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रहस्य-रोमांच >> काजर की कोठड़ी

काजर की कोठड़ी

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : लहरी बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 1986
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15387
आईएसबीएन :0

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हिन्दी का पहला सामाजिक उपन्यास

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काजर की कोठड़ी में कैसहू सयानो जाय, काजर की रेख एक लागिहै पै लागिहै

श्रीः

काजर की कोठड़ी...

"........... में कैसहू सयानो जाय, काजर की रेख एक लागिहै पै लागिहै ।"

पहिला बयान

संध्या होने में अभी दो घण्टे की देर है मगर सूर्य भगवान के दर्शन नहीं हो रहे, क्योंकि काली काली घटाओं ने आसमान के चारों तरफ से घेर लिया है। जिधर निगाह दौड़ाइये मजेदार समा नजर आता है और इसका तो विश्वास भी नहीं होता कि संख्या होने में अभी कुछ कसर है।
ऐसे समय में हम अपने पाठकों को उस सड़क पर ले चलते हैं जो दरभंगे से ( दरभङ्गा तिरहुत की राजधानी समझी जाती है।) सीधी बाजितपुर की तरफ गई है।
दरभंगे से लगभग दो कोस के आगे बढ़कर एक बैलगाड़ी पर चार नौजवान और हसीन तथा कमसिन रंडियाँ धानी काफूर पेयाजी और फालसई साड़ियाँ पहिरे मुख्तसर गहनों से अपने को सजाए आपुस में ठठोलपन करती वाजितपुर की तरफ जा रही हैं। इस गाड़ी के साथ पीछे पीछे एक दूसरे गाड़ी भी जा रही है जो उन रण्डियों के सफरदाओं के लिए थी। सफरदा गिनती में दस थे मगर गाड़ी में पाँच से ज्यादे के बैठने की जगह न थी इसलिए पाँच सफरदा गाड़ी के साथ पैदल जा रहे थे। कोई तम्बाकू पी रहा था, कोई गाँजा मल रहा था. कोई इस बात की शेखी बघार रहा था कि 'फलाने मुजरे में हमने वह बजाया कि बड़े बड़े सफरदाओं को मिर्गी आ गई!' इत्यादि। कभी कभी पैदल चलने वाले सफरदा गाड़ी पर चढ़ जाते और गाड़ी वाले नीचे उतर आते, इसी तरह अदल बदल के साथ सफर तै कर रहे थे। मालूम होता है कि थोड़ी ही दूर पर किसी जिमींदार के यहाँ महफिल में इन लोगों को जाना है, क्योंकि सन्नाटे मैदान में सफर करती समय संध्या हो जाने से इन्हें कुछ भी भय नहीं है और न इस बात का डर है कि रात हो जाने से चोर चुहाड़ अथवा डाकुओं से कहीं मुठभेड़ न हो जाय।
बैल की किराची गाड़ी चर्खा तो होती ही है, जब तक पैदल चलने सों कदम जाय तब तक वह बत्तीस कदम से ज्यादे न जायगी। बरसात का मौसिम, मजेदार बदली छायी हुई, सड़क के दोनो तरफ दूर-दूर तक हरे-हरे धान के खेत दिखाई दे रहे हैं, पेड़ों पर से पपीहे की आवाज आ रही है, ऐसे समय में एक नहीं बल्कि चार-चार नौजवान हसीन मदमाती रण्डियों का शान्त रहना असम्भव है, इसी से इस समय इन सभों को ची पों करती हई जाने वाली गाड़ी पर बैठे रहना बुरा मालूम हुआ और वे सब उतर कर पैदल चलने लगीं और बात की बात में गाड़ी से कुछ दूर आगे बढ़ गईं। गाड़ी चाहे छूट जाय मगर सफरदा कब उनका पीछा छोड़ने लगे थे? पैदल वाले सफरदा उनके साथ हुए और हँसते बोलते जाने लगे।
थोड़ी ही दूर जाने बाद इन्होंने देखा कि सामने से एक सवार सरपट घोड़ा फेंके इसी तरफ आ रहा है। जब वह थोड़ी दूर रह गया तो इन रण्डियों को देख कर उसने अपने घोड़े की चाल कम कर दी और जब उन चारों छबीलियों के पास पहुँचा तो घोड़ा रोक कर खड़ा हो गया। मालूम होता है कि ये चारों रण्डियाँ उस आदमी को बखूबी जानती और पहिचानती थीं, क्योंकि उसे देखते ही वे चारों हँस पड़ी और एक छबीली जो सब से कमसिन और हसीन थी, ढिठाई के साथ उसके घोड़े की बाग पकड़ कर खड़ी हो गई और बोली, “वाह वाह! तुम भागे कहाँ जा रहे हो? बिना तुम्हारे मोती........!” .
"मोती' का नाम लिया ही था कि सवार ने हाथ के इशारे से उसे रोका और कहा, “बाँदी! तुम्हें हम बेवकूफ कहें या भोली?" इसके बाद उस सवार ने सफरदाओं पर निगाह डाली और हुकूमत के तौर पर कहा, "तुम लोग आगे बढ़ो।"
अब तो पाठक लोग समझ ही गए होंगे कि उस छबीली रण्डी का नाम बाँदी था जिसने ढिठाई के साथ सवार के घोड़े की लगाम थाम ली और थी जो चारों रंडियों में हसीन और खूबसूरत थी। इसकी कोई आवश्यकता नहीं कि बाकी तीन रंडियों का नाम भी इसी समय बता दिया जाय, हाँ उस सवार की सूरत शक्ल का हाल लिख देना बहुत जरूरी है।

सवार की अवस्था लगभग चालीस वर्ष की होगी। रंग काला, हाथ पैर मजबूत और कसरती जान पड़ते थे। बाल स्याह छोटे मगर घूंघरवाले थे, सर बहुत बड़ा और बनिस्बत आगे के पीछे की तरफ से बहुत चौड़ा था। भौंहें घनी और दोनों मिली हुई आँखें छोटी छोटी और भीतर की तरफ कुछ घुसी हुई थीं। होंठ मोटे और दाँतों की पंक्ति बराबर न थी, मूंछ के बाल घने और ऊपर की तरफ चढ़े हुए थे। आँखों में ऐसी बरी चमक थी जिसे देखने से डर मालम होता था और बुद्धिमान देखने वाला समझ सकता था कि यह आदमी बड़ा ही बदमाश और खोटा है, मगर साथ ही इसके दिलावर और खूखार भी है।

जब सफरदा आगे की तरफ बढ़ गये तो सवार ने बाँदी से हँस के कहा, “तुम्हारी होशियारी जैसी इस समय देखी गई अगर ऐसी ही बनी रही तो सब काम चौपट करोगी !"
बांदी०। (शर्मा कर) नहीं नहीं मैं कोई ऐसे शब्द मुँह से न निकालती जिससे सफर्दा लोग कुछ समझ जाते।
सवार०। वाह! 'मोती' का शब्द मुँह से निकल ही चुका था!
बाँदी०। ठीक है मगर ..........
सवार०। खैर जो हुआ सो हुआ अब बहुत सम्हाल के करना। अब वह जगह बहुत दूर नहीं है जहाँ तुम्हें जाना है। (सड़क के बाईं तरफ उंगली का इशारा करके) देखो वह बड़ा मकान दिखाई दे रहा है।

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