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दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

दशरथ वचन देने में पहले के समान दृढ़ नहीं रह पाए। रावण उनका ही नहीं, सम्पूर्ण देवलोक का आतंक था-वह जानते थे। ताड़का, मारीच और सुबाहु के विरोध का अर्थ था-रावण का विरोध। रावण से उन्हें लड़ना होगा? उस रावण से दशरथ को लड़ना होगा, जिससे इंद्र भी डरते हैं?

दशरथ का मन कहीं डोल गया था। पर द्वंद्व का क्या लाभ? वह वचन हार चुके थे।

दशरथ ने कई क्षण सोचने में लगा दिए। कुछ समय तक शून्य में घूरने के पश्चात् बोले, 'सीमांत चौकी पर सेनानायक बहुलाश्व स्वयं वर्तमान है। क्या उसने आपकी सहायता नहीं की ऋषिवर?'' दशरथ के स्वर में आत्म-बल नहीं रह गया था।

'वह केवल अपने स्वार्थों की रक्षा कर रहा है सम्राट्!'' विश्वामित्र अत्यन्त कदु स्वर में बोले, ''और ऐसे लोग न्याय की रक्षा नहीं कर सकते।''

दशरथ ने अगला प्रश्न नहीं किया।

विश्वामित्र ने सोचा-संभव है, दशरथ बहुलाश्व के कृत्यों से पूर्व परिचित हों। तभी तो उन्होंनें यह नहीं पूछा कि ऋषि के इस आरोप का क्या प्रमाण था।

इस बार जब दशरथ बोले तो उनका स्वर अत्यन्त संकुचित था, ''मैं स्वयं अपनी चतुरंगिणी सेना लेकर आपके आश्रम की रक्षा करूंगा, ऋषिवर!''

दशरथ के शब्दों में जितनी तत्परता थी, उनकी वाणी तथा आकृति में उसका सर्वथा अभाव था।

विश्वामित्र हंस पडे, 'इतना कष्ट न करो सम्राट! मैं तुम्हें और तुम्हारी चतुरंगिणी सेना को लेने नहीं आया हूं। तुम्हें अपनी अयोध्या की रक्षा करने के लिए भी सेना की आवश्यकता पड़ेगी। राजधानी तुम्हारे लिए अत्यन्त आवश्यक है, और तुम राजधानी के लिए। अपनी आयु और क्षमता को पहचानो राजन्! वन्य जीवन तुम्हारे लिए असहनीय है सम्राट्! मेरे यज्ञ की रक्षा के लिए, केवल दस दिनों की अवधि के लिए तुम अपने राम को मुझे दे दो।''

दशरथ एकदम सन्नाटा खा गए। राम!

राम राक्षसों से लड़ने जाएंगे। जिन राक्षसों के अत्याचारों को देखते हुए भी वह उनकी सदा उपेक्षा करते रहे, उनसे लड़ने के लिए वह अपने राम को कैसे भेज सकते हैं? किस बुरी घड़ी में तुम आए विश्वामित्र! मैं तो अपनी छोटी-सी गृहस्थी में प्रसन्न था। कोई बड़ी आकांक्षा लेकर जोखिम का काम मैंने नहीं सोचा था। पर अब अपने राम को राक्षसों के मुख में धकेलकर मैं स्वयं को नहीं बचाना चाहता...

दशरथ की आंखें डबडबा आईं। अत्यन्त दीन स्वर में बोले, "ऋषिवर! जिस रावण से मैं जीवन-भर डरता रहा, जिसके भय से मैंने रघुवंश कीं पराजय के प्रतिशोध की बात कभी नहीं सोची, उसके विरुद्ध मैं अपने पुत्र को कैसे भेज दूं? मेरा राम अभी कुल पच्चीस वर्षों का है। मैं तो उसके विवाह की बात सोच...''

विश्वामित्र ने बात पूरी नहीं होने दी, 'दशरथ! आर्य सम्राट् अब क्या छोटी बालिकष्ठों के समान गुडे-गुड़िया का ही खेल खेलते रहेंगे? इस आर्यावर्त के भविष्य के विषय में सोचने का दायित्व किसे सौंप दिया है तुम लोगों ने...''

दशरथ की आंखों से दो आसू चू पड़े. ''मेरे पुत्र की रक्षा करो ऋषिश्रेष्ठ! उसे असमय काल के मुख में मत धकेलो।''

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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