जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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my experiment with truth का हिन्दी रूपान्तरण (अनुवादक - महाबीरप्रसाद पोद्दार)...
इसतरह यद्यपि दूसरे धर्मो के प्रति समभाव जागा, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि मुझ में ईश्वर के प्रति आस्था थी। इन्हीं दिनों पिताजी केपुस्तक-संग्रह में से मनुस्मृति की भाषान्तर मेरे हाथ में आया। उसमें संसार की उत्पत्ति आदि की बाते पढ़ी। उन पर श्रद्धा नहीं जमी, उलटे थोड़ीनास्तिकता ही पैदा हुई। मेरे चाचाजी के लड़के की, जो अभी जीवित हैं, बुद्धि पर मुझे विश्वास था। मैंने अपनी शंकाये उनके सामने रखी, पर वे मेरासमाधान न कर सके। उन्होंने मुझे उत्तर दिया : 'सयाने होने पर ऐसे प्रश्नों के उत्तर तुम खुद दे सकोगे। बालको को ऐसे प्रश्न नहीं पूछने चाहिये।' मैंचुप रहा। मन को शान्ति नहीं मिली। मनुस्मृति के खाद्य-विषयक प्रकरण में और दूसरे प्रकरणों में भी मैंने वर्तमान प्रथा का विरोध पाया। इस शंका काउत्तर भी मुझे लगभग ऊपर के जैसा ही मिला। मैंने यह सोचकर अपने मन को समझा लिया कि 'किसी दिन बुद्धि खुलेगी, अधिक पढूँगा और समझूँगा।' उस समयमनुस्मृति को पढ़कर में अहिंसा तो सीख ही न सका। माँसाहार की चर्चा हो चुकी हैं। उसे मनुस्मृति का समर्थन मिला। यह भी ख्याल हुआ कि सर्पादि औरखटमल आदि को मारनी नीति हैं। मुझे याद हैं कि उस समय मैंने धर्म समझकर खटमल आदि का नाश किया था।
पर एक चीज ने मन में जड़ जमा ली -- यह संसार नीति पर टिका हुआ हैं। नीतिमात्र का समावेश सत्य में हैं। सत्य कोतो खोजना ही होगा। दिन-पर-दिन सत्य की महीमा मेरे निकट बढ़ती गयी। सत्य की व्याख्या विस्तृत होती गयी, और अभी हो रही हैं।
फिर नीति का एक छप्पय दिल में बस गया। अपकार का बदला अपकार नहीं, उपकार ही हो सकता हैं,यह एक जीवन सूत्र ही बन गया। उसमें मुझ पर साम्राज्य चलाना शुरू किया। अपकारी का भला चाहना और करना, इसका मैं अनुरागी बन गया। इसके अनगिनतप्रयोग किये। वह चमत्कारी छप्पय यह हैं :
पाणी आपने पाय, भलुं भोजन तो दीजे
आवी नमावे शीश, दंडवत कोडे कीजे।
आपण घासे दाम, काम महोरोनुं करीए
आप उगारे प्राण, ते तणा दुःखमां मरीए।
गुण केडे तो गुण दश गणो, मन, वाचा, कर्मे करी
अपगुण केडे जो गुण करे, तो जगमां जीत्यो सही।
(जो हमें पानी पिलाये, उसे हम अच्छा भोजन कराये। जो हमारे सामने सिर नवाये,उसे हम उमंग से दण्डवत् प्रणाम करे। जो हमारे लिए एक पैसा खर्च करे, उसका हम मुहरों की कीमत का काम कर दे। जो हमारे प्राण बचाये, उसका दुःख दूरकरने के लिए हम अपने प्राणो तक निछावर कर दे। जो हमारी उपकार करे, उसका हमे मन, वचन और कर्म से दस गुना उपकार करना ही चाहिये। लेकिन जग में सच्चाऔर सार्थक जीना उसी का हैं, जो अपकार करने वाले के प्रति भी उपकार करता हैं।)
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