विविध >> शाबर मंत्र सिद्धि रहस्य शाबर मंत्र सिद्धि रहस्यनरेन्द्र सिंह
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प्रस्तुत शाबर मंत्र सिद्धि रहस्य....
Shabar Mantra Siddhi Rahasya-A Hindi Book by Kunvar Narendra Singh
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
समर्पण
शुचिस्मिते,
तुम्हारे देह तीर्थ के प्रांगण में पहुँचकर मैं कितना इतराया करता था ? मेरे लोम-लोम में पुण्य की भागीरथी फूट पड़ती थी, मेरे अन्तर्यामी कैसे-कैसे नित्य-उत्सव मनाया करते थे कि प्रतीत होता था कि कालात्मा सूर्य देव का व्योम पथिक रथ भी चकित चक्षु होकर निरभ्राकाश में स्थिर हो जाया करता था।
मुझे निर्भ्रम स्मृति है, तुम्हारे सुरक्षित मुखच्छ्वास से मेरा उद्यान मह-मह कर उठता था। तुम्हारे निर्मल-निर्झरी हास्य रमण से वशीकृत विकचित, विद्रुमशकल से अधरोष्ठों की रसमयी मुग्धकारिणी शोबा पर मनुपुत्र ही नहीं देवपुत्र भी हत्प्रभ हो जाया करते थे, तुम्हारे शाम्पेय रद्स वृ-न्दसे स्निग्ध चन्द्रिया की रजत लेखा फूटती तो ज्योत्स्ना प्रसारी चन्द्र की द्युति भी जैसे क्रीड़ा से भर उठती थी। कनक शलाका सी, तुम्हारे देह में नित्य उत्सवलीन कमनीय कान्ति के मोहपाश से भला कौन बच सकता था ? यही तो वह मोहनपाश था जिससे बद्धित होकर ब्रह्म की अदृश्य, कर्मातीत सत्ता को भी ब्रज के निकुंज में कृष्ण का रूप धारण कर रासेश्वरी राधिका के साथ नर्तन को विवश होना पड़ा था।
तुमने बार-बार अपने रमणीय चारु-उत्स देह की सुरम्यता से, उसमें अठखेलियाँ कर रहे सृष्टि के देव संवेश से मुझे परिचित कराना चाहा, अनेकों बार तुमने अपने रूप को स्नेह तरल बनाकर अमन्दानन्द से उफन रहे अपने यौवनार्वण में पूर्ण निमज्जित कर देना चाहा किन्तु मैं....मैं तो तुम्हारी देह को सुषमा पुण्य धाम, धरा का मंगल तीर्थ मानता था, उस समय मैंने तुम में नित्य लीला चरण करती स्वयंवरा को देखा ही कब था ? तुम्हीं तो थीं जिसने मेरा अध्यात्म पथ प्रशस्त किया था, मुझे जगत-उद्धारक गुरुदेव की अलौकिक स्वप्न झाँकी दिखाई थी, अब तुम्हीं बताओ मैं ऐसे पवित्रतम देहमन्दिर को कैसे अशौच करता ?
एक कालिमा घुली सन्ध्या में तुम्हें चितारोहण करते देखा। क्या कहूँ ? मेरी विकल निशाएँ मौने हाहाकार कर उठीं। अनेक रातों में अश्रान्त रूप से तुम्हें और बस तुम्हें ही पुकारता रहा पर व्यर्थ, तुम नहीं मिलीं। वरष बीतते रहे, तुम्हारी स्मृतियों के आश्रय से ही प्राण देह में रहे।
और दिन.....! आयु के इस भाग में.....! वही चारुस्मित की किरीट मणी...! वही शुचिमय, वही नारित्व का नूत्र यौवन संभार लिए...! मुझे पहचाना नहीं ? बड़े भुलक्कड़ हो ? इस बार वियोग नहीं योग का हेतु बनकर आई हूँ।’’ मैं निवाक निःसंज्ञ सा हत्प्रभ ! निश्चय तुम ही हो पर अब आयु के दो गुने से अधिक अन्तर को लाँघ सकूँगा, समाज, जाति, आयु अनेक काराओं में बंधकर तुम्हें दे भी क्या सकता हूँ ? बस यही कृति तुम्हें समर्पित है, स्वीकार करो...स्वीकार करोगी न ?
तुम्हारे देह तीर्थ के प्रांगण में पहुँचकर मैं कितना इतराया करता था ? मेरे लोम-लोम में पुण्य की भागीरथी फूट पड़ती थी, मेरे अन्तर्यामी कैसे-कैसे नित्य-उत्सव मनाया करते थे कि प्रतीत होता था कि कालात्मा सूर्य देव का व्योम पथिक रथ भी चकित चक्षु होकर निरभ्राकाश में स्थिर हो जाया करता था।
मुझे निर्भ्रम स्मृति है, तुम्हारे सुरक्षित मुखच्छ्वास से मेरा उद्यान मह-मह कर उठता था। तुम्हारे निर्मल-निर्झरी हास्य रमण से वशीकृत विकचित, विद्रुमशकल से अधरोष्ठों की रसमयी मुग्धकारिणी शोबा पर मनुपुत्र ही नहीं देवपुत्र भी हत्प्रभ हो जाया करते थे, तुम्हारे शाम्पेय रद्स वृ-न्दसे स्निग्ध चन्द्रिया की रजत लेखा फूटती तो ज्योत्स्ना प्रसारी चन्द्र की द्युति भी जैसे क्रीड़ा से भर उठती थी। कनक शलाका सी, तुम्हारे देह में नित्य उत्सवलीन कमनीय कान्ति के मोहपाश से भला कौन बच सकता था ? यही तो वह मोहनपाश था जिससे बद्धित होकर ब्रह्म की अदृश्य, कर्मातीत सत्ता को भी ब्रज के निकुंज में कृष्ण का रूप धारण कर रासेश्वरी राधिका के साथ नर्तन को विवश होना पड़ा था।
तुमने बार-बार अपने रमणीय चारु-उत्स देह की सुरम्यता से, उसमें अठखेलियाँ कर रहे सृष्टि के देव संवेश से मुझे परिचित कराना चाहा, अनेकों बार तुमने अपने रूप को स्नेह तरल बनाकर अमन्दानन्द से उफन रहे अपने यौवनार्वण में पूर्ण निमज्जित कर देना चाहा किन्तु मैं....मैं तो तुम्हारी देह को सुषमा पुण्य धाम, धरा का मंगल तीर्थ मानता था, उस समय मैंने तुम में नित्य लीला चरण करती स्वयंवरा को देखा ही कब था ? तुम्हीं तो थीं जिसने मेरा अध्यात्म पथ प्रशस्त किया था, मुझे जगत-उद्धारक गुरुदेव की अलौकिक स्वप्न झाँकी दिखाई थी, अब तुम्हीं बताओ मैं ऐसे पवित्रतम देहमन्दिर को कैसे अशौच करता ?
एक कालिमा घुली सन्ध्या में तुम्हें चितारोहण करते देखा। क्या कहूँ ? मेरी विकल निशाएँ मौने हाहाकार कर उठीं। अनेक रातों में अश्रान्त रूप से तुम्हें और बस तुम्हें ही पुकारता रहा पर व्यर्थ, तुम नहीं मिलीं। वरष बीतते रहे, तुम्हारी स्मृतियों के आश्रय से ही प्राण देह में रहे।
और दिन.....! आयु के इस भाग में.....! वही चारुस्मित की किरीट मणी...! वही शुचिमय, वही नारित्व का नूत्र यौवन संभार लिए...! मुझे पहचाना नहीं ? बड़े भुलक्कड़ हो ? इस बार वियोग नहीं योग का हेतु बनकर आई हूँ।’’ मैं निवाक निःसंज्ञ सा हत्प्रभ ! निश्चय तुम ही हो पर अब आयु के दो गुने से अधिक अन्तर को लाँघ सकूँगा, समाज, जाति, आयु अनेक काराओं में बंधकर तुम्हें दे भी क्या सकता हूँ ? बस यही कृति तुम्हें समर्पित है, स्वीकार करो...स्वीकार करोगी न ?
कुँवर नरेन्द्र सिंह
आत्म निवेदन
आत्मीयजन,
‘शाबर मन्त्र सिद्धि रहस्य’ प्रस्तुत है। मनोदारिद्रय से दग्ध इस विषमकाल में अपने विपाक को अवशरूप से पशुवत भोग रहे प्रत्येक जन की आकांक्षा है कि उलूकवाहिनी का चाक्षुष वैभव उसकी कुटी-प्रांगण में भी अवतरित हो, वह भी तन्त्र की श्रुतचमत्कारी सिद्धियों का स्वामी बने, पर उलूक ठहरा तमधर्मी और सिद्धियाँ ! वे तो तपश्चर्या के रथ पर आरूढ़ होकर ही प्रकट होती हैं। अनुधा युग का काल और सिद्धियाँ ? उनके लिए वह भावभूमि ही नहीं जिस पर वे अवतरित हों।
पाशवित अणुओं से प्रच्छन जगतस्थली माँ की मनोहर मुग्ध-कारणी गोद कैसे बन सकती है ? पुण्य कर्म पत हुए, अपकर्मों से जन्य दौर्भाग्य का पाद प्रहार जब मानव मस्तक पर हुआ तो कथित मानव ‘त्राहि मां त्राहि मां’ करते हुए बाजार में तान्त्रिक और सिद्धों का खोल पहन कर बैठे व्यवसायिक गुरुओं की शरण में पहुँचा। गुरु तत्व बाजार में कहाँ ? वह तो नित्यतीर्थ में विराजता है और विवशता यह है कि कामना से दग्ध आज के व्यक्ति का उस दिव्यतीर्थ से परिचय नहीं है। वह जिस धूम्र और कलुष से युक्त पापपंकिल वातावरण में जीने को विवश है वहाँ सद्गुरु की दिव्य सत्ता है ही नहीं। तन्त्र, तान्त्रिक, सिद्ध और गुरु के नाम पर मानव ठगा किन्तु उसी ठगी में उसे एक लाभ यह हुआ कि वह सिद्धि और त्नत्र-मन्त्र की ओर आकर्षित हुआ।
सड़े-गले बाजार में ही उसने तन्त्र खोजा, मन्त्रों की, उनके चमत्कारिक महत्तम को पढ़कर स्वयं ही साधक बनने की ललक उत्पन्न हुई, जब करने बैठा तो ज्ञात हुआ कि सिद्धि सहज नहीं इस हेतु सचमुच सद्गुरु की आवश्यकता है। यह उस व्यक्ति के साथ हुआ जो विचारवान था पर जो सिर्फ स्वार्थ के पशु-पाश में बंधा था, उसने विकृत मन्त्रावली की पुनरावृत्ति को ही जप मानकर कथित साधना प्रारम्भ की पर परिणाम ? स्वार्थ पूर्ति न होने पर वह चीत्कार कर उठा और समस्त मान्त्रिक वांग्मय जिसकी सूक्ष्मता से उसका परिचय नहीं था को ‘असत्य है’ घोषित कर डाला। विष्णु स्थिति का ठोस आधार ही (गुरु) अनुपस्थित है तो पराँम्बा का तेजस सिद्धि के रूप में प्रकट ही क्यों होगा ?
इस स्थित को भारतीय ऋषियों ने बहुत पहले अपने कालभेदी नेत्रों से देखा तो विचारा कि अब संसार-शर्म्मण कैसे हो ? क्षुद्र कामनाओं से तप्तजनों का उद्धार कैसे सम्भव है ? मन्त्र तो कीलित हैं और उस अर्गला को खोलने के लिए अपेक्षित पात्रता भी आवश्यक है। ब्रह्मणत्व और शुभ सात्विक संस्कार पात्रता की अनिवार्यता है। कैसे जन सामान्य में ब्राह्मणत्व का अवतरण हो ताकि सिद्धि का कर्षण किया जा सके ?
मानव की इस आवश्यकता को श्री आदिनाथ ने जाना और प्रातः पुण्य स्मरणीय कालजयी माहयोगी श्री मत्स्येन्द्र के रूप में उनकी क्रियात्मक इच्छा ने अवतार ग्रहण किया। महागुरु की निःशीम शक्ति को विस्तृत वसुन्धरा पर प्रकाशित करने का आधा बने योगी साधकों के किराट अमर गुरु गोरखनाथ। उन्होंने जैसे उत्रकीलित वैदिक, तान्त्रित मन्त्रो के कपाट खोल दिए, एक नवीन परम्परा का प्रादुर्भाव हुआ, जो लोक कल्याणी थी, यही धारा शाबर मन्त्रों के रूप में प्रकट होकर जन-जन के कल्याण का मूलोत्सव बनी।
शाबर के मन्त्र जनभाषा में रचित थे, विस्तृत कर्मकाण्ड और गहन तपश्चर्या से मुक्त थे, हैं अतः यह सुगमता ऋषि प्रसाद के रूप में वेदपाठियों को ही नहीं असंस्कारित और निरक्षर जनों को भी सिद्ध की दिव्य संज्ञा से विभूषित कर गई। इन सिद्धों में मनसाराम सेवा, लूणा चमारी, आसोमैरानी, गुरु अरा, अजयपाल, सिद्धयती आदि सिद्ध तो हैं ही मेखला, कनखला, मेदिनीपा कुमारिपा लक्ष्मीकरां जैसे संस्कार सम्पन्न सिद्ध-साधिकाएँ भी हैं।
वर्षों पूर्व श्री पंचअग्नि अखाड़ा A.11/30 सी-नया महादेव, राजघाट वाराणसी 221001 के श्री महन् श्री गोविन्दानन्द-ब्रह्मचारी जो पुत्र की भाँति मुझे वात्सल्य प्रदान करते रहे हैं, ने अपने पत्र में साधिकार मीठी फटकार लगाते हुए लिखा है—‘‘बेटे, आलसियों के समान क्यों बैठा रहता है रे ? ‘भारत सन्त सन्देश’ के लिए नियमित रूप से लिख कर मेरे पास भेज।’’ (श्री पंचअग्नि अखाड़ा से नियमित मासिक भारत सन्त सन्देश’ पत्रिका प्रकाशित होती है, जो साधकों मे ही नहीं सन्यासी समाज में भी लोकप्रिय है।)
श्री महन्तजी ने शाबर मन्त्रों पर एक लम्बा धारावाहिक लिखने का आदेश दिया तो मेरे समक्ष धर्म संकट उपस्थित हुआ। एक सामान्य व्यक्ति जो मन्त्रविद्या और साधना से परिचित ही नहीं वह कैसे साधनात्मक मन्त्रों को लिखे ? संकोच के साथ मैंने अपने पूज्य गुरुदेव देशिकाचार्य श्री मत्गोविन्द शास्त्री जी (वर्तमान में ‘‘श्री पीठ’’ पहाड़ी बाजार नया घाट, कनखल हरिद्वार, उ.प्र.) से सम्पर्क किया तो उन्होंने श्री महन्त जी की इच्छा को प्रमाणित करते हुए आदेश दिया ‘‘लेख ही क्यों 1 शाबर मन्त्रों पर पुस्तक लिखो।’’
उस समय मेरे आलस्य और प्रमाद के कारण पुस्तक लिखी नहीं गई हाँ लेख अवश्य लिखा गया। यह बात सम्भवतः 1986 की थी। तब से अब श्री महन्त जी की इच्छा और पूज्य गुरुदेव की कृपा के फलस्वरूप यह कृति ‘शाबर मन्त्री सिद्धि रहस्य’ आपके सामने है।
इस पुस्तक को लिखते समय अनेक बार अलौकिक प्रसंग आए। सैकड़ों बार लेखन के मध्य मैंने अपने गुरुदेव की पुनीत वाणी को सुना, कहीं उसे लिख सका तो कहीं मेरे आग्रहों के कारण उसे लिखा नहीं यह मेरा दोष ही है अस्तु मैं निःसंकोच रूप से स्वीकार करता हूँ कि प्रस्तुत पुस्तक श्री गुरुदेव का ही प्रसाद है। जो अवस्था पुण्य अनुठान सम्पन्नता के पश्चात् एक ‘प्रसाद वितरक’ ही होती है वही मेरी भी है, अर्थात् यह प्रसाद जितना भगवत्ता वश आपको प्राप्त हो रहा है, उतना ही मुझे भी प्राप्त है। भाव यह है कि मैंने इन लिखित प्रयोगों को नहीं किया है। न तो मैं तान्त्रिक हूँ और न ही मान्त्रिक।
इस आत्म निवेदन में, मैं अपने मातुल स्वनामधन्य स्व. श्री रामसिंह जी तोमर और मेरी मौसी के पुत्र स्व-श्री नारायण सिंह भदौरिया जिन्होंने अंगुली पकड़कर मुझे चलना सिखाया का जिक्र न करूँ तो कुछ अपूर्ण सा रहेगा ! इस पुस्तक में वर्णित अनेक शाबर मन्त्र स्वर्गीय मातुल से प्राप्त हुए थे, जो उनकी गुरु परम्परा में हैं। वे मन्त्र प्रथम बार प्रकाशित हो रहे हैं।
शाबर मन्त्रों के लेखन के विषय में आदरणीय श्री पण्डित नन्दकिशोर शर्मा ‘वैद्यरत्न’ मु. पो. आगर (मालवा) वाया उज्जैन, म.प्र. का भी अशीष रहा तो अपनी अतीन्द्रिय क्षमा के लिए विख्यात पं. कैलाशपति जी नायक अक्षर पीठ, शिवज्योतिष केन्द्र अशोक नगर (गुना) म.प्र. एवं साक्त सौरभ श्रीआचार्य भुलवनेश्वर जी शर्मा (बजरंग वाले), शक्ति सदन, सुभाष कालोनी (गुना) म.प्र. का भी आशीर्वाद मुझे प्रेरणा देता रहा। मैं अत्यन्त आभारी हूँ।
शाबर मन्त्रों का क्षेत्र इतना विशाल है कि उन्हें एक तो क्या अनेक पुस्तकों में भी नहीं समेटा जा सकता। समयाभाव, स्थानाभाव के कारण ‘मन्त्रों द्वारा चिकित्सा’ प्रकरण’ शेष रह गया। यह फिर कभी प्रस्तुत होगा। प्रयास यह किया है कि इस पुस्तक में षटकरम सहित चमत्कारिक मन्त्र प्रयोगों का भी खुलासा हो। मेरा विश्वास है कि वर्तमान में बाजार में उपलब्ध शाबर मन्त्रों की भीड़ में यह पुस्तक लीक से हटकर है। यह आप स्वयं भी अनुभव करेंगे।
किसी प्रकरण में सन्देह हो तो पत्राचार करें, यथासम्भव उत्तर दूँगा। हाँ विशेष बात यह कि उग्रमन्त्रों में किसी सुयोग्य, सुविज्ञजन की सहायता लेकर ही करें। सारे मन्त्र विश्वास पर हैं, जैसे प्राप्त हुए हैं लिख दिए हैं, पर उनकी सत्यता पर लेशमात्र भी सन्देह नहीं है। यह व्यक्ति की पात्रता पर निर्भर है कि उसे कब सिद्धि मिले। एक बार में सफलता न मिले तो पुनः करें।
विश्वास रखें इस पुस्तक को न तो मैंने व्यवसाय मान कर लिखा है और न ही भगवती पॉकेट बुक्स के प्रकाशक श्री राजीव अग्रवाल (जो स्वयं भी एक अच्छे साधक हैं) ने व्यवसायी बनकर प्रकाशित किया है। निःसन्देह वे बधाई के पात्र हैं।
‘शाबर मन्त्र सिद्धि रहस्य’ प्रस्तुत है। मनोदारिद्रय से दग्ध इस विषमकाल में अपने विपाक को अवशरूप से पशुवत भोग रहे प्रत्येक जन की आकांक्षा है कि उलूकवाहिनी का चाक्षुष वैभव उसकी कुटी-प्रांगण में भी अवतरित हो, वह भी तन्त्र की श्रुतचमत्कारी सिद्धियों का स्वामी बने, पर उलूक ठहरा तमधर्मी और सिद्धियाँ ! वे तो तपश्चर्या के रथ पर आरूढ़ होकर ही प्रकट होती हैं। अनुधा युग का काल और सिद्धियाँ ? उनके लिए वह भावभूमि ही नहीं जिस पर वे अवतरित हों।
पाशवित अणुओं से प्रच्छन जगतस्थली माँ की मनोहर मुग्ध-कारणी गोद कैसे बन सकती है ? पुण्य कर्म पत हुए, अपकर्मों से जन्य दौर्भाग्य का पाद प्रहार जब मानव मस्तक पर हुआ तो कथित मानव ‘त्राहि मां त्राहि मां’ करते हुए बाजार में तान्त्रिक और सिद्धों का खोल पहन कर बैठे व्यवसायिक गुरुओं की शरण में पहुँचा। गुरु तत्व बाजार में कहाँ ? वह तो नित्यतीर्थ में विराजता है और विवशता यह है कि कामना से दग्ध आज के व्यक्ति का उस दिव्यतीर्थ से परिचय नहीं है। वह जिस धूम्र और कलुष से युक्त पापपंकिल वातावरण में जीने को विवश है वहाँ सद्गुरु की दिव्य सत्ता है ही नहीं। तन्त्र, तान्त्रिक, सिद्ध और गुरु के नाम पर मानव ठगा किन्तु उसी ठगी में उसे एक लाभ यह हुआ कि वह सिद्धि और त्नत्र-मन्त्र की ओर आकर्षित हुआ।
सड़े-गले बाजार में ही उसने तन्त्र खोजा, मन्त्रों की, उनके चमत्कारिक महत्तम को पढ़कर स्वयं ही साधक बनने की ललक उत्पन्न हुई, जब करने बैठा तो ज्ञात हुआ कि सिद्धि सहज नहीं इस हेतु सचमुच सद्गुरु की आवश्यकता है। यह उस व्यक्ति के साथ हुआ जो विचारवान था पर जो सिर्फ स्वार्थ के पशु-पाश में बंधा था, उसने विकृत मन्त्रावली की पुनरावृत्ति को ही जप मानकर कथित साधना प्रारम्भ की पर परिणाम ? स्वार्थ पूर्ति न होने पर वह चीत्कार कर उठा और समस्त मान्त्रिक वांग्मय जिसकी सूक्ष्मता से उसका परिचय नहीं था को ‘असत्य है’ घोषित कर डाला। विष्णु स्थिति का ठोस आधार ही (गुरु) अनुपस्थित है तो पराँम्बा का तेजस सिद्धि के रूप में प्रकट ही क्यों होगा ?
इस स्थित को भारतीय ऋषियों ने बहुत पहले अपने कालभेदी नेत्रों से देखा तो विचारा कि अब संसार-शर्म्मण कैसे हो ? क्षुद्र कामनाओं से तप्तजनों का उद्धार कैसे सम्भव है ? मन्त्र तो कीलित हैं और उस अर्गला को खोलने के लिए अपेक्षित पात्रता भी आवश्यक है। ब्रह्मणत्व और शुभ सात्विक संस्कार पात्रता की अनिवार्यता है। कैसे जन सामान्य में ब्राह्मणत्व का अवतरण हो ताकि सिद्धि का कर्षण किया जा सके ?
मानव की इस आवश्यकता को श्री आदिनाथ ने जाना और प्रातः पुण्य स्मरणीय कालजयी माहयोगी श्री मत्स्येन्द्र के रूप में उनकी क्रियात्मक इच्छा ने अवतार ग्रहण किया। महागुरु की निःशीम शक्ति को विस्तृत वसुन्धरा पर प्रकाशित करने का आधा बने योगी साधकों के किराट अमर गुरु गोरखनाथ। उन्होंने जैसे उत्रकीलित वैदिक, तान्त्रित मन्त्रो के कपाट खोल दिए, एक नवीन परम्परा का प्रादुर्भाव हुआ, जो लोक कल्याणी थी, यही धारा शाबर मन्त्रों के रूप में प्रकट होकर जन-जन के कल्याण का मूलोत्सव बनी।
शाबर के मन्त्र जनभाषा में रचित थे, विस्तृत कर्मकाण्ड और गहन तपश्चर्या से मुक्त थे, हैं अतः यह सुगमता ऋषि प्रसाद के रूप में वेदपाठियों को ही नहीं असंस्कारित और निरक्षर जनों को भी सिद्ध की दिव्य संज्ञा से विभूषित कर गई। इन सिद्धों में मनसाराम सेवा, लूणा चमारी, आसोमैरानी, गुरु अरा, अजयपाल, सिद्धयती आदि सिद्ध तो हैं ही मेखला, कनखला, मेदिनीपा कुमारिपा लक्ष्मीकरां जैसे संस्कार सम्पन्न सिद्ध-साधिकाएँ भी हैं।
वर्षों पूर्व श्री पंचअग्नि अखाड़ा A.11/30 सी-नया महादेव, राजघाट वाराणसी 221001 के श्री महन् श्री गोविन्दानन्द-ब्रह्मचारी जो पुत्र की भाँति मुझे वात्सल्य प्रदान करते रहे हैं, ने अपने पत्र में साधिकार मीठी फटकार लगाते हुए लिखा है—‘‘बेटे, आलसियों के समान क्यों बैठा रहता है रे ? ‘भारत सन्त सन्देश’ के लिए नियमित रूप से लिख कर मेरे पास भेज।’’ (श्री पंचअग्नि अखाड़ा से नियमित मासिक भारत सन्त सन्देश’ पत्रिका प्रकाशित होती है, जो साधकों मे ही नहीं सन्यासी समाज में भी लोकप्रिय है।)
श्री महन्तजी ने शाबर मन्त्रों पर एक लम्बा धारावाहिक लिखने का आदेश दिया तो मेरे समक्ष धर्म संकट उपस्थित हुआ। एक सामान्य व्यक्ति जो मन्त्रविद्या और साधना से परिचित ही नहीं वह कैसे साधनात्मक मन्त्रों को लिखे ? संकोच के साथ मैंने अपने पूज्य गुरुदेव देशिकाचार्य श्री मत्गोविन्द शास्त्री जी (वर्तमान में ‘‘श्री पीठ’’ पहाड़ी बाजार नया घाट, कनखल हरिद्वार, उ.प्र.) से सम्पर्क किया तो उन्होंने श्री महन्त जी की इच्छा को प्रमाणित करते हुए आदेश दिया ‘‘लेख ही क्यों 1 शाबर मन्त्रों पर पुस्तक लिखो।’’
उस समय मेरे आलस्य और प्रमाद के कारण पुस्तक लिखी नहीं गई हाँ लेख अवश्य लिखा गया। यह बात सम्भवतः 1986 की थी। तब से अब श्री महन्त जी की इच्छा और पूज्य गुरुदेव की कृपा के फलस्वरूप यह कृति ‘शाबर मन्त्री सिद्धि रहस्य’ आपके सामने है।
इस पुस्तक को लिखते समय अनेक बार अलौकिक प्रसंग आए। सैकड़ों बार लेखन के मध्य मैंने अपने गुरुदेव की पुनीत वाणी को सुना, कहीं उसे लिख सका तो कहीं मेरे आग्रहों के कारण उसे लिखा नहीं यह मेरा दोष ही है अस्तु मैं निःसंकोच रूप से स्वीकार करता हूँ कि प्रस्तुत पुस्तक श्री गुरुदेव का ही प्रसाद है। जो अवस्था पुण्य अनुठान सम्पन्नता के पश्चात् एक ‘प्रसाद वितरक’ ही होती है वही मेरी भी है, अर्थात् यह प्रसाद जितना भगवत्ता वश आपको प्राप्त हो रहा है, उतना ही मुझे भी प्राप्त है। भाव यह है कि मैंने इन लिखित प्रयोगों को नहीं किया है। न तो मैं तान्त्रिक हूँ और न ही मान्त्रिक।
इस आत्म निवेदन में, मैं अपने मातुल स्वनामधन्य स्व. श्री रामसिंह जी तोमर और मेरी मौसी के पुत्र स्व-श्री नारायण सिंह भदौरिया जिन्होंने अंगुली पकड़कर मुझे चलना सिखाया का जिक्र न करूँ तो कुछ अपूर्ण सा रहेगा ! इस पुस्तक में वर्णित अनेक शाबर मन्त्र स्वर्गीय मातुल से प्राप्त हुए थे, जो उनकी गुरु परम्परा में हैं। वे मन्त्र प्रथम बार प्रकाशित हो रहे हैं।
शाबर मन्त्रों के लेखन के विषय में आदरणीय श्री पण्डित नन्दकिशोर शर्मा ‘वैद्यरत्न’ मु. पो. आगर (मालवा) वाया उज्जैन, म.प्र. का भी अशीष रहा तो अपनी अतीन्द्रिय क्षमा के लिए विख्यात पं. कैलाशपति जी नायक अक्षर पीठ, शिवज्योतिष केन्द्र अशोक नगर (गुना) म.प्र. एवं साक्त सौरभ श्रीआचार्य भुलवनेश्वर जी शर्मा (बजरंग वाले), शक्ति सदन, सुभाष कालोनी (गुना) म.प्र. का भी आशीर्वाद मुझे प्रेरणा देता रहा। मैं अत्यन्त आभारी हूँ।
शाबर मन्त्रों का क्षेत्र इतना विशाल है कि उन्हें एक तो क्या अनेक पुस्तकों में भी नहीं समेटा जा सकता। समयाभाव, स्थानाभाव के कारण ‘मन्त्रों द्वारा चिकित्सा’ प्रकरण’ शेष रह गया। यह फिर कभी प्रस्तुत होगा। प्रयास यह किया है कि इस पुस्तक में षटकरम सहित चमत्कारिक मन्त्र प्रयोगों का भी खुलासा हो। मेरा विश्वास है कि वर्तमान में बाजार में उपलब्ध शाबर मन्त्रों की भीड़ में यह पुस्तक लीक से हटकर है। यह आप स्वयं भी अनुभव करेंगे।
किसी प्रकरण में सन्देह हो तो पत्राचार करें, यथासम्भव उत्तर दूँगा। हाँ विशेष बात यह कि उग्रमन्त्रों में किसी सुयोग्य, सुविज्ञजन की सहायता लेकर ही करें। सारे मन्त्र विश्वास पर हैं, जैसे प्राप्त हुए हैं लिख दिए हैं, पर उनकी सत्यता पर लेशमात्र भी सन्देह नहीं है। यह व्यक्ति की पात्रता पर निर्भर है कि उसे कब सिद्धि मिले। एक बार में सफलता न मिले तो पुनः करें।
विश्वास रखें इस पुस्तक को न तो मैंने व्यवसाय मान कर लिखा है और न ही भगवती पॉकेट बुक्स के प्रकाशक श्री राजीव अग्रवाल (जो स्वयं भी एक अच्छे साधक हैं) ने व्यवसायी बनकर प्रकाशित किया है। निःसन्देह वे बधाई के पात्र हैं।
-कुँवर नरेन्द्र सिंह
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- ऋषि परिचय
- शाबर मंत्रों की उत्पत्ति
- वर्तमान युग में शाबर मन्त्रों की उपयोगिता
- शाबर मन्त्रों के पात्र कौन?
- शाबर मन्त्रों में षट्कर्म
- शाबर मन्त्रों में शान्ति एवं पुष्टि कर्म
- शाबर मन्त्र साधना में आवश्यक तत्व एवं सिद्धि का विधान
- शाबर मन्त्र साधना में सावधानियाँ
- शाबर में प्रयुक्त कुछ शब्दावली
- आत्मरक्षा का मन्त्र
- वशीकरण के विविध मन्त्र
- स्तम्भन प्रयोग
- शान्ति-पुष्टि कर्म
- शाबर मन्त्रों से रोग-उपचार
- अभिचार कर्म के शाबर मन्त्र
- शाबर मन्त्रों के विविध प्रयोग
- अन्य उपयोगी शाबर मन्त्र
अनुक्रम
विनामूल्य पूर्वावलोकन
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