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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :390
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1530
आईएसबीएन :9788128812453

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my experiment with truth का हिन्दी रूपान्तरण (अनुवादक - महाबीरप्रसाद पोद्दार)...


इसदलील का मेरे मन पर थोड़ा बहुत असर हुआ। लेकिन मुझे आत्मकथा कहाँ लिखनी है? मुझे तो आत्मकथा के बहाने सत्य के जो अनेक प्रयोग मैंने किये, उनकीकथा लिखनी है। यह सच है कि उनमें मेरा जीवन ओतप्रोत होने के कारण कथा एक जीवन-वृत्तांत जैसी बन जायेगी। लेकिन अगर उसके हर पन्ने पर मेरे प्रयोग हीप्रकट हों, तो मैं स्वयं उस कथा को निर्दोष मानूँगा। मैं ऐसा मानता हूँ कि मेरे सब प्रयोगों का पूरा लेखा जनता के सामने रहे तो वह लाभदायक सिद्धहोगा अथवा यों समझिये कि यह मेरा मोह है। राजनीति के क्षेत्र में हुए मेरे प्रयोगों को तो अब हिन्दुस्तान जानता है, यही नहीं बल्कि थोड़ी-बहुतमात्रा में सभ्य कही जाने वाली दुनिया भी जानती है। मेरे मन इसकी कीमत कम से कम है, और इसलिए इन प्रयोगों के द्वारा मुझे 'महात्मा' का जो पद मिलाहै, उसकी कीमत भी कम ही है। कई बार तो इस विशेषण ने मुझे बहुत अधिक दुःख भी दिया है। मुझे ऐसा एक भी क्षण याद नहीं है जब इस विशेषण के कारण मैंफूल गया होऊँ। लेकिन अपने आध्यात्मिक प्रयोगों का, जिन्हें मैं ही जान सकता हूँ और जिनके कारण राजनीति के क्षेत्र में मेरी शक्ति भी जन्मी है,वर्णन करना मुझे अवश्य ही अच्छा लगेगा। अगर ये प्रयोग सचमुच आध्यात्मिक हैं तो इनमें गर्व करने की गुंजाइश ही नहीं। इनसे तो केवल नम्रता की हीवृद्धि होगी। ज्यों-ज्यों मैं विचार करता जाता हूँ, भूतकाल के अपने जीवन पर दृष्टि डालता हूँ, त्यों-त्यों अपनी अल्पता मैं स्पष्ट ही देख सकताहूँ। मुझे जो करना है, तीस वर्षों सें मैं जिसकी आतुर भाव से रट लगाये हुए हूँ, वह तो आत्म-दर्शन है, ईश्वर का साक्षात्कार है, मोक्ष है। मेरे सारेकाम इसी दृष्टि से होते हैं। मेरा सब लेखन भी इसी दृष्टि से होता है, और राजनीति के क्षेत्र में मेरा पड़ना भी इसी वस्तु के अधीन है।

लेकिन ठेठ से ही मेरा यह मत रहा है कि जो एक के लिए शक्य है, वह सब के लिए शक्यहै। इस कारण मेरे प्रयोग खानगी नहीं हुए, नहीं रहे। उन्हें सब देख सकें तो मुझे नहीं लगता कि उससे उनकी आध्यात्मिकता कम होगी। अवश्य ही कुछ चीजेंऐसी हैं, जिन्हें आत्मा ही जानती है, जो आत्मा में ही समा जाती हैं। परन्तु ऐसी वस्तु देना मेरी शक्ति से परे की बात है। मेरे प्रयोगों में तोआध्यत्मिकता का मतलब है नैतिक, धर्म का अर्थ है नीति, आत्मा की दृष्टि से पाली गयी नीति धर्म है। इसलिए जिन वस्तुओं का निर्णय बालक, नौजवान और बूढेकरते हैं और कर सकते हैं, इस कथा में उन्ही वस्तुओं का समावेश होगा। अगर ऐसी कथा मैं तटस्थ भाव से निरभिमान रहकर लिख सकूँ तो उसमें से दूसरेप्रयोग करने वालों को कुछ सामग्री मिलेगी।

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