैं न कि आदमी का साया भी उसका साथ नहीं देता, परिवार और बाकी सबकी तो छोड़ो। ऐसी स्थिति में आदमी का केवल एक ही मित्र होता है और वो है उसका ज़मीर, उसका विवेक, उसकी आत्मा। इसीलिए कहते हैं कि,

खुदी को कर बुलंद इतना कि हर ख़ुदी से पहले ख़ुदा बंदेसे पूछे कि बता तेरी रज़ा क्या है।

— अल्लामा इक़बाल

अब राजेश के पास एक ही रास्ता बचा था। वो उठा और शर्मा जी के ऑफिस जाने के लिए तैयार हुआ। शर्मा जी एक बहुत ही सफल उद्योगपति थे। हालांकि वे पैदाइशी रईस नहीं थे पर वे अपनी मेहनत और लगन से आज बहुत बड़े उद्योगपति थे। राजेश ने शर्मा जी के यहाँ तीन साल नौकरी की थी। वे बड़े ही उदार व्यक्ति थे और किसी को भी ग़लत सलाह नहीं देते थे। जब राजेश उनके यहाँ नौकरी करता था तब उन्होंने उसके काम को देखकर उससे कहा भी था कि, “तुम दूर तक जाओगे राजेश।“समय का इंतजार करो। समय अपने आप तुम्हें भट्टी में तपने के लिये डालेगा। और राजेश के अंदर जितनी आग लगी थी शायद उसका तपने का समय आ गया था।

राजेश तुरंत उन्हें फोन पर बात करके उनके ऑफिस पर मिलने पहुंचा। राजेश उनके पास करीब दो घंटे तक बैठा और उनसे बात करता रहा इस बीच दो बार शर्माजी ने चाय और बिस्किट भी मँगवाए।

दो घंटे बाद जब राजेश वहाँ से निकला तो उसका चेहरा उत्साह से दमक रहा था। उसके पाँव धरती पर नहीं पड़ रहे थे। उसे लग रहा था जैसे वह हल्का हो गया है, हवा में उड़ रहा है। उसके मस्तिष्क में कुछ योजना बन रही थी और उसे अब उस पर काम करना था।

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