पुराण एवं उपनिषद् >> मुण्डकोपनिषद मुण्डकोपनिषदआदि शंकराचार्य
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मुण्डकोपनिषद् अथर्ववेद के मंत्र भाग के अन्तर्गत है।
मुण्डकोपनिषद् अथर्ववेद के मन्त्रभागके अन्तर्गत है। इसमें तीन मुण्डक हैं और एक-एक मुण्डक के दो-दो खण्ड हैं। ग्रन्थके आरम्भ में ग्रन्थोक्त विद्या की आचार्य परम्परा दी गयी है। वहाँ बतलाया है कि यह विद्या ब्रह्माजी से अथर्वाको प्राप्त हुई। और अथर्वा से क्रमश: अङ्गी और भारद्वाज के द्वारा अङ्गिरा को प्राप्त हुई उन अङ्गिरा मुनि के पास महागृहस्थ शौनक ने विधिवत् आकर पूछा कि 'भगवन्! ऐसी कौन-सी वस्तु है जिस एक के जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है?' महर्षि शौनक का यह प्रश्न प्राणिमात्रके लिये बड़ा कुतूहलजनक है, क्योंकि सभी जीव अधिक-से-अधिक वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं।
इसके उत्तरमें महर्षि अङ्गिरा ने परा और अपरा नामक दो विद्याओं का निरूपण किया है। जिसके द्वारा ऐहिक और आमुष्मिक अनात्म पदार्थों का ज्ञान होता है उसे अपरा विद्या कहा है तथा जिससे अखण्ड, अविनाशी एवं निष्प्रपञ्च परमार्थतत्त्व का बोध होता है उसे परा विद्या कहा गया है। सारा संसार अपरा विद्या का विषय है तथा संसारी पुरुषों की प्रवृत्ति भी उसी की ओर है। उसी के द्वारा ऐसे किसी एक ही अखण्ड तत्त्वका ज्ञान नहीं हो सकता जो सम्पूर्ण ज्ञानों का अधिष्ठान हो, क्योंकि उसके विषयभूत जितने पदार्थ हैं वे सब-के-सब परिच्छिन्न ही हैं। अपरा विद्या वस्तुतः अविद्या ही है; व्यवहारमें उपयोगी होने के कारण ही उसे विद्या कहा जाता है। अखण्ड और अव्यय तत्त्व के जिज्ञासु के लिये वह त्याज्य ही है। इसीलिये आचार्य अङ्गिरा ने यहाँ उसका उल्लेख किया है। | इस प्रकार विद्या के दो भेद कर फिर सम्पूर्ण ग्रन्थ में उन्हीं का सविस्तार वर्णन किया गया है। ग्रन्थ का पूर्वार्ध प्रधानतया अपरा विद्या का निरूपण करता है और उत्तरार्ध में मुख्यतया परा विद्या और उसकी प्राप्ति के साधनोंका विवेचन है। इस उपनिषद् की वर्णन शैली बड़ी ही उदात्त एवं हृदयहारिणी है, जिससे स्वभावत: ही जिज्ञासुओंका हृदय इसकी ओर आकर्षित हो जाता है।
उपनिषदों का जो प्रचलित क्रम है उसके अनुसार इसका अध्ययन प्रश्नोपनिषद् के पश्चात् किया जाता है। परन्तु प्रस्तुत पुस्तक के पृष्ठ ८८ पर भगवान् शङ्कराचार्य लिखते हैं-“वक्ष्यति च ‘न येषु जिह्ममनृतं न माया च'' इति अर्थात् जैसा कि आगे (प्रश्नोपनिषद्) “जिन पुरुषों में अकुटिलता, अमृत और माया नहीं है'' इत्यादि वाक्य द्वारा कहेंगे भी।' इस प्रकार प्रश्नोपनिषद् के प्रथम प्रश्न के अन्तिम मन्त्र का भविष्यकालिक उल्लेख करके आचार्य सूचित करते हैं कि पहले मुण्डकका अध्ययन करना चाहिये और उसके पश्चात् प्रश्नका। प्रश्नोपनिषद्का भाष्य आरम्भ करते हुए तो उन्होंने इसका स्पष्टतया उल्लेख किया है। अतः शाङ्कर सम्प्रदाय के वेदान्तविद्यार्थियोंको उपनिषद्भाष्य का इसी क्रम से अध्ययन करना चाहिये। अस्तु, भगवान् से प्रार्थना है कि इस ग्रन्थ के अनुशीलनद्वारा हमें ऐसी योग्यता प्रदान करें जिससे हम उनके सर्वाधिष्ठानभूत परात्पर स्वरूपका रहस्य हृदयङ्गम कर सकें।
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