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भारतीय संस्कृति का विकास

मंगलदेव शास्त्री

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :392
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15
आईएसबीएन :8126311126

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भारतीय संस्कृति संसार की सबसे पुरानी संस्कृति है। मानवों के विकास में भारतीय भूमि का स्थान कहाँ है, यह तो अभी विवादास्पद है, पर सभी जीवंत प्राचीन सभ्यताओँ में भारतीय संस्कृति निश्चित तौर पर सबसे पुरानी है। हमारी सभ्यता ने समय के उतार-चढ़ावों को देखते हुुुए भी लम्बे समय से अपनी उपस्थिति बनाए रखी है।

Bhartiya Sanskriti Ka Vikas

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय संस्कृति के विकास में ऐसे कई पड़ाव आये हैं जिन्होंने संस्कृति में व्याप्त गुत्थियों को जन्म दिया है। प्रस्तुत पुस्तक में डॉ मंगलदेव शास्त्री ने जो कि इस विषय के प्रकाण्ड विद्वान हैं, समीचीन व्याख्या की है।
भारतीय संस्कृति को प्रायः तीन दृष्टियों से देखा जाता है। एक है परम्परावादियों की दृष्टि, और दूसरी है इसके प्रतिवाद रूप आधुनिकतावादियों की दृष्टि जो सारी प्राचीन परम्परा को अन्धविश्वास मानती है। व्यक्ति, समाज और देश के लिए दोनों ही अहितकर सिद्ध हुई हैं। इन से भिन्न एक और दृष्टि है- इतिहासमूलक समन्वयात्मक दृष्टि, जो प्राचीनकाल से ही हमारे देश में विद्यमान है। इसी दृष्टि के सहारे साम्प्रादायिक विरोध और विषमताओं के स्थान पर एकसूत्रता लाकर नये भारत के निर्माण का एक दृढ़ आधार बनाया जा सकता है।

प्राच्य विद्या के प्रख्यात विद्वान लेखक डॉ मंगलदेव शास्त्री ने इसी विशिष्ट दृष्टि से भारतीय संस्कृति के सम्पूर्ण विकास का अध्ययन किया है। प्रस्त्तुत कृति में भारतीय संस्कृति की वैदिक धारा का अध्ययन किया गया है, सर्वथा प्रमाणों पर आधारित है और साथ ही सरस और रोचक भी है। आचार्य नरेन्द्र देव जी के शब्दों में, "यह कार्य इस जैसे अधिकारी विद्वान द्वारा ही हो सकता था। निस्सन्देह यह कृति भारतीय संस्कृति के अध्ययन में पथ-निर्देश का काम करेगी।"
पाठकों को समर्पित है पुस्तक का नया संस्करण नये रूपाकार और नयी साजसज्जा के साथ।

प्राक्कथन

प्रस्तुत पुस्तक डॉ.मंगलदेव शास्त्री द्वारा समाज विज्ञान परिषद, बनारस, के सम्मुख दी गयी व्याख्यानमाला का निबन्धन है। भारतीय संस्कृति को तीन दृष्टियों से देखा जाता है। एक तो परम्परावादियों की संकीर्ण साम्प्रदायिक दृष्टि है और दूसरी इसके प्रतिवादस्वरूप आधुनिकतावादियों की दृष्टि है जो सारी प्राचीन परम्परा को अन्धविश्वास और प्रतिक्रियावादिता ही मानती है। तीसरी दृष्टि ऐतिहासिक समन्वय की दृष्टि है, जो प्राचीन तथा नवीन, प्राच्य तथा पाश्चात्य को ऐतिहासिक दृष्टि से समन्वित करके भारत के विभिन्न समुदायों में तथा धर्मों के योग से भारतीय संस्कृति का स्वरूप निर्मित करती है। स्पष्ट है कि यही वैज्ञानिक दृष्टि संकीर्ण साम्प्रदायिक भावनाओं और विषमताओं को दूर करके देश के समस्त समुदायों में एकसूत्रता ला सकती है, सबके अभियान की वस्तु बन सकती है, राष्ट्र में एकात्मता की भावना उत्पन्न कर सकती है और देश की अनेक नवीन तथा विषम समस्याओं का समाधान कर सकती हैं।

यह समन्वय का कार्य आज ही नहीं आरम्भ हुआ है, वरन् प्राचीनकाल से ही होता आया है। विद्वान लेखक ने दिखाया है कि परम्परागत हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध नाम ‘निगमागम धर्म’ का अर्थ स्पष्टतः यही है कि इसका आधार केवल निगम न होकर ‘आगम’ भी है और वह आगम-निगम धर्मों का समन्वित रूप है। लेखक की दृष्टि में निगम का अभिप्राय वैदिक परम्परा से है और आगम का अभिप्राय प्राचीनतर प्रागवैदिक काल से आयी हुई वैदिकेतर धार्मिक या सांस्कृतिक परम्परा से है। एक ओर देव और दूसरी ओर असुर, दास और दस्यु जिन्हें ‘अयज्ञाः’ तथा ‘अनिन्द्राः’ अर्थात यज्ञ-प्रथा और इन्द्र को न मानने वाले कहा गया है, और एक ओर ऋग्वेदीय रुद्र तथा अनेक वैदिक देवता और दूसरी ओर पौराणिक शिव तथा अन्य प्रचलित उपास्यदेव और कर्मकाण्ड, एक ओर कर्म और अमृतत्व तथा दूसरी ओर संन्यास और मोक्ष की भावना, एक ओर ऋषि-सम्प्रदाय और दूसरी ओर मुनि-सम्प्रदाय, एक ओर हिंसामूलक मांसाहार तथा असहिष्णुता और दूसरी ओर अहिंसा तथा तन्मूलक निरामिषता और विचार-सहिष्णुता अथवा अनेकान्तवाद, एक ओर वर्ण तथा दूसरी ओर जाति,एक ओर पुरुषविध देवता और दूसरी ओर स्त्रीविध देवता, एक ओर कृषि मूलक ग्राम-व्यवस्था और दूसरी ओर शिल्पमूलक नगर-व्यवस्था इत्यादि द्वन्द्व प्राचीन काल की दो संस्कार-धाराओं की ओर संकेत करते हैं। पुराण, रामायण, महाभारत आदि में यक्ष, राक्षस, विद्याधर, गन्धर्व, किन्नर, नाग आदि अनेक प्राग्-ऐतिहासिक जातियों का उल्लेख मिलता है। निगमागम धर्म का आधार केवल श्रुति न होकर श्रुति-स्मरण-पुराण हैं। पुराण शब्द ही अत्यन्त प्राचीन संस्कृति की ओर संकेत करता है।

अतएव भारतीय संस्कृति के वैज्ञानिक अनुसन्धान के लिए वैदिक तथा वैदिकेतर साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन तथा लोक-साहित्य, लोकव्यवहार और लोकश्रुति तथा ऐतिहासिक और प्रागैतिहासिक पुरातत्व-विज्ञान, भाषा-विज्ञान, मानव-जातिविज्ञान, पुराण-विज्ञान आदि अनेक नवीन विज्ञानों के अनुशीलन की आवश्यकता है। यह कार्य डॉ. मंगलदेव शास्त्री जैसे प्राच्य तथा पाश्चात्य विद्या के अधिकारी विद्वानों द्वारा ही हो सकता है। विद्वान लेखक ने अपने अध्ययन को मौलिक आधारों पर ही प्रस्तुत किया है। उसमें उतनी ही और वे ही बातें प्रस्तुत की गयी हैं जो वेद आदि प्रमाणों से प्रत्यक्ष रूप से निष्पन्न होती हैं। किसी बात का कल्पना के आधार पर अप्रमाणित विस्तार नही किया गया है। इस मौलिक अध्ययन का एक आवश्यक परिणाम यह भी हुआ है कि आजकल प्रचलित अनेक वैज्ञानिक शब्दों के लिए सुन्दर पर्याय प्राप्त हुए हैं।

भारतीय संस्कृति का सम्पूर्ण विकास ही प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय है, इसके लिए लेखक ने उसकी विभिन्न धाराओं, जैसे-‘वैदिक, औपनिषद, जैन, बौद्ध, पौराणिक, सन्त, इस्लाम और ईसाइयत पर विवेचनात्मक दृष्टि से विचार करने तथा अन्त में भावी विकास पर दृष्टि डालने का सत्संकल्प किया है। यह कार्य ग्रन्थ के आठ या नौ खण्डों में पूर्ण होगा। इसका भूमिका खण्ड तथा प्रथम खण्ड-वैदिक धारा ही इस समय प्रस्तुत किया जा रहा है। मुझे विश्वास है कि भारतीय संस्कृति के अध्ययन में यह पुस्तक पथ- निर्देश का काम करेगी और भारतीय संस्कृति तथा समाजशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए तो यह आवश्यक पाठ्यग्रन्थ होगी ही, अन्य जिज्ञासु तथा विद्वान पाठक भी इससे लाभान्वित होंगे और इस सेवा का समुचित आदर करेंगे।

तृतीय संस्करण की भूमिका

प्रकृत पुस्तक के तृतीय संस्करण को विद्वन्मण्डली की सेवा में उपस्थित करते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता है। 1964 के अन्त में पुस्तक का द्वितीय संस्करण प्रकाशित हुआ था। 1970 में तृतीय संस्करण का प्रकाशन उसकी लोकप्रियता ओर उपयोगिता का स्पष्ट प्रमाण है।
आवश्यक परिष्कार और परिवर्धन के कारण पुस्तक का महत्व और भी बढ़ गया है, ऐसा हम समझते हैं।
भारतीय संस्कृति का विकास नामक ग्रन्थ के (जिसका यह पुस्तक प्रथम खण्ड है) असाधारण वैशिष्ट्य के विषय में अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है, तो भी इस सम्बन्ध में दो-चार शब्द कहना अनुचित न होगा।

असाम्प्रदायिकता के आधार पर निर्मित हमारे भारतीय गणतन्त्र की प्रथम आवश्यकता यह है कि उसकी जनता में, जो चिरकालीन परम्परा से विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों में बँटी हुई चली आयी है, परस्पर सहिष्णुता ही नहीं है, किन्तु समादर बुद्धि के विकास के साथ-साथ वास्तविक एक राष्ट्रीयता की भावना का उदय और संवर्धन भी हो।
इसके लिए सबसे पहला उपाय यही हो सकता है कि उसके ह्रदय में यह विश्वास और धारणा बैठाई जाये कि भारत की समष्ट्यात्मक संस्कृति वास्तव में एक है और उसके विकास में भारतीय समस्त सम्प्रदायों और धर्मों के महान् व्यक्तियों का योगदान रहा है। इस दृष्टि से भारत की विभिन्न साम्प्रदायिक धाराएँ उस समष्ट्यात्मक भारतीय संस्कृति की सहायक नदियों की स्थानीय ही हैं। इसलिए उस संस्कृति में सबको आस्था, श्रद्धा और सम्मान होना चाहिए।

उक्त भावना के विकास के लिए मौलिक आवश्यकता इस बात की है कि भारतीय समस्त प्राचीन वाड़्मय और अन्य ऐतिहासिक सामग्री का निष्पक्षपात ममत्व की बुद्धि के साथ-साथ समादरयुक्त आलोचना-दृष्टि से अध्ययन और उपयोग किया जाये और उसके आधार पर ऐतिहासिक क्रमानुसार भारत-राष्ट्रीय सांस्कृतिक विकास को प्रस्तुत किया जाये।
इसी महत्त्व-युक्त दृष्टि से ‘भारतीय संस्कृति का विकास’ इस ग्रन्थ को क्रमशः प्रस्तुत करने की हमारी योजना है, जिसको देश के गणमान्य विद्वानों ने ह्रदय से पसन्द किया है। आपाततः उक्त संकल्प दुष्कर दिखता है, विशेषतः जीवन का सन्ध्याकाल जब सामने उपस्थित है।

तो भी यह सन्तोष का विषय है कि उक्त संकल्प की पूर्ति में नवीन प्रगति लाने के लिए कुछ प्रभावशाली विद्वान एक भारतीय संस्कृति शोध संस्थान की शीघ्र स्थापना के प्रयत्न में हैं।
साथ ही आवश्यकता अनुभव की जा रही है कि उक्त ग्रन्थ के विभिन्न खण्डों के इंग्लिश आदि में भाषान्तर भी प्रकाशित हों। कुछ समय पहले देश के सम्मान्य विद्वान् श्री माणिकलाल कन्हैयालाल मुंशीजी ने इस प्रथम खण्ड के इंग्लिश भाषान्तर के लिए विशेष प्रेरणा भी की थी जिसको वे स्वयं प्रकाशित करने को तैयार थे। कहना न होगा कि उपर्युक्त विचारों के सम्बन्ध में हम अभी तक आशान्वित हैं। आशा है, विद्वानों का आशीर्वाद इसमें हमारा सहायक होगा। हमारा विश्वास है-

आशा सर्वोत्तमं ज्योतिः निराशा परमं तमः

प्रस्तावना

‘भारतीय संस्कृति का विकास’ नामक इस ग्रन्थ को प्रायेण आठ खण्डों में समाप्त करने का हमारा विचार है। भारतीय संस्कृति की वैदिक धारा के सम्बन्ध में उसी के (भूमिका-खण्ड-सहित) प्रथम खण्ड को इस समय हम विज्ञ पाठकों के सामने उपस्थित कर रहे हैं।

भूमिका-खण्ड (परिच्छेद 1-4) का सम्बन्ध समग्र ग्रन्थ से है, केवल प्रथम खण्ड से नहीं।

ग्रन्थ की मुख्य विशेषता

ग्रन्थ की मुख्य विशेषता उसकी रचना के लक्ष्य, दृष्टिकोण और विषय-प्रतिपादन की प्रक्रिया या पद्धति में है। भूमिका-खण्ड में विस्तार से इन सब विषयों को स्पष्ट करने का हमने यत्न किया है, तो भी इस सम्बन्ध में यहाँ कुछ कहना आवश्यक प्रतीत होता है।
इधर कुछ वर्षों से, विशेषतः स्वतन्त्रताप्राप्ति के अनन्तर, भारतीय संस्कृति की चर्चा विशेष रूप से देश में रही है। अनेक ग्रन्थ इसके सम्बन्ध में प्रकाशित हो चुके हैं और हो रहे हैं। इस पर भी इसके स्वरूप के विषय में, ऐकमत्य न होकर विभिन्न दृष्टियाँ ही पायी जाती हैं। किन्हीं-किन्हीं दृष्टियों में तो आकाश-पाताल का अन्तर है।

भारत के राजनीतिक इतिहास में सम्प्रदाय-निरपेक्षता (अथवा सम्प्रदाय-सम-भाव) तथा मानवता के सिद्धान्तों के आधार पर ‘लोकतंत्रतात्मक गणराज्य’ की स्थापना एक अनोखी घटना है, न केवल सैकड़ों वर्षों के दास्य के पश्चात स्वतन्त्रताप्राप्ति के कारण, अपितु अपने आधारभूत सिद्धान्तों की महत्ता के कारण भी। अतः उक्त गणराज्य के रूप में स्वराज्य प्राप्ति के अनन्तर हमारा प्रथम कर्तव्य है उक्त मौलिक सिद्धान्तों के आधार पर नव्य भारत का सुदृढ़ और स्थायी पुननिर्माण।
परन्तु यह किससे छिपा है कि इधर चिरकाल से सम्प्रदायवाद, जातिवाद तथा वर्गवाद की संकीर्ण और विघटनात्मक प्रवृत्तियाँ भारतीय इतिहास में बराबर काम करती रही हैं। सम्प्रदाय, वर्ण, जाति-पाँति की परम्परागत पृथकत्व की भावनाओं से परिपूर्ण भारत वर्ष का अभिनव निर्माण विभिन्न सम्प्रदायों और वर्गों में एकसूत्ररूप से व्याप्त, समन्वयात्मक तथा अखिल भारतीय भावना से युक्त भारतीय संस्कृति के आधार पर ही हो सकता है। उसी भारतीय संस्कृति के वास्तविक स्वरूप और स्वभाव को समझना प्रत्येक राष्ट्रप्रेमी का आवश्यक कर्तव्य है। ऐसा होने पर भी, जैसा ऊपर कहा है, भारतीय संस्कृति के स्वरूप के विषय में, ऐकमत्य न होकर, विभिन्न दृष्टियाँ ही पायी जाती हैं।
भारतीय संस्कृति के विषय में अब तक के लेखकों को प्रायेण तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है।

प्रथम वर्ग तो उन संकीर्ण साम्प्रदायिक दृष्टि रखने वालों का है, जिनके सामने प्रगतिशील समष्टयात्मक भारतीय संस्कृति-जैसी कोई वस्तु या भावना रह नहीं सकती। विभिन्न भारतीय सम्प्रदायों में भी वे पारस्परिक पूरकता के स्थान में समानान्तरता और प्रतिद्वन्द्विता की भावना को ही सामने रखकर कुछ लिखने में प्रवृत्त होते हैं। अपने ही सम्प्रदाय को सर्वोत्कृष्ट और सर्वांश में सत्य मानने के कारण, वे दूसरे सम्प्रदायों के विषय में न्याय-बुद्धि से काम नहीं ले सकते।
दूसरे वर्ग के लेखक प्रायः वे विदेशी विद्वान् हैं, जिन्होंने बहुत कुछ अपने राजनीतिक स्वार्थ या अभिनिवेश के कारण, जाने अन्जाने, भारतीय सम्प्रदायों की ऊपरी प्रतिद्वन्द्विता पर ही बल दिया है। ऐसे लेखकों के प्रभाव के कारण हमारे जातीय जीवन में आर्य-अनार्य, वैदिक-अवैदिक, ब्राह्मण-अब्राह्मण, वर्णाश्रमी-वर्णाश्रमेतर, हिन्दू-अहिन्दू, हिन्दू-मुसलमान, हिन्दू-सिक्ख-जैसी प्रतिद्वन्द्वी भावनाओं से जड़ पकड़कर नयी समस्याओं को खड़ा कर दिया।
तीसरे वर्ग में उन भारतीय विद्वान लेखकों का स्थान है, जो भारतीय चिरपरम्परा से प्राप्त जाति, वर्ण या सम्प्रदायमूलक गहरे अभिनिवेश के कारण जनता के वास्तविक जीवन के प्रवाह की उपेक्षा करके, बहुत कुछ ‘शास्त्रीय दृष्टि’ को ही सामने रखकर भारतीय संस्कृति की एकदेशी व्याख्या में प्रवृत्त होते हैं।

केवल शास्त्रों में प्रतिपादित, पर व्यवहारिक जीवन से असम्पृक्त, संस्कृति को संस्कृति कहा भी जा सकता है या नहीं, इसमें हमें सन्देह है। व्यवहारपक्ष या जनता-पक्ष की उपेक्षा करके, विशुद्ध शास्त्रीय दृष्टि से किसी भी संस्कृति का ऐसा मनोमोहक चित्र खींचा जा सकता है, जिसका अस्तित्व, किसी दिव्यलोक में भले ही हो, इस मर्त्यलोक में तो नहीं हो सकता। फिर, शास्त्रीय अभिनिवेश वाला लेखक विभिन्न सम्प्रदायों का कहाँ तक न्यायपूर्ण वर्णन कर सकता है ?
इस सम्बन्ध में हमारा दृष्टिकोण और लक्ष्य, दोनों ही लेखकों से बहुत कुछ भिन्न है।
प्रकृत ग्रन्थ में हमारा प्रयत्न बराबर यही रहेगा कि हम, अपने को संकीर्ण अनुदार भावनाओं से पृथक रखते हुए प्रगतिशील भारतीय संस्कृति के अविच्छिन्न प्रवाह और विकास को इस प्रकार दिखा सकें, जिससे-

1. एक समन्यात्मक भारतीय संस्कृति के आधार पर हमारे भारतीय राष्ट्र को दृढ़ता और पुष्टि प्राप्त हो सकें,
2. भारतीय संस्कृति के प्रगति में, वास्तविकता के आधार पर, विभिन्न सम्प्रदायों की देन और साहाय्य को दिखलाते हुए हम उनकी प्रतिद्वन्द्विता के स्थान में पूरकता की भावना का विकास कर सकें,
3. सम्प्रदायों में नैतिकता, नागरिकता और मानवता की दृष्टि से सहयोग के साथ-साथ, परस्पर समादर और सद्भावना की भी वृद्धि हो सके,
4. सम्प्रदायों के स्वरूप और प्रभाव के निरूपण में हमें पूर्ण सद्भावना और न्याय-बुद्धि से काम ले सकें। इस सम्बन्ध में जो कुछ हम लिखें, उसका आधार, केवल पुस्तकाध्याय न होकर, यथासम्भव उनके व्यवहारिक जीवन का आन्तरिक अवक्षेपण भी हो। दूसरे शब्दों में, शास्त्रीय, और जनतागत, दोनों पक्षों को साथ लेकर ही हम चलना चाहते हैं।
हमारी दृष्टि में भारतीय संस्कृति की विभिन्न धाराओं में पारस्परिक विरोध-भावना के लिए वास्तव में कोई स्थान न होना चाहिए।
हम उन सबको समष्टयात्मक, अविच्छिन्न-प्रवाहिणी एक ही व्यापक भारतीय संस्कृति का पूरक और पोषक समझते हैं।
हमारे लिए वे सब धाराएँ, उनका उत्कृष्ट साहित्य और उनके मान्य महापुरुष, सब सम्माननीय और आदरणीय हैं।
हम चाहते हैं कि भारतीय राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति को उन सब में गर्व और गौरव की भावना के साथ-साथ ममत्व की बुद्धि भी हो।
उपर्युक्त लक्ष्य और दृष्टिकोण को लेकर ही हम प्रकृत ग्रन्थ के लिखने में प्रवृत्त हुए हैं।

प्रक्रिया या पद्धति

ग्रन्थ की विषय-प्रतिपादन की प्रक्रिया या पद्धति के विषय में यहाँ अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। भूमिका खण्ड (परिच्छेद-3) में विस्तार से इसके सम्बन्ध में हम कह चुके हैं। यह स्पष्ट है कि समस्त भारतीय सम्प्रदायों में एकसूत्र-रूप से व्याप्त समष्टयात्मक भारतीय संस्कृति के विकास के अध्ययन में संकुचित तथा अनुदार साम्प्रदायिक विचार-पद्धति से काम ही नहीं चल सकता है। उसमें वैज्ञानिक विचार पद्धति का अवलम्बन अनिवार्य रूप से आवश्यक है।
वैज्ञानिक विचार पद्धति का मुख्य आधार उसकी तुलनात्मक और ऐतिहासिक प्रक्रिया है। किसी विषय के स्वरूप को उत्पत्ति और युक्ति के सहित समझने के लिए हमें उसके इतिहास और विकास के साथ-साथ उसकी वर्तमान आपेक्षिक परिस्थिति को भी ठीक-ठीक जनना आवश्यक होता है।

इसलिए व्यापक दृष्टि से भारतीय संस्कृति के स्वरूप, स्वभाव और विकास को, उसकी अत्यन्त प्राचीनकाल से आनेवाली धारावाहिक जीवित परम्परा को ठीक-ठीक समझने के लिए उसके इतिहास को जानने की अत्यन्त आवश्यकता है। इसके लिए स्पष्टता सत्य के अन्वेषण में तत्पर विवेचनात्मक व्यापक ऐतिहासिक बुद्धि के साथ-साथ अन्य प्राचीन परम्परागत संस्कृतियों के परिज्ञान की भी अपेक्षा है।
सत्यान्वेषण की भावना से प्रवृत्त ऐतिहासिक का कर्तव्य है कि वह सब प्रकार के पूर्वग्रह और पक्षपात से रहित होकर भारतीय संस्कृति के विभिन्न कालों की वस्तुस्थिति का निरूपण करे उसे। किसी भी वस्तुस्थिति को अच्छे या बुरे रूपान्तर में दिखाना अपनी न्याय्य-बुद्धि के विपरीत ही समझना चाहिए।

एक काल को दूसरे काल में अध्ययन या आरोप करने की प्रवृत्ति (anachronism) अबुद्धिपूर्वक साम्प्रदायिकों के अतिरिक्त अन्य लोगों में भी देखी जाती है। सच्चे ऐतिहासिक को इस प्रवृत्ति की ओर से अपने को सदा सचेत रखना पड़ता है।
भारतवर्ष में हम लोगों की प्रायेण यही प्रवृत्ति रही है कि हम बड़े-बड़े धार्मिक आन्दोलनों को, अवतारी महापुरुषों को और बड़ी-बड़ी ऐतिहासिक घटनाओं को पूर्वापर परिस्थितियों से असम्बद्ध तथा असम्पृक्त अथवा आकस्मिक घटना के रूप में ही देखते हैं। परन्तु वास्तव में महान आन्दोलनों, ऐतिहासिक घटनाओं औऱ अवतारी महापुरुषों की पूर्ववर्ती परिस्थितियों में कार्य कारण भाव की परम्पराओं है। वैज्ञानिक पद्धति का कर्तव्य है कि उसका पता लगाये और उसका निरूपण करे।
किसी भी इतिहास के समान ही, भारतीय संस्कृति का इतिहास भी इसी प्रकार की कार्यकारण-भाव की परम्पराओं से निर्मित है। वैज्ञानिक पद्धति के अवलम्बन से ही हम उन परम्पराओं का अध्ययन कर सकते हैं।
भारतीय संस्कृति के लम्बे इतिहास में काल-भेद से विभिन्न स्तरों का पाया जाना स्वाभाविक है। हमारा कर्तव्य है कि हम, न केवल उनके परस्पर सम्बन्ध का ही, किन्तु प्रत्येक स्तर की पूर्वावस्था और अन्नतरावस्था का भी, उन-उन त्रुटियों का भी, जिनके कारण एक स्तर के पश्चात अगले स्तर का आना आवश्यक होता गया, पता लगाएँ। इसी प्रकार एक धारावाहिक जीवित परम्परा के रूप में भारतीय संस्कृति को हम समझ सकते हैं।

उपर्युक्त प्रकार के अध्ययन के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि भारतीय संस्कृति के विभिन्न कालों के साथ हमारी न केवल ममत्व की या तादाम्य की ही भावना हो, किन्तु सहानुभूति भी हो।
वैज्ञानिक पद्धिति के इन्हीं मौलिक सिद्धान्तो का अनुसरण करते हुए हम भारतीय संस्कृति की विभिन्न धाराओं का और उसकी लम्बी परम्परा का अध्ययन प्रकृत ग्रन्थ में करना चाहते हैं।

विषय-निर्देश

ऊपर हमने भारतीय संस्कृति की विभिन्न धाराओं का उल्लेख किया है। इसका अभिप्राय यही है कि चिरन्तन काल से अविच्छिन्न प्रवाह के रूप में आने वाली भारतीय संस्कृति की धारा में भगवती गंगा की धारा में मिलने वाली सहायक नदियों की धाराओं के समान, तत्कालीन विशिष्ट परिस्थितियों और आवश्यकताओं से उत्पन्न होने वाली नवीन संस्कृति उपधाराओं का समावेश होता रहा है। वे उपधाराएँ मूलधारा में अपृथक्-रूप से मिलकर एक होती रही है। उन्होंने सतत-प्रगतिशील मूलधारा के साथ विरोधभाव न रखकर, पूरकता के रूप में उनको समृद्ध ही बनाया है।
उपर्युक्त दृष्टि से समष्टि-दृष्टिमूलक भारतीय संस्कृति की प्रगति औऱ विकास को दिखाने के उद्देश्य से प्रकृत ग्रन्थ के विभिन्न खण्डों का क्रम हम इस प्रकार रखना चाहते हैं-

खण्ड विषय
प्रथम खण्ड वैदिक धारा
द्वितीय खण्ड औपनिषद धारा
तृतीय खण्ड जैन धारा
चतुर्थ खण्ड बौद्ध धारा
पंचम खण्ड पौराणिक धारा (वर्तमान हिन्दू-धर्म)
षष्ठ खण्ड सन्तधारा
सप्तम खण्ड इस्लाम, ईसाइयत आदि
अष्टम खण्ड में भारतीय संस्कृति की प्रागैतिहासिक धारा पर दृष्टि डालने के साथ-साथ वर्तमान जगत् में भारतीय संस्कृति के भावी विचार पर भी कुछ विचार करना चाहते हैं।

प्रत्येक धारा के वर्णन और विवेचन में हम साधारणतया यही क्रम रखना चाहते हैं कि उसकी साहित्यिक भूमिका की रूपरेखा को दिखलाते हुए, उसके प्रारम्भ, स्वरूप, गुणपक्ष, दोषपक्ष, भारतीय संस्कृति के लिए उसकी देन, कालान्तर में उसका शैथिल्य अथवा ह्रास और अन्त में उसकी वर्तमान कालीन आवश्यकताओं का विचार करें।
उन धाराओं में परस्पर अपेक्षाकृत किसका कितना महत्व है, इस विचार में हम यथासम्भव हम नहीं पड़ना चाहते, क्योंकि जैसा हम पहले कह चुके हैं इस ग्रन्थ में हम विभिन्न साम्प्रदायिक विचारधाराओं के पारस्परिक तारतम्य या प्रतिद्वन्द्विता के स्थान में, मुख्यता भारतीय संस्कृति की प्रगति में उनकी देन और साहाय्य को दिखाना चाहते हैं। राष्ट्र में एक समष्टयात्मक भारतीय संस्कृति की भावना का विकास और पोषण इसी प्रकार हो सकता है।

ग्रन्थ-रचना की कहानी

प्रकृत ग्रन्थ की औऱ साथ ही उसके विशेष दृष्टिकोण के विकास की कहानी अपना महत्त्व रखती है। इसलिए यहाँ संक्षेप में उसका वर्णन करना अनुचित न होगा।
ऐसा कौन भारतवासी होगा जिसने बाल्यकाल से ही सम्प्रदाय, जाति-पाँति आदि की पृथक्तव-भावनाओं के कारण अपने देश के संकीर्ण और संकुचित वातावरण का अनुभव न किया हो ? लम्बे काल से संस्कृत के वातावरण में रहते हुए हमने उसको और भी उग्र रूप में देखा है। अभी कुछ वर्ष पहले साम्प्रदायिक संघर्ष की धधकती हुई भीषण ज्वाला को भी देश ने देखा है, जिसमें सहस्रों निर्दोष व्यक्तियों को के साथ राष्ट्रपिता को भी अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी थी। संक्षेप में, साम्प्रदायिक संघर्ष, वर्गविद्वेष और उनसे समुत्पन्न संकुचित तथा संकीर्ण मनोवृत्ति, पृथकत्व की भावना और लोकव्यवहार में अन्याय्य-बुद्धि चिरकाल से भारत वर्ष की महती समस्या रही है।

इस सारी भयावह स्थिति को देखकर, औरों के समान ही, लेखक ने भी अनेक बार मर्मान्तक पीड़ा का अनुभव किया है। उसी मर्मान्तक पीड़ा की मानों तपस्या से प्रकृत ग्रन्थ की समष्टि-दृष्टिमूलक भारतीय संस्कृति की भावना का प्रथम उद्गम कोई 20 वर्ष पहले लेखक के ह्रदय में हुआ था। शनैः-शनैः उसका परिपाक होता रहा और अन्त में वे ही विचार शब्दमूर्तिधर होकर अनेक भाषणों और संस्कृत तथा हिन्दी के लेखों द्वारा प्रकट होते रहे।
1952 के सितम्बर मास की 6 तारीख को विद्यापीठ में ‘समाज विज्ञान परिषद की ओर से भाषण देने के लिए आग्रहपूर्वक निमन्त्रित होने पर ‘भारतीय संस्कृति के आधार’ विषय पर लेखक ने अपना भाषण पढ़ा। प्रकृत ग्रन्थ का वास्तव में यही उपक्रम था।

भाषण को विशेष रूप से विचारोत्तेजक और रोचक कहा गया। इसी से उसे ‘कल्पना’ मासिक में प्रकाशनार्थ भेजना उचित समझा। पाठकों ने उसे विशेष महत्व दिया। अनेकानेक पत्र उक्त पत्रिका के सम्पादक मण्डल तथा लेखक के पास भी इसी सम्बन्ध से प्राप्त हुए। देहली की ‘सांस्कृतिक संघ’ नामक संस्था ने लेख को पुस्तिका रूप में प्रकाशित कर उसका विस्तृत वर्णन किया और चाहा कि इंग्लिश के साथ देश की विभिन्न भाषाओं में भी उसका अनुवादन प्रकाशित किया जाए।
उधर ‘कल्पना’ के यशस्वी संचालक तथा सम्पादक श्री बदरीविशाल पित्ती ने बराबर आग्रह किया कि समष्टि दृष्टिमूलक भारतीय संस्कृति की विचारधारा को लेख माला के रूप में चलाया जाए। ‘भारतीय संस्कृति की वैदिक धारा’ की समाप्ति पर यह विचार हुआ कि इसको प्रकृत ग्रन्थ के प्रथम खण्ड के रूप में प्रकाशित कर दिया जाए। यों प्रकृत ग्रन्थ का, कई प्रकार से, बहुत बड़ा श्रेय श्री पित्तीजी को है। स्वभावतःहम उनके कृतज्ञ हैं।
उसी लेखमाला के आधार पर आवश्यक परिवर्तन और परिवर्द्धन के साथ ‘भारतीय संस्कृति का विकास’ ग्रन्थ का यह प्रथम खण्ड पाठकों की सेवा में उपस्थित हो रहा है।

संकेत

उद्धृत अथवा उल्लिखित ग्रन्थों के नाम, प्रकृत ग्रन्थ में, प्रायः पूरे दिये हैं। कहीं-कहीं दिये गये संक्षिप्त संकेत पास में आये हुए पूरे नाम से स्वतः स्पष्ट हो जाते हैं। फिर भी निम्न-निर्दिष्ट संकेतों को यहाँ स्पष्ट कर देना उपयुक्त होगा-
अथर्व= अथर्ववेद-संहिता (शौनक-शाखा)
ऋग्= ऋग्वेदसंहिता (शाकल-शाखा)
यजु= यजुर्वेदसंहिता (शुक्लयजुर्वेदीय माध्यन्दिन-शाखा)
साम= सामवेदसंहिता (राणायनीय शाखा)

मातृभूमेरभिनन्दनम्

सा नो माता भारती भूर्विभासतास्
येयं देवी मधुना तर्पयन्ती
तिस्रो भूमीरुद्धृता द्योरुदस्थात्।
कामान् दुग्धे विप्रकर्षत्यलक्ष्मीं
मेधां श्रेष्ठां सा सदास्मासु दध्यात्।।1।।

सर्वे वेदा उपनिषदश्च सर्वा
धर्मग्रन्थाश्चापरे निधयो यस्याः।
मृत्योर्मर्त्यानमृतं ये दिशन्ति वै
सा नो माता भारती भूर्विभासतास्।।2।।

यां प्रच्युतामनु यज्ञाः प्रच्यवन्ते
उत्तिष्ठन्ते ते भूय उत्तिष्ठमानाम्।
यस्या व्रते प्रसवे धर्म एजते
सा नो माता भारती भूर्विभासतास् ।।3।।

यां रक्षन्त्यनिशं प्रतिबुध्यमाना
देवा ऋषयो मुनयो ह्यप्रमादम्।
राजर्षयोऽपि ह्यनधाः साधुवर्याः
सा नो माता भारती भूर्विभासतास्।।4।।

महान्तोऽस्यां महिमानो निविष्टा
देवा गातुं यां क्षमन्ते न सद्यः।
सा नो वन्द्या भ्राजसा भ्राजमाना
माता भूमिः प्रणुदतां सपत्नान्।।5।।

अभिनन्दनमिदं पुण्यं दिव्यभावैः समर्हितम्।
मातृभूमेः पठन्नित्यमात्मकल्याणमश्नुते।।6।।

भारतीय संस्कृति की दृष्टि से मातृभूमि का अभिनन्दन विश्वप्रसिद्ध हमारी मातृभूमि भारत देदीप्यमान हो
1. द्युलोक से मानो अवतीर्ण
तीनों लोकों को दिव्य माधुर्य से आपूर्ण करने वाली,
अभिलषित कामनाओं को देने वाली
तथा दुःख-दारिद्रय (अलक्ष्मी) को हटाने वाली,
देवीस्वरूपिणी भारतमाता
सद्-विचारों की साधना में हमारी सहायक हो !

2. मनुष्यों को मृत्यु से हटाकर
अमृतत्व की प्राप्ति का उपदेश देने वाले
समस्त वेद, उपनिषद् तथा अन्य (बौद्ध, जैन आदि) धर्म-ग्रन्थ जिसके निधि-स्वरूप हैं,
वह विश्व प्रसिद्ध हमारी मातृभूमि भारत देदीप्यमान हो !

3. जिसका अपकर्ष संसार में
धर्माचरण के अपकर्ष का कारण होता है,
जिसके उत्कर्ष में धर्माचरण का उत्कर्ष निहित है,
जिससे धर्म को प्रेरणा प्राप्त होती है,
वह विश्वप्रसिद्ध हमारी मातृभूमि भारत देदीप्यमान हो !

4. देवगण, ऋषि, मुनि, राजर्षि
और पवित्रात्मा सन्त-महात्मागण
सावधानता तथा तत्परता से
जिसके कल्याणमय स्वरूप की निरन्तर रक्षा करते आये हैं,
वह विश्वप्रसिद्ध हमारी मातृभूमि भारत देदीप्यमान हो !

5. जिसकी महिमा महान् है,
देवगण भी जिसके स्वरूप का गान नहीं कर पाते,
समुज्ज्वल तेज से देदीप्यमान
वह सर्व-लोक-वन्दनीय हमारी मातृ भूमि
विरोधी शत्रुओं को शमन (निराकरण) करनेवाली हो।

माहात्म्य-
6. मातृभूमि भारत के दिव्य भावों से युक्त इस पवित्र अभिनन्दन का नित्य पाठ करने वाला मनुष्य आत्मकल्याण को प्राप्त होगा।

भूमिका खण्ड पहला परिच्छेद भारतीय संस्कृति के आधार

जिस रूप में भारतीय संस्कृति का प्रश्न आज देश के सामने है, उस रूप में उसका इतिहास अधिक प्राचीन नहीं है, तो भी यह कहा जा सकता है कि भारतीय स्वतंत्रता की प्राप्ति के अनन्तर इस पर विशेष ध्यान गया है।
वर्तमान भारत में यह प्रश्न क्यों उठा ? यह विषय रुचिकर होने के साथ-साथ मनन करने के योग्य भी है हमारे मत में तो इसका उत्तर यही है कि विदेशीय संगठित विचारधारा तथा राजनीतिक शक्ति के आक्रमण का प्रतिरोध करने की दृष्टि से हमारे मनीषियों ने अनुभव किया कि सहस्रों वर्षों की क्षुद्र तथा संकीर्ण साम्प्रदायिक विचारधाराओं और भावनाओं के विघटनकारी दुष्प्रभाव को देश से दूर करने के लिए आवश्यक है कि जनता के सामने विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों में एकसूत्र रूप से व्यापक तथा समन्वयात्मक विचारधारा रखी जाए। भारतीय संस्कृति की भावना को उन्होंने ऐसा ही समझा। वर्तमान भारत में भारतीय संस्कृति के प्रश्न के उठने का यही कारण हमारी समझ में आता है।

संस्कृति शब्द का अर्थ

‘संस्कृति’ शब्द का क्या अर्थ है ? इस प्रश्न के झगड़े में हम इस समय पड़ना नहीं चाहते। सब लोग इसका कुछ न कुछ अर्थ समझ कर ही प्रयोग करते है, तो भी प्रायः निर्विवाद रूप से इतना कहा जा सकता हैं किः ‘‘कस्यापि देशस्य समाजस्य वा विभिन्नजीवनव्यापारेषु सामाजिकसम्बम्धेषु वा मानवीयत्वदृष्टया प्रेरणाप्रदानां तत्तदादर्शानां समष्टिरेव संस्कृतिः....। वस्तुतस्तस्यामेव सर्वस्यापि सामाजिकजीवनस्योत्कर्षः पर्यवस्यति। तयैव तुलया विभिन्न-सभ्यतानामुत्कर्षापकर्षौं मीयेते। किं बहुना, संस्कृतिरेव वस्तुतः ‘सेतुर्विधृतिरेषां लोकानामसम्भेदाय’ (छान्दोग्योपनिषद 8/4/1) इत्येवं वर्णयितुं शक्यते। अत एव च सर्वेषां धर्माणां सम्प्रदायानामाचाराणां च परस्परं समन्वयः संस्कृतेरेवाधारेण कर्तु शक्यते।’’ (प्रबन्धप्रकाश, भाग 2, पृ. 8)।

इसका अभिप्राय यही है कि किसी देश या समाज के विभिन्न जीवन-व्यापारों में या सामाजिक सम्बन्धों में मानवता की दृष्टि से प्रेरणा प्रदान करनेवाले तत्तद् आदर्शो की समष्टि को ही समझना चाहिए। समस्त समाजिक जीवन का परमोत्कर्ष संस्कृति में ही होता है। विभिन्न सभ्यताओं का उत्कर्ष तथा अपकर्ष संस्कृति द्वारा ही मापा जाता है। उसके द्वारा ही समाज को सुसंघटित किया जाता है। इसलिए संस्कृति के आधार पर ही विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों और आचारों का समन्वय किया जा सकता है।
विद्वानों का इस विषय में ऐकमत्य ही होगा कि

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