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मेरी श्रेष्ठ कविताएँ

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :464
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1476
आईएसबीएन :9788170283140

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अपनी सभी काव्य-कृतियों में से कवि द्वारा चुनी हुई श्रेष्ठ कविताएँ...

Meri shreshta kavitatayen

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अपने काव्यकाल के आरंभ से 1983 तक लिखी अग्रणी कवि बच्चन की ये सर्वश्रेष्ठ कविताएं हैं, जिनका चुनाव उन्होंने स्वयं किया है। एक प्रकार से यह बच्चन के समग्र कृतित्व का नवनीत है जिसमें मधुशाला से लेकर मधुबाला, मधुकलश, निशा निमंत्रण, आकुल से लेकर अंतर, बंगाल का काल, खादी के फूल, धार के इधर-उधर, त्रिभंगिमा, बहुत दिन बीते, और जाल समेटा (जब उन्होंने घोषित करके कविता लिखना समाप्त कर दिया था) तक सभी संग्रहों की सर्वश्रेष्ठ रचनाएं तो हैं ही इसके बाद भी यदा-कदा वे जो कुछ लिखते रहे (कवि कविता के बिना रह भी कैसे सकता है !) उनमें से भी कविताएं सम्मिलित की गई है।

ये कविताएं उन सभी प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करती हैं जिनके अन्तर्गत बच्चन आज तक कविता लिखते रहे हैं, और जो एक तरह से हिन्दी कविता में आरंभ से उनके समय तक चली सभी प्रवृत्तियों को एक व्यक्ति और उसके कृतित्व के माध्यम से भी इस संकलन का विशेष स्थान और महत्त्व है। इसमें हिन्दी कविता का आरंभिक छायावाद और रहस्यवाद, उनका अपना मधुवाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कविता आदि सभी कुछ एक साथ आ जाता है—जो कवि बच्चन का अपना श्रेय तथा उनकी गौरवपूर्ण उपलब्धि है।


हिन्दी-काव्य परिवार के अपने चार अनुजों
दिनकर, अज्ञेय, नरेन्द्र और अंचल को जिन्होंने क्रमशः छायावादी कुहासे को किरण,
भावुकता को बौद्धिकता, काल्पनिकता को अनुभूति
तथा रहस्यमयता को मांसलता दी;
और अनुजा सुमित्राकुमारी को
जिन्होंने अपनी कविता से बढ़कर
अपने पुत्र-पुत्रवधु, पुत्री-जामाता के रूप में
हमें चार नये कवि दिए—
अजित-स्नेह, कीर्ति-ओंकार।

 

अपने पाठकों से

 

मुझे इस बात की बड़ी प्रसन्नता है कि ‘अभिनव सोपान’ का दूसरा संस्रकरण ‘मेरी श्रेष्ठ कविताएं’ नाम से निकलने जा रहा है।
इसका पहला संस्करण 1964 में निकला था।

इन पिछले लगभग 20 वर्षो से मेरे कुछ और संग्रह निकले हैं, कुछ और कविताएँ
लिखी गईं जो संग्रह रूप में प्रकाशित नहीं की गईं।
इनमें से भी कविता जोड़ देना उचित प्रतीत हुआ।

पहले संस्करण से निकलने के समय 62-63 की रचनाएँ से दस कविताएँ दी गई थीं, ये अंतिम थीं; उस समय तक इन्हें ‘दो चट्टनें’ में संगृहीत नहीं किया गया था। 64 में कुछ और कविताओं के साथ इन्हें ‘दो चट्टानें’ के रूप में प्रकाशित किया गया। अब उनमें दो कविताएँ ‘दो चट्टानें’ से और जोड़ दी गई हैं—‘खून के छापे’ और ‘दो बजनिये’। इस प्रकार ‘दो चट्टानें’ से कुल 12 कविताएँ
दी गई हैं।
‘दो चट्टानें’ के बाद मेरे संग्रह थे :—
‘बहुत दिन बीते’ (65-67)
‘कटती प्रतिमाओं की आवाज़’ (67-68)
‘उभरते प्रतिमाओं के रूप’ (67-68)
‘जाल समेटा’ (68-72)

इनमें से प्रत्येक से चार-चार कविताएँ कुछ यहाँ दी गई हैं।
‘जाल समेटा’ के बाद भी लगभग 25 कविताएँ लिखी गईं जिन्हें संग्रह रूप में प्रकाशित नहीं किया गया।
इनमें से भी चार कविताएँ यहाँ दी जा रही हैं।

यह अभिनव संस्करण इस प्रकार 1929 से 1983 तक लिखी मेरी कविताओं से मेरी दृष्टि से, मेरी सर्वश्रेष्ठ रचनाओं का संकलन है।
आशा है कि आपका मनोविनोद होगा, ये आपकी संवेदनाएँ जगाएँगी, आपके लिए प्रेरक बनेंगी।
इन पर आप अपनी कोई प्रतिक्रिया देना चाहें तो आपका स्वागत करूँगा।

 

सोपान
बी-8, गुलमोहर पार्क
नई दिल्ली-49

 

-बच्चन

 

प्रारंभिक रचनाएँ

 

कोयल

 

अहे, कोयल की पहली कूक !
अचानक उसका पड़ना बोल,
हृदय में मधुरस देना घोल,
श्रवणों का उत्सुक होना, बनाना जिह्वा का मूक !

कूक, कोयल, या कोई मंत्र,
फूँक जो तू आमोद-प्रमोद,
भरेगी वसुंधरा की गोद ?
काया-कल्प-क्रिया करने का ज्ञात मुझे क्या तंत्र ?

बदल अब प्रकृति पुराना ठाट
करेगी नया-नया श्रृंगार,
सजाकर निज तन विविध प्रकार,
देखेगी ऋतुपति-प्रियतम के शुभागमन का बाट।

करेगी आकर मंद समीर
बाल-पल्लव-अधरों से बात,
ढँकेंगी तरुवर गण के गात
नई पत्तियाँ पहना उनको हरी सुकोमल चीर।

वसंती, पीले, नील, लाले,
बैंगनी आदि रंग के फूल,
फूलकर गुच्छ-गुच्छ में झूल,
झूमेंगे तरुवर शाखा में वायु-हिंडोले डाल।

मक्खियाँ कृपणा होंगी मग्न,
माँग सुमनों से रस का दान,
सुना उनको निज गुन-गुन गान,
मधु-संचय करने में होंगी तन-मन से संलग्न !
नयन खोले सर कमल समान,
बनी-वन का देखेंगे रूप—
युगल जोड़ी सुछवि अनूप;
उन कंजों पर होंगे भ्रमरों के नर्तन गुंजान।

बहेगा सरिता में जल श्वेत,
समुज्ज्वल दर्पण के अनुरूप,
देखकर जिसमें अपना रूप,
पीत कुसुम की चादर ओढ़ेंगे सरसों के खेत।

कुसुम-दल से पराग को छीन,
चुरा खिलती कलियों की गंध,
कराएगा उनका गठबंध,
पवन-पुरोहित गंध सूरज से रज सुगंध से भीन।

फिरेंगे पशु जोड़े ले संग,
संग अज-शावक, बाल-कुरंग,
फड़कते हैं जिनके प्रत्यंग,
पर्वत की चट्टानों पर कूदेंगे भरे उमंग।

पक्षियों के सुन राग-कलाप—
प्राकृतिक नाद, ग्राम सुर, ताल,
शुष्क पड़ जाएँगे तत्काल,
गंधर्वों  के वाद्य-यंत्र किन्नर के मधुर अलाप।

इन्द अपना इन्द्रासन त्याग,
अखाड़े अपने करके बंद,
परम उत्सुक-मन दौड़ अमंद,
खोलेगा सुनने को नंदन-द्वार भूमि का राग !

करेगी मत्त मयूरी नृत्य
अन्य विहगों का सुनकर गान,
देख यह सुरपति लेगा मान,
परियों के नर्तन हैं केवल आडंबर के कृत्य !

अहे, फिर ‘कुऊ’ पूर्ण-आवेश !
सुनाकर तू ऋतुपति-संदेश,
लगी दिखलाने उसका वेश,
क्षणिक कल्पने मुझे घमाए तूने कितने देश !

कोकिले, पर यह तेरा राग
हमारे नग्न-बुभुक्षित देश
के लिए लाया क्या संदेश ?
साथ प्रकृति के बदलेगा इस दीन देश का भाग ?

 

कलियों से

 

‘अहे, मैंने कलियों के साथ,
जब मेरा चंचल बचपन था,
महा निर्दयी मेरा मन था,
अत्याचार अनेक किए थे,
कलियों को दुख दीर्घ दिए थे,
तोड़ इन्हें बागों से लाता,
छेद-छेद कर हार बनाता !
क्रूर कार्य यह कैसे करता,
सोंच इन्हें हूँ आहें भरता।
कलियो, तुमसे क्षमा माँगते ये अपराधी हाथ।’

‘अहे, वह मेरे प्रति उपकार !
कुछ दिन में कुम्हला ही जाती,
गिरकर भूमि समाधि बनाती।
कौन जानता मेरा खिलना ?
कौन, नाज़ से डुलना-हिलना ?
कौन गोद में मुझको लेता ?
कौन प्रेम का परिचय देता ?
मुझे तोड़ की बड़ी भलाई,
काम किसी के तो कुछ आई,
बनी रही दे-चार घड़ी तो किसी गले का हार।’

‘अहे, वह क्षणिक प्रेम का जोश !
सरस-सुगंधित थी तू जब तक,
बनी स्नेह-भाजन थी तब तक।
जहाँ तनिक-सी तू मुरझाई,
फेंक दी गई, दूर हटाई।
इसी प्रेम से क्या तेरा हो जाता है परितोष ?’
‘बदलता पल-पल पर संसार
हृदय विश्व के साथ बदलता,
प्रेम कहाँ फिर लहे अटलता ?
इससे केवल यही सोचकर,
लेती हूँ सन्तोष हृदय भर—
मुझको भी था किया किसी ने कभी हृदय से प्यार !

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