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श्रंगार-विलास >> रतिमञ्जरी

रतिमञ्जरी

महाकवि जयदेव

प्रकाशक : चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस प्रकाशित वर्ष : 2013
अनुवादक : 7793 संपादक :
पृष्ठ :20
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15331
आईएसबीएन :0

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रतिमञ्जरी हिन्दी गद्य-पद्यानुवाद सहित

रतिमञ्जरी

हिन्दीगद्यपद्यानुवादसहित

मङ्गलाचरणम्
मधुर मुरली रख अधर पर प्रेम-पंथ पुकारता।
किंकिणी पद में पहन मधु राग वह झंकारता।।
मुग्ध वनिताएँ जिसे घेरें उभारे काम है।
उस रसिक नटराज को मेरा सप्रेम प्रणाम है।।
सौन्दर्य की प्रतिमा, मनोहर मंजु रसमय जो सदा है।
प्रेम का प्याला पिलाती युवति-जन को जो सदा है।
वह कुलिश का शर न रखता, बाण फूलों का बना है।
कुसुमशर भी पाँच ही उस मदन प्रभु की वन्दना है।।

नत्वा सदाशिवं देवं नागराणां मनोहरम्।
रचिता जयदेवेन सुबोधा रतिमञ्जरी।। १।।।

रसिक या पुरवासियों के मनहरण जो हैं कहाते।
उन सदाशिव देव की कर वन्दना जो हैं सुहाते।।
लिख रहे जयदेव कवि है आज यह सुन्दर कहानी।
नाम है रतिमञ्जरी सुख से समझ सकते सुवानी।।१।।

विलासियों अथवा नगरवासियों के मनमोहक सदा कल्याणकारी शिवजी की बन्दना कर जयदेव कवि रतिमञ्जरी नामक कामशास्त्र की रचना करते हैं।। १।।

रतिशास्त्र कामशास्त्रं तस्य सारे समाहृतम्।
सुप्रबन्यं सुसंक्षिप्तं जयदेवेन भएयते।।२।।

कामशास्त्र रतिशास्त्र को लेकर तत्त्व उदार।
लिखते हैं जयदेव यह निज संक्षिप्त विचार।।२।।

रतिशास्त्र और कामशास्त्र के तत्त्वों को खींचकर जयदेव कवि सुन्दर रचनावाली संक्षिप्त रतिमञ्जरी को कहते हैं।।२।।

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