प्राक्कथन
यह पुस्तक और इसकी पूर्ववर्ती पुस्तक 'ताजमहल राजपूत प्रासाद था', जो कि अनुसन्धान-कार्य हैं, के अतिरिक्त अन्य सभी पुस्तकें जो ताजमहल के सम्बन्ध में विगत ३०० वर्ष की अवधि में लिखी गई हैं सब कपोल-कल्पना पर आधारित हैं। बड़े गहन शोध के उपरान्त हमें यह जानकर आश्चर्य होता है कि ताजमहल के विषय में रचे गए इन्द्रजाल में सारे संसार में एक भी ऐसी पुस्तक नहीं मिली जो पुष्ट-प्रमाणयुक्त हो और जिसमें ताजमहल की मौलिकता का विस्तृत विवरण हो तथा तत्कालीन प्रमाणों को उद्धृत किया गया हो। क्योंकि किसी एक लेखक की धारणा उतनी ही है जितनी कि दूसरे की। इसलिए मात्र किंवदन्तियाँ ऐतिहासिक अनुसन्धान के लिए महत्त्वहीन हैं।
ताजमहल विश्व-प्रसिद्ध होने पर भी उसके विषय में तदनुरूप सन्देहरहित और अधिकृत विवरण का अभाव वास्तव में आश्चर्यजनक है। संसार भर के विश्वविद्यालय और शोध-संस्थान ताजमहल-सदृश मोहक और आकर्षक विषय की क्यों और कैसे उपेक्षा कर सके हैं? क्यों ताजमहल के सम्बन्ध में उसकी मौलिकता, निर्माणकाल, निर्माण में व्यय, धन का स्रोत, निर्माता और शिल्पी, मुमताज के उसमें दफनाए जाने की तिथि, और भी इसी प्रकार के अन्य अनेक विवरण सारे वैसे ही अस्पष्ट, भ्रामक, विवादास्पद और वास्तविकता-रहित क्यों हैं?
कदाचित् आज तक कोई भी अनुसन्धानकर्ता ताजमहल के वृत्तान्त को तदनुरूप आधिकारिक रूप से प्रस्तुत करने में सफल नहीं हो सका। जिस किसी ने भी इस विषय पर शोध करने का प्रयास किया, वह अव्यवस्थित और परस्पर विरोधी सामग्रियों के विस्मय में फंसकर यह समझने लगा कि वह भी उसी पुरानी अलिफलैला की कहानी की पुनरावृत्ति करने लगा है। उसको भी अपने पाठकों के सम्मुख ताजमहल मन्दिर भवन है। वही असंगत, अनियमित और सभी बिन्दुओं पर परस्पर विरोधी विवरण प्रस्तुत करना पड़ा। ताजमहल के सम्बन्ध में शाहजहाँ की कहानी के सभी पहलू सन्देहास्पद होने से ताजमहल की मौलिकता के विषय में अधिकृत विवरण प्रस्तुत करने का प्रत्येक प्रयास असफल सिद्ध होना स्वाभाविक था। ताजमहल के मूल के विषय में निर्णायक शब्द कहने में न कोई कभी सफल हुआ और न किसी ने इसकी आशा ही की। सभी पूर्ववर्ती प्रयासों का असफल होना निश्चित था, क्योंकि वे सबै भ्रान्ति पर आधारित थे। भ्रान्ति के आधार पर वे निर्धान्त निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके। | परवर्ती पृष्ठों में हम यह सिद्ध करने का प्रयास करेंगे कि ताजमहल, जिसका अर्थ है-'राजप्रासादों का शिरमौर'-प्राचीन हिन्दू भवन है, इस्लामी मकबरा नहीं। हम यह भी बताएँगे कि किस प्रकार इतस्तत: बिखरी सूचनाएँ-वास्तविक अथवा काल्पनिक-जोकि शाहजहाँ की कहानी से सम्बन्धित हैं, उचित स्थान पर आकर हमारी खोज की पुष्टि करती हैं। जिस प्रकार गणित के प्रश्न की सत्यता को जाँचने के अनेक प्रकार हैं उसी प्रकार ऐतिहासिक अनुसन्धान की कसौटी भी सभी असंगत बातों को त्यागकर संगत और तदनुरूप बातों को प्रस्तुत करने की सुविधा प्रदान करती है।
इस पुस्तक में हमने शाहजहाँ के दरबारी इतिहासकार द्वारा रचित 'बादशाहनामा' से एक उद्धरण भी प्रकाशित किया है, जिसमें यह स्पष्ट स्वीकारोक्ति है कि ताजमहल एक हथियाया गया हिन्दू प्रासाद है। हमने फ्रेंच-व्यापारी ट्रैवर्नियर को, जो शाहजहाँ के काल में भारत आया था, यह सिद्ध करने के लिए उद्धृत किया है कि मचान बनाने का व्यय ही समूचे मकबरे के व्यय से अधिक था। इससे यह सिद्ध होता है कि शाहजहाँ ने हिन्दू प्रासाद की दीवारों पर कुरान की आयतों की खुदाई करवाई, यही कारण है कि मचानों पर हुआ व्यय सारे ताजमहल पर हुए व्यय से कहीं अधिक है। हमने 'एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका' का वह उद्धरण दिया है। जिसमें कहा गया है कि ताजमहल परिसर में अश्वशाला, अतिथिगृह और प्रहरीकक्ष सम्मिलित हैं। हमने नूरुल हसन की पुस्तक को भी उद्धृत किया है, जिसमें बादशाहनामे की ही भाँति स्वीकार किया गया है कि मुमताज को दफनाने के लिए एक हिन्दू प्रासाद हथियाया गया। हमने शाहजहाँ के पंचम पूर्वज बाबर का भी उल्लेख, यह सिद्ध करने के लिए किया है कि मुमताज की मृत्यु से १०० वर्ष पूर्व ताजमहल मन्दिर भवन है।
उस भवन में बाबर रहता था, जिसे हम ताजमहल कहते हैं और जिसे उसके मकबरे के लिए बनवाया गया, कहा जाता है। हमने विंसेंट स्मिथ को भी यह सिद्ध करने के लिए उद्धत किया है कि बाबर की मृत्यु ताजमहल में ही हुई थी। इन प्रमाणों के अतिरिक्त हमने शाहजहाँ की प्रचलित कथा का विशद मन्थन किया है और अन्य। बड़े-बड़े प्रमाण की निष्कर्षात्मक रूप से यह सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किए हैं। कि ताजमहल प्राचीन हिन्दू भवन है। | इस पुस्तक में पर्याप्त मात्रा में जो प्रमाण प्रस्तुत किए हैं वे सदा के लिए उन सबको मौन कर देंगे जिन्हें हमारी खोज पर सन्देह था। उन्हें यह विश्वास हो जाएगा कि कभी-कभी एक व्यक्ति का शोध-कार्य सारे संसार की धारणा को गलत सिद्ध कर सकता है। मानवता के इतिहास में ऐसा अनेक बार हुआ है। उदाहरणार्थ गैलिलियो और आइन्स्टाइन ने तत्कालीन सिद्धान्तवादियों को झकझोर कर उनकी जंग लगी सिद्धान्त-सारणियों से उन्हें बाहर फेंक दिया था।
यह सौभाग्य की बात थी कि ताजमहल-सम्बन्धी हमारे नवीन शोध को बादशाहनामा, सिद्दीकी की पुस्तक, ट्रैवर्नियर का यात्रा-वृत्तान्त और बाबर के संस्मरण आदि ग्रंथों में समर्थन उपलब्ध हुआ है। किन्तु इस अवसर पर हम भावी पीदी तथा अपने समकालीन ऊ सबको, जो अनुसन्धान में रुचि रखते हैं, सावधान करना चाहते हैं और कहना चाहते हैं कि हमारी प्रथम पुस्तक 'ताजमहल एक राजपूती भवन था' में दिए गए प्रमाण उन सबको विश्वास दिखाने के लिए पर्याप्त थे, जो न्यायिक तर्कप्रणाली से सुपरिचित हैं कि जिस मुमताज का यह मकबरा समझा जाता है वह ताजमहल उसकी मृत्यु से बहुत पहले ही विद्यमान था।
तदपि यदि मुल्ला अदुल हमीद लाहौरी, बादशाहनामा का लेखक तथा अन्य लेखकों द्वारा वे प्रमाण जो हमने अपनी पहली पुस्तक में प्रस्तुत किए हैं, गलत सिद्ध होते तो वह भी हमारे लिए पर्याप्त होता कि हम उनकी सच्चाई को आँकते और उनके उद्देश्य को प्राप्त करने में प्रवृत्त होते। जनसाधारण और उन अनुसंधानकर्ताओं के लिए जो असत्य और विकृत विवरणों के दलदल में फँसे हैं, यह एक आत्मसात् करनेवाला पाठ है।