आत्मकथ्य
काल के इस प्रवाह में जननी द्वारा प्रसूत हुआ जिज्ञासु, जो जागतिक चाञ्चल्य से आवृत्त था; वन्दनीया, वात्सल्यमयी के क्रोड़ में पुष्पित-पल्लवित वह मैं; आचरण की शिक्षा जननी के स्नेह एवं वात्सल्य से पाते हुए; जनक-नियन्त्रण में शैक्षिक जगत् में प्रविष्ट होकर क्या, क्यों एवं कैसे? इस विषय वा मन की चित्तवृत्तियों से आवृत्त हो, बाल-मन द्वारा उद्भूत प्रत्येक चित्त-विकार; जिसे कामना, इच्छा, अभिलाषा, जिज्ञासा आदि कहा जाता है; पर अपनी विचारधारा को उनके समाधान में प्रयत्नशील पाता था। काल गतिमान् रहा। बाल-मन न जाने कब कैशोर्य-मन में परिवर्तित हो, हृदय को यौवन की परिभाषा जानने को प्रेरित करने लगा। सृष्टि-सौन्दर्य एवं कैशोर्यावस्था दोनों परस्पर एक हो गए। अवस्था का प्रभाव, जिधर देखो सौन्दर्य ही सौन्दर्य। किन्तु इस सौन्दर्य-दर्शन में भी क्या, क्यों और कैसे ने पीछा नहीं छोड़ा। जब हृदय विकास को उन्मुख कलिकाओं के प्रति सहृदय हो उठता था; उनके स्वरूप के माधुर्य, रमणीयता में आकण्ठ निमग्न हो जाना चाहता था तब बुद्धि की सहज जिज्ञासु प्रवृत्ति यह जानने में प्रवृत्त हो जाती थी कि इन्द्रियों को प्रिय लगने वाले उन दृश्यों में ऐसा क्या है जो हृदय को उल्लसित कर देता है ? यह क्यों एवं किस प्रकार हृदय को आकृष्ट एवं उन्मादित करता है? किन्तु... बुद्धि का सारा प्रयत्न निष्फल हो जाता था। तथापि हृदय लुब्ध की भाँति उत्पल, पाटल आदि के सौरभ-सुगन्ध हेतु प्रयत्नशील रहा, जो यौवन की ओर अग्रसर जीवन की सहज स्वाभाविक प्रवृत्ति ही
थी।
अध्ययन-क्रम में कालिदास की अनुपम कृति ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्' में हृदय की इस स्वाभाविक प्रवृत्ति का अत्यन्त मनोहर एवं हृदयग्राही वर्णन पढ़ा, तो जिज्ञासु बुद्धि उन कारकों के अन्वेषण के प्रति अत्यधिक सचेष्ट हो गयी। इस सचेष्टता का परिणाम यह हुआ कि बुद्धि ‘काम’ रूपी शब्दजाल में डूबने-उतराने लगी। स्नातकोत्तरोपरान्त जब मैंने गुरुवर्य डॉ. श्रीधरमिश्र, प्राध्यापक, संस्कृत विभाग, गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर से शोधकार्य की इच्छा व्यक्त की तो उन्होंने मुझसे स्वयं ही विषय-वस्तु का निर्धारण करने को कहा। गुरु का आदेश एवं बुद्धि द्वारा ‘काम’ के अन्वेषण की जिज्ञासा; बस मैंने ‘कामसूत्र' के सामाजिक एवं सांस्कृतिक पक्ष पर कार्य करने का मन बनाया; क्योंकि कामसूत्रकालीन समाज एवं संस्कृति को प्रस्तुत करने वाला कोई भी आलोचनात्मक कार्य नहीं हुआ था। इस प्रकार ‘कामसूत्रकालीन समाज एवं संस्कृतिरूप इस ग्रन्थ की अवतारणा हुई एवं अपने इस परिवर्धित स्वरूप में जिज्ञासु जनों के सम्मुख प्रस्तुत है।
इस स्वरूप में ग्रन्थ की प्रस्तुति में सहयोगियों का आभार न प्रदर्शित किया जाय, तो कृतघ्नता होगी। आचार्य वात्स्यायन ने कहा भी है—कृतज्ञस्तु पूर्वश्रमापेक्षी। कृतज्ञता ज्ञापित करना सहयोग-ऋण से मुक्त होने जैसा ही है।
मैं अपने माता-पिता से कैसे उऋण हो सकता हूँ, जिन्होंने अपने वात्सल्यमय एवं सात्त्विक वातावरण में मेरा पालन-पोषण कर मुझे इस योग्य बनाया। गुरुवर्य डॉ. श्रीधरमिश्र जी की कृतज्ञता ज्ञापित करू, तो कैसे? जिनका स्नेह-वात्सल्यपूर्ण परामर्श ग्रन्थ के इस रूप की सिद्धि में सहायक बना। मेरे जीवनपथ, कर्मपथ, धर्मपथ को; नानाविध कष्टों एवं मनोव्यथाओं को सहन कर सुगम एवं आनन्दमय बनाने वाली, अपनी वाचाल भंगिमा के कारण सदी प्रसन्नचित्त रहने वाली तथा मुझे आयुष्मती नीला, साधुवृत्त चिरंजीव बालकृष्ण एवं लीलानागर चिरंजीव रामकृष्ण जैसे रत्न प्रदान करने वाली जीवनसंगिनी नीलमधु अपने कर्तव्यबोध के प्रति सतत् प्रयत्नशील रह कर पग-पग पर सहायिका बनीं; क्या इनकी कृतज्ञता प्रकट की जा सकती है? अनुजाएँ आयुष्मती अनुराधा एवं आयुष्मती गोदाम्बा तथा अनुजद्वय वेंकटेश एवं ब्रह्मचारी रंगनाथ के सत्परामर्श भी इस कार्य में सहयोगी रहे, उन्हें मेरा हार्दिक स्नेह। परिवार के इन सदस्यों के साथ ही पूज्यचरण प्रो. करुणेश शुक्ल, पूर्व अध्यक्ष संस्कृत विभाग, गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर, प्रो. अमरनाथ पाण्डेय, पूर्व अध्यक्ष संस्कृत विभाग, महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी; प्रो. सतीश चन्द्र झा, अध्यक्ष संस्कृत विभाग बी. आर. ए. बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर; प्रो. दशरथ द्विवेदी, आचार्य संस्कृत विभाग, गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर; श्री रामचन्द्र तिवारी, पुस्तकालयी, श्यामेश्वर महाविद्यालय, सिकरीगंज, गोरखपुर आदि ने अपने स्नेहमय परामर्शो से इस कार्य में मेरा उत्साहवर्धन किया, एतदर्थ मैं सदैव उनके आशीर्वाद का आकांक्षी बना रहूँगा।
सुधीजन इस कार्य से आनन्द प्राप्त कर अपनी भ्रमित जिज्ञासा की शान्ति करें; यही मेरे कार्य की सफलता होगी।
वसन्तपंचमी संवत् २०६३
- डॉ. संकर्षण त्रिपाठी