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कविता संग्रह >> सुबह रक्त पलास की

सुबह रक्त पलास की

उमाकान्त मालवीय

प्रकाशक : स्मृति प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1976
पृष्ठ :80
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15365
आईएसबीएन :0

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सुबह रक्तपलाश की - उमाकान्त मालवीय का तीसरा कविता संग्रह है…

पुरोवचन

‘सुबह रक्तपलाश की मेरा तीसरा कविता संग्रह है। यह संग्रह आपके हाथ में है कुछ नवगीत और गीतनुमा कविताओं का यह संग्रह कैसा है यह आप जाने', हो सके तो बतलायें नहीं तो उपेक्षा कर दें, मुझे कोई शिकायत नहीं होगी। प्रथम कविता संग्रह ‘मेंहदी और महावर' से लेकर ‘सुबह रक्तपलाश की तक आज की कविता के सन्दर्भ में मुझमें अनेक सवाल सिर उठाते रहे हैं। पुरोवचन के बहाने कुछ उन्हीं का जिक्र करना चाहूँगा।

हिन्दी काव्यधारा त्वरा से रास्ते बदल रही है। सहज ही उसमें इतनी रूपगत, शिल्पगन और विषयगत विविधता है कि उससे एक सुखद आश्चर्य होता है। मेरे अनेक मित्र हैं, जो गीत और तुकान्त कविता के तथा-कथित हिमायती और अतुकान्त मुक्तछंद के कट्टर आलोचक हैं, लेकिन बेचारे सही छंद भी नहीं लिख पाते। गति, यति, मात्रा दोष से घायल कविता के कवि जब अतुकान्त मुक्त छंद या छंद मुक्त कविता का उपहास करते हैं तो उनकी स्थिति ‘प मियाँ फजीहत, दीगरौं नसीहत' हास्यास्पद हो जाती है।

कविता की पहचान के लिये उसे रेखांकित अथवा परिभाषित करने के लिये लोगों ने हर सीमा को नकार दिया ताकि अपने द्वारा तथा अपने लोगों द्वारा रचे गये गद्य ही नहीं रुक्ष गद्य को भी कविता कहा जा सके लेकिन जब गीत की बात आती है। तो संक्षिप्तता, भावनात्मक ऋजुता, वैयक्तिकता आदि तक उसे घोट देने की दुरभि संधि सिर उठाती है और गीत के प्रति हमारे शुभेच्छुओं का आग्रह प्रेम जाग उठता है। क्यों नहीं हमारी आज की मानसिकता, सामाजिक परिवेश, व्यक्तित्व का दोगलापन, भूख, गरीबी, व्यंग विपर्यय की स्थिति आदि नवगीत का कथ्य बन सकता और इस मुद्दे पर गीत की युगों पुरानी परिभाषा जो अब अपर्याप्त हो गयी है आड़े आती है?

आन्दोलनों के अन्तर्गत वह धारा विशेष, जिसका आन्दोलन है गति तो अवश्य पाती है, लेकिन उसमें कवि व्यक्ति की मौलिकता प्रायः शहीद हो जाती है। आन्दोलनों के अन्तर्गत धाराओं में लिखी जाने वाली कवितायें किंचित् अपवादों को छोड़कर कोरस सी ही लगती हैं। लगता है एक इमाम के पीछे अनेक लोग नमाज पढ़ रहे हैं अथवा एक कीर्तनियाँ अनेक लोगों को नचा घुमा रहा है। कोरस से, भूले भटके यदि कोई स्वर अलग थलग बेसुरा जा पड़ता है तो वह अपने रचनाकार के साग्रह स्वाधीनचेता व्यक्तित्व के कारण नहीं वरन् कोरस के साथ न गा सकने के शऊर के अभाव में ही ऐसा होता है।

धाराओं आन्दोलनों के अन्तर्गत व्यक्तित्व और कृतीत्व की स्वतंत्र इकाई अथवा स्वाधीन सत्ता प्रायः लोप होती जा रही है। लगता है जैसे- एक धारा के अन्तर्गत एक ही व्यक्ति अनेक शीर्षकों एवं नामों से कवितायें रच रहा है। यह स्वयं में चिन्त्य स्थिति नहीं है क्या?
आन्दोलन के घेरे में मुझे नवगीत की भी यही स्थिति न हो जाय, इसका भय है। हमारी अभिव्यक्ति की एक निश्चित रूढ़ मुद्रा अथवा भंगिमा बन चली है। एक निश्चित मुहावरों के सेट का हम प्रयोग करने लगे हैं। यह स्थिति एक मोनोटगी से दूसरी मोनोटनी की यात्रा जैसी नहीं है क्या? नयी कविता में वयं अथवा वर्णित विषयों का छन्दानुवाद ही तो नवगीत नहीं बनाता। अपने समान धर्मा नवगीतकारों से मैं इस सन्दर्भ में कुछ खुलकर बातचीत करना चाहूँगा।

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