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कामसूत्र-अनुशीलन

वाचस्पति गैरोला

प्रकाशक : चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :312
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15369
आईएसबीएन :0

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वात्स्यायन कृत कामसूत्र का प्रामाणिक शास्त्रीय विवेचन

भूमिका

कामसूत्र की प्रस्तावना से ज्ञात होता है कि सृष्टि-रचना के बाद प्रजापति ब्रह्मा ने लोक में व्यवस्था बनाये रखने के उद्देश्य से एक लाख श्लोक परिमाण ग्रन्थ का प्रवचन किया था। उसमंन धर्म, अर्थ और काम-इस त्रिवर्ग को प्रतिपादन किया गया था। इस ग्रन्थ के धर्मविषयक अंग पर स्वायम्भुव मनु ने मानव धर्मशास्त्र के नाम से एक पृथक् ग्रन्थ की रचना की। उसके अर्थविषयक अंग को लेकर आचार्य बृहस्पति ने अर्थशास्त्र का निर्माण किया। इसी प्रकार ब्रह्मा प्रोक्त कामविपयक तीसरे अंग पर महादेव के शिष्य आचार्य नन्दी ने कामशास्त्र का निर्माण किया। इस ग्रन्थ में एक हजार अध्याय थे।

आचार्य नन्दी द्वारा रचित उस वृहद् ग्रन्थ को उद्दालक ऋषि के पुत्र श्वेतकेतु ने पाँच सौ अध्यायों में संक्षिप्त किया। पुनः उसको पांचाल देश ( पंजाब ) के निवासी आचार्य बाभ्रव्य ने डेढ़ सौ अध्यायों में संक्षिप्त किया। बाभ्रव्य द्वारा विरचित ग्रन्थ में सात अध्याय थे। यह ग्रंथ इतना महत्त्वपूर्ण और उपयोगी सिद्ध हुआ कि उसके विभिन्न अंगों को लेकर कामशास्त्र पर विभिन्न आचार्यों ने पृथक्-पृथक् सात ग्रंथों की रचना की। उसका विवरण कामसूत्र में इस प्रकार दिया गया है -
१. आचार्य दत्तक ने वैशिक अधिकरण पर
२. आचार्य चारायण ने साधारण अधिकरण पर
३. आचार्य सुवर्णनाभ ने साम्प्रयोगिक अधिकरण पर
४. आचार्य घोटक मुख ने कन्यासम्प्रयुक्तक अधिकरण पर
५. आचार्य पतञ्जलि ने भार्याधिकारिक अधिकरण पर
६. आचार्य गोणिकापुत्र ने पारदरिक अधिकरण पर
७. आचार्य कुचुमार ने औपनिषदिक अधिकरण पर।

इस प्रकार आचार्य बाभ्रव्य के वृहद् ग्रन्थ के अलग-अलग अधिकरणों पर आचार्य दत्तक आदि ने एक-एक स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखकर कामशास्त्र की परम्परा का प्रवर्तन किया। किन्तु ये सभी ग्रन्थ सम्पूर्ण कामशास्त्र का विवेचन करने। में समर्थ न हो सके। आचार्य बाभ्रव्य का अति विशाल ग्रन्थ दुरध्येय था। इसलिए आचार्य वात्स्यायन ने एक ऐसे ग्रन्थ की रचना की, जिसमें उक्त सभी ग्रन्थों का सार समन्वित था और जो आचार्य बाभ्रव्य के विशाल ग्रन्थ की भाँति सर्वागीण भी था। वही ग्रन्थ आज कामसूत्र के नाम से विश्वविश्रुत हुआ।

आचार्य वात्स्यायन कृत कामसूत्र अपने विषय का इतना महत्त्वपूर्ण और उपयोगी ग्रन्थ सिद्ध हुआ कि न केवल कामकला-विषयक ग्रन्थों पर, अपितु तदेतर काव्य, नाटक और कला आदि अनेक विषय के ग्रन्थों पर उसका व्यापक प्रभाव लक्षित हुआ। रतिशास्त्र पर लिखे गये ग्रन्थों के लिए तो उसे उपजीवी स्वीकार किया गया। कला के क्षेत्र में भी उसको आदर्श ग्रन्थ माना गया। चौंसठ कलाओं का जो स्वरूप वात्स्यायन ने निर्धारित किया था, बाद के ग्रन्थकारों ने उसी को प्रामाणिक रूप में उद्धृत किया। स्थापत्य, मूति और चित्रकला के निर्माता शिल्पियों एवं कलाकारों ने कामसूत्र के शास्त्रीय विधानों को अपनी कृतियों में साकार किया। कला की इस त्रिविध थाती में देश के ओर-छोर तक कामसूत्र के विधि-विधानों का अंकन, चित्रण एवं उत्कीर्णन आज भी सर्वत्र देखने को मिलता है।

कामसूत्र की लोकप्रियता उस पर लिखी गयी टीकाओं से विदित होती है। उस पर लिखी गयी सर्वप्रथम टीका यशोधर की जयमंगला है। यशोधर पण्डित राजा बीसलदेव के राज्यकाल (१२४३-१२६१ ई०) में हुए। उनके बाद बधेलवंशीय राजा रामचन्द्र के पुत्र वीरसिंहदेव ने १५७७ ई० में कन्दर्पचूड़ामणि नाम से और तदनन्तर काशी-निवासी विद्वान् भास्कर नरसिंह ने १७८८ ई० में कामसूत्र-व्याख्या नाम से दो टीकाएँ लिखीं। इन टीकाकारों ने कामसूत्र की विशिष्ट प्रतिपादन शैली की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की। इस दृष्टि से जयमंगला का नाम उल्लेखनीय है।

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