स्वास्थ्य-चिकित्सा >> आदर्श भोजन आदर्श भोजनआचार्य चतुरसेन
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प्रस्तुत है आदर्श भोजन...
8. मक्खन, घी और स्टार्च
मक्खन और स्टार्च दोनों ही शरीर में उष्णता पैदा करते हैं। परन्तु थोड़ी मात्रा में अधिक उष्णता देते हैं। घी के परमाणु जैसे के तैसे शरीर में जम जाते हैं तथा शरीर को पुष्ट कर देते हैं। स्वस्थावस्था में स्टार्च से भी शरीर पुष्ट होता है परन्तु इसमें अधिक शक्ति खर्च होती है। दिमागी
काम करने वालों के लिए घी अधिक उपयोगी है। साधारणतया यह समझा जाता है कि घी सबसे बढ़िया खुराक है परन्तु घी में प्रोटीन लगभग होता ही नहीं है। फिर रक्त किसका बन सकता है? हां, घी से शक्ति का अनुमान किया जा सकता है कि कौन अधिक पचा सकता है। घी दस्तावर है पर हानिकारक नहीं, केवल साफ दस्त लाता है। वास्तव में शक्ति और गरमी में अन्तर है। घी गरमी उत्पन्न करता है, शक्ति नहीं। अधिक घी खाने से बाल जल्दी सफेद हो जाते हैं। घी की अपेक्षा मक्खन हलका और पाचक है।
9. सर्वश्रेष्ठ भोजन
ऊपर जिन भोजन-द्रव्यों का तात्त्विक विवेचन किया गया है, उसके आधार पर एक पाव आटा और एक छटांक1 दाल में लगभग 1-2/3 औंस प्रोटीन होता है। यह एक समय की खुराक है। दोनों समय में दो औंस से कुछ अधिक ही हो जाता है। इसके अतिरिक्त एक छटांक घी, शाक, तरकारी, दूध, दही, फल और छाछ, जो भोजन को पचाने तथा उसमें सुरुचि उत्पन्न करने में सहायक हैं तथा शरीर को गर्मी और शक्ति देते हैं-हमारा सर्वश्रेष्ठ भोजन हैं।
10. भोजन का ठीक पाचन
आजकल सभ्यता ने
हमारे जीवन को कृत्रिम बना दिया है और हम भोजन के सम्बन्ध में सर्वथा
पथ-भ्रष्ट हो गए हैं। सभ्यता का अभिप्राय तो यह होना चाहिए था कि हम अपनी
शारीरिक, मानसिक और आत्मिक उन्नति अधिकाधिक करते परन्तु हमने अपने शरीर को
पुष्ट तथा बलवान बनाने की अपेक्षा अधिक से अधिक आराम-तलब और
निकम्मा बना लिया है। अधिकाधिक पके हुए आहार को खाने से हमारी पाचन-शक्ति
कमज़ोर हो गई है और हम कन्द-मूल-फल आदि खाद्य पदार्थों को स्वाभाविक भोजन
की रीति पर खाकर पचाने के योग्य नहीं रह गए हैं। हमारा भोजन हमें
पका-पकाया बैठे-बैठे मिल जाता है और उसको हम इतना खा जाते हैं कि वास्तव
में उसे ठीक-ठीक पचा नहीं सकते। इसलिए वह अधिकांश में बिना पचे ही शरीर से
बाहर निकल जाता है और इससे यही हानि नहीं है कि आजकल जब विश्व अन्न-संकट
से गुज़र रहा है बहुत-सा आहार-द्रव्य व्यर्थ नष्ट होता है, परन्तु एक बड़ी
हानि तो यह भी है कि इससे हमारे शरीर के पाचक-यंत्रों को बहुत परिश्रम
करना पड़ता है और इस प्रकार भोजन करके हम पुष्ट, बलवान और सुन्दर बनने की
अपेक्षा कमज़ोर, सुकुमार और असहिष्णु हो जाते हैं, जिससे रोग और मृत्यु
अनायास ही अवसर पाकर हम पर घातक आक्रमण कर बैठते हैं।
हमने ठीक-ठीक भोजन किया
है और वह ठीक-ठीक पच गया है, इसकी सच्ची परीक्षा यह है कि पाखाना बिलकुल
मिट्टी की भांति सर्वथा दुर्गन्धरहित बने।
यह बात हमें न भूलनी चाहिए कि जो भोजन बिना ठीक-ठीक पचे हुए हमारे शरीर में रह जाता है उसे शरीर से बाहर निकालने में शरीर को बहुत शक्ति खर्च करनी पड़ती है। यह एक चमत्कारिक बात है कि मनुष्य को छोड़कर कोई भी जीव-जन्तु अपनी भूख से अधिक भोजन नहीं करता। यदि हम आज की भांति सभ्य न होते तथा हमें आसानी से और आराम से पका-पकाया भोजन न मिल जाता, न नित्य दावतों का तांता बंधा रहता, हम जंगल की वनस्पतियों, फलों और तरकारियों को असभ्य पशुओं की भांति स्वाभाविक रीति से खाते होते तो आज हम अधिक सुन्दर, दीर्घजीवी, स्वस्थ और बलवान होते और रोग और मृत्यु का आज की तरह भय न होता।
हमें कितनी बार भोजन करना चाहिए
हमारे देश की प्राचीन परिपाटी में दिन-रात में केवल दो बार ही भोजन की रीति थी। आज यूरोप के संसर्ग से हमने 5-6 बार खाना सीख लिया है जबकि अमेरिका के वैज्ञानिक केवल दो बार भोजन करने की प्रणाली अपने देश में प्रचलित करनेका प्रयत्न कर रहे हैं। हमारी आजकल की भोजन करने की सभ्य प्रणाली ऐसी है कि हमारे पाचन-यंत्रों को न तो विश्राम ही मिलता है न स्वाभाविक प्रगति। उन्हें कृत्रिम रीति से उत्तेजित करके निरन्तर क्रियाशील रखा जाता है। जिससे वे शीघ्र ही जरा-जीर्ण और निकम्मे हो जाते हैं। आयुर्वेद का मत है-
याममध्ये मन्दबुद्धिर्यामोल्लंघे बलक्षयम्।।
दिन के प्रथम प्रहर में भोजन न करे तथा दोपहर को निराहार न रहे। यदि प्रथम प्रहर में भोजन होगा तो बुद्धि मंद होगी और दोपहर का उल्लंघन होगा तो बल क्षय होगा। इसलिए सतोगुणी वृत्ति में ब्रह्मचारी, विधुर और एकाकी जन को दिन-रात में एक बार तथा गृहस्थी को केवल दो बार भोजन करने की आदत डालनी चाहिए। रात्रि का भोजन खास तौर पर हलका, सुपाच्य और सूक्ष्म होना चाहिए तथा उसमें दूध, फल और तरकारियों का भाग अधिक होना चाहिए। आठ वर्ष की आयु के बाद बालकों को केवल दो बार ही भोजन करने की आदत डाल देनी चाहिए।
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