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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :390
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1530
आईएसबीएन :9788128812453

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my experiment with truth का हिन्दी रूपान्तरण (अनुवादक - महाबीरप्रसाद पोद्दार)...


होटल में आकरहम दोनों को यही लगा कि यहाँ कहाँ आ फँसे। होटल महँगा भी था। माल्टा से एक सिन्धी यात्री जहाज पर सवार हुए थे। मजमुदार उनसे अच्छे से घुलमिल गये थे।ये सिन्धी यात्री लंदन के अच्छे जानकार थे। उन्होंने हमारे लिए दो कमरे किराये पर लेने की जिम्मेदारी उठायी। हम सहमत हुए और सोमवार को जैसे हीसामान मिला, बिल चुका कर उक्त सिन्धी सज्जन द्वारा ठीक किये कमरों में हमने प्रवेश किया।

मुझे याद हैं कि मेरे हिस्से का होटल का बिल लगभग तीन पौड़ का हुआ था। मैं तो चकित ही रह गया। तीन पौड देने पर भी भूखारहा। होटल की कोई रुचती नहीँ थी, दूसरी ली, पर दाम तो दोनो के चुकाने चाहिये। यह कहना ठीक होगा कि अभी तो मेरा काम बम्बई से लाये हुए पाथेय सेही चल रहा था।

इस कमरे में भी मैं परेशान रहा। देश की याद खूब आती थी। माताजी का प्रेम मूर्तिमान होता था। रात पड़ती और मैं रोना शुरूकरता। घर की अनेक स्मृतियों की चढ़ाई के कारण नींद तो आ ही कैसे सकती थी? इस दुःख की चर्चा किसी से की भी नहीं जा सकती थी, करने से लाभ भी क्या था?मैं स्वयं नहीं जानता था कि किस उपाय से मुझे आश्वासन मिलेगा।

यहाँ के लोग विचित्र, रहन सहन निचित्र, घर भी विचित्र, घरों में रहने का ढंग भीविचित्र ! क्या कहने और क्या करने से यहाँ शिष्टाचार के नियमों का उल्लंघन होगा, इसकी जानकारी भी मुझे बहुत कम थी। तिस पर खाने-पीने की परहेज, औरखाने योग्य आहार सूखा तथा नीरस लगता था। इस कारण मेरी दशा सरौते के बीच सुपारी जैसी हो गयी। विलायत में रहना मुझे अच्छा नहीं लगता था और देश भीलौटा नहीं जा सकता था। विलायत पहुँच जाने पर तो तीन साल वहाँ पूरे करने का मेरा आग्रह था।

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