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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

उसका विचार ठीक था। कुछ ही क्षणों में गौतम ने कुटिया का द्वार बहुत धीरे-से खोला और बाहर निकल आए। आज, कुटिया में कल के समान प्रकाश नहीं था, न ही भीतर किसी के जगे होने की आहट थी। गौतम का अतिरिक्त सावधानी से निःशब्द कुटिया से बाहर निकलना, और बिना किसी ध्वनि के द्वार को भिड़ा देना...क्या इसका अर्थ है कि अहल्या अभी तक सोई हुई है, और गौतम नहीं चाहते कि वह किसी ध्वनि से जाग उठे...कदाचित् रात अहल्या देर से सोई हो। इन्द्र को ऐसा कुछ आभास तो हुआ था, किंतु नशे में उसने इस ओर ध्यान नहीं दिया था...।

इन्द्र के शरीर का रक्त एकदम उफन पडा.. कुटिया में अकेली अहल्या और वह भी सोई हुई...इन्द्र की शिराओं का सारा रक्त मदिरा में बदल गया।

गौतम बड़ी तेजी से कुटिया से दूर चले गए थे। कुटिया के आसपास और कोई नहीं था। कुटिया में पूरी तरह सत्राटा था। इन्द्र एक भी क्षण-नष्ट नहीं कर सकता था। विलम्ब उसके लिए अत्यन्त घातक होता। इन्द्र बेतहाशा भागा। उसने गौतम की कुटिया का भिड़ा हुआ द्वार खोला और भीतर घुसकर द्वार बंद कर लिया...उसने पलट कर देखा, शत को अपने साथ चिपकाए, अहल्या गहरी नींद में सोई पड़ी थी। वह धीरे, किंतु सधे हुए पगों से उसकी ओर बढ़ा।

किसी के स्पर्श ने अहल्या को उसकी प्रगाढ़ निद्रा की स्थिति से निकालकर, हलकी झीनी-सी नींद में पहुंचा दिया था। अपनी उस झीनी नींद में, जैसे उसकी संवेदना की एक परत जाग रही थी। उसने अनुभव किया, कोई उसके शरीर का स्पर्श कर रहा है, आलिंगन कर रहा है, चुम्बन कर रहा है, उसके वस्त्र शिथिल हो रहे हैं।...उसके जागरूक मस्तिष्क ने, अभ्यासवश ही शरीर को शिथिल छोड़ दिया था। किंतु उसका सोया हुआ मस्तिष्क भी प्रक्रिया की भिन्नता का अनुभव कर रहा था। उसके शरीर का स्पर्श करने वाला हाथ, गौतम के प्रेम भरे हाथ से भिन्न, आक्रामक हाथ था; आलिंगन में स्नेह का संतोष न होकर, शोषण की भूख थी; चुम्बन अपेक्षाकृत अधिक हिंस्र थे...उसका मन सावधान हो गया-रात्रि के अंतिम प्रहर में, उसके स्वामी ने कभी कामदेव का स्मरण नहीं किया था। वे इस समय सूर्यदेव का आसन करते थे।...

अहल्या ने झटके से आंखें खोलकर क्षीण पड़ते हुए अंधकार की हल्की परतों में उस पुरुष को देखा। निमिष-भर में ही वह इन्द्र की कामुकता से विकृत, नग्न आकृति को पहचान गई...अहल्या के कंठ से एक विकट चीत्कार फूटा और उसके हाथ-पांव अपने शरीर पर लदे आते हुए इन्द्र के शरीर से संघर्ष करने लगे।

अहल्या की चीख और दो शरीरों के संघर्ष की हिलडुल से शत की आंखें खुल गईं और साथ ही उसका गला भी खुल गया। पांच वर्षों का बालक शत, साफ-साफ देख रहा, था कि कुटिया में उपस्थित व्यक्ति, उसका पिता न होकर, कोई और पुरुष था, जिसके चेहरे पर अत्यंत दुष्ट भाव थे। फिर उसकी मां, उस पुरुष से लड़ रही थी और उसके चंगुल से मुक्त होने का प्रयत्न कर रही थी...शत जोर-जोर से रोता चला गया...।

अहल्या चीखती रही, चिल्लाती रही, हाथ-पैर पटकती रही, अपने दांतों तथा नखों से इन्द्र के साथ लड़ती गई...।

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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