‘भक्ति' का जीवनदर्शन है, जीवन को सही दृष्टि से देखकर और उसके अर्थ को ग्रहण करना। श्रीराम को लेकर आज कुछ लोग जो विवाद और संघर्ष उत्पन्न कर रहे हैं, वह श्रीराम को न समझने के कारण है।
श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी ने नायक के रूप में जिन ‘श्रीराम' को प्रस्तुत किया है, वे व्यक्ति नहीं, बल्कि साक्षात् परब्रह्म' हैं। उत्तर-दक्षिण, आर्य-द्रविड़, ब्राह्मण-शूद, सब उन्हीं के अंग हैं। सब उन्हीं में समाये हुए हैं।
तुलसी के राम को देखने की, समझने की पवित्र उज्ज्वल दृष्टि हमें युग तुलसी पद्मभूषण परम पूज्य महाराज श्रीरामकिंकरजी से प्राप्त हो सकती है।
उनका मनुष्य रूप में अवतरित होकर जो लीला की है उसे देखकर भ्रमित मत हो जाइये। तात्पर्य है कि ‘बालक' रूप में नन्हें से दिखायी देने पर भी श्रीराम साक्षात् विराट् हैं। ये तो उनका नाट्य मंचन है।
रावण-कुम्भकर्ण उनके ही पार्षद जय-विजय हैं। न तो राम आर्य हैं न तो रावण द्रविड़। प्रभु के नाट्य का रसास्वादन कीजिये। श्रीराम किसी जाति के होते तो संबंध भी अपनी जाति में करते। शबरी उनकी माँ नहीं हो सकती थी। शबरी द्वारा यह सुनकर कि वह स्त्री और शूद्र है, उन्हें उठकर चले जाना चाहिये था। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा “मैं तो केवल भक्ति का ही नाता मानता हूँ। जाति-पाँति को मैं बिना जल का मेघ मानता हूँ।
वे ब्राह्मणों को समादर देते हैं, पर आनंद तो उन्हें तभी आता है। जब केवट उन्हें मित्र कहकर पुकारता है। विभीषण निशाचर जाति के और सुग्रीव वानर जाति के, और प्रभु तीनों को अपना मित्र बनाते हैं। छोटों पर वे दया नहीं करते अपितु उन्हें अपना मित्र बनाते हैं। अपनी भक्ति का उपदेश देते हुए वे प्रत्येक देश, काल और व्यक्ति में इन्हीं को देखते हुए प्रेम करने का उपदेश देते हैं। तुलसी के राम प्रत्येक देश, काल और व्यक्ति के हैं। वे ईश्वर हैं। उन्हें देश, काल, जाति की संकीर्ण परिधि में नहीं बाँधा जा सकता है।
युग तुलसी परम पूज्य महाराजश्री ने इस संदर्भ में अपनी अनुभूति इस प्रकार अभिव्यक्त की है ‘‘श्रीराम के चरित्र में इतनी विलक्षणता है कि उनकी समग्र विशेषताओं के विश्लेषण के लिये मुझे एक जीवन यथेष्ट प्रतीत नहीं होता है। जितनी बार मानस में प्रवेश करता हूँ, वहाँ सर्वथा नवीन दृष्टि का साक्षात्कार होता है।”
‘भक्ति' समस्त सुखों का केन्द्र तो है, पर अंतःकरण में 'श्रद्धा' और ‘भक्ति’, ‘संत’ और ‘भगवत्कृपा' के बिना नहीं प्राप्त हो सकती। विद्वानों की गोष्ठी में एक बार परम पूज्य महाराज ने अपने अंतरंग जीवन की निजानुभूति को कुछ इस प्रकार प्रकट किया था-“अब मैं कृपा की बात क्या कहूँ? मेरे लिये यह केवल भाषण का विषय नहीं है, मैं तो जीवन में प्रतिक्षण, प्रभु की कृपा का ही अनुभव करता हूँ। जो कुछ लिखा या कहा जाता है, भले ही वह मेरे द्वारा होता हुआ दिखायी देता हो और लोगों को लगता है कि वह मेरे किसी कठिन साधना या चिंतन का फल है, पर मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि वह तो केवल प्रभु की कृपा ही है -
केवल कृपा तुम्हारिहि कृपानंद संदोह।
एक बार संत सम्मेलन में चर्चा का विषय था कि भगवान् ने किसकी कब परीक्ष ली? सबने अपना-अपना संस्मरण सुनाया। मुझसे भी पूँछा गया आपकी कभी परीक्षा हुई की नहीं? मैंने कहा बार-बार हुई, कितनी बार पास हुए, कब असफल हुए? मैंने कहा मैं तो कभी असफल नहीं हुआ। सबको बड़ा आश्चर्य हुआ! मैंने कहा महाराज! अपनी योग्यता से तो मैं कभी पास ही नहीं हुआ, जीवन भर ‘कृपांक’ से ही पास हुआ। आप सब जानते हैं कि परीक्षा में जब छात्र बहुत थोड़े से अंकों से अनुत्तीर्ण हो रहा हो, तो उसके थोड़े से अंक बढ़ाकर, उत्तीर्ण कर दिया जाता है। मैं भी जीवन भर भगवत्कृपा के द्वारा ही सफल होता रहा। प्रभु की कृपा का जीवन में अनुभव हो जाना यह भी प्रभु की कृपा का ही फल है और प्रभु की कृपा की विशेषता है कि वह कभी भी समाप्त नहीं होती। भगवान् श्रीराम की भक्ति किस तरह से हमारे लिये सर्वदा मंगल एवं कल्याणकारी होगी, यह परम पूज्य महाराजश्री ने अपनी अनूठी शैली में प्रस्तुत किया है, जो तार्किक भी है, मनोवैज्ञानिक भी, सामाजिक भी और व्यावहारिक भी।
भक्ति तत्त्व का निरूपण, भक्ति के इन्द्रधनुषीय रंगों का दर्शन, जिस प्रकार परम पूज्य श्रीरामकिंकरजी महाराज ने इन ग्रंथ में करवाया है, वह सर्वथा विलक्षण है-
भगति तात अनुपम सुख मूला। मिलहि जो संत होहिं अनुकूला।।
आप इन अमृत बिन्दुओं का रसपान अवश्य करें,
• आपका हृदय झंकृत होगा।
• आपका मन स्पन्दित होगा।
• आपका चित्त समाधिस्थ होगा।