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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> मानस प्रवचन भाग-15

मानस प्रवचन भाग-15

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :162
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15259
आईएसबीएन :0

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प्रस्तुत है मानस प्रवचन माला का पन्द्रहवाँ पुष्प - जागत सोवत सरन तुम्हारी...

सबके प्रिय सबके हितकारी।
दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी।।
कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी।
जागत सोवत सरन तुम्हारी।।
तुम्हहिं छाड़ि गति दूसर नाहीं।
राम बसहु तिन्ह के मन माहीं।।
जननी सम जानहिं पर नारी।
धन पराव बिष ते बिष भारी।।
जे हरषहिं पर संपति देखी।
दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी।।
जिन्हहि राम तुम्ह प्रान पिआरे।
तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे।।

स्वामि सखा पितु मातु गुर, जिन्ह के सब तुम्ह तात।
मन मंदिर तिन्ह के बसहु सीय सहित दोउ भ्रात।। २/1३०

प्रभु ने जब महर्षि वाल्मीकि से पूछा कि मैं कहाँ रहूँ तब एक ओर तो महर्षि ने उस तात्त्विक सत्य की ओर संकेत किया जिसमें उन्होंने यही कहा कि इसका उत्तर प्राप्त करने से पहले आपको मेरे प्रश्न का उत्तर देना होगा कि आप कहाँ नहीं रहते, और जब आप बता देंगे कि मैं इस स्थान पर नहीं रहता तो मैं कह दूंगा कि आप वहाँ रहिये। किन्तु यह तो एक तात्त्विक सत्य है और तत्त्व व्यक्ति को बदलता नहीं है।

दृष्टान्त के रूप में कहें तो जैसे प्रकाश है, उसका कार्य वस्तु को यथार्थ रूप में प्रकाशित कर देना है, वस्तु में परिवर्तन करना नहीं है। हमारे शास्त्रों की मान्यता है कि प्रकाशपुंज की भाँति ईश्वर प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान है, उसका रूप प्रकाशक का है। रामायण में भी कहा गया है कि
बिषय करन सुर जीव समेता।
सकल एक ते एक सचेता।।
सब कर परम प्रकासक जोई।
राम अनादि अवधपति सोई।।१/२१६/५

ईश्वर परम प्रकाशक के रूप में प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में विद्यमान है। जैसा अभी कहा गया कि प्रकाश आपको प्रेरणा नहीं देता, किसी कार्य के लिये आपको बाध्य नहीं करता। आप प्रकाश में बैठकर कौन-सा ग्रंथ पढ़ रहे हैं, क्या लिख रहे हैं? प्रकाश में बैठकर अच्छी बात कह रहे हैं या बुरी बात कह रहे हैं, इससे प्रकाश को कुछ लेना देना नहीं है इसीलिये अयोध्याकाण्ड में यह बात कही गयी कि
जद्यपि सम नहिं राग न रोषू।।
गहहिं न पाप पूनु गुन दोषू।।२/२१८/३

वह सम है, न तो पाप को ग्रहण करता है और न पुण्य को। उसके मन में किसी के प्रति न राग है और न रोष है। अगर ईश्वर का ऐसा वर्णन सुनकर उसका वह अर्थ ले लिया जाय जो बालि ने ले लिया, तब तो अवतारवाद का सिद्धान्त व्यर्थ हो जायेगा।

सुग्रीव भगवान् राम की प्रेरणा से जाकर जब बालि को युद्ध की चुनौती देता है तो उसे सुनकर बालि को बड़ा आश्चर्य हुआ कि सुग्रीव जैसा कायर व्यक्ति मुझे चुनौती दे! बालि इसे सह नहीं पाता और लड़ने के लिये चल पड़ता है। उसे जाते देखकर पत्नी तारा उसके चरणों को पकड़ लेती है, और कहती है कि सुग्रीव की इस गर्जना के पीछे किसका बल है, क्या आपको इसका भान नहीं हो रहा है? याद रखिये -
सुन पति जिन्हहिं मिलेउ सुग्रीवा।
ते द्वौ बंधु तेज बल सींवा।।
कोसलेस सुत लछिमन रामा।
कालहु जीति सकहिं संग्रामा।। ४/७/२८-२६

जो काल-विजेता वीर हैं उनका बल पाकर सुग्रीव जैसा डरपोक व्यक्ति भी आज गर्जना कर रहा है। बालि हँसा और बोला कि तुम तो यह समझती हो कि राम केवल एक वीर व्यक्ति हैं, पर मैं जानता हूँ कि वे साक्षात् ईश्वर हैं। तारा आश्चर्यचकित हो गयी, आप तो मुझसे भी अधिक जानते हैं! मैं तो उन्हें बलवान् व्यक्ति ही समझती थी पर जब आप उन्हें ईश्वर कहते हैं तब तो आपको इस प्रकार का दुःसाहस करना ही नहीं चाहिये। और तब बालि ने हँसकर कहा कि वे ईश्वर हैं इसीलिये तो निश्चिन्त हूँ। बालि का वाक्य यही है कि
कह बाली सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ। ४/७

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