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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :390
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1530
आईएसबीएन :9788128812453

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my experiment with truth का हिन्दी रूपान्तरण (अनुवादक - महाबीरप्रसाद पोद्दार)...


चाचाजीने कहा: 'सो मैं कैसे दे सकता हूँ? लेकिन साहब सज्जन हैं, तू पत्र लिख। कुटुम्ब की परिचय देना। वे जरूर तुझे मिलने का समय देंगे, और उन्हेंरुचेगा तो मदद भी करेंगे।'

मैं नहीं जानता कि चाचाजी ने साहब के नाम सिफारिश का पत्र क्यों नहीं दिया। मुझे धुंधली-सी याद हैं कि विलायतजाने के धर्म-विरुद्ध कार्य में इस तरह सीधी मदद करने में उन्हें संकोच हुआ।

मैंने लेली साहब को पत्र लिखा। उन्होंने अपने रहने के बंगले पर मुझे मिलने बुलाया। उस बंगले की सीढियों को चढ़ते वे मुझसे मिल गये, औरमुझे यह कहकर चले गये : 'तू बी.ए. कर ले, फिर मुझ से मिलना। अभी कोई मदद नहीं दी जा सकेगी।' मैं बहुत तैयारी करके, कई वाक्य रटकर गया था। नीचेझुककर दोनों हाथो से मैंने सलाम किया था। पर मेरी सारी मेंहनत बेकार हूई!

मेरी दृष्टि पत्नी के गहनो पर गयी। बड़े भाई के प्रति मेरी अपार श्रद्धाथी। उनकी उदारता की सीमा न थी। उनका प्रेम पिता के समान था।

मैं पोरबन्दर से बिदा हुआ। राजकोट आकर सारी बातें उन्हें सुनाई। जोशीजी के साथसलाह की। उन्होंने कर्ज लेकर भी मुझे भेजने की सिफारिश की। मैंने अपनी पत्नी के हिस्से के गहने बेच डालने का सुभाव रखा। उनसे 2-3 हजार रुपये सेअधिक नहीं मिल सकते थे। भाई ने, जैसे भी बने, रुपयो का प्रबंध करने का बीड़ा उठाया।

माताजी कैसे समझती? उन्होंने सब तरफ की पूछताछ शुरू कर दी थी। कोई कहता, नौजवान विलायत जाकर बिगड़ जाते हैं ; कोई कहता, वेमाँसाहार करने लगते हैं ; कोई कहता, वहाँ तो शराब के बिना तो चलता ही नहीँ। माताजी ने मुझे ये सारी बाते सुनायी। मैंने कहा, ' पर तू मेराविश्वास नहीं करेगी? मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि मैं इन तीनों चीजों से बचूँगा। अगर ऐसा खतरा होता तो जोशीजी क्यों जाने देते?'

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