कविता संग्रह >> भावों की भीख भावों की भीखरामनिवास जाजू
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प्रस्तुत है भावों की भीख कविता संग्रह...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दो शब्द
मैंने श्री रामनिवास जाजू के कविता-संग्रह पर एक विहंगम दृष्टि डाली है।
रामनिवास जी के काव्य में मुझे एक बात स्पष्ट दिखाई दी, और वह है नैतिक
आदर्श की प्रेरणा, जो एक सरकारी नवयुवक के लिये स्वाभाविक है। इसी प्रेरणा
के कारण उनके उत्साह में राष्ट्रीयता और उनके प्रेम में कर्तव्य-भावना
प्रमुख है। काव्य और नैतिक आदर्श का पारस्परिक सम्बन्ध एक विवादास्पद विषय
हो सकता है, फिर भी इसमें संदेह नहीं किया जा सकता कि सत् के किसी भी रूप
के प्रति उत्साह एक स्तुत्य भाव है। श्री जाजू का यह पहला प्रयत्न है।
इससे उनकी शक्ति का बहुत कुछ परिचय मिलता है। मुझे आशा है कि निपुणता और
अभ्यास के द्वारा उनका कवि-व्यक्तित्व और भी निखर आयेगा।
मैं उनकी सफलता की कामना करता हूँ।
मैं उनकी सफलता की कामना करता हूँ।
नगेन्द्र
अपनी बात
जीवन के कुछ विकल क्षणों में कोई दो वर्ष पूर्व से ही मुझे ऐसा आभास होने
लगा कि मेरे युवक हृदय का कोई छिपा हुआ कवि अपने बचपन को एक नई चेतना,
नूतन प्रगति व नए मूल्यों से आभूषित कर रहा है। दिन प्रतिदिन वह आभास एक
जीवित विश्वास का स्वरूप लेता गया। विश्वास केवल विचारों तक ही सीमित न
रहकर उस मंजिल तक पहुँचा जिसके फलस्वरूप आज मेरी लेखनी को उसका थोड़ा-सा
परिचय देने का सामर्थ्य हुआ है।
प्रत्येक मनुष्य के हृदयोद्गार उसके व्यक्तित्व की एक अमिट छाप लिए रहते हैं। मेरे भाव भी यदि सच्चे उद्गार हैं तो उनके लिए इस नियम का उल्लंघन असम्भव है। व्यक्तित्व और विचारधारा कोई स्थिर वस्तु नहीं है। समय और परिस्थितियों के साथ-साथ इनमें परिवर्तन होना भी स्वाभाविक है। ठीक इसी प्राकृतिक नियम का पालन पाठकों को इस संग्रह की कतिपय रचनाओं में मिलता रहेगा। भिन्न-भिन्न प्रकार के भोजन की रुचि यदि स्वाद-प्रिय जिह्वा का अधिकार है तो मस्त व मनन योग्य सामाजिक व साहित्यिक और राष्ट्रीय तथा प्रगतिपूर्ण भावों को पद्य में रच देना भी कवि के मन की एक अधिकृत चेष्टा कही जा सकती है। नवयुग में रहकर नवीन विचारधारा से प्रभावित न होना भी अस्वाभाविक नहीं तो क्या होगा ? परन्तु प्रत्येक युवक को संयम से नियंत्रण से काम लेते हुए अपने युग की सच्ची क्रांति का प्रतीक बनना चाहिए। मैंने भी यथा शक्ति आवेशपूर्ण भावों की मादकता से बचते हुये कुछ बिखरे सत्य और कल्पना का पद्य रूप में आज अनावरण किया है।
वृद्धावस्था आयु बीतने पर प्राप्त होती है और बुद्धि का विकास अध्ययन की मात्रा पर अवलंबित है, जिस ओर कि मैंने सही रूप में अभी तक चरण भी नहीं रक्खे हैं। अध्ययन के अभाव में केवल भावना के बल से जो कुछ भी लिख पाया हूं, सुहृदय काव्य-मरमज्ञों की सेवा में है और भविष्य में इस अभाव को कुछ अंश तक पूरा करने के लिए जागरुक रहूँगा, ऐसी मेरी अभिलाषा है।
प्रारंभ से ही इस संग्रह के प्रकाशन की प्रेरणा, निरंतर मुझे प्रोफेसर श्री कन्हैया जी सहल, अध्यक्ष, हिन्दी-संस्कृत विभाग द्वारा मिलती रही है जिन्होंने इस कार्य के लिए कई सुझाव व अपना अमूल्य समय मुझे दिया। इसके लिए मैं उनका बड़ा आभारी हूँ। उत्साह दिलानेवाले अनेक साथियों के साथ-साथ उन प्रोफेसर महोदयों को भी मैं धन्यवाद देना चाहूँगा जिन्होंने बड़े चाव के साथ मुझे इस कार्य के लिये अपना सहयोग प्रदान किया। अंत में, बिड़ला कॉलेज के प्रिंसिपल श्री महादेवलाल जी सर्राफ के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रगट करता हूँ, जिन्होंने इस संग्रह के प्रकाशन में मेरे उत्साह को क्षण भर भी गति हीन नहीं होने दिया।
मेरा यह प्रथम प्रयत्न यदि पठनीय सिद्ध हुआ और मेरे जैसे कुछ युवकों को प्रतिकूल परिस्थितियों में भी आगे बढ़ने की प्रेरणा दे सका तो मैं स्वयं की इस सफलता को, भविष्य में लक्ष्य पूर्ति का एक अटूक साधन समझूँगा।
प्रत्येक मनुष्य के हृदयोद्गार उसके व्यक्तित्व की एक अमिट छाप लिए रहते हैं। मेरे भाव भी यदि सच्चे उद्गार हैं तो उनके लिए इस नियम का उल्लंघन असम्भव है। व्यक्तित्व और विचारधारा कोई स्थिर वस्तु नहीं है। समय और परिस्थितियों के साथ-साथ इनमें परिवर्तन होना भी स्वाभाविक है। ठीक इसी प्राकृतिक नियम का पालन पाठकों को इस संग्रह की कतिपय रचनाओं में मिलता रहेगा। भिन्न-भिन्न प्रकार के भोजन की रुचि यदि स्वाद-प्रिय जिह्वा का अधिकार है तो मस्त व मनन योग्य सामाजिक व साहित्यिक और राष्ट्रीय तथा प्रगतिपूर्ण भावों को पद्य में रच देना भी कवि के मन की एक अधिकृत चेष्टा कही जा सकती है। नवयुग में रहकर नवीन विचारधारा से प्रभावित न होना भी अस्वाभाविक नहीं तो क्या होगा ? परन्तु प्रत्येक युवक को संयम से नियंत्रण से काम लेते हुए अपने युग की सच्ची क्रांति का प्रतीक बनना चाहिए। मैंने भी यथा शक्ति आवेशपूर्ण भावों की मादकता से बचते हुये कुछ बिखरे सत्य और कल्पना का पद्य रूप में आज अनावरण किया है।
वृद्धावस्था आयु बीतने पर प्राप्त होती है और बुद्धि का विकास अध्ययन की मात्रा पर अवलंबित है, जिस ओर कि मैंने सही रूप में अभी तक चरण भी नहीं रक्खे हैं। अध्ययन के अभाव में केवल भावना के बल से जो कुछ भी लिख पाया हूं, सुहृदय काव्य-मरमज्ञों की सेवा में है और भविष्य में इस अभाव को कुछ अंश तक पूरा करने के लिए जागरुक रहूँगा, ऐसी मेरी अभिलाषा है।
प्रारंभ से ही इस संग्रह के प्रकाशन की प्रेरणा, निरंतर मुझे प्रोफेसर श्री कन्हैया जी सहल, अध्यक्ष, हिन्दी-संस्कृत विभाग द्वारा मिलती रही है जिन्होंने इस कार्य के लिए कई सुझाव व अपना अमूल्य समय मुझे दिया। इसके लिए मैं उनका बड़ा आभारी हूँ। उत्साह दिलानेवाले अनेक साथियों के साथ-साथ उन प्रोफेसर महोदयों को भी मैं धन्यवाद देना चाहूँगा जिन्होंने बड़े चाव के साथ मुझे इस कार्य के लिये अपना सहयोग प्रदान किया। अंत में, बिड़ला कॉलेज के प्रिंसिपल श्री महादेवलाल जी सर्राफ के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रगट करता हूँ, जिन्होंने इस संग्रह के प्रकाशन में मेरे उत्साह को क्षण भर भी गति हीन नहीं होने दिया।
मेरा यह प्रथम प्रयत्न यदि पठनीय सिद्ध हुआ और मेरे जैसे कुछ युवकों को प्रतिकूल परिस्थितियों में भी आगे बढ़ने की प्रेरणा दे सका तो मैं स्वयं की इस सफलता को, भविष्य में लक्ष्य पूर्ति का एक अटूक साधन समझूँगा।
राम निवास जाजू
भावना का मैं भिखारी,
घूमता फिरता अकेला।
राह में कितने मिले थे
साथ कोई न हो पाया।
दीखते भावुक सभी थे,
पर न मुझको एक भाया।
चाहते कवि बन सकें सब,
शब्द-माला घोंट कर ही।
कौन सन्यासी बना पर,
भस्म में बस लोटकर ही ?
है दिवाना वेष मेरा, जग मुझे लगता झमेला।
भावना का मैं भिखारी, घूमता फिरता अकेला।।
पर्वतों में कन्दराओं—
में चलो तुमको रिझाऊँ।
छोड़कर संसार आओ,
पास मेरे कवि बनाऊँ।
यह लचीले लक्ष्य जग के,
और सब रंगीन रातें।
कवि दबाए पैर नीचे,
घूमते अलमस्त गाते।
नियति का विस्तार पाने, जिन्दगी से खेल खेला।
भावना का मैं भिखारी, घूमता फिरता अकेला।।
कह रहे जो व्यंग स्वर में,
मर मिटेगा यह दिवाना।
प्रार्थना उनसे यही है,
छोड़ दें वे अपना यह सिखाना
आज की ही यह सफलताएँ—
नहीं सारा खजाना।
जो कि मेरे अंतिम शव किनारे,
खोलकर मुझको दिखाना।
है अटल विश्वास निशि का, अंत कर देगा उजेला।
भावना का मैं भिखारी, घूमता फिरता अकेला।।
साथ कोई न हो पाया।
दीखते भावुक सभी थे,
पर न मुझको एक भाया।
चाहते कवि बन सकें सब,
शब्द-माला घोंट कर ही।
कौन सन्यासी बना पर,
भस्म में बस लोटकर ही ?
है दिवाना वेष मेरा, जग मुझे लगता झमेला।
भावना का मैं भिखारी, घूमता फिरता अकेला।।
पर्वतों में कन्दराओं—
में चलो तुमको रिझाऊँ।
छोड़कर संसार आओ,
पास मेरे कवि बनाऊँ।
यह लचीले लक्ष्य जग के,
और सब रंगीन रातें।
कवि दबाए पैर नीचे,
घूमते अलमस्त गाते।
नियति का विस्तार पाने, जिन्दगी से खेल खेला।
भावना का मैं भिखारी, घूमता फिरता अकेला।।
कह रहे जो व्यंग स्वर में,
मर मिटेगा यह दिवाना।
प्रार्थना उनसे यही है,
छोड़ दें वे अपना यह सिखाना
आज की ही यह सफलताएँ—
नहीं सारा खजाना।
जो कि मेरे अंतिम शव किनारे,
खोलकर मुझको दिखाना।
है अटल विश्वास निशि का, अंत कर देगा उजेला।
भावना का मैं भिखारी, घूमता फिरता अकेला।।
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