सामाजिक >> तापसी तापसीकुसुम अंसल
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वृन्दावन की विधवाओं के नरकतुल्य जीवन के गहरे अध्ययन के बाद लिखा गया विशिष्ट उपन्यास।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
वह शायद मेरी पहली तीर्थ-यात्रा थी। मैं पहली बार वृन्दावन जा रही थी। घर
में आर्यसमाजी वातावरण और निराकार परमात्मा की सार्वलौकिक सत्यता को अपने
भीतर स्वीकार करके मैं एक विश्वास जी रही थी। मेरी अपनी मान्यताएं मुझे
अंधविश्वासों से बचाती थीं। परन्तु अनुसंधान प्रयोग और भी अधिक जानने की
मेरी चाह मेरे अवचेतन में सदा बनी रहती थी। मुझे अपनी यात्राओं के मध्य
हमेशा यह लगता था कि पटरियाँ जहाँ भी ले जाती हैं वह रास्ता, तयशुदा
पूर्णसत्य नहीं हो सकता, तभी मेरा मन एक द्वन्द्व के बीच उलझा-उलझा रहता
था। शायद इसी कारण एक आतुरता, एक बेचैनी मेरी हृदय के दरवाज़े पर दस्तक
देती रहती थी, एक चेताता-सा संदेह मुझे हाथ पकड़ कर रास्ते से उठा कर
टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर भटकाता रहता था। इसीलिए मेरी वह पहली
तीर्थ-यात्रा मेरे अनेकानेक प्रश्नों की अन्तर्यात्रा बन गई, अज्ञात से
अज्ञात तक की यात्रा।
वृन्दावन की गलियों में पैदल चलकर मंदिरों के दर्शन किये, इस्कॉन टैम्पल’ के राधा-कृष्ण, बलराम, फिर बाँके बिहारी की मनोहारी, ऐतिहासिक प्रतिमा। मुझे लगा, प्रायः सभी प्रतिमाएं, उनकी ठहरी हुई आँखों की वह तीव्र दृष्टि मेरी आँखों में सीधा-सीधा देख रही थीं। उनका स्मित, उनके सुन्दर मुखारविन्द पर ठहरी हुई वह मुस्कान मेरी अतिमानवीय चेतना को छू रही थी। जैसे ही उस दृष्टि से मेरे भीतर किसी विचार का आविर्भाव होता, पंडों की भीड़ परदा खिसकाकर भगवान और मेरे बीच व्यवधान बन कर खड़ी हो जाती। अगरबत्ती के धुएं, भीड़ के स्वर, पंडों पुजारियों की गुहार, बंटते हुए प्रसाद, फेंके हुए पुष्पहार, मन्दिर के रंगमंच पर चलता एक दृश्य पता नहीं श्रद्धा को उकसाते थे या अश्रद्धा को ? पीले कपड़ों में अंग खुजाते पंडे, मन्त्र या जाप के स्थान पर चढ़ावे की गणनाएं करते पुजारी एक सामंती समाज के षड्यन्त्र में धंसे हुए वह धर्म के दावेदार मुझे एक बहुत गहरे संदेह की खाई में धकेल जाते थे।
परिणामस्वरूप बहुत से प्रश्न या रिफ्लेक्टिव सवाल मुझे घेर कर खड़े हो गये और मुझे लगा यहाँ के इस रहस्यमय रंगमच को जानना होगा। क्योंकि मेरा विश्वास था कि खोज संदेह से होती है, श्रद्धा से नहीं। तो क्या यही कारण था विदेशों में चर्च तोड़े गये थे। नीत्शे जैसे विचारक वैज्ञानिकों ने खुले आम ईश्वर की मृत्यु का ऐलान किया। उसके विचार से ‘ईश्वर, एक असंतुष्ट विवेक की परिकल्पना भर था’ और कुछ नहीं।
आज के समय में, हम जहाँ कमर्शिलाईज़ेशन की या ग्लोबलाईज़ेशन की बात कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर धर्म की अनिवार्यता भी व्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनती जा रही है। आधुनिकता के दौर में भगवान के साथ-साथ भक्तिभाव का भी तो आधुनिकीकरण हुआ है। जैसे-जैसे मनुष्य के जीवन की त्रासदियाँ, जटिलताएं बढ़ती गईं वैसे-वैसे तीर्थ, उनके भीतर बसे मठाधीश, पंडे, गुरु, संन्यासी टाईप लोग, उन सबका भाव बढ़ता गया, उनका बाज़ार गर्म होता गया। मनुष्य की त्रासदी यह थी कि वह पंडों आदि के चंगुल में फंसकर अपने बौद्धिक परिदृश्य में खुद ही खोखला होता चला गया और धर्म सरेआम टेलीविज़न के अनगिनत चैनलों पर सवार, ‘‘आस्था’, ‘आत्मा’ या ‘संस्कार’ जैसे मुखौटे पहनकर मनुष्य की चेतना की झिंझोड़ने लगा। ज्ञान का रस गन्ने के मीठे रसकी तरह धर्म के चमचमाते गिलासों में डालकर पिलाया जाने लगा। भक्ति दान अध्यात्म अब एक चालू नित्यकर्म का हिस्सा बन चले थे। गीता रामायण आदि धर्मग्रन्थों का ज्ञान रंगीन पन्नी चिपके मुखौटों-सा हमारे सामने आकर टंग गया था।
जहाँ एक ओर कुछ विशेष विचारकों ने जाने-अनजाने मनुष्य के मनुष्यत्व के साथ भगवान की भी अंत्येष्टि करदी थी धर्मवीर भारती के ‘अंधायुग’ ‘‘होती होगी बधिको की मुक्ति’। प्रभु के मरण से। किन्तु रक्षा कैसे होगी अंधे युग में। प्रभु के इस कायर मरण से। नियति है हमारी बंधी प्रभु के मरण से नहीं। मानव भविष्य से।’’ वहीं दूसरी ओर धर्म ने हमें एक द्विविधा भरे चौराहे पर खड़ा कर दिया था। वह चौराहा, हाँ, आनन्द लिप्सु उपभोक्तावाद से जुड़े चौड़े रास्ते थे। धार्मिक कट्टरवाद की सड़ांध मारती गलियाँ थीं, मनुष्य की अविरचना (डिकस्ट्रंक्शन) करते सामाजिक नियम थे, और सामाजिक राजनीति की घातक निष्क्रियता अपने झंडे गाड़े खड़ी थी। उसी चौराहे के दूसरी ओर नज़र बचाते, जानवरों के बाड़े से भी बद्तर विधवा-आश्रम थे जिन्हें बड़े-बड़े सेठ-साहूकारों ने धर्मार्थ बनवाया था। कन्ज़्यूमिज़्म संसार का खरीद-फरोख़्त का गोरख धंधा जाल बिछाये दबे पाँव इस तीर्थ भूमि के विधवा आश्रमों तक चला आया था। संसार के, या शायद भारतीय संस्कार में विवाह हो जाना, विधवा हो जाना सबसे आसान तरीका है एक छलाव या एक्सप्लाईटेशन का। मैं भक्तों की भीड़ में खड़ी सोच रही थी, पता नहीं वह कैसी आस्था है जो पर्यटकों को इन तीर्थों तक लाती है। यह पता नहीं हमारे यह तीर्थ भारत का कौन-सा रूप, कैसा ‘क्लासिक डिज़ाइन’ गढ़ने में जुटे हैं ?
मेरी तीर्थ-यात्रा में, मेरे हाथों में पकड़ा जलता दिया, बार बार बुझ रहा था। उस बरसाती सुबह में, सूर्योदय नहीं हुआ था। धुंधले परिवेश की, अंधेरे में बुझे दिये-सी मेरी वह यात्रा मेरे लिए एक दर्दीले यथार्थ की यात्रा बनती जा रही थी। यात्रा की यान्त्रिकता में चलती मैं जिन नर-कंकाल जैसी भिखमंगी विधवाओं के बीच ठहर गई थी, वह माहौल मुझे बेहद परेशान कर रहा था, उकसा रहा था, कुरेद रहा था। मैं तय नहीं कर रही थी कि क्या करूँ ? मेरे भीतर मार्शल ब्लावस्की (अमरीकन माइथोलाजिस्ट) के शब्द खुदे थे ‘‘हम आकृतियों की दुनिया में जीने के लिए विवश हैं। हम भूल गये हैं कि कभी कोई वास्तविक आकाश भी था। वास्तविक आहार था। कभी कोई वास्तविक वस्तु थी।’’
मेरे सामने दो ही रास्ते थे, उनके, सबके मृतप्रायः शरीरों में प्राण फूँकने का प्रयास करूँ या किसी शवगृह में उनकी अन्त्येष्टि कर दूँ। विधवा के खोल से उन्हें मुक्त करने के आंदोलन का दावा मैं आज भी नहीं कर सकती और पूरे सिस्टम से लड़ना मेरे बस की बात भी नहीं है। मैं तो केवल समाज के सम्मुख उन विधवाओं का जो विशेष रूप से बंगाल से आई हैं या खदेड़ दी गई हैं, उनका दर्दीला यथार्थ, उन आश्रमों का कालकोठरी जैसा परिवेश खरीद-फरोख़्त होते जिस्म, नैतिक-अनैतिक सभी कर्म, चोरी, वेश्यावृत्ति, बेबस हाथ मंजीरा बजा कर ‘हरिधुन’ गाते मुखौटों का सच बयान करना चाहती हूँ। उनके साथ-साथ नंगे पैरों से गोवरधन की परिक्रमा करते मेरे पैर उस सच की परिधि, उस यथार्थबोध तक भी पहुँचना चाहते हैं जिसे हम ‘धर्म’ कहते हैं जहाँ विचारशक्ति का जागरण होता है और एक सूर्योदय के प्रकाश में मनुष्य स्वयं के अतिक्रमण के साथ-साथ परमात्मा में लीन हो जाता है।
हम तीर्थों पर क्यों जाते हैं ? शायद इसलिए कि तीर्थ पृथ्वी पर ‘इमोशंस की डैन्सिटी’ का स्थल है, तीर्थ की धरती पर पैर रखते ही हमारी चेतना में एक अद्भुत-सी ऊर्जा का संचार होता है, हमारे भीतर कुछ झनझनाता है। कहते हैं तीर्थ की हवाओं में एक विशेष कम्पन, वाईबरेशन्स होती है। तीर्थों के विस्तार में एक विशेष सुगंध होती है जो हमारे अस्तित्व को आध्यात्मिक विपन्नता से मुक्त करती है। कहते हैं तीर्थ से कभी कोई खाली नहीं लौटता, तीर्थ उसके दुःखों को सोखकर उसे कष्टमुक्त कर देता है। धर्मग्रन्थों में तीर्थों के दो स्वरूपों की बात आती है। एक तो ‘मृण्मय रूप’ जो खुली आँख से दिखाई देता है, दूसरा है ‘चिन्मय रूप’। वह रूप जो ध्यान में प्रवेश कर जाता है और उसी को प्राप्त होता है जो अंतर्स्थ हो जाता है। तीर्थों का एक संगीत होता है-भक्ति संगीत, मन्त्र जाप जो मनुष्य के हृदय में एक स्थिति विशेष रचता है।
‘साउन्ड इलैक्ट्रोनिक’ पर काम करनेवाले वैज्ञानिकों के विचार से भक्ति से पगी ध्वनि, चेतना पर आघात करती है-ऐसी ध्वनि जो हृदय में घंस जाये, साधक मिट जाये, भक्त मिट जाये-चेतना का रूपान्तरण हो जाये और भक्त अपनी वर्तमान स्थिति से उठकर, ऐलीवेट होकर अनन्त यात्रा पर निकल जाये। वही गीत जो बोधिसत्त्व के पाँच सद्गुणों को गाते हैं जो बोधिसत्त्व के पाँचों स्रोत हैं और हैं ज्ञान के सात चरण, जहाँ पक्षी चहचहाते हैं, कदम्ब के तले कृष्ण बंसी बजाते हैं, राधा और गोपियों के साथ रास रचाते हैं, जहाँ दूध की नदियाँ बहती हैं जहाँ बाल-गोपाल मक्खन के गोले चखते हैं, जहाँ केवल सुख है, सौन्दर्य है। परन्तु कहाँ है वैसा तीर्थ ? कहाँ ?
सरल हृदया तापसी जैसी हज़ारों विधवाओं की कष्टभूमि बन गये हैं यह आज के तीर्थ। वृन्दावन के तीर्थ में कोई सुगंध, कोई सौन्दर्य, कोई ऊर्जा, कोई वाईबरेशन नहीं था। कम से कम मुझे वैसा अलौकिक कोई अनुभव नहीं हुआ। बल्कि मुझे कीर्कगार्ड की तरह लगा, ‘‘आदमी को जितना ही मैंने समझा, उतना ही पाया कि आदमी एक कम्पन है, जस्ट ए ट्रैम्बलिंग। भीतर उसका सब कांप रहा है।’’ शायद इसलिए तीर्थों की दर्दनाक कराह को मैंने अपने कानों से सुना है, हृदय में कंपकंपाने का अनुभव किया है। मंदिरों के भीतर भगवान की प्रतिमाओं का सौन्दर्य, पंडों की सुविधानुसार टुकड़े-टुकड़े विभाजित सिकुड़ते दृश्यों में बंधा दर्शन मन में किसी भक्ति भावना को नहीं उकसाता। कोई आनन्द फलित नहीं होता वहां की धरती पर, कुछ भी नहीं। उत्साह के स्थान पर सहस्र आँखों का रुदन, दुःखी सताई हुई विधवाओं का हृदयविदारक क्रन्दन तीर्थों के भक्ति संगीत को लील गया है।
वहाँ के विधवा-आश्रमों में जो बड़े-बड़े शहरों के रईसों, साहूकारों ने बनवाये हैं बारह घंटे जाप चलता है। नरकंकाल जैसी भूखी बीमार, बेसहारा वह विधवाएं जैसे अपने जन्म लेने की एक सज़ा भुगत रही हैं। कालकोठरी जैसे अंधेरे में डूबे उन आश्रमों में उनकी चेतना का रुपान्तरण यांत्रिक या मैकेनिकल ढंग से किया जाता है, उन विधवाओं का जाप जैसे कील पर पड़ता हथौड़ा-जिसे आश्रम के नियम ठोंक-ठोंक कर बैठाना चाह रहे हैं। यह आश्रम विधवाओं को मनुष्यत्व की योनि, उसके प्राकृतिक स्वरुप से निकाल कर उन्हें एक परतन्त्र ईकाई में बदल रहे हैं। जहाँ वह अपनी सभी क्षमताएं, संवेदनाएं खोकर एक अपाहिज की तरह कोई भी काम करने के लिए मजबूर है। उन्हें कुछ भी करना पड़ता है।
छः घंटों के जाप के अतिरिक्त वेश्यावृत्ति भीख या उससे भी गिरे हुए कार्य जो आश्रम की अध्यक्षा की इच्छा या घृणा पर आधारित होते हैं।
पिछले छः वर्षों में मैंने वृन्दावन और गोवरधन की गलियों, सड़कों मंदिरों और आश्रमों के गलियारों में पैदल चल-चल कर वहाँ की वास्तविकता को निकट से जाना ही नहीं, अनुभव भी किया। बहुत सी स्त्रियों से जो मंदिर में जाप कर रही थीं या सड़क के किनारे बैठी भीख माँग रही थीं बातचीत की, जानना चाहा उनकी अपनी सत्ता और स्वायत्तता, उनके जीवन का सच क्या था ? क्या हो गया है ? उनके दुःख शारीरिक कष्ट उनकी व्याकुल प्रश्नाकुलता ने मुझे भीतर तक सिहरा दिया है। बहुत-सी जीवन गाथाओं के नोट्स तैयार किये और ‘केस-हिस्ट्रियाँ’ जमा कीं। जब भी लगता अब मेरे पास काफी ‘मैटर’ जमा हो गया, गोवरधन की नंगे पैर परिक्रमा करते किसी मोड़ पर ‘गउर दासी’ मिल जाती या ‘हिजड़ा देवदासी’। कभी ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर एक कच्चे टीले पर बक-बक करता पत्रकार दीख पड़ता और उसके सच्चे खरे व्याख्यान मेरी आँखें खोल देते थे। खण्डहरी मोड़ से आगे जाने के लिए अगर रिक्शा पर बैठती तो उसका वाचाल चालक मुझे मंदिरों के साथ-साथ उन आश्रमों के बुलंद दरवाज़ों तक ले जाता जहाँ एक ओर भगवान की बड़ी-बड़ी प्रतिमाएं थीं दूसरी ओर चोर उचक्कों जेबकतरों को आश्रय देते महन्त थे। दूसरों की पत्नी को जबरदस्ती उठवा कर बलात्कार करनेवाले पुजारी थे, यही नहीं उनसे मिले जुले, एक ही तख्त पर अड्डा जमाये पुलिस कान्सटेबल थे। वहीं दूसरी ओर ‘कुसुम-सरोवर’ का अछूता सौन्दर्य, उसके निकट बड़ी-बड़ी पथराई आँखों वाले उद्धव जी का मंदिर और मृत्यु के द्वार से लौटकर आते मौनी बाबा की छोटी-सी कोठरी।
मुझे लगता है आज के तीर्थ अपना गंतव्य, अपनी भव्यता, कलात्मकता, यहाँ तक कि अपनी आत्मा भी खो चुके हैं। जिस तीर्थ की मिट्टी, उसकी रेत का एक-एक कण पूजनीय था, जिसे लोग माथे पर तिलक की तरह लगाते थे या उस पर लेट-लेट कर परिक्रमा करते, या फाँक लेते थे प्रसाद की तरह, वह धरती आज अपनी समूची गरिमा को खो बैठी थी। पहले तीर्थों की मिट्टी भक्त के चरण चिह्नों को भी संभाल कर रखती थी, जितना चलते रास्ता बांहें खोल कर खड़ा हो जाता था। परन्तु अब उन्हीं रास्तों पर भिखमंगों की लम्बी कतारें हैं जो भूख, अकेलेपन, शारीरिक कष्टों से बिलबिलाती, अवसादपूर्ण आत्माएं चील कौओं की तरह भोजन और फेंके हुए पैसे पर झपटती हैं। आज का तीर्थ छीनने झपटने का तीर्थ है, जो एक नकारात्मक भावावेश या नेगेटिव एमोशंस ही हमें पकड़ाता है। और आश्रम ? जहाँ षड्यंत्र रचे जाते हैं, एक प्लैनिंग चलती है और जिसके बंद दरवाज़ों के भीतर सैल्फिश और मैनीप्यूलेटेड संसार की संरचना होती है। उनके विध्वसंकारी चक्रव्यूह में फंसकर कोई भी विधवा स्त्री अपनी मनुष्यता खो देने को विवश है, ठीक वैसे ही जैसे सोमालिया के भूख से बिलखते बच्चे, कश्मीर की उजड़ी वीरानगी या साम्प्रदायिकता की आग में स्वाहा होते गुजरात के फटेहाल अनाथ बच्चे। क्या यही है आज के यथार्थ का प्रतिबिम्ब या तीर्थों की पवित्र भूमि का सच जो शाश्वत और सम्पूर्ण था विश्वव्यापी था ?
क्या यह केवल इलैक्ट्रोनिक मीडिया की राजनीति और टेलीविजन नेटवर्क इंटरनैट की विद्युत लहरों पर तंरगित एक ‘डीमिस्टीफाईड’ दृश्य भर है जो अपना निजत्व खो चुका है ? मरुस्थल फैलते जा रहे हैं क्योंकि आडियो-वीडियो टैक्नोलॉजी सपने की हरियाली को अपने मशीनरी दाँतों में कब का चबा चुकी है।
वृन्दावन की उस विरोधाभास जीती तीर्थ-भूमि पर पैदल चलते विधवाओं से बातचीत करते या अपनी केस-हिस्ट्रियाँ जमा करते मुझे लगा अधिकतर महिलाये बंगाल से भेजी गई हैं या खदेड़ दी गई हैं, अपनी इच्छा से तो ऐसे कोई नहीं आता। उनके खंडित प्रतिबिम्बों को जमा करते मुझे लगा अगर मैं उन्हें अलग-अलग कहानियों में बाँधूँगी तो वह एक दीवार पर लटके हुए चित्रों की तरह अकेली टंगी रह जायेंगी और उनका कष्ट उतना प्रभावशाली नहीं बन पायेगा और मेरी सारी की सारी सम्प्रेषणीयता धरी की धरी रह जायेगी। मुझे अपने कथानक की अर्थपूर्ण सामंजस्य में ढालने के लिए एक केन्द्र-बिन्दु चाहिये था, एक शहर और एक विधवा, जो वृन्दावन की अन्तर्स्पन्दित कष्ट की यातना को एक आदमकद चौखटे में रखकर उसे एक सशक्त अर्थवत्ता प्रदान कर सके।
कलकत्ता के बेहद शहरी परिवेश ने मुझे कभी प्रभावित नहीं किया था-उसके साइकेडेलिक रंग मुझे चमत्कारी तो लगे थे, सांस्कृतिक नहीं। हाँ, एक बार मैं बोलपुर गई थी, वहाँ चार-पाँच दिन रहना हुआ था-मेरी बचपन की दबी-ढकी इच्छा, ‘शांतिनिकेतन’ में पढ़ पाने की ललक मेरे भीतर एक अजीब-सी पुलक भर रही थी। एक पूरा दिन गाइड के बंधे-बंधाये शब्दों से मेरा ‘विश्व-भारती’ से बड़ा औपचारिक-सा परिचय हो गया था। परन्तु वह, एक अकस्मात् आये अतिथि जैसा साक्षात्कार मुझे ज़रा भी रास नहीं आया था। मैं दूसरे दिन सूरज की पहली बेचैन नारंगी किरण के साथ-साथ उस दरदरी ज़मीन पर पैदल चल पड़ी थी। वहाँ की हवाओं ने अपने-अपने अजीब से ऐन्द्रजालिक आकर्षण में बाँध लिया था। मुझे लगा वृक्षों की लम्बी कतार, उनके झुरमुट घास पत्ते बबूल काँटे, झोंपड़ी सभी कुछ एक ऐतिहासिक गंध से रचे बसे हैं। मुझे वह, साल, महुआ और छातिम वृक्ष, छोटे-छोटे टीले, सारा परिदृश्य टैगोर बाबा के हाथों से रचा गया लैंडस्कोप जैसा लग रहा था जहाँ मनुष्य और सृष्टि एक दूसरे में घुल रहे थे।
मैं वहाँ की हर पत्ती हर टहनी और वृक्ष को अपनी अंगुलियों से छूना चाहती थी। पेड़ों की लचकदार टहनियों पर झूल जाना चाहती थी। मुझे लग रहा था जैसे उनके भीतर धड़कती मंद-मंद श्वास मेरे भीतर घुमड़ कर, मेरे भीतर फुसफुसा कर कुछ कहना चाह रही है। उस समय मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे मेरे जिस्म और आसमान के बीच एक संगीत ठहर गया है-चारा काटने की आवाज़ खुरपी चलने का स्वर, मेरे लिए उतना ही महत्त्वपूर्ण हो गया था जैसे किसी नाटक के संगीत का स्वर जो रहस्योद्घाटन करता हुआ मुझे उस परिवेश में खोये दे रहा था। मैं भौंचक्की होकर आकाश में उड़ते किसी सुनहरे गरुड़ को खोज रही थी।
मेरी सारी अस्त-व्यस्त इच्छाएं-मुरादें, जैसे अचानक पूरी हो रही थीं। मैं वहाँ कुछ दिन ऐसे रही थी जैसे कोई समुद्री यान में बैठकर बाहरी संसार से दूर होता चला जाता है।
हमारे छोटे से होटलनुमा ‘छुट्टी’ के आँगन में शाम को ‘बाउल-गीत’ गाने वाले लोग जमा हो गये थे। तीन-चार पुरुष ही थे। एक पैरों में घुघरु बांधे था, बाकी दो ने वाद्य पकड़े हुए थे। उस आँगन की निऑन लाईट में वह गा रहे थे-घुंघरू बांधे वह पुरुष नृत्य भी कर रहा था। मेरे भीतर की आंतरिक सृष्टि में खून की हलचल, एक तूफान उमग रहा था जैसे। कैसा अछूता संसार था उनका, जिसे बाहर की कंम्प्यूटरी दुनिया से कुछ लेना-देना नहीं था। मैंने कुछ दिनों एक बहुत भिन्न परिवेश में जो लोकगीतों की क्षितिज स्पर्शी तान और बरगद पर बेधड़क लटकते ढेर सारे मुखौटों की भाषाहीन हंसी और नाटकीयता या किसी काले जादू टोने में गुम था जैसे अपने ही गूँगेपन में किसी अजनबी गुफा में भटक गई थी। शान्तिनिकेतन के उस पायदान पर खड़ी होकर मैं अपने आत्मचेतस् मन की संवेदनात्मक प्रतिक्रिया में बाहरी संसार के बीहड़ दुःस्वप्नों को एकाएक जैसे भूल गई थी।
एक शाम, बोलपुर की उस एक शाम को प्राइवेट महफिल में भी जाना हुआ था। विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर के घर पर वहीं का लोकल गज़ल गायक आमन्त्रित था, पता नहीं क्यों मुझे उसका बातें करने का अंदाज, उसका सलूक बड़ा बनावटी लगा था। परन्तु वहाँ बैठे सभी श्रोता उस पर जी जान से फिदा थे। उस धरती पर जहाँ मस्तिष्क के सभी स्नायु किसी विशेष परम्परा या क्लासिकी से जुड़ते थे, उर्दू की वह गायकी नितान्त असंगत लगी थी। परन्तु मेरे लिए वह माहौल-वह घर एक नितान्त आवश्यक अनुभव बन गये थे जिसमें मैंने जितेन दा और कनिका दी की स्थापना कर दी थी।
बाउल गीत, प्रोफेसर, के ड्राइंगरूम की गज़ल गायिकी के बाद ‘छातिम टोला’ और वह शिला जहाँ खुदा था ‘‘ही इज़ द जाय ऑफ माई लाइफ, द जाय ऑफ माई माइंड एंड द पीस ऑफ माई सोल।’’ मेरे पैर चलते जा रहे थे कला भवन के निकट खुले चबूतरे पर जहाँ पौष मेले के लिए भक्ति गीतों का रिहर्सल चल रहा था, कलाकार मंडलियाँ उठ रही थीं, बैठ रही थीं, पता नहीं कितनी देर मैं उस धरती पर आलथी-पालथी मारे बैठी रही-भाषा न समझने पर भी वह सारा संगीत मेरे भीतर-बाहर एक इन्द्रधनुषी प्रत्यंचा सा टंग गया था। मेरे निकट एक सज्जन और भी आ बैठे थे-मैंने उन्हें अपनी नोट बुक पकड़ा दी थी-वह बेधड़क उस गायन का बंगला से अंग्रेज़ी अनुवाद मेरे सफेद कागज़ पर लिख रहे थे। मैं बेचैन अंगुलियों से पटकथाओं से भी गहरी घास की जड़ें उखाड़ रही थी। पता नहीं क्यों मुझे अनुभव हो रहा था-वह दूब जाने कब से उस जल को सोख रही थी जो इस संगीत और गायन में डूबा हुआ था। पेड़ों की टहनियों पर टंगी धूप में नहाती पुरखों के प्रभावकारी जीवन को गुंजारती नीली गौरैया भी पेड़ की डाली पर बैठी गा रही थी। मेरे पास बैठे सज्जन ने मेरी नोट बुक मुझे लौटा दी थी, सुंदर अक्षरों में दो-तीन पन्नों पर गीत के अर्थ को लिख दिया था। मैंने पूछा, ‘‘क्या आप पढ़ाते हैं, यहाँ विश्वविद्यालय में ?’’
‘‘अरे नहीं, आई आम ओनली ए कार मैकेनिक।’’ वह हंस कर चला गया था।
मुझे लगा इस धरती के तत्त्व, यहाँ की हवाओं में ठहरी सांस्कृतिक धुंध, यहाँ रहने वाले हर प्राणी की रासायनिक बनावट में सारी की सारी कलात्मकता घुल गई है, और यही नहीं, वह संचित है यहाँ के हर प्राणी की मानसिकता में, आँखों में, हर क्रिया में, उसके हर व्यवहार में। मुझे लगा कि इस धरती से उठाई गई मेरी नायिका की बहुत-सी चारित्रिक सम्भानाएं उसमें अपने-आप आकर जुड़ जायेंगी, मुझे उसे संवारने के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ेगा। शायद वही एक नन्हा केन्द्र बिन्दु तापसी के जीवन का पोटेंशियल बन गया था। अर्जुन के तीर की तरह जो केवल चिड़िया की आँख पर तना था, तापसी की समूची चेतना में अनुप्राणित हो गया था विश्व-भारती’, मेरी तरह वह उसका भी एक ऑबेसेशन बन गया, एक सपना, एक क्षितिज जहाँ उसे पहुँचना था, जीना था, प्राप्त करना था।
एक बार पैरिस में बसे भारतीय चित्रकार सैयद हैदर रज़ा की चित्रकला के साथ-साथ उनकी डायरी के पन्ने भी पढ़ने को मिले थे। उनका यह वाक्य मुझे बहुत भा गया था, मुझे लगता है तापसी का चरित्र और मेरे उपन्यास की व्याख्या बस इतनी भर है-‘‘एक शब्द...मैंने उसी को लिया और पूरे दृश्य के विरुद्ध रख दिया। अब मैं स्वतंत्र था कहीं भी जाने के लिए...।’’
लेकिन फिर अचानक महसूस हुआ कि हमारे तो सारे शब्द नकारात्मक हैं। इसलिए कि उनका सृजन मनुष्य के उपयोग के लिए हुआ है और यह भी सच है कि हमारे सबसे मूल्यवान शब्द ही नकारात्मक हैं-जैसे हमारे तीर्थ। परन्तु तापसी जैसी महिलाओं का अस्तित्व नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि वह शब्द के विरुद्ध खड़ा है। मुझे लगता है तापसी को अस्तित्ववान बनाकर मैंने ढेर सारे प्रश्नों को उकेरा है। जैसे मृत शरीर को नदी में फेंक दिया जाये तो वह डूबता नहीं है। बिना प्रयास किये वह लहरों पर तैरता रहता है।
मेरे प्रश्न भी, तापसी के संघर्ष से उठकर हमारे सामने तैर आते हैं। समाज के सामने आकर केवल पड़े ही नहीं रहते, सड़ने लगते हैं अपनी कुरूपता की सड़ांध मारने लगते हैं। उनका अन्तिम दाह-संस्कार तो समाज को करना ही पड़ेगा, उन प्रश्नों का रहस्य तो खोलना ही पड़ेगा। क्योंकि तापसी के प्रश्नों की जीवंत शक्ति को नकारा नहीं जा सकता, वह वृन्दावन के तीर्थ में रोआं-रोआं जी रहे हैं और हर तीर्थ की गली के मोड़ पर हताश बैठी, सूखी हड्डियों वाली विधवा के चेहरे पर रावण के दस सिरों की तरह चिपके हुए हैं। उनकी जिह्वाओं से निकलकर हवाओं में टंग गये हैं। वह सारे प्रश्न प्रवाहमान समय में बहकर भी नष्ट नहीं होते। प्रश्न अपने समय के साक्षी होते हैं। संदेह सदा समय के द्वार पर अविचल खड़ा रहता है, जितनी भी जद्दोजहद करो, मिटता नहीं है-क्योंकि कुछ प्रश्न शाश्वत होते हैं।
वृन्दावन की गलियों में पैदल चलकर मंदिरों के दर्शन किये, इस्कॉन टैम्पल’ के राधा-कृष्ण, बलराम, फिर बाँके बिहारी की मनोहारी, ऐतिहासिक प्रतिमा। मुझे लगा, प्रायः सभी प्रतिमाएं, उनकी ठहरी हुई आँखों की वह तीव्र दृष्टि मेरी आँखों में सीधा-सीधा देख रही थीं। उनका स्मित, उनके सुन्दर मुखारविन्द पर ठहरी हुई वह मुस्कान मेरी अतिमानवीय चेतना को छू रही थी। जैसे ही उस दृष्टि से मेरे भीतर किसी विचार का आविर्भाव होता, पंडों की भीड़ परदा खिसकाकर भगवान और मेरे बीच व्यवधान बन कर खड़ी हो जाती। अगरबत्ती के धुएं, भीड़ के स्वर, पंडों पुजारियों की गुहार, बंटते हुए प्रसाद, फेंके हुए पुष्पहार, मन्दिर के रंगमंच पर चलता एक दृश्य पता नहीं श्रद्धा को उकसाते थे या अश्रद्धा को ? पीले कपड़ों में अंग खुजाते पंडे, मन्त्र या जाप के स्थान पर चढ़ावे की गणनाएं करते पुजारी एक सामंती समाज के षड्यन्त्र में धंसे हुए वह धर्म के दावेदार मुझे एक बहुत गहरे संदेह की खाई में धकेल जाते थे।
परिणामस्वरूप बहुत से प्रश्न या रिफ्लेक्टिव सवाल मुझे घेर कर खड़े हो गये और मुझे लगा यहाँ के इस रहस्यमय रंगमच को जानना होगा। क्योंकि मेरा विश्वास था कि खोज संदेह से होती है, श्रद्धा से नहीं। तो क्या यही कारण था विदेशों में चर्च तोड़े गये थे। नीत्शे जैसे विचारक वैज्ञानिकों ने खुले आम ईश्वर की मृत्यु का ऐलान किया। उसके विचार से ‘ईश्वर, एक असंतुष्ट विवेक की परिकल्पना भर था’ और कुछ नहीं।
आज के समय में, हम जहाँ कमर्शिलाईज़ेशन की या ग्लोबलाईज़ेशन की बात कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर धर्म की अनिवार्यता भी व्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनती जा रही है। आधुनिकता के दौर में भगवान के साथ-साथ भक्तिभाव का भी तो आधुनिकीकरण हुआ है। जैसे-जैसे मनुष्य के जीवन की त्रासदियाँ, जटिलताएं बढ़ती गईं वैसे-वैसे तीर्थ, उनके भीतर बसे मठाधीश, पंडे, गुरु, संन्यासी टाईप लोग, उन सबका भाव बढ़ता गया, उनका बाज़ार गर्म होता गया। मनुष्य की त्रासदी यह थी कि वह पंडों आदि के चंगुल में फंसकर अपने बौद्धिक परिदृश्य में खुद ही खोखला होता चला गया और धर्म सरेआम टेलीविज़न के अनगिनत चैनलों पर सवार, ‘‘आस्था’, ‘आत्मा’ या ‘संस्कार’ जैसे मुखौटे पहनकर मनुष्य की चेतना की झिंझोड़ने लगा। ज्ञान का रस गन्ने के मीठे रसकी तरह धर्म के चमचमाते गिलासों में डालकर पिलाया जाने लगा। भक्ति दान अध्यात्म अब एक चालू नित्यकर्म का हिस्सा बन चले थे। गीता रामायण आदि धर्मग्रन्थों का ज्ञान रंगीन पन्नी चिपके मुखौटों-सा हमारे सामने आकर टंग गया था।
जहाँ एक ओर कुछ विशेष विचारकों ने जाने-अनजाने मनुष्य के मनुष्यत्व के साथ भगवान की भी अंत्येष्टि करदी थी धर्मवीर भारती के ‘अंधायुग’ ‘‘होती होगी बधिको की मुक्ति’। प्रभु के मरण से। किन्तु रक्षा कैसे होगी अंधे युग में। प्रभु के इस कायर मरण से। नियति है हमारी बंधी प्रभु के मरण से नहीं। मानव भविष्य से।’’ वहीं दूसरी ओर धर्म ने हमें एक द्विविधा भरे चौराहे पर खड़ा कर दिया था। वह चौराहा, हाँ, आनन्द लिप्सु उपभोक्तावाद से जुड़े चौड़े रास्ते थे। धार्मिक कट्टरवाद की सड़ांध मारती गलियाँ थीं, मनुष्य की अविरचना (डिकस्ट्रंक्शन) करते सामाजिक नियम थे, और सामाजिक राजनीति की घातक निष्क्रियता अपने झंडे गाड़े खड़ी थी। उसी चौराहे के दूसरी ओर नज़र बचाते, जानवरों के बाड़े से भी बद्तर विधवा-आश्रम थे जिन्हें बड़े-बड़े सेठ-साहूकारों ने धर्मार्थ बनवाया था। कन्ज़्यूमिज़्म संसार का खरीद-फरोख़्त का गोरख धंधा जाल बिछाये दबे पाँव इस तीर्थ भूमि के विधवा आश्रमों तक चला आया था। संसार के, या शायद भारतीय संस्कार में विवाह हो जाना, विधवा हो जाना सबसे आसान तरीका है एक छलाव या एक्सप्लाईटेशन का। मैं भक्तों की भीड़ में खड़ी सोच रही थी, पता नहीं वह कैसी आस्था है जो पर्यटकों को इन तीर्थों तक लाती है। यह पता नहीं हमारे यह तीर्थ भारत का कौन-सा रूप, कैसा ‘क्लासिक डिज़ाइन’ गढ़ने में जुटे हैं ?
मेरी तीर्थ-यात्रा में, मेरे हाथों में पकड़ा जलता दिया, बार बार बुझ रहा था। उस बरसाती सुबह में, सूर्योदय नहीं हुआ था। धुंधले परिवेश की, अंधेरे में बुझे दिये-सी मेरी वह यात्रा मेरे लिए एक दर्दीले यथार्थ की यात्रा बनती जा रही थी। यात्रा की यान्त्रिकता में चलती मैं जिन नर-कंकाल जैसी भिखमंगी विधवाओं के बीच ठहर गई थी, वह माहौल मुझे बेहद परेशान कर रहा था, उकसा रहा था, कुरेद रहा था। मैं तय नहीं कर रही थी कि क्या करूँ ? मेरे भीतर मार्शल ब्लावस्की (अमरीकन माइथोलाजिस्ट) के शब्द खुदे थे ‘‘हम आकृतियों की दुनिया में जीने के लिए विवश हैं। हम भूल गये हैं कि कभी कोई वास्तविक आकाश भी था। वास्तविक आहार था। कभी कोई वास्तविक वस्तु थी।’’
मेरे सामने दो ही रास्ते थे, उनके, सबके मृतप्रायः शरीरों में प्राण फूँकने का प्रयास करूँ या किसी शवगृह में उनकी अन्त्येष्टि कर दूँ। विधवा के खोल से उन्हें मुक्त करने के आंदोलन का दावा मैं आज भी नहीं कर सकती और पूरे सिस्टम से लड़ना मेरे बस की बात भी नहीं है। मैं तो केवल समाज के सम्मुख उन विधवाओं का जो विशेष रूप से बंगाल से आई हैं या खदेड़ दी गई हैं, उनका दर्दीला यथार्थ, उन आश्रमों का कालकोठरी जैसा परिवेश खरीद-फरोख़्त होते जिस्म, नैतिक-अनैतिक सभी कर्म, चोरी, वेश्यावृत्ति, बेबस हाथ मंजीरा बजा कर ‘हरिधुन’ गाते मुखौटों का सच बयान करना चाहती हूँ। उनके साथ-साथ नंगे पैरों से गोवरधन की परिक्रमा करते मेरे पैर उस सच की परिधि, उस यथार्थबोध तक भी पहुँचना चाहते हैं जिसे हम ‘धर्म’ कहते हैं जहाँ विचारशक्ति का जागरण होता है और एक सूर्योदय के प्रकाश में मनुष्य स्वयं के अतिक्रमण के साथ-साथ परमात्मा में लीन हो जाता है।
हम तीर्थों पर क्यों जाते हैं ? शायद इसलिए कि तीर्थ पृथ्वी पर ‘इमोशंस की डैन्सिटी’ का स्थल है, तीर्थ की धरती पर पैर रखते ही हमारी चेतना में एक अद्भुत-सी ऊर्जा का संचार होता है, हमारे भीतर कुछ झनझनाता है। कहते हैं तीर्थ की हवाओं में एक विशेष कम्पन, वाईबरेशन्स होती है। तीर्थों के विस्तार में एक विशेष सुगंध होती है जो हमारे अस्तित्व को आध्यात्मिक विपन्नता से मुक्त करती है। कहते हैं तीर्थ से कभी कोई खाली नहीं लौटता, तीर्थ उसके दुःखों को सोखकर उसे कष्टमुक्त कर देता है। धर्मग्रन्थों में तीर्थों के दो स्वरूपों की बात आती है। एक तो ‘मृण्मय रूप’ जो खुली आँख से दिखाई देता है, दूसरा है ‘चिन्मय रूप’। वह रूप जो ध्यान में प्रवेश कर जाता है और उसी को प्राप्त होता है जो अंतर्स्थ हो जाता है। तीर्थों का एक संगीत होता है-भक्ति संगीत, मन्त्र जाप जो मनुष्य के हृदय में एक स्थिति विशेष रचता है।
‘साउन्ड इलैक्ट्रोनिक’ पर काम करनेवाले वैज्ञानिकों के विचार से भक्ति से पगी ध्वनि, चेतना पर आघात करती है-ऐसी ध्वनि जो हृदय में घंस जाये, साधक मिट जाये, भक्त मिट जाये-चेतना का रूपान्तरण हो जाये और भक्त अपनी वर्तमान स्थिति से उठकर, ऐलीवेट होकर अनन्त यात्रा पर निकल जाये। वही गीत जो बोधिसत्त्व के पाँच सद्गुणों को गाते हैं जो बोधिसत्त्व के पाँचों स्रोत हैं और हैं ज्ञान के सात चरण, जहाँ पक्षी चहचहाते हैं, कदम्ब के तले कृष्ण बंसी बजाते हैं, राधा और गोपियों के साथ रास रचाते हैं, जहाँ दूध की नदियाँ बहती हैं जहाँ बाल-गोपाल मक्खन के गोले चखते हैं, जहाँ केवल सुख है, सौन्दर्य है। परन्तु कहाँ है वैसा तीर्थ ? कहाँ ?
सरल हृदया तापसी जैसी हज़ारों विधवाओं की कष्टभूमि बन गये हैं यह आज के तीर्थ। वृन्दावन के तीर्थ में कोई सुगंध, कोई सौन्दर्य, कोई ऊर्जा, कोई वाईबरेशन नहीं था। कम से कम मुझे वैसा अलौकिक कोई अनुभव नहीं हुआ। बल्कि मुझे कीर्कगार्ड की तरह लगा, ‘‘आदमी को जितना ही मैंने समझा, उतना ही पाया कि आदमी एक कम्पन है, जस्ट ए ट्रैम्बलिंग। भीतर उसका सब कांप रहा है।’’ शायद इसलिए तीर्थों की दर्दनाक कराह को मैंने अपने कानों से सुना है, हृदय में कंपकंपाने का अनुभव किया है। मंदिरों के भीतर भगवान की प्रतिमाओं का सौन्दर्य, पंडों की सुविधानुसार टुकड़े-टुकड़े विभाजित सिकुड़ते दृश्यों में बंधा दर्शन मन में किसी भक्ति भावना को नहीं उकसाता। कोई आनन्द फलित नहीं होता वहां की धरती पर, कुछ भी नहीं। उत्साह के स्थान पर सहस्र आँखों का रुदन, दुःखी सताई हुई विधवाओं का हृदयविदारक क्रन्दन तीर्थों के भक्ति संगीत को लील गया है।
वहाँ के विधवा-आश्रमों में जो बड़े-बड़े शहरों के रईसों, साहूकारों ने बनवाये हैं बारह घंटे जाप चलता है। नरकंकाल जैसी भूखी बीमार, बेसहारा वह विधवाएं जैसे अपने जन्म लेने की एक सज़ा भुगत रही हैं। कालकोठरी जैसे अंधेरे में डूबे उन आश्रमों में उनकी चेतना का रुपान्तरण यांत्रिक या मैकेनिकल ढंग से किया जाता है, उन विधवाओं का जाप जैसे कील पर पड़ता हथौड़ा-जिसे आश्रम के नियम ठोंक-ठोंक कर बैठाना चाह रहे हैं। यह आश्रम विधवाओं को मनुष्यत्व की योनि, उसके प्राकृतिक स्वरुप से निकाल कर उन्हें एक परतन्त्र ईकाई में बदल रहे हैं। जहाँ वह अपनी सभी क्षमताएं, संवेदनाएं खोकर एक अपाहिज की तरह कोई भी काम करने के लिए मजबूर है। उन्हें कुछ भी करना पड़ता है।
छः घंटों के जाप के अतिरिक्त वेश्यावृत्ति भीख या उससे भी गिरे हुए कार्य जो आश्रम की अध्यक्षा की इच्छा या घृणा पर आधारित होते हैं।
पिछले छः वर्षों में मैंने वृन्दावन और गोवरधन की गलियों, सड़कों मंदिरों और आश्रमों के गलियारों में पैदल चल-चल कर वहाँ की वास्तविकता को निकट से जाना ही नहीं, अनुभव भी किया। बहुत सी स्त्रियों से जो मंदिर में जाप कर रही थीं या सड़क के किनारे बैठी भीख माँग रही थीं बातचीत की, जानना चाहा उनकी अपनी सत्ता और स्वायत्तता, उनके जीवन का सच क्या था ? क्या हो गया है ? उनके दुःख शारीरिक कष्ट उनकी व्याकुल प्रश्नाकुलता ने मुझे भीतर तक सिहरा दिया है। बहुत-सी जीवन गाथाओं के नोट्स तैयार किये और ‘केस-हिस्ट्रियाँ’ जमा कीं। जब भी लगता अब मेरे पास काफी ‘मैटर’ जमा हो गया, गोवरधन की नंगे पैर परिक्रमा करते किसी मोड़ पर ‘गउर दासी’ मिल जाती या ‘हिजड़ा देवदासी’। कभी ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर एक कच्चे टीले पर बक-बक करता पत्रकार दीख पड़ता और उसके सच्चे खरे व्याख्यान मेरी आँखें खोल देते थे। खण्डहरी मोड़ से आगे जाने के लिए अगर रिक्शा पर बैठती तो उसका वाचाल चालक मुझे मंदिरों के साथ-साथ उन आश्रमों के बुलंद दरवाज़ों तक ले जाता जहाँ एक ओर भगवान की बड़ी-बड़ी प्रतिमाएं थीं दूसरी ओर चोर उचक्कों जेबकतरों को आश्रय देते महन्त थे। दूसरों की पत्नी को जबरदस्ती उठवा कर बलात्कार करनेवाले पुजारी थे, यही नहीं उनसे मिले जुले, एक ही तख्त पर अड्डा जमाये पुलिस कान्सटेबल थे। वहीं दूसरी ओर ‘कुसुम-सरोवर’ का अछूता सौन्दर्य, उसके निकट बड़ी-बड़ी पथराई आँखों वाले उद्धव जी का मंदिर और मृत्यु के द्वार से लौटकर आते मौनी बाबा की छोटी-सी कोठरी।
मुझे लगता है आज के तीर्थ अपना गंतव्य, अपनी भव्यता, कलात्मकता, यहाँ तक कि अपनी आत्मा भी खो चुके हैं। जिस तीर्थ की मिट्टी, उसकी रेत का एक-एक कण पूजनीय था, जिसे लोग माथे पर तिलक की तरह लगाते थे या उस पर लेट-लेट कर परिक्रमा करते, या फाँक लेते थे प्रसाद की तरह, वह धरती आज अपनी समूची गरिमा को खो बैठी थी। पहले तीर्थों की मिट्टी भक्त के चरण चिह्नों को भी संभाल कर रखती थी, जितना चलते रास्ता बांहें खोल कर खड़ा हो जाता था। परन्तु अब उन्हीं रास्तों पर भिखमंगों की लम्बी कतारें हैं जो भूख, अकेलेपन, शारीरिक कष्टों से बिलबिलाती, अवसादपूर्ण आत्माएं चील कौओं की तरह भोजन और फेंके हुए पैसे पर झपटती हैं। आज का तीर्थ छीनने झपटने का तीर्थ है, जो एक नकारात्मक भावावेश या नेगेटिव एमोशंस ही हमें पकड़ाता है। और आश्रम ? जहाँ षड्यंत्र रचे जाते हैं, एक प्लैनिंग चलती है और जिसके बंद दरवाज़ों के भीतर सैल्फिश और मैनीप्यूलेटेड संसार की संरचना होती है। उनके विध्वसंकारी चक्रव्यूह में फंसकर कोई भी विधवा स्त्री अपनी मनुष्यता खो देने को विवश है, ठीक वैसे ही जैसे सोमालिया के भूख से बिलखते बच्चे, कश्मीर की उजड़ी वीरानगी या साम्प्रदायिकता की आग में स्वाहा होते गुजरात के फटेहाल अनाथ बच्चे। क्या यही है आज के यथार्थ का प्रतिबिम्ब या तीर्थों की पवित्र भूमि का सच जो शाश्वत और सम्पूर्ण था विश्वव्यापी था ?
क्या यह केवल इलैक्ट्रोनिक मीडिया की राजनीति और टेलीविजन नेटवर्क इंटरनैट की विद्युत लहरों पर तंरगित एक ‘डीमिस्टीफाईड’ दृश्य भर है जो अपना निजत्व खो चुका है ? मरुस्थल फैलते जा रहे हैं क्योंकि आडियो-वीडियो टैक्नोलॉजी सपने की हरियाली को अपने मशीनरी दाँतों में कब का चबा चुकी है।
वृन्दावन की उस विरोधाभास जीती तीर्थ-भूमि पर पैदल चलते विधवाओं से बातचीत करते या अपनी केस-हिस्ट्रियाँ जमा करते मुझे लगा अधिकतर महिलाये बंगाल से भेजी गई हैं या खदेड़ दी गई हैं, अपनी इच्छा से तो ऐसे कोई नहीं आता। उनके खंडित प्रतिबिम्बों को जमा करते मुझे लगा अगर मैं उन्हें अलग-अलग कहानियों में बाँधूँगी तो वह एक दीवार पर लटके हुए चित्रों की तरह अकेली टंगी रह जायेंगी और उनका कष्ट उतना प्रभावशाली नहीं बन पायेगा और मेरी सारी की सारी सम्प्रेषणीयता धरी की धरी रह जायेगी। मुझे अपने कथानक की अर्थपूर्ण सामंजस्य में ढालने के लिए एक केन्द्र-बिन्दु चाहिये था, एक शहर और एक विधवा, जो वृन्दावन की अन्तर्स्पन्दित कष्ट की यातना को एक आदमकद चौखटे में रखकर उसे एक सशक्त अर्थवत्ता प्रदान कर सके।
कलकत्ता के बेहद शहरी परिवेश ने मुझे कभी प्रभावित नहीं किया था-उसके साइकेडेलिक रंग मुझे चमत्कारी तो लगे थे, सांस्कृतिक नहीं। हाँ, एक बार मैं बोलपुर गई थी, वहाँ चार-पाँच दिन रहना हुआ था-मेरी बचपन की दबी-ढकी इच्छा, ‘शांतिनिकेतन’ में पढ़ पाने की ललक मेरे भीतर एक अजीब-सी पुलक भर रही थी। एक पूरा दिन गाइड के बंधे-बंधाये शब्दों से मेरा ‘विश्व-भारती’ से बड़ा औपचारिक-सा परिचय हो गया था। परन्तु वह, एक अकस्मात् आये अतिथि जैसा साक्षात्कार मुझे ज़रा भी रास नहीं आया था। मैं दूसरे दिन सूरज की पहली बेचैन नारंगी किरण के साथ-साथ उस दरदरी ज़मीन पर पैदल चल पड़ी थी। वहाँ की हवाओं ने अपने-अपने अजीब से ऐन्द्रजालिक आकर्षण में बाँध लिया था। मुझे लगा वृक्षों की लम्बी कतार, उनके झुरमुट घास पत्ते बबूल काँटे, झोंपड़ी सभी कुछ एक ऐतिहासिक गंध से रचे बसे हैं। मुझे वह, साल, महुआ और छातिम वृक्ष, छोटे-छोटे टीले, सारा परिदृश्य टैगोर बाबा के हाथों से रचा गया लैंडस्कोप जैसा लग रहा था जहाँ मनुष्य और सृष्टि एक दूसरे में घुल रहे थे।
मैं वहाँ की हर पत्ती हर टहनी और वृक्ष को अपनी अंगुलियों से छूना चाहती थी। पेड़ों की लचकदार टहनियों पर झूल जाना चाहती थी। मुझे लग रहा था जैसे उनके भीतर धड़कती मंद-मंद श्वास मेरे भीतर घुमड़ कर, मेरे भीतर फुसफुसा कर कुछ कहना चाह रही है। उस समय मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे मेरे जिस्म और आसमान के बीच एक संगीत ठहर गया है-चारा काटने की आवाज़ खुरपी चलने का स्वर, मेरे लिए उतना ही महत्त्वपूर्ण हो गया था जैसे किसी नाटक के संगीत का स्वर जो रहस्योद्घाटन करता हुआ मुझे उस परिवेश में खोये दे रहा था। मैं भौंचक्की होकर आकाश में उड़ते किसी सुनहरे गरुड़ को खोज रही थी।
मेरी सारी अस्त-व्यस्त इच्छाएं-मुरादें, जैसे अचानक पूरी हो रही थीं। मैं वहाँ कुछ दिन ऐसे रही थी जैसे कोई समुद्री यान में बैठकर बाहरी संसार से दूर होता चला जाता है।
हमारे छोटे से होटलनुमा ‘छुट्टी’ के आँगन में शाम को ‘बाउल-गीत’ गाने वाले लोग जमा हो गये थे। तीन-चार पुरुष ही थे। एक पैरों में घुघरु बांधे था, बाकी दो ने वाद्य पकड़े हुए थे। उस आँगन की निऑन लाईट में वह गा रहे थे-घुंघरू बांधे वह पुरुष नृत्य भी कर रहा था। मेरे भीतर की आंतरिक सृष्टि में खून की हलचल, एक तूफान उमग रहा था जैसे। कैसा अछूता संसार था उनका, जिसे बाहर की कंम्प्यूटरी दुनिया से कुछ लेना-देना नहीं था। मैंने कुछ दिनों एक बहुत भिन्न परिवेश में जो लोकगीतों की क्षितिज स्पर्शी तान और बरगद पर बेधड़क लटकते ढेर सारे मुखौटों की भाषाहीन हंसी और नाटकीयता या किसी काले जादू टोने में गुम था जैसे अपने ही गूँगेपन में किसी अजनबी गुफा में भटक गई थी। शान्तिनिकेतन के उस पायदान पर खड़ी होकर मैं अपने आत्मचेतस् मन की संवेदनात्मक प्रतिक्रिया में बाहरी संसार के बीहड़ दुःस्वप्नों को एकाएक जैसे भूल गई थी।
एक शाम, बोलपुर की उस एक शाम को प्राइवेट महफिल में भी जाना हुआ था। विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर के घर पर वहीं का लोकल गज़ल गायक आमन्त्रित था, पता नहीं क्यों मुझे उसका बातें करने का अंदाज, उसका सलूक बड़ा बनावटी लगा था। परन्तु वहाँ बैठे सभी श्रोता उस पर जी जान से फिदा थे। उस धरती पर जहाँ मस्तिष्क के सभी स्नायु किसी विशेष परम्परा या क्लासिकी से जुड़ते थे, उर्दू की वह गायकी नितान्त असंगत लगी थी। परन्तु मेरे लिए वह माहौल-वह घर एक नितान्त आवश्यक अनुभव बन गये थे जिसमें मैंने जितेन दा और कनिका दी की स्थापना कर दी थी।
बाउल गीत, प्रोफेसर, के ड्राइंगरूम की गज़ल गायिकी के बाद ‘छातिम टोला’ और वह शिला जहाँ खुदा था ‘‘ही इज़ द जाय ऑफ माई लाइफ, द जाय ऑफ माई माइंड एंड द पीस ऑफ माई सोल।’’ मेरे पैर चलते जा रहे थे कला भवन के निकट खुले चबूतरे पर जहाँ पौष मेले के लिए भक्ति गीतों का रिहर्सल चल रहा था, कलाकार मंडलियाँ उठ रही थीं, बैठ रही थीं, पता नहीं कितनी देर मैं उस धरती पर आलथी-पालथी मारे बैठी रही-भाषा न समझने पर भी वह सारा संगीत मेरे भीतर-बाहर एक इन्द्रधनुषी प्रत्यंचा सा टंग गया था। मेरे निकट एक सज्जन और भी आ बैठे थे-मैंने उन्हें अपनी नोट बुक पकड़ा दी थी-वह बेधड़क उस गायन का बंगला से अंग्रेज़ी अनुवाद मेरे सफेद कागज़ पर लिख रहे थे। मैं बेचैन अंगुलियों से पटकथाओं से भी गहरी घास की जड़ें उखाड़ रही थी। पता नहीं क्यों मुझे अनुभव हो रहा था-वह दूब जाने कब से उस जल को सोख रही थी जो इस संगीत और गायन में डूबा हुआ था। पेड़ों की टहनियों पर टंगी धूप में नहाती पुरखों के प्रभावकारी जीवन को गुंजारती नीली गौरैया भी पेड़ की डाली पर बैठी गा रही थी। मेरे पास बैठे सज्जन ने मेरी नोट बुक मुझे लौटा दी थी, सुंदर अक्षरों में दो-तीन पन्नों पर गीत के अर्थ को लिख दिया था। मैंने पूछा, ‘‘क्या आप पढ़ाते हैं, यहाँ विश्वविद्यालय में ?’’
‘‘अरे नहीं, आई आम ओनली ए कार मैकेनिक।’’ वह हंस कर चला गया था।
मुझे लगा इस धरती के तत्त्व, यहाँ की हवाओं में ठहरी सांस्कृतिक धुंध, यहाँ रहने वाले हर प्राणी की रासायनिक बनावट में सारी की सारी कलात्मकता घुल गई है, और यही नहीं, वह संचित है यहाँ के हर प्राणी की मानसिकता में, आँखों में, हर क्रिया में, उसके हर व्यवहार में। मुझे लगा कि इस धरती से उठाई गई मेरी नायिका की बहुत-सी चारित्रिक सम्भानाएं उसमें अपने-आप आकर जुड़ जायेंगी, मुझे उसे संवारने के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ेगा। शायद वही एक नन्हा केन्द्र बिन्दु तापसी के जीवन का पोटेंशियल बन गया था। अर्जुन के तीर की तरह जो केवल चिड़िया की आँख पर तना था, तापसी की समूची चेतना में अनुप्राणित हो गया था विश्व-भारती’, मेरी तरह वह उसका भी एक ऑबेसेशन बन गया, एक सपना, एक क्षितिज जहाँ उसे पहुँचना था, जीना था, प्राप्त करना था।
एक बार पैरिस में बसे भारतीय चित्रकार सैयद हैदर रज़ा की चित्रकला के साथ-साथ उनकी डायरी के पन्ने भी पढ़ने को मिले थे। उनका यह वाक्य मुझे बहुत भा गया था, मुझे लगता है तापसी का चरित्र और मेरे उपन्यास की व्याख्या बस इतनी भर है-‘‘एक शब्द...मैंने उसी को लिया और पूरे दृश्य के विरुद्ध रख दिया। अब मैं स्वतंत्र था कहीं भी जाने के लिए...।’’
लेकिन फिर अचानक महसूस हुआ कि हमारे तो सारे शब्द नकारात्मक हैं। इसलिए कि उनका सृजन मनुष्य के उपयोग के लिए हुआ है और यह भी सच है कि हमारे सबसे मूल्यवान शब्द ही नकारात्मक हैं-जैसे हमारे तीर्थ। परन्तु तापसी जैसी महिलाओं का अस्तित्व नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि वह शब्द के विरुद्ध खड़ा है। मुझे लगता है तापसी को अस्तित्ववान बनाकर मैंने ढेर सारे प्रश्नों को उकेरा है। जैसे मृत शरीर को नदी में फेंक दिया जाये तो वह डूबता नहीं है। बिना प्रयास किये वह लहरों पर तैरता रहता है।
मेरे प्रश्न भी, तापसी के संघर्ष से उठकर हमारे सामने तैर आते हैं। समाज के सामने आकर केवल पड़े ही नहीं रहते, सड़ने लगते हैं अपनी कुरूपता की सड़ांध मारने लगते हैं। उनका अन्तिम दाह-संस्कार तो समाज को करना ही पड़ेगा, उन प्रश्नों का रहस्य तो खोलना ही पड़ेगा। क्योंकि तापसी के प्रश्नों की जीवंत शक्ति को नकारा नहीं जा सकता, वह वृन्दावन के तीर्थ में रोआं-रोआं जी रहे हैं और हर तीर्थ की गली के मोड़ पर हताश बैठी, सूखी हड्डियों वाली विधवा के चेहरे पर रावण के दस सिरों की तरह चिपके हुए हैं। उनकी जिह्वाओं से निकलकर हवाओं में टंग गये हैं। वह सारे प्रश्न प्रवाहमान समय में बहकर भी नष्ट नहीं होते। प्रश्न अपने समय के साक्षी होते हैं। संदेह सदा समय के द्वार पर अविचल खड़ा रहता है, जितनी भी जद्दोजहद करो, मिटता नहीं है-क्योंकि कुछ प्रश्न शाश्वत होते हैं।
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