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वैष्णव

कुसुमाग्रज

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :127
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1566
आईएसबीएन :81-7721-005-x

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‘भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से सम्मानित प्रख्यात मराठी साहित्यकार कुसुमाग्रज का एक रोचक उपन्यास...

Vaishnav

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘यह गाँव, यह तालुका हमें स्वतंत्र कराना है। स्वतंत्रता का यह संग्राम देश के सभी छोटे-बड़े गाँव में शुरू हो चुका है। स्वतंत्र हुई ये छोटी-छोटी कड़ियाँ इकट्ठी हो गईं तो पूरे देश में चारों तरफ फैलाने वाली जंजीर तैयार होगी-और यह जंजीर तैयार हो गई तो इसका मतलब होगा कि अपना देश स्वतंत्र हो गया, आजाद हो गया।

‘‘अभी-अभी आप में से कुछ लोग खजाना लूटने के लिए निकले थे। किन्तु आप लोगों को यह समझना चाहिए कि अब यह खजाना अपनी नई सरकार का है, भागी हुई पुरानी सरकार का नहीं। इसलिए खुद ही अपना घर लूटने जैसा वह होता या नहीं ? कुछ लोग मुझसे रूठ गए होंगे। उनसे और आप सभी लोगों से मेरा कहना है कि आपको मेरी सेवा, मेरा काम स्वीकार्य नहीं है तो आप अपने लिए दूसरा नेता चुन लें। लेकिन ऐसी अनुशासनहीन डकैती मैं नहीं होने दूँगा।’’
‘भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से सम्मानित प्रख्यात मराठी साहित्यकार कुसुमाग्रज का यह उपन्यास ‘वैष्णव’ उनकी मृत्यु के पश्चात् हिन्दी में प्रकाशित उनकी प्रथम कृति है। स्वतंत्रता आंदोलन की पृष्ठ भूमि पर लिखा गया यह अत्यंत रोमांचक उपन्यास है साथ ही ऐसे नायक की कहानी जो समाज व देश हित में कुछ करने के लिए सदैव तत्पर रहता है। इसमें समाज के दैनंदिन यथार्थ का मनोरम चित्रण है। इस उपन्यास की अंतःकथाओं की मार्मिकता अनजाने ही अंतर के तार झनझना जाती है।

मनोगत

पूरे महाराष्ट के अराध्य दैवत तथा उच्च कोटि के अपने विपुल साहित्य से मराठी को समृद्ध करने वाले ख्यातिप्राप्त साहित्यकार श्री वि.वा. शिरवाडकर ‘कुसुमाग्रज’ के ‘वैष्णव’ उपन्यास को हिन्दी जगत् के सम्मुख रखने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है, इसलिए मैं अपने को भाग्यशाली समझती हूँ।
इस अनुवाद कार्य में मुझे श्रीमती भारती अंधारे का अमूल्य सहकार्य प्राप्त हुआ है। डॉ. सुनीति मक्कर का भी मुझे काफी सहयोग प्राप्त हुआ है। हिन्दी अनुसंधान केन्द्र, नासिक रोड़ के निर्देशक डॉ. र.वा. बिवलकर का व्यक्तित्व हमेशा की तरह इस कार्य में भी मुझे प्रेरणादायी रहा है।
मेरे पति डॉ. ज.ना. कर्डिले लगन और सहनशीलता से मेरा अनुवाद सुनकर समय-समय पर मुझे महत्वपूर्ण सुझाव देते रहे। मैं इन सबकी ऋणी हूँ, आभारी हूँ,
इससे पूर्व श्री वि.वा. शिरवाडकरजी के उपन्यास ‘जाह्नवी’ का भी मैं हिन्दी में अनुवाद कर चुकी हूँ। मुझे पूर्ण विश्वास है कि उस पुस्तक की तरह इसका भी सुधी पाठक स्वागत करेंगे।

शशिकला कर्डिले

वैष्णव

एक


 1942 का जून माह।
मई माह की छुट्टी एक हफ्ते पहले ही समाप्त हुई थी और मुरावाड़ी का प्राथमिक विद्यालय फिर से शुरू हुआ था।
मुरारवाड़ी सौ-डेढ़ सौ मकानों का गाँव था। इन डेढ़ सौ मकानों में भी ‘मकान’-इस प्रतिष्ठित संज्ञा को अपात्र बनातीं छोटी झोपड़ियों का ही अधिक समावेश था। इन मकानों के अलग-अलग गुटों में जो जगह यदृच्छा से खाली रही थी उसे ‘रास्ता’-यह संज्ञा दी गई थी। मुरारवाड़ी की बहुसंख्यक आबादी किसानों की थी। इन किसानों के जमघट में दो स्कूल मास्टर, एक पुलिस, पटवारी, पटेल-ये ही व्यक्ति ‘शासकीय व्यक्ति’ थे।
गाँव के चारों और चहारदीवारी थी, लेकिन वह ध्वस्त थी। उस चहारदीवारी के भग्न अवशेष जगह-जगह पर नागफनी और अन्य झाड़-झंखाड़ के नीचे छिप गए थे। गाँव में प्रवेश करने का नगर द्वार भी अपने पास पत्थर के ढेर लेकर उदास खड़ा था।
नगर द्वार के कुछ फासले पर एक पीपल का वृक्ष था। उस पीपल के चारों ओर पथरीला चबूतरा था और चबूतरे से करीब सौ कदम के फासले पर मुरारवाड़ी की मराठी पाठशाला थी।
पाठशाला की इमारत ? देहात में इमारत नहीं होती, ज्यादातर जीर्ण आधार पर ऐसे-वैसे खड़े हुए मकान होते हैं। इसी तरह एक मकान में मुरारवाड़ी की मराठी पाठशाला संपन्न होती थी। घर का पुरानापन ढकने के लिए उसे बाहर से नीला, सफेद रंग लगाया  गया था। मुरारवाड़ी की केवल यही एक ‘इमारत’ रंगीन थी और मुरारवाड़ी में दिन में आनेवाले पांथस्थों को पहचान की एक निशानी के रूप में रंगीनता का उपयोग होता था।

साढ़े दस-ग्यारह के समय विनायकराव सुपारी का टुकड़ा मुँह में डालकर पाठशाला की ओर निकल पड़े। घुटने के नीचे पहुँचने वाली लेकिन टखने तक न पहुँच सकनेवाली मोटी, साधारण ढंग से साफ कह सकें, ऐसी धोती वे पहने थे। बदन पर चाखाने समान कपड़े का एक पुराना फीका कोट था। सिर पर गांधी टोपी थी।
मुरारवाड़ी के रास्ते में अधिक आवा-जाही नहीं होती थी। जो थोड़ी सी होती, वह भी सुबह या शाम को। आठ-नौ के बाद निर्जन, सुनसान होते थे। कभी कोई व्यक्ति इस वीरान रास्ते में चलता तो पूरे गाँव पर डैना फैले हुए एकांत से कुछ विसंगत घटना घट रही है, ऐसा लगता था।

उस सुनसान रास्ते में सिर नीचे को झुकाए विनायकराव चले जा रहे थे। उनकी खुद की लंबी फैली हुई छाया के सिवा रास्ते में अन्य कोई नहीं था। उस छाया ने भी विनायकराव की ही भाँति अपनी गरदन नीचे को झुकाई थी। लगता था, इन दोनों के मन में कुछ गाढ़ दु:ख का या कोई गूढ़ उदासीनता जमी हुई थी।  
विनायकराव की यह गरदन झुकाकर चलने की, बोलने की, बरतने की आदत पूरे मुरारवाड़ी वासियों को मालूम थी।
रात की चाँदनी में पीपल वाले चबूतरे पर गाँव के चार जन गपशप के लिए बैठते और बातों-बातों में विनायकराव का नाम निकलता तो उनमें से कोई कहता, ‘वही, गरदन नीचे झुकाकर चलने वाले मास्टर न ?’
इस पर कोई मजाक करता, ‘जमान पर लिखा हुआ कुछ वे पढ़ते होंगे।’

इसमें कोई संदेह नहीं था कि विनायकराव जमीन पर लिखा हुआ मजमून पढ़ने का प्रयास करते थे। जमीन की ओर ही नहीं, बल्कि मुरारवाड़ी के क्षितिज पर दिखनेवाले पहाड़, सुबह-शाम का आसमान, चाँदनी, अँधेरा नदी के प्रवहमान जल आदि की तरफ वे घंटों तक देखते रहते थे और लिखा हुआ मजमून पढ़ने की कोशिश करते थे। लेकिन इस गूढ़ ग्रन्थ के अक्षर तक की भी पहचान अपने को नहीं, ऐसा एहसास उन्हें होता रहता था।

विनायकराव की यह आदत पूरे मुरारवाड़ी में प्रसिद्ध थी। ‘मास्टर चबूतरे पर आकर गपशप करने के बजाय नदी के किनारे बंजर भूमि पर अकेले जाकर क्यों बैठते हैं,’ यह मुरारवाड़ी के चतुर लोगों के लिए भी एक न सुलझाने वाली पहेली थी। उनमें से कतिपय लोगों को विनायकराव के इस बरताव पर गुस्सा आता था। विनायकराव चार कक्षा अधिक पढ़ गए, इसलिए उन्हें इस प्रकार अलिप्तता से गाँव में रहना चाहिए क्या ?

विनायकराव जिस बड़े मास्टर साहब के मातहत काम करते थे वे कितने अलग थे। मुरारवाड़ी की पाठशाला चलाने के लिए मानो ईश्वर ने उन्हें पैदा किया था। पाठशाला का काम अपने कनिष्ठों पर से यह भले ही दुर्गुण हो, किन्तु गाँववालों की दृष्टि में वह बड़ा गुण था। गाँव के लोग जानवरों जैसे झुंड़ मे रहते हैं। झुंड के बाहर जाना गाँववालों की दृष्टि में अपराध था।

लेकिन यह अपराधी स्वभाव से इतना शरीफ और भला था कि गाँववाले उससे अतिशय प्रेम करने लगे थे।
मुरारवाड़ी के अपने चार वर्ष के समय में विनायकराव ने कभी किसी को एक शब्द ऐसा न कहा था, जिससे कि उसके मन को किसी प्रकार की ठेस पहुँचे। जिस प्रकार मधुमक्खियों के टूटे हुए छत्ते से शहद बनता रहता है उसकी प्रकार उनके व्यवहार से भलमनसाहत हमेशा बहती रहती थी। धूल-मिट्टी से सुना हुआ कोई शिशु छात्र हो या सिर पर जरी का साफा पहना हुआ कोई बड़ा जमींदार हो, उनका व्यवहार सभी के साथ आत्मीयतापूर्ण ही था। कोई भी समवयस्क या बुजुर्ग व्यक्ति सामने होता, वे उसकी नजर से नजर मिलाते हुए नीचे गरदन झुकाए उसके सामने खड़े रहते थे।

क्या किसी दुर्बलता या असहायता के कारण यह अपार नम्रता और भलाई निर्मित होती थी ? अथवा उनके व्यक्तित्व ने जान-बूझकर दिखावे के लिए ये गहने पहने थे ? या आसपास की दुनिया के बारे में महसूस होनेवाले दयार्द्र भाव से ये गुण पैदा हुए थे ? कौन जाने ! मुरारवाड़ी के लोगों के सामने ऐसे टेढ़े-आड़े सवाल कभी खड़े नहीं होते थे।
मात्र बड़े मास्टर बैठक में बैठते तो कहते, ‘इस आदमी की रीढ़ ही नहीं है। एकदम नामर्द है बेचारी।’ इस आदमी को रीढ़ नहीं, इसका ज्यादा-से-ज्यादा फायदा वे जरूर उठाते और विनायकराव भी खुद को रीढ़ नहीं, यह जानते हुए वे जैसे बताते वैसे करते। किसी का विरोध करना विनायकराव के स्वभाव में ही न था।
 विनायकराव नीचे रास्ते की तरफ और साथ ही अपनी परछाईं की तरफ देखते-देखते चल रहे थे। पाठशाला की रंगीन इमारत सामने आई और मास्टर साहब पाठशाला में प्रवेश कर गए।

‘‘विनायकराव, क्या तुम स्कूल की नौकरी को सरकार से प्राप्त हुई जागीर समझते हो ?’’ विनायकराव के स्कूल में कदम रखते ही बड़े मास्टर साहब वर्षा के घने बादले के समान बरस पड़े।
‘‘क्या है स्कूल की हालत ! छुट्टी समाप्त होने के बाद इतने दिन पर स्कूल शुरू हुआ है, इसका तुम्हें आभास नहीं था क्या  ? मेरी तबीयत ठीक नहीं थी, इसलिए मैं तुम्हारे भरोसे रहा। उसका यह सिला दिया ! हर क्लास कचरे की दुकान बन गई। न झाड़ू लगी है, न लिपाई हुई है। सारी जमीन खेत की तरह खोदी गई है। भित्ति पर न तसवीर, न नक्शे। खड़िया भी पर्याप्त नहीं। उस फलक की कीलें लगाकर ले आने को तुम्हें बताया था, वह भी तुम नहीं कर पाए। अब आज खत आया है और उसमें लिखा है कि ए.ओ. साहब आ रहे हैं। उनके सामने क्या दंडवत् प्रणाम करेंगे ?’’

यह सब कड़कड़ाहट-गड़गड़ाहट होने तक विनायकराव अँधेरे में ही थे। बड़े मास्टरजी आबासाहब को इतने दिनों के बाद स्कूल के बारे में इतनी चिंता क्यों महसूस होने लगी ? यह पहेली उनसे सुलझ नहीं रही थी। बड़े मास्टर विनायकराव को जिन कामों के न होने के लिए दोषी ठहराते थे, उन कामों के बारे में उन्हें पिछले आठ दिनों में कोई सूचना नहीं दी गई थी। आखिरी वाक्य से विनायकराव को थोड़ा सा प्रकाश दिखने लगा। कल ए.ओ. साहब आने वाले थे और वे तेज मिजाजी के लिए प्रसिद्ध थे।
‘‘माफ कीजिए, आज मैं पूरा बंदोबस्त करूँगा।’’ विनायकराव गरदन नीचे झुकाककर बोले। सब अपराधो की जिम्मेदारी उन्हीं के सिर पर थी, इसका एहसास उनके शब्दों से स्पष्ट रूप से दिख रहा था।

    

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