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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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my experiment with truth का हिन्दी रूपान्तरण (अनुवादक - महाबीरप्रसाद पोद्दार)...
तुरन्तही प्रश्न उठा कि आश्रम का नाम क्या रखा जाय? मैंने मित्रों से सलाह की। कई नाम सामने आये। सेवाश्रम, तपोवन आदि नाम सुझाये गयेथे। सेवाश्रम नाम मुझे पसन्द था, पर उससे सेवा की रीति का बोध नहीं होता था। तपोवन नाम पसंद किया ही नहीं जा सकता था, क्योंकि यद्यपि मुझेतपश्चर्या प्रिय थी, फिर भी यह नाम बहुत भारी प्रतीत हुआ। हमें तो सत्य की पूजा करनी थी, सत्य की शोध करनी थी, उसी का आग्रह रखना था, और दक्षिणअफ्रीका में मैंने जिस पद्धति का उपयोग किया था, उसका परिचय भारतवर्ष को कराना था तथा यह देखना था कि उसकी शक्ति कहाँ तक व्यापक हो सकती है। इसलिएमैंने और साथियो ने सत्याग्रह-आश्रम नाम पसन्द किया। इस नाम से सेवा का और सेवा की पद्धति का भाव सहज ही प्रकट होता था।
आश्रम चलाने के लिए नियमावली की आवश्यकता थी। अतएव मैंने नियमावली का मसविदा तैयार करके उस परमित्रों की राय माँगी। बहुतसी सम्मतियो में से सर गुरुदास बैनर्जी की सम्मति मुझे याद रह गयी है। उन्हें नियमवली तो पसन्द आयी, पर उन्होंनेसुझाया कि व्रतो में नम्रता के व्रत को स्थान देना चाहिये। उनके पत्र की ध्वनि यह थी कि हमारे युवक वर्ग में नम्रता की कमी है। यद्यपि नम्रता केअभाव का अनुभव मैं जगह-जगह करता था, फिर भी नम्रता को व्रतो में स्थान देने से नम्रता के नम्रता न रह जाने का भय लगता था। नम्रता का संपूर्णअर्थ तो शून्यता है। शून्यता की प्राप्ति के लिए दूसरे व्रत हो सकते है। शून्यता मोक्ष की स्थिति है। मुमुक्ष अथा सेवक के प्रत्येक कार्य मेंनम्रता -- अथवा निरमिभानता -- न हो तो वह मुमुक्ष नहीं है, सेवक नहीं है। वह स्वार्थी है, अहंकारी है।
आश्रम में इस समय लगभग तेरह तामिल भाई थे। दक्षिण अफ्रीका से मेरे साथ पाँच तामिल बालक आये थे और लगभग पचीसस्त्री-पुरुषो से आश्रम का आरंभ हुआ था। सब एक रसोई में भोजन करते थे और इस तरह रहने की कोशिश करते थे कि मानो एक ही कुटुम्ब के हो।
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