नारी विमर्श >> प्रेरक कहानियाँ प्रेरक कहानियाँडॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा
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111 प्रेरक कहानियाँ
Prerak Kahaniya - a collection of motivating stories by Dr Om Prakash Vishwakarma
सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह
अनुक्रम
प्रेरक कहानियाँ
1. दो शब्द
2. समर्पण
3. कृतज्ञ
4. मेहनत की कमाई
5. सच्चा न्याय
6. संयम की सीख
7. बोध जागरण
8. परमार्थ की जीत
9. भाव की भूख
10. सदाचार का प्रभाव
11. आतिथ्य-निर्वाह
12. धन है धूलि समान
13. लोभ : पाप का बाप
14. सहनशीलता
15. शास्त्रज्ञान का प्रभाव
16. जिह्वा को वश में रखना
17. जाको राखे साइयाँ
18. भलाई का प्रतिदान
19. उपकार का बदला
20. आपस की कलह
21. अपनी मदद खुद करो
22. यह सच है या वह सच
23. संसार का भ्रम
24. विपत्ति का मूल कारण
25. आत्मज्ञान
26. बिना बिचारे प्रतिज्ञा
27. पराई स्त्री में आसक्ति
28. कोरे सत्यवादी
29. पक्षपाती न्याय
30. लक्ष्य के प्रति एकाग्रता
31. मृत्यु अवश्यम्भावी है
32. सच्चा सन्त
33. समझौता
34. सच्चा सुख
35. बासी अन्न
36. पाँच तत्वों का संघात
37. परिश्रम का फल
38. सृष्टि के नियम
39. ईश्वर सब देखता है
40. सफेद हंस
41. दूसरों की निन्दा से बचो
42. पछतावा
43. भाईचारा
44. जीवन-मृत्यु
45. कल की चिन्ता
46. समय की कीमत
47. परिधान और प्रतिभा
48. मुक्ति का मूल्य
49. नशा
50. अपना हाथ जगन्नाथ
51. निस्स्वार्थता
52. सच्ची जीत
53. मूर्ख कौन
54. निर्धनता के धनी
55. पाइथागोरस का बचपन
56. तीर्थ क्या हैं?
57. निकृष्टता
58. जाति-भेद
59. सज्जनता
60. सच्चा लकड़हारा
61. कृतज्ञता
62. सतर्कता
63. रोटियों की भूख
64. हृदय-परिवर्तन
65. बुरा पाप होता है, पापी नहीं
66. गैरिक परिधान
67. आत्मबल
68. प्रभु के लिये गायन
69. सर्वस्व-दान
70. सज्जन-दुर्जन
71. अभिमान
72. ईश्वर का उपहार
73. अनुशासन और उदारता
74. बड़ा आदमी
75. दण्ड बना पुरस्कार
76. हृदय परिवर्तन
77. मानवता का आदर
78. मिथ्या-पाण्डित्य
79. अपूरणीय क्षति
80. सेवा का रहस्य
81. भीख नहीं सीख
82. जीवन क्या है?
83. पात्रता
84. सार्थक ज्ञान
85. सच्चा धन
86. न्याय
87. सिकन्दर का पश्चाताप
88. समस्या का सामना करो
89. समर्थ गुरु रामदास
90. ईमानदारी
91. कर्ण की दानशीलता
92. कर्म
93. ब्रह्मज्ञानी
94. प्रासाद नहीं धर्मशाला
95. पाप की कमाई
96. अधर्म का मूल
97. विचित्र संयोग
98. अन्न का प्रभाव
99. अभिमान
100. ब्रह्मतेज
101. कपट की पराकाष्ठा
102. साधु-वेश में धोखा
103. धैर्य की परख
104. ज्ञानी गाड़ीवाला
105. राम का न्याय
106. कर्तव्य-पालन
107. योग्यता की परख
108. परिश्रम का सुफल
109. यथोचित न्याय
110. धर्माचरण
111. सदाचार
112. लोभ-लालच
113. महान् कौन?
114. दो मित्रों का भ्रम
115. भक्त की कामना
116. देवर पुत्र समान होता है
117. सत्य पालन का परिणाम
दो शब्द
प्राचीन काल से साहित्य में कहानियों का विशेष स्थान रहा है। बीते हुए जीवन चक्र में आदर्शों को ध्यान में रखकर अपने जीवन को आदर्श बना ले जाते हैं। यह प्रेरणाएं हमें आगे बढ़ाने का कार्य करती हैं।
प्राचीन काल से दादी माँ अपने बच्चों का आदर्श जीवन बनाने के लिये राजा महाराजा, जनता के बीच हुई विशेष घटनाओं की प्रेरणा देकर शिक्षा का कार्य करती थीं।
राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी के बचपन में बाइस्कोप दिखाने वाले गली गली घूमा करते थे। बाइस्कोप देखकर, जिसमें विशेष कर राजा हरिश्चन्द्र की सच्चाई (सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र) से प्रभावित हुए। सत्य और अहिंसा को आदर्श मान कर देश को आजाद कराते हुए विश्व में वह ख्याति प्राप्त की जो आज तक कोई महापुरुष नहीं कर पाया है।
प्रबन्धक
ओ३म् श्री विश्वकर्मा जी महाविद्यालय
प्रकाश विहार, वारनपुर कहिंजरी
कानपुर देहात
समर्पण
पूज्य पिता जी स्व.श्री काशी प्रसाद विश्वकर्मा
माता जी स्व.श्रीमती शान्ती देवी विश्वकर्मा
जिनका आशीर्वाद हमारे जीवन को
हमेशा प्रकाशित करता रहेगा
श्रद्धापूर्वक समर्पित
कृतज्ञ
मैं उन सभी लोगों का हृदय से आभारी हूँ जिनके स्नेह, मार्गदर्शन से मेरे मनोबल में कमी नहीं आई हमेशा ऊर्जा प्राप्त होती रहती है जिसमें सर्वप्रथम गोलोकवासी गोपाल बाजपेई जी हैं जिन्होंने हमें ऊर्जावान बनाया। लेखन में पूरा सहयोग दिया एवं जीवन के हर कदम पर सहयोग करते रहे ।
जिनका मैं जीवनभर ऋणी रहूँगा, हमारे पितामह स्व. मनिया प्रसाद विश्वकर्मा स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी थे। उन्होंने पूरे परिवार तथा समाज के विकास हेतु अपना जीवन समर्पित किया।
मैं हदय से आशीर्वाद समर्पित करता हूँ डॉ. आर. के. मेमोरियल पब्लिक स्कूल के प्रबन्धक डॉ. आशुतोष विश्वकर्मा एवं डायरेक्टर ओ३म् श्री विश्वकर्मा जी महाविद्यालय, प्रकाश बिहार, बारनपुर कहिंजरी, कानपुर देहात के अखिलेश कुमार विश्वकर्मा को जिन्होंने विद्वानों के विचार संकलित करने में मेरा सहयोग किया।
ओ३म् श्री विश्वकर्मा जी महाविद्यालय के वरिष्ठ लिपिक दिलीप कुमार विश्वकर्मा, पुस्तकालय अधीक्षक बागीश शर्मा, एवं डॉ. आर. के. मेमोरियल पब्लिक स्कूल प्रकाश विहार, बारनपुर कहिंजरी कानपुर देहात के प्रधानाचार्य श्री दिगम्बर सिंह का एवं डॉ. संजय शर्मा संजयदीप हास्पिटल कल्यानपुर कानपुर नगर तथा मैं विनोद तिवारी जी का हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ आपका समय-समय पर मार्गदर्शन मिलता रहता है। मैं सच्चे हृदय से आभारी हूँ कविराज श्री राजेन्द्र सिंह सेंगर का जिन्होंने समय-समय पर कथा-साहित्य संकलित करके पुस्तक हेतु सहयोग किया।
मैं आभारी हूँ डा. अनामिका विश्वकर्मा का जो एम.बी.बी.एस. फाइनल ईयर की छात्रा है और कहानियाँ भेज कर सहयोग किया है।
- डॉ. ओ३म् प्रकाश विश्वकर्मा
एम. एस-सी., पी.एच-डी.
बी.ए.एम.एस.
मैं सम्पूर्ण जीवन आभारी रहूँगा अपनी धर्मपत्नी का जिन्होंने हमारे जीवन को सजाने सँवारने का कार्य तो किया ही, साथ में हिन्दी साहित्य में जो प्रेरणाएं, सुझाव कहानियों का संकलन छपाकर हमें साहित्यकार बनाया। यद्यपि हमारा अध्ययन हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत एवं उर्दू भाषा का है। किन्तु जो हमारे जीवन में हिन्दी की छाया पड़ी वह देन हमारी धर्मपत्नी की ही है।
एक बार अमावस्या का पर्व था। सरसैया घाट कानपुर में गंगा स्नान का अवसर प्राप्त हुआ। मैं अपने पिता जी के साथ सरसैया घाट गंगा-स्नान को पहुँचा। राज कुमारी अपनी नानी के साथ स्नान हेतु पहुँचीं। उस समय मैं कक्षा नौ में श्री रामलला उ. मा. विद्यालय रावतपुर में पढ़ता था। कु. राज कुमारी कैलाश नाथ बालिका विद्यालय में कक्षा 6 की छात्रा थीं। संयोग से पंडा जी के एक ही तख्त पर बैठने का अवसर मिला। स्नान के बाद प्रसाद जिस कागज पर दिया गंगा जी पूजन के बाद कागज में एक कहानी थी। हम दोनो लोगों ने प्रेरणादायक कहानी पढ़ी। कु. राज कुमारी जी ने कहा कि कई कहानियाँ जो नानी जी हमें सुनाती हैं मैं लिख लेती हूँ। हमारे घर चलिए मैं देती हूँ। उसमें से कुछ कहानियाँ, जो पुस्तक आप के हाथ में है उसमें लिखी हैं। यह मैं उन्हीं की देन मानता हूँ।
- डॉ. ओ३म् प्रकाश विश्वकर्मा
प्रेरक कहानियाँ
मेहनत की कमाई
प्राचीन काल में कर्म पर विश्वास करने वाले एक त्यागी महात्मा थे, वहकिसी से भीख नहीं माँगते थे, बल्कि टोपी सिल कर अपना जीवल निर्वाह किया करते थे। वहएक टोपी का मूल्य दो पैसे लेते औरउसमें से जो भी याचक पहले मिलता, एक पैसा उसको दे देते बाकी बचे हुए एक पैसे से अपना गुजारा करते थे। उनका एक और नियम था कि जब तक दोनों पैसे खर्च नहीं हो जाते तब तक वहप्रभु भजन ही करते थेनयी टोपी नहीं सिलतेथे।
उनका एक धनी शिष्य था, उसके पास धर्मार्थ निकाला हुआ कुछ धन था। उसने एक दिन महात्मा जी से पूछा, "भगवन् ! मैं वह राशि किसको दान करूँ?"
महात्मा ने कहा, "तुम जिसे सुपात्र समझो, उसको दान करो।"
शिष्य ने रास्ते में एक अन्धे भिखारी को देखा और उसे सुपात्र समझ कर एक सोने की मोहर दे दी। दूसरे दिन उसी रास्ते से शिष्य फिर निकला। पहले दिन वाला अन्धा भिखारीएक दूसरे अन्धे से कह रहा था, "कल एक आदमी ने मुझ को एक सोने की मोहर दी थी, मैंने उससे जी भर शराब पी और रात को एक वेश्या के यहाँ जाकर खूब आनन्द लूटा।"
शिष्य को यह सुन कर बड़ा कष्ट हुआ। उसने महात्मा के पास आकर सारा हाल कहा। महात्मा जी ने अपने पास से उसे एक पैसा देकर कहा, "जाओ, जो सबसे पहले मिले, उसी को यह पैसा दे देना।"
महात्मा ने वह पैसा टोपी सिल कर कमाया हुआ था।
शिष्य पैसा लेकर निकला, उसे एक मनुष्य मिला, उसने उसको पैसा दे दिया और उसके पीछे-पीछे चलना शुरू किया। वह मनुष्य एक निर्जन स्थान में गया और उसने अपने कपड़ों में छिपाये हुए एक मरे पक्षी को निकाल कर फेंक दिया। शिष्य ने उससे पूछा, "तुमने मरे पक्षी को कपड़ों में क्यों छिपाया था और अब क्यों निकाल कर फेंक दिया?"
उसने कहा, "आज सात दिन से मेरे परिवार को दाना-पानी नहीं मिला। भीख माँगना मुझे पसन्द नहीं, आज इस जगह मरे पक्षी को पड़ा देख मैंने लाचार होकर अपनी और अपने परिवार की भूख मिटाने के लिए उठा लिया था और इसे लेकर मैं घर जा रहा था। आपने मुझे बिना माँगे ही पैसा दे दिया, इसलिए अब मुझे इस मरे पक्षी की जरूरत नहीं रही। अतएव जहाँ से उठाया वहीं लाकर डाल दिया।"
शिष्य को उसकी बात सुन कर बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने महात्मा के पास जाकर सब वृत्तान्त कहा। महात्मा बोले, "यह स्पष्ट है कि तुमने दुराचारियों के साथ मिल कर अन्यायपूर्वक धन कमाया होगा। इसीलिए उस धन का दान दुराचारी अन्धे को दिया गया और उसने उससे सुरापान और वेश्यागमन किया। मेरे न्यायपूर्वक कमाये हुए एक पैसे ने एक कुटुम्ब को निषिद्ध आहार से बचा लिया। ऐसा होना स्वाभाविक ही है। क्योंकि अच्छा पैसा ही अच्छे काम में लगता है।"
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सच्चा न्याय
एक दिन काशी नरेश की महारानी अपनी दासियों के साथ वरुणा स्नान करने के लिए गयी थी। राजा की आज्ञानुसार उस समय नदी के तट पर किसी को जाने की अनुमति नहीं थी। नदी के पास जो झोंपड़ियाँ थीं, उनमें रहने वाले लोगों को भी राज-सेवकों ने वहाँ से हटा दिया था। माघ का महीना था। प्रातःकाल नदी में स्नान करने के कारण रानी ठंड से काँपने लगी। उन्होंने इधर-उधर देखा किन्तु कहीं सूखी लकड़ियाँ नहीं दिखाई दीं। रानी ने दासी से कहा, "इनमें से किसी एक झोपड़ी में आग लगा दे, मुझे ठंड लग रही है।"
दासी बोली, "महारानी! इन झोंपड़ियों में या तो साधु-सन्त रहते होंगे या दीन परिवार के लोग। इस शीतकाल में झोंपड़ा जल जाने पर वे कहाँ जायेंगे?"
रानी जी का नाम तो करुणा था, किन्तु राजमहलों के ऐश्वर्य में पली होने के कारण उन्हें दीन-हीनों के कष्ट का कुछ अनुभव नहीं था। उन्होंने क्रोधित होकर दूसरी दासी से कहा, "यह बड़ी दयालु बनी है। इसे मेरे सामने से हटा दो और इस झोंपड़े में तुरन्त आग लगा दो।"
रानी की आज्ञा का पालन हुआ। किन्तु एक झोंपड़ी में लगी आग वायु के झोंके से इधर-उधर फैल गयी और सब झोंपड़े जल गये। रानी को ठंड दूर होने से बड़ी प्रसन्नता हुई।
आग ताप कर वे राजभवन में पहुंचीं कि उससे पूर्व ही जिनके झोंपड़े जलगये थे, वे गरीबराजसभा में पहुँच गये थे। राजा ने जब उनका दुखड़ा सुना तो उनको बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने अन्तःपुर में जाकर रानी से कहा, "यह तुमने क्या किया, तुमने अपने लिये प्रजा के घर जलवा कर कितना अन्याय किया है, इसका कुछ ध्यान है तुम्हें?"
रानी अत्यन्त रूपवती थीं। महाराज उन्हें बहुत मानते थे। अपने रूप और अधिकार का रानी को बड़ा गर्व था। वे बोली, "आप उन घास के गन्दे झोंपड़ों को घर बता रहे हैं? वे तो फूंक देने ही योग्य थे। इसमें अन्याय की क्या बात है?"
महाराज ने कठोर मुद्रा में कहा, "न्याय सबके लिए समान होता है। तुमने लोगों को कितना कष्ट दिया है। वे झोंपड़े गरीबों के लिए कितने मूल्यवान् हैं, यहतुम अब समझ जाओगी।"
महाराज ने दासियों को आज्ञा दी, "रानी के राजसी वस्त्र तथा आभूषण उतार लो। इन्हें एक फटा वस्त्र पहना कर राजसभा में ले आओ।"
रानी कुछ कहें इससे पहले महाराज अन्तःपुर से जा चुके थे।
दासियों ने राजाज्ञा का पालन किया। एक भिखारिन के समान फटे वस्त्र पहने रानी जब राजसभा में उपस्थित की गयीं, तब न्यायासन पर बैठे महाराज की न्याय घोषणा प्रजा ने सुनी। वे कह रहे थे, "जब तक मनुष्य स्वयं विपत्ति में नहीं पड़ता, दूसरों के कष्टों की व्यथा नहीं समझ सकता।
"रानी जी! आपको राजभवन से निष्कासित किया जा रहा है। वे सब झोंपड़े, जो आपने जलवा दिये हैं, भिक्षा माँग कर जब आप बनवा देंगी, तभी राजभवन में आ सकेंगी।"
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संयम की सीख
एक बार स्थूलभद्र नाम के एक सज्जन अत्यन्त विलासी हो गये थे। किन्तु जब उनके विवेक ने उन्हें जगाया तो सचमुच जाग्रत हो गये। यद्यपि उन्होंने अपने जीवन के बहुमूल्य बारह वर्ष नर्तकी कोशा के यहाँ व्यतीत किये थे किन्तुआचार्य से दीक्षा लेकर वैराग्य ग्रहण करने के पश्चात उनका संयम, उनकी एकाग्रता, उनकीतपश्चर्या कभी भंग नहीं हुई।
एक दिन आचार्य ने अपने शिष्यों से पूछा, "इस बार चातुर्मास कहाँ करेंगे?"
आचार्य के दो शिष्य पहले ही अपना स्थान चुन चुके थे, इसनिए उन्होंने बता दिया। तीसरे ने कहा, "मैं सिंह की गुफा में चातुर्मास करूँगा।"आचार्य ने उन्हें अनुमति भी दे दी।
आचार्य ने जब स्थूलभद्र से पूछातो उसने कहा, "मैं ये चार महीने कोशा के घर पर व्यतीत करना चाहता हूँ।"
"ये चार माह तो क्या चार जन्म भी उसी पाप गृह में व्यतीत करेंगे। वह नर्तकी यह कैसे भूलसकते हैं ?"गुरुभाइयों ने परस्पर कानाफूसी करनी प्रारम्भ कर दी।
यह सुन कर आचार्य गम्भीर हो गये। दो क्षण विचार करने के उपरान्त उन्होंने स्थूलभद्र से"तथास्तु।"कह दिया
कोशा नर्तकी थी, वेश्या थी, किन्तु स्थूलभद्र में उसका अनुरागसच्चा था। स्थूलभद्र जब से उसे छोड़ कर गये थे, वह रात-रातभर जाग कर रोती रही थी। आज वही स्थूलभद्र उसके यहाँ पधारे थे, यह और बात कि अब वे मुनिवेश में थे। कोशा ने उनका स्वागत किया। उनके निवास की सुन्दर व्यवस्था की और उनको रिझाने कीकोशिश में लग गयी। वह नर्तकी थीऔर पुरुषों को परखना जानती थी, पहचान सकती थी। शीघ्र ही उसने समझ लिया कि उसके आभूषण, उसके भव्य वस्त्र औरउसका अद्भुत शृंगार अब स्थूलभद्र को आकर्षित नहीं कर सकते। यह सब शृंगार स्थूलभद्रके त्यागी चित्त को उससे और विमुख करेगा। कोशा ने आभूषण उतार दिये। शृंगार करना बन्द कर दिया। वह केवल एक सफेद साड़ी पहनने लगी तथा दासी की भाँति स्थूलभद्र कीसेवा में लग गयी। इससे भी जब स्थूलभद्र आकृष्ट नहीं हुए, तब एक दिन उनके पैरों पर गिर कर वह फूट-फूट कर रोने लगी।
स्थूलभद्र बोले, "कोशा, मैं तुम्हारे दुःख से बहुत दुःखी हूँ। तुमने मेरे लिए जीवन अर्पित कर दिया, भोग त्याग दिये, किन्तु सोचो तो सही, क्या जीवन इसीलिए है? नारी क्या केवल भोग की सामग्री मात्र है? तुम्हारे भीतर जो मातृत्व है उसे पहचानो। नारी का सच्चा रूप है माता! वह जगत् को मातृत्व का स्नेह देने उत्पन्न हुई है,!"
विशुद्ध प्रेम हृदय में वासना नहीं उत्पन्न करता, हृदय को निर्मल करता है। कोशा का प्रेम सच्चा था, उसकी वासना स्थूलभद्र के शब्दों से नष्ट हो गयी। उसने स्थूलभद्र के चरणों में मस्तक रख दिया और उन्हीं से दीक्षा ले ली इस प्रकार उसका जीवन बदल गया।
चातुर्मास समाप्त करके सभी शिष्य आचार्य के पास पहुँचे। स्थूलभद्र के सम्बन्ध में वे अनेक आशंकाएं और सम्भावनाएँ कर रहे थे किन्तु जब स्थूलभद्र पहुँचे तो उनका शान्त, गम्भीर वओजपूर्ण भाव देख कर सब शान्त हो गये। आचार्य ने उन्हें अपने समीप आसन दिया।
अगला चातुर्मास आया तो आचार्य के तीसरे शिष्य ने कोशा के यहाँ रहने की इच्छा व्यक्त की। आचार्य बोले, "तुम अभी इसके योग्य नहीं हो।"
शिष्य ने आग्रह किया "जब सिंह की गुफा में निर्भय रह सकता हूँ तो वहाँ भी स्थिर रह सकूँगा।" और आचार्य ने खिन्न मन से आज्ञा दे दी।
वह कोशा के घर पहुंचे। कोशा अब नर्तकी नहीं थी। अब वह सादे वेश में पूर्ण संयमपूर्वक रहती थी। उसने नये मुनि का भी स्वागत किया। रहने की भी सुव्यवस्था कर दी। कोशा में अब न मादक हाव-भाव था न मोहक शृंगार, किन्तु उसके सौन्दर्य पर ही मुनि मुग्ध हो गये। अपने मन के संघर्ष से पराजित होकर उन्होंने अन्त में कोशा से उसके रूपकीयाचना की।
स्थूलभद्र की शिष्या कोशा चौंकी। परन्तु उसमें नर्तकी का बुद्धि कौशल तो था ही। उसने कहा, "मैं तो धन की दासी हूँ। आप नेपाल नरेश से रत्न-कम्बल माँग कर ला सकें तो मैंआपकी प्रार्थना स्वीकार कर लूंगी।"
वासना अन्धी होती है। मुनि का संयम-नियम सब छूट गया। वह पैदल ही जंगल पर्वतों में भटकते नेपाल पहँचे और वहाँ से रल-कम्बल लेकर लौटे। कोशा ने उपेक्षापूर्वक रत्न-कम्बल लिया, उससे अपने पैर पौंछे और उसे गन्दी नाली मेंफेंक दिया।
इतने श्रम से प्राप्त उपहार का यह अनादर देख कर मुनि क्रोधपूर्वक बोले, "मूर्ख! इस दुर्लभ, कम्बल को तू नाली में फेंकती है!"
कोशा ने तीक्ष्ण स्वर में उत्तर दिया, "पहले तुम देखो कि तुम अपना अमूल्य शीलरत्न कहाँ फेंक रहे हो।"
मुनि को धक्का लगा। सोया हुआ विवेक जाग उठा। उन्होंने हाथ जोड़कर कोशा को प्रणाम कर कहा, "मुझे क्षमा कर दो देवि! तुम मेरी उद्धारिका हो।"
चातुर्मास कब का बीत चुका था। आचार्य के चरणों में उपस्थित होकर जब उन्होंने सब बातें बताईं, तब आचार्य बोले, "प्रतिकूल परिस्थिति से बचे ही रहना चाहिए। संयम को स्थिर रखने के लिए यह नितान्त आवश्यक है।"
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बोध जागरण
अभिरूप कपिलकौशाम्बी के राज पुरोहित का पुत्र था । वह आचार्यइन्द्रदत्त के पास अध्ययन करने के लिए श्रावस्ती गया । आचार्य ने नगर सेठ के यहाँ उसके भोजन की व्यवस्था कर दी किन्तु कपिल वहाँ भोजन परोसने वाली सेविका के रूप पर मुग्ध हो गया। वसन्तोत्सव पास आने पर उस सेविका ने अभिरूप कपिल से सुन्दर वस्त्र और आभूषणों की माँग रख दी।
अभिरूप कपिल के पास तो कुछ भी नहीं था। तो सेविका ने ही उसे उपाय सुझाते हुए कहा, "श्रावस्ती नरेश का नियम है कि प्रातःकाल सर्वप्रथम उन्हें जो अभिवादन करता है, उसे वे दो माशा स्वर्ण प्रदान करते हैं। तुम प्रयत्न कर सकते हो।"
अभिरूप कपिल ने दूसरे दिन कुछ रात रहते ही महाराज के शयन-कक्ष में प्रवेश करने की चेष्टा कीऔर द्वारपालों ने उसे चोर समझकर पकड़लिया। जब महाराज के सम्मुख उसे उपस्थित किया गया तो पूछे जाने पर उसने सारीबातें सच-सच बता दीं। महाराज ने उसके भोलेपन पर प्रसन्न होकर कहा, "तुम जो चाहो माँग लो। तुम जो भी माँगोगे दिया जायेगा।"अभिरूप ने कहा, "तब तो मैं सोच कर माँगूंगा।"
उसे एक दिन का समय मिल गया था। वह सोचने लगा-'दो माशा स्वर्ण तो बहुत कम है, क्यों न सौ स्वर्ण मुद्राएँ माँग ली जाएँ? किन्तु सौ स्वर्ण मुद्राएँ कितने दिन चलेंगी? यदि सहस्र मुद्राएँ माँयूँ तो? ऊँ हुँ। ऐसा अवसर क्या जीवन में फिर कभी आयेगा? इतना माँगना चाहिए कि जीवन सुखपूर्वकव्यतीत हो। तब तो लाख मुद्राएं, भी कम ही हैं। एक कोटि स्वर्ण मुद्राएं ठीक होंगी।'
वह सोचता रहा, सोचता रहा और उसके मन में नये-नये अभाव पैदा होते गये। उसकी कामनाएँ बढ़ती गयीं। दूसरे दिन जब वह महाराज के सम्मुख उपस्थित हुआ तब उसने माँग की, "आप अपना पूरा राज्य मुझे दे दें।"
श्रावस्ती नरेश के कोई सन्तान नहीं थी। वे धर्मात्मा नरेश किसी योग्य व्यक्तिको राज्य सौंप कर वन में तपस्या करने जाने का निश्चय कर चुके थे। अभिरूप कपिल की माँग से वह बहुत प्रसन्न हुए। यह ब्राह्मण कुमार उन्हें योग्य पात्र प्रतीत हुआ। महाराज ने उसको सिंहासन पर बैठने का आदेश दिया और स्वयं वन जाने को तैयार हो गये।
महाराज ने कहा, "द्विजकुमार! तुमने मेरा उद्धार कर दिया। तृष्णारूपी सर्पिणी के पाश से मैं सहज ही छूट गया। कामनाओं का अथाह कूप भरते-भरते मेरा जीवन समाप्त ही हो चला था। विषयों की तृष्णारूपी दल-दल में पड़ा प्राणी उससे पृथक् हो जाय, यह उसका बड़ा सौभाग्य है।"
अभिरूप कपिल को जैसे झटका लगा। उसका विवेक जाग्रत् हो गया। वह बोला, "महाराज! आप अपना राज्य अपने पास ही रखें। मुझे आपका दो माशा स्वर्ण भी नहीं चाहिए। जिस दल-दल से आप निकलना चाहते हैं, उसी में गिरने को मैं प्रस्तुत नहीं हूँ।"
अभिरूप कपिल वहाँ से चल पड़ा, अब वह निर्द्वन्द्व, निश्चिन्त औरप्रसन्न था।
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परमार्थ की जीत
एक समय ऐसा था जब कोसल के राजा का नाम चारो दिशाओं में फैल रहा था। उन्हें दीनों का रक्षक और दुखी लोगों का सहारा माना जाता था। काशीनरेशउनकी कीर्ति सुन करजल-भुन गये। उन्होंने सेना तैयार की और कोसल पर आक्रमण कर दिया। युद्ध में कोसलनरेश हार गये और वन में भाग गये। पर कोसल में किसी ने काशीनरेशका स्वागत नहीं किया। कोसलनरेश की पराजय होने पर वहाँ की प्रजा दिन-रात रोने लगी। काशीनरेश ने देखा कि प्रजा कोसल का सहयोग कर कहीं पुनः विद्रोह न कर बैठे। इसलिए शत्रु को समाप्त करने के लिए उन्होंने घोषणा करा दी- 'जो कोसलपति को ढूँढ़ लाएगा उसे सौ स्वर्ण मुद्राएँ पुरस्कार में दी जाएंगी।' किन्तु जिसने भी यह घोषणा सुनी, उसने आँख-कान बन्द कर दाँतों से जीभ दबा ली।
उधर कोसलनरेश दुखी मन से दीन होकर वन-वन में मारे-मारे फिर रहे थे। एक दिन एक पथिक उन्हेंमिला और पूछने लगा, "वनवासी! इस वन का अन्त कहाँ जाकर होता है और कोसलपुर का मार्ग किधर से है?"
राजा ने पथिकसे पूछा, "तुम वहाँ किसलिए जाना चाह रहे हो?"
"मैं एक व्यापारी हूँ। मेरी नौका डूब गयी है, अब कहाँ द्वार-द्वार भीख माँगता फिरूँ! सुना था कि कोसल का राजा बड़ा उदार है, अतएव उसी के दरवाजे जा रहा हूँ।
थोड़ी देर कुछ सोच-विचार कर राजा ने पथिकसे कहा, "चलो, मैं तुम्हें वहाँ तक पहुँचा देता हूँ, तुम बड़ी दूर से परेशान होकर आये हो।"
कुछ दिनों बाद काशीनरेश की राजसभा में एक जटाधारी व्यक्ति आया। राजा ने उससे पूछा, "कहिए, किसलिए आना हुआ?"
जटाधारी व्यक्तिने कहा "मैं कोसलराज हूँ! तुमने मुझे पकड़ लाने वाले को सौ स्वर्ण मुद्राएँ देने की घोषणा कराई है। बस, मेरे इस साथी को वह धन दे दो। इसने मुझे पकड़ कर तुम्हारे पास उपस्थित किया है।"
सारी सभा सन्न रह गयी। प्रहरी की आँखों में भी आँसू आ गये। काशीनरेशसारी बातें जान-सुन कर स्तब्ध रह गये। क्षण-भर शान्त रह कर वह बोल उठे, "महाराज! आज युद्धस्थल में मैं इस दुरन्त आशा को ही जीतूंगा। आपका राज्य भी लौटा देता हूँ, साथ ही अपना हृदय भी प्रदान करता हूँ।"
यह कह कर काशीनरेश ने कोसलपति का हाथ पकड़ कर उनको सिंहासन पर बैठाया और मस्तक पर मुकुट रख दिया।
सारी सभा 'धन्य-धन्य' कह उठी। व्यापारी को भी स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त हो गयीं।
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