गजलें और शायरी >> बला है इश्क बला है इश्कअलका मिश्रा
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अलका मिश्रा की ग़ज़लें
समर्पण
मेरे पापा मेरा पहला प्यार
वो मेरे मसीहा हैं वही मेरे खुदा हैं
ये सच है मेरे पापा जमाने से जुदा हैं
बचपन में मुझे बाँहों के झूले में झुलाया
हर दर्द मेरा अपने कलेजे से लगाया
मुश्किल मेरी हर एक है पलकों से बुहारी
मैं जान हूँ पापा की, मैं हूँ उनकी दुलारी
कितने ही बड़े ख्वाब दिखाते थे वो मुझको
दुनिया की बुराई से बचाते थे वो मुझको
आजादी से आकाश पे उड़ना भी सिखाया
तहजीब की पाजेब से पाँवों को सजाया
फूलों की तरह रक्खा सितारों से सँवारा
काँटों पे भी चलने के हुनर से है निखारा
कमजोर पे वो जुल्म कभी सह नहीं पाए
दरिया से बहे, कितनों के दुख-दर्द मिटाए
दुनिया के सभी रहते हैं किरदार उन्हीं में
शिव उनमें समाए, बसे अवतार उन्हीं में
सागर-सी है गहराई, फलक उनमें बसा है
दिल उनका मुहब्बत की सदाओं से भरा है
रहते हैं सफ़र में, कभी रुकते ही नहीं हैं
थककर वो कभी राह में बैठे ही नहीं हैं
पापा को है इस वक्त बहुत मेरी जरूरत
कहते वो नहीं खुल के, मगर है ये हकीकत
मैं अपनी जरूरत से उबर ही नहीं पाई
पापा के लिए कुछ भी मैं कर ही नहीं पाई
दिल उनका किसी बात से बहला नहीं सकती
जो उनसे मिला है कभी लौटा नहीं सकती
-- अलका मिश्रा
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