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रथ इधर मोड़िये

बृजनाथ श्रीवास्तव

प्रकाशक : मानसरोवर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15519
आईएसबीएन :978-1-61301-751-7

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हृदयस्पर्शी कवितायें

नवगीत : सामाजिक समस्याओं का यथार्थ

 

ऐसा नहीं है कि कविता जनसामान्य से दूर हुई है बल्कि सच तो यह है कि जनसामान्य कविता के जितने नज़दीक वर्तमान समय में है पहले कभी न था। कविता और मनुष्य का सम्बन्ध मुख्यतः समस्याओं का सम्बन्ध है। जब वह किसी विकट समस्या में उलझा हुआ होता है, कहीं न कहीं कविता का अंकुरण उसके हृदय में, उसके स्वभाव में होता रहता है। अपने यथार्थ रूप में समस्याओं का बढ़ जाना कविता का साकार रूप लेना होता है। कविता को क्रान्ति का सबसे कुशल माध्यम इसीलिए माना गया है। कविता शान्ति का भी एक विशेष विकल्प है। जीवन में समस्याओं के उभरने के बाद उसके निराकरण का प्रयास भी शुरू हो जाता है। अपने मूल में यह प्रयास कविता की शक्ल में होता है। जितने प्रकार के संसाधनों की आवश्यकता समस्या के समाधान के लिए होती है उससे न्यूनाधिक संसाधनों की आवश्यकता कविता निर्माण के लिए भी होती है। समस्या का हल और कविता का सौन्दर्य इन दोनों स्थितियों को प्राप्त करने के बाद हमें जो हर्ष महसूस होता है वह या तो कविता का रस प्राप्त करने वाला बता सकता है या फिर वह जो समस्याओं के जंजाल में उलझने के उपरान्त मुक्ति का एहसास करता है। कहना न होगा कि युवा नवगीतकार बृजनाथ श्रीवास्तव का नवगीत संग्रह ‘रथ इधर मोड़िये’ इसी हर्ष और मुक्ति के एहसास की सुन्दर परिणति है। नवगीत के सन्दर्भ में कही गयी ये बातें बृजनाथ श्रीवास्तव के इस गीत संग्रह के लिए पूर्णतः सत्य हैं- “नवगीतकार की आँखों में समस्त विश्व है, उसके तकाजे हैं। युगीन समस्याएँ तथा उन समस्याओं के आर-पार झाँकने वाली दृष्टि है। वह वैश्वीकरण से लेकर गाँवों की चौपाल तक की सारी जानकारी रखता है। समाज, राजनीति, भूमण्डलीकरण, प्रकृति, प्रेम, पारिवारिक प्रेम और संताप, संत्रास, कुंठा, भय, घुटन के साथ-साथ मानवीय जिजीविषा, संघर्षशीलता, आस्था तथा अदम्य साहस उनके नवगीतों के रोंये-रेशों में प्राण तत्व बनकर रहता है।“ इस संग्रह के माध्यम से कवि द्वारा समय-समाज में वर्तमान समस्याओं के निराकरण का जितना सुन्दर प्रयास किया गया है उससे कहीं सुन्दर प्रयास कविता के सौन्दर्य को बनाए रखने का भी किया गया है।

यह समस्याओं का जखीरा ही है जिसके आवरण में आम आदमी अनवरत भटकाव की स्थिति से जूझ रहा है। परिवार की दयनीय स्थितियाँ उसे बाहर जाने के लिए मजबूर करती हैं। समाज की विसंगतियाँ उसे स्वयं से लड़ने के लिए उद्वेलित करती हैं। घर से बाहर निकलने के बाद सुरक्षा और शान्ति का एहसास तो होता है लेकिन इसके बावजूद समाज में किसी घटना के किसी भी समय घट जाने की आशंका भी बराबर बनी रहती है। यहाँ जो जैसा है उस स्थिति में नहीं रहना चाहता। परिवर्तन की माँग हर कोई करता फिरता है। वस्तुस्थिति यह है कि यह परिवर्तन सहज न हो, स्वाभाविक न हो, यकायक हो जाये और लोग रातों-रात ही बड़े और सम्मानित व्यक्ति बन जायें, इस आकांक्षा ने वर्तमान समय के मानव-हृदय में बेवजह टकराने और किसी नई समस्या को जन्म देने के लिए विवश कर दिया है। यह कवि भी स्वीकार करता है कि ‘एक डर’ सा माहौल चारों ओर विद्यमान है। घर से लेकर बाहर तक, गाँव से लेकर शहर तक। ऐसा कोई नहीं है जो उस ‘एक डर’ से आक्रान्त न हो। कवि के शब्दों में कहें तो-

एक डर/पसरा हुआ है/हर जगह
कहाँ बैठें?/कहाँ लेटें?/
कहाँ खोयें?/कहाँ सोयें?/
नेह पथ/सँकरा हुआ है/हर जगह/
हो खेत या/ खलिहान हो/
जन भीड़ या/शमशान हो/
आचरण/नखरा हुआ है/हर जगह/
निज गेह या/प्रभु धाम हो/
जिजीविषु या निष्काम हो/
एक छल/ठहरा हुआ है/हर जगह।

लेकिन नियति वही बनी रहती है, दो वक़्त की रोटी का जुगाड़।इस जुगाड़ में उसके स्वयं के अस्तित्व का कोई मूल्य-भाव नहीं होता, मोल-भाव हर समय होता है। आम आदमी में घुट-घुट कर जीने की प्रवृत्ति यहीं से बल पकड़ती है। यह मानव जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना है जो इतना सभ्य और समृद्ध होने के बावजूद एक निरीह वस्तु के समान टूटने, बिखरने और बिकने तक की स्थिति को सहने के लिए न सिर्फ़ बाध्य होता है अपितु मजबूर भी होता है। इस मजबूरी में दम तोड़ रहे हैं ‘सपने नई भोर के।’ इस नवगीत में वर्तमान समय-समाज में विद्यमान युवापन की दहलीज़ पर क़दम रखने को तैयार ऐसे निरीह बच्चों की भूख और उस भूख के संघर्ष को दिखाया गया है, जिस पर आये दिन सुधार और प्रचार का मुद्दा हमारे समाज के नीति-नियंताओं द्वारा उठाया जाता रहा है। सच यह है कि जितनी अधिक आवाज़ उठाई गई उससे कहीं अधिक संख्या में समस्याओं का विस्तार हुआ। इसका परिणाम जो निकल कर आया वह ये कि कितने बच्चे युवा होने से पहले ही आर्थिक समस्याओं में उलझ बैठे और अपना जीवन दो वक़्त की रोटी के जुगाड़ में व्यतीत करने के अभ्यस्त होते गए। ऐसे बच्चे ट्रेनों में, रेलवे स्टेशनों पर, होटलों पर, चाय की दूकानों पर स्मृति में भी कुछ इस तरह विद्यमान हैं-

सपने/नई भोर के लादे/
बच्चे कहाँ धरें/कैसे पीर हरें/
अम्माँ के संग/बीन रहे जो/
कूड़ा पालीथीन/और पिटारी
लिए साँप की/बजा रहे जो बीन/
बचपन के दिन/ट्रेनों में जो
नट के खेल करें/कैसे पीर हरें
पढ़ने के दिन/दूकानों पर
रो-रो धोते प्लेट/
सड़ा-गला जो कुछ मिल जाता/
बे-मन भरते पेट।

ये चित्र और ये दशा बाल-अवस्था की है। उसी बाल अवस्था की जिसे सुधारने के लिए आये दिन ये फ़रमान ऊपर से ‘लोकतंत्र के रखवाले दाता लोगों’ द्वारा होता रहता है। स्कूलों में भेजने और युवापन और उसके बाद का पन भूख, बेगारी और बेरोज़गारी की गहरी समस्या से ग्रसित है। यहाँ स्वस्थ पर्यावरण, स्वास्थ्य मुहैया करने का संकल्प लिया जाता रहता है। विडम्बना ये है कि कौन कहे उन्हें ये सुविधाएँ मुहैया कराने की, जो कहीं नौकरी भी कर रहे होते हैं, बाल शोषण और बाल अपराध के निमित्त उनका वह सहारा भी छीन लिया जाता है। ऐसे समय में परिवार की ज़रूरतें और स्वयं की ख़्वाहिशें पूरी न कर पाने की जद्दोजहद में युवापन आने से पहले बुढ़ापे के शिकार हो जाते हैं। ऐसा भी नहीं है कि इन बच्चों के दशा-सुधार के लिए समय-समाज में सहायतार्थ कानून नहीं बनाए गये, या कि आर्थिक सहायता नहीं आवंटित की गयी पर ये सभी सुविधाएँ या तो काग़ज़ में ही ख़त्म कर दी गयीं अथवा मिलने वाली सुविधाओं को राजनैतिक नुमाइन्दों ने डकार लिया। कवि का आक्रोश इस डकारने की प्रवृत्ति पर भी फूटा है -

रात अन्धेरी/कैसे गुज़रे
चीखें और डरें/कैसे पीर हरें
कुछ बच्चे तो/हाथ पसारे
माँग रहे हैं भीख/काम करो कुछ
दाता देते/मात्र खोखली सीख
लोकतंत्र के/हरे खेत को
दाता लोग चरें/कैसे पीर हरें।

समस्या हर एक जगह, नगर हो या महानगर, समान रूप से जारी है। कवि स्वीकार करता है कि मनुष्य की इस बाध्यता और मजबूरी के पीछे भूख की समस्या सबसे पहली समस्या है। वह भूख जो आदिम काल से मनुष्य को प्रेरित और शोषित करती आयी है, आज भी उसकी दयनीयता में प्रथम पंक्ति में आकर अपना योगदान दे रही है। उसे घर से बेघर और बेघर से एक वनवासी और जानवर के रूप में भटकने और बिकने के लिए मजबूर यही भूख करती है। कवि के लिए यह चिन्ता का विषय और विषय है आश्चर्य का। आखिर क्यों भूख के वशीभूत होकर, समस्त स्वाभाविक प्रवृत्तियों को त्यागकर अपनी भूख-शान्ति के लिए उसे अपना पाँव बढ़ाना पड़ता है? कितनी सुन्दर अभिव्यक्ति के माध्यम से कवि भूख और मनुष्य कर्म की वास्तविकता को उद्घाटित करता है। फिर भी कवि यह जानना चाहता है -

जाने क्यों पड़ता है / जीवन को इतना उलझाना / जोड़ घटाकर सुबह शाम कुल / चार चपाती खाना /आग भूख की लगी कि ऐसी / गाँव द्वार घर छूटा / गंतव्यहीन पथ पाँव थके / अब अंग-अंग टूटा / जाने किस मजबूरी में भी / पड़ता पाँव बढ़ाना।

मुस्कुराने की बेबसी और रोने की नियति वर्तमान समय-समाज की सबसे बड़ी सच्चाई है। नगर हो या महानगर, गाँव हो या शहर यह नियति सामान्य रूप से हर एक जगह वर्तमान है। मनुष्य एक वस्तु के समान बेंचा और ख़रीदा जा रहा है। यह भी नहीं है कि उसे कोई लेकर खड़ा हो, उसका दाम लगाया हो, बल्कि यहाँ तक आने में वही भूख सहायक सिद्ध हुई है। बिकने के लिए वह स्वयं उपस्थित होता है। मण्डी में सब्जियों या अन्य वस्तुओं के आने में समय लग सकता है पर मनुष्य के उपस्थित होने में कोई समय नहीं लगता क्योंकि उसे जीना है और अपने जीने के साथ परिवार का पालन-पोषण भी करना है। कुछ महानगर तो ऐसे हैं जिनके कुछ स्थानों का नामकरण ही लेबर चौराहा के नाम से किया गया है। यानि ऐसा चौराहा जहाँ लेबर अपनी ज़रूरत के हिसाब से खरीदे जा सकते हैं। ये सज-धज कर सुबह-सुबह आ जाते हैं और कई बार पूरे दिन नहीं खरीदे जाते। यहाँ मुस्कुराने की प्रवृत्ति जीवित हो उठती है क्योंकि आम आदमी के पास यही एक कुशल तरीका है समस्यागत विसंगतियों से जूझने का। मुस्कुराने की यह प्रवृत्ति कितने सुन्दर रूप में यहाँ अभिव्यक्त हुई है-

कहने को एक शहर / लेकिन जलती हुई सड़क है
अन्दर से सब बुझे-बुझे हैं / बाहर खीझ कड़क है
रोज दुकानें सजा रहे पर / पड़तीं रोज हटाना
इसीलिए तो लोग यहाँ पर / रोज-रोज बिकते हैं
क्रेता पर बाज़ार टिकी है / नीच भाव रखते हैं
रोते-रोते यहाँ भीड़ को / पड़ता है मुस्काना।

जूझना और मुस्कुराना इसलिए भी कि वर्तमान समय में दिन वे नहीं रहे जब कुछ पैसे होने से पूरे परिवार का गुजर-बसर हो जाता था। सम्भव है कि हजार दो हजार रुपये जेब में लेकर चलें और दो टाइम का खाना सुख से पूरा हो जाय? कभी इसी समाज में चवन्नी-अठन्नी चला करती थी। एक दो रुपये में कितना कुछ आ जाता था। और यह सब कवि के समय में वर्तमान था। आज मात्र स्वप्न भर रह गया है। स्वप्न इसलिए भी खटकता है क्योंकि कभी एक कमाता था और पूरा परिवार बैठकर खाता था। फिर भी सुखी था। आज परिवार का प्रत्येक सदस्य पैसे की खोज में बाहर निकल चुका है, सुख उसे फिर भी नहीं है। लालसाएँ अधूरी रह जा रही हैं। हाँलाकि इन लालसाओं को पूर्ण करने के लिए हर कोई भागा-भागा फिर रहा है। पर जितना लोग भाग रहे हैं मात्र विसंगतियों को ही जन्म दे रहे हैं। निदान समस्याओं का न ढूँढ़ने के बजाय समस्याओं में उलझते-उलझाते जा रहे हैं। समस्या के इस उलझाव में व्यथित मानव मन आशा के विपरीत परिणाम देने लगा है। ‘साँसें ज्यों झाँझ हुईं’ कविता समाज के विपरीत परिणाम के प्रति चिन्तित कवि हृदय को सुन्दर तरीके से विवेचित करती है-

माथे पर दिन के फिर/बैठ गई शाम
डूब रहे सूरज को/कर रही सलाम
आफिस पर चर्चा में/ बीत गया दिन
साँझ ढले कहाँ भरे/रिक्त जो टिफिन
लगता अब सूरज में/शेष नहीं घाम।

सूरज में घाम शेष रहता है, कुछ सम्भावनाएँ रहती हैं। जैसे-जैसे शाम होने लगती है, चिन्ताएँ बढ़ने लगती हैं। घर की, परिवार की, और इन सबसे अधिक उस खुराक की जो जीने के लिए आवश्यक है। अर्थात रोटी की। यह चिन्ता आम आदमी के लिए एक समस्या ही है। किसान दिन भर खेत जोतता है, रिक्शा-चालक दिन भर रिक्शे की पैडल मारता है, मछुआरा दिन भर मछली फँसाने के चक्कर में जाल बिछाता/फैलाता फिरता है। आशा के अनुरूप प्रतिफल न प्राप्त होने पर अँदेशा बराबर बना रहता है, आखिर अब आगे क्या? बच्चों के लिए क्या? परिवार के लिए क्या?-

लौट रहीं चिड़ियाँ घर/बच्चों की आस
शान्त हुए मछुआरे/जाल के प्रयास
गन्ध जिये सुमनों का/बन्द हुआ काम
चुक गईं प्रतीक्षाएँ/आस्थाएँ बाँझ हुईं
याद की मृदंगी संग/साँसें ज्यों झाँझ हुईं
गहरा अँधियारा/क्या होगा राम।

इस ‘क्या होगा’ की आशंका से समाज का बहुत बड़ा भाग व्यथित है। व्यथित होने की एक वजह तो इस देश की सरकारें हैं। सच यह भी है कि पिछले चार दशकों में भारतीय समाज ने अनेक परिवर्तन देखे हैं। राजनैतिक भ्रष्टाचार अपने चरम पर रहा है। प्रत्येक नागरिक के सामने उसकी सुरक्षा तथा अस्मिता का प्रश्न कचोटता रहता है। ये कहने को तो जन प्रतिनिधि होते हैं लेकिन जनता के दुःख और सुख से दूर-दूर तक इनका कोई लेना देना नहीं होता। कवि बार-बार जनता के यथार्थ दुःख तक पहुँचता है और पाता है कि चुनावी दौर में जनता के सभी प्रकार के दुःख को दूर करने का वचन देने वाले, वादा करने वाले हमारे नेतागण अब मात्र काग़ज़ी पहेली सुलझाने में व्यस्त हैं। यद्यपि भारतीय राजनीति में इस प्रकार के भाव-भंगिमा की कहीं कोई व्यवस्था नहीं है पर व्यवहार में यही उसकी नियति है। ‘अपने-अपने इन्द्रप्रस्थ’ को सजाने में मशगूल नेताओं की स्वार्थप्रियता पर कवि हैरान है। जिस जनता और जिस समाज के रक्षार्थ इनका चयन होता है वे दोनों ही अपने अस्तित्व और भाग्य पर रो रहे हैं जबकि सरकार का तमगा लटकाए ये इन्द्रप्रस्थ को सजा रहे हैं। कवि का यह कहना बिल्कुल सत्य है कि ‘इन्द्रप्रस्थ कोई भी हो/जब-जब गया बसाया/दुधमुँहे दूध को तरसे/नृप ने सदा बहाया।‘ ये बातें अब भी समझ के बाहर हैं कि आखिर ऐसा होता क्यों है? मुजफ्फरनगर के शरणार्थी एक-एक रोटी के लिए तरस रहे थे और उत्तर प्रदेश की सपा सरकार द्वारा सैफई महोत्सव मनाया जा रहा था। उत्तर प्रदेश के ही कुछ एक अंचलों में किसानों द्वारा आत्महत्या की जा रही थी और उसके पूर्व की बहुजन समाज पार्टी सरकार द्वारा लखनऊ के पार्कों में आंबेडकर की मूर्तियाँ बनवायी जा रही थीं। आज भी प्रदेशों के हालात दयनीय बने हुए हैं लेकिन वहाँ की सरकारें इस दयनीयता पर ध्यान न देकर शहरों के शहरीकरण और सौन्दर्यीकरण में मशगूल हैं। उनकी मशगूलता में शर्मसार उस प्रदेश की जनता को होना होता है उन्हें क्या; वे तो बड़ी आसानी से कह देते हैं कि फलां योजना के माध्यम से फलां प्रदेश की उन्नति होगी पर असलियत क्या है वह कवि के ही शब्दों में सुना जा सकता है-

अपने-अपने इन्द्रप्रस्थ सब/जुटे बसाने में
है लाचार/हस्तिनापुर अब लाज बचाने में
हो धर्मराज या दुर्योधन/दोष मढ़ें किस पर
केवल जनता ढोती इनको/गिर-गिर मर-मर कर
लाक्षागृह या/रंगमहल सब जुटे सजाने में
चाल चल रहे सब केवल/धन-पद, यश के ख़ातिर
अब तो लोग लगे कहने/अपराधी ये शातिर
देश प्रिया को/पासों पर सब जुटे लगाने में।

राजनीति जनता और राज्य के रक्षार्थ न होकर पूर्णतः वंशवाद को आगे बढ़ाने का साधन भी बन चुकी है। ऐसा एक नहीं सभी दलों की यथार्थ स्थिति है। लूट खसोट के माध्यम से धन एकत्रित करना राजनीति का स्वभाव और उनको ही जनप्रतिनिधि के रूप में चयनित करना, जो बड़ी से बड़ी वारदात को बड़े ही सरल तरीके से अंजाम दे सकें,इसकी नियति बन चुकी है। लोगों की आशाओं एवं आकांक्षाओं की पूर्ति करने वाली लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था, अव्यवस्था में परिवर्तित होकर जन-समुदाय के लिए पूर्णतः गले की फाँस बन चुकी है। परिणामतः जिस राजमहल में लोगों को खुश और समृद्ध बनाने पर चर्चा होनी चाहिए वहीं मात्र सत्ता पर काबिज़ रहने के लिए विविध प्रकार की योजनाएँ बनाई जा रही हैं। जिन्हें सभ्य और सांस्कारिक मानकर सत्ता का नेतृत्व सौंपा जाता है वे छोटे-छोटे निहित-स्वार्थों के लिए कौवों की तरह काँव-काँव करने पर तुले हैं। कवि इन स्थितियों की वर्तमानता को देखता ही नहीं झेलता भी है और झेलने की प्रक्रिया में ही राजमहल का सुन्दर प्रतिबिम्ब पेश करता है। यथा-

द्वार-द्वार पर यहाँ खड़े हैं/देखो पहरेदार
अन्दर गोल कुर्सियाँ फैलीं/बैठे दावेदार
यहाँ बदलते/मौसम के दिन
होता है काँव-काँव कलरव
जनहित की लोक व्यवस्था/रचे यहाँ कानून
रोटी, पानी और हवा का/चूस रहे हैं खून
मरी झोपड़ी/किन्तु महल के
दिन पर दिन और बढ़े वैभव।

महल के/दिन पर दिन और बढ़े वैभव को देखकर कवि चाहता है कि हवाई नारेबाज़ी करने और वादों की लम्बी-चौड़ी भूमिका तैयार करने की अपेक्षा राजनीतिक लोग यथार्थ पर ध्यान आकृष्ट करें। ऐसा करने से कई एक समस्याएँ स्वयमेव समाप्त हो जायेंगी। मसलन कि चुनावी रैलियों में जितना धन खर्च होता है उसका एक तिहाई धन भी यदि किसी गाँव के विकास में खर्च किया जाए तो उस गाँव के साथ-साथ वहाँ के निवासियों की भी सूरत-सीरत बदल जाये। कवि की दृष्टि में यह समय पाँच सितारा होटल में बैठकर फैसला लेने का नहीं अपितु व्यावहारिक यात्राओं का है। होटलों और कागजों में उपस्थिति दिखाते हुए तो अभी तक लोगों को तोड़ा ही गया है। जोड़ने की प्रवृत्ति न के बराबर रही। यदि जोड़ने की प्रवृत्ति वर्तमान में होती तो व्यापक नर-संहार, धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर, बिल्कुल न हुए होते। विभिन्न दंगों एवं घटनाओं में इज़्ज़त की जो मर्यादा तार-तार हुई वह शायद न होती यदि ये यात्राओं के माध्यम से संवाद स्थापित करते। यात्राओं से विकल्प मिलता है। लोगों की यथार्थ समस्याएँ दिखाई देती हैं। विकल्प और यथार्थ को देखने के लिए कवि चाहता है कि देश के नियंता लोग अब जन-समाज से जुड़ें। उनके अन्दर भय और घुटन का बीजारोपण न करें, प्यार और सौहार्द्र की सम्वेदना को विकसित करें। यथा-

छोड़िये मान्यवर/बात अपनी पुरानी वहीं छोड़िये/रथ इधर मोड़िये
रहनुमा देश के/झुग्गियाँ क्यों जलीं/सोचिए तो ज़रा
पाँच तारे में तुम/बैठ करते रहे/रात दिन मशविरा
जातियाँ, धर्म तोड़ा किये देश को/
मत अधिक तोड़िये/रथ इधर मोड़िये
लाज लुटती रही/फूल कलियाँ/बिलखती रही हैं यहाँ
राज-मद में सराबोर/प्यालों में//रंगीनियाँ थीं वहाँ
सोचिये, जो बची साँस टूटी हुई/किस तरह जोड़िये/रथ इधर मोड़िये
साँस भर एक झोंका/पवन का मिले/जल मिले प्यास भर
काम हाथों में हो/प्यार के साथ मिलकर/रहें उम्र भर
चोट खाए जनों का सहारा बनो/ वक़्त है दौड़िये/रथ इधर मोड़िये

बृजनाथ श्रीवास्तव एक स्थापित नवगीतकार हैं। गीत की परिपाटी को सँवारते हुए समय-समाज की आवश्यकता को समझने और उसे नवीन वातावरण के अनुरूप चित्रित करने की क्षमता कवि में है। गीतकारों पर अक्सर आरोप लगाया जाता है कि वे समाज की सम्वेदना से दूर रहते हुए अपने ही दुःखों को गाते, सुनाते फिरते हैं। बृजनाथ के नवगीतों का जब हम मूल्यांकन करते हैं तो पाते हैं कि यहाँ वैयक्तिकता नहीं सामूहिकता है। एकान्तप्रियता नहीं सामाजिकता है। दुःख मात्र का गान नहीं, सुधारों का संधान भी है। इनकी चिन्ता यथार्थ रूप में सम्पूर्ण विश्व की चिन्ता है। इस दृष्टि को ध्यान रखते हुए डा. सुरेश गौतम के शब्दों में कहा जाये तो ‘जहाँ नवगीत में निर्वैयक्तिकता छाने लगी, वहीं परम्परा के अनुकरण का आग्रह भी समाप्त होने लगा। इसीलिए आज का गीत न तो लोक जीवन से विमुख है, न नागरिक जीवन से उपेक्षित, न तो राष्ट्र की भौगोलिक सीमा में बद्ध है, न अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति से तटस्थ। नया गीतकार अपने परिवेश के प्रति सजग है तथा अस्तित्व के प्रति व्यापक रूप से सतर्क है। परिवेश और युग जीवन के प्रति यही उसकी सजगता उसके स्वर की नवीनता के लिए उत्तरदायी है।‘

- अनिल कुमार पाण्डेय

 


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