महान व्यक्तित्व >> श्री अरविन्द श्री अरविन्दनारायणप्रसाद बिन्दु
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प्रस्तुत है श्री अरविन्द का जीवन परिचय...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अरविन्द की महत्ता
समय-समय पर पृथ्वी पर कुछ ऐसे पुरुष आते हैं जो हमारी तरह नहीं होते। यह
ठीक है कि देखने-सुनने में वे दूसरों से भिन्न नहीं होते, पर यह भी सत्य
है कि हममें और उनमें इतना अधिक अन्तर होता है जितना यहां के सुख और
स्वर्ग के आनन्द में। उनके प्रकाश से हमारा जीवन प्रकाशित होता है। पृथ्वी
के पुत्रों में वह देवताओं के पुत्र होते हैं। ऐसे देवपुत्रों में श्री
अरविन्द की बचपन से ही गणना थी।
जिन श्री अरविन्द को हम आज भी पहचान नहीं सके हैं उन्हें कविगुरु रवीन्द्रनाथ ने आज से 50 वर्ष पूर्व पहचाना था और एक कविता लिखकर वंदना की थी।
जितना महान हमारा देश है, उतने ही महान श्री अरविन्द थे। भारतवर्ष जो कभी था और सुदूर भविष्य में जो होने को है, उसका दिव्य प्रकाश हमने श्री अरविन्द में देखा।
श्री अरविन्द के विचार में संसार में मानव-सभ्यता का काल पक चुका है। अब एक नया युग आने वाला है जिसमें मन के स्थान पर उसने भी ऊंची चेतना जीवन का नियंत्रण करेगी। इसी युग को लाने के लिए वह जीवन-भर अपनी योग-साधना से प्रयत्न करते रहे।
ग्यारह वर्ष की उम्र से ही वह सोचने लगे थे कि दुनिया में कोई बहुत बड़ी उथल-पुथल आने वाली है और उसमें उनको भी भाग लेना होगा। 18 वर्ष की आयु में उनकी यह धारणा दृढ़ हुई। वे जब विलायत में पढ़ते थे, तभी उन्होंने देश के लिए अपना सर्वस्व होम करने की ठान ली थी।
जब वे राजनीति में उतरे, देश को विदेशियों के चंगुल से छुड़ाने का किसी को कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। श्री अरविन्द ने देश को एक राजनीतिक दर्शन ही नहीं दिया, उसे क्रियान्वित करके भी दिखा दिया। एक ऐसा ज़माना था जब कलकत्ता का कोई पत्र श्री अरविन्द का लेख छापने का साहस नहीं करता था। उन्होंने कुछ ही दिनों में देश-भर में क्रांति की ऐसी लहर दौड़ा दी कि लोग तन से ही नहीं, मन से भी स्वदेशी बन गए। उन्होंने हमें दिखाया-‘‘सबसे पहले भारतीय बनो।’’
श्री अरविन्द के राजनीतिक जीवन में भी गीता पढ़ी जा सकती थी। उनमें संसार को वेद-उपनिषद् का जीता-जागता स्वरूप देखने को मिला।
श्री अरविन्द का जीवन एक प्रयोगशाला था। उस प्रयोगशाला से उन्होंने एक नई दुनिया को जन्म दिया। इस प्रयोगशाला में वह जीवन-भर अनुसंधान करते रहे।
श्री अरविन्द का सपना था–एक नई दुनिया, नया दर्शन, नया युग, नई हवा, नया मनुष्य–इतना नया जितना मनुष्य पशु के लिए नया था। उनकी दृष्टि मानव के भविष्य पर टिकी थी।
संसार के जितने महान कार्य हैं, वे सब कभी किसी न किसी के सपने ही थे। जब सपना आ गया है तो एक न एक दिन वह रूप भी ले ही लेगा। यह सपना कैसे सच होगा, यह भारत ही दिखा सकता है और समय आने पर दिखाएगा।
21 वर्ष की आयु तक श्री अरविन्द की योग में रुचि नहीं थी, फिर भी वह इतने बड़े योगी बन गए।
जिन श्री अरविन्द को हम आज भी पहचान नहीं सके हैं उन्हें कविगुरु रवीन्द्रनाथ ने आज से 50 वर्ष पूर्व पहचाना था और एक कविता लिखकर वंदना की थी।
जितना महान हमारा देश है, उतने ही महान श्री अरविन्द थे। भारतवर्ष जो कभी था और सुदूर भविष्य में जो होने को है, उसका दिव्य प्रकाश हमने श्री अरविन्द में देखा।
श्री अरविन्द के विचार में संसार में मानव-सभ्यता का काल पक चुका है। अब एक नया युग आने वाला है जिसमें मन के स्थान पर उसने भी ऊंची चेतना जीवन का नियंत्रण करेगी। इसी युग को लाने के लिए वह जीवन-भर अपनी योग-साधना से प्रयत्न करते रहे।
ग्यारह वर्ष की उम्र से ही वह सोचने लगे थे कि दुनिया में कोई बहुत बड़ी उथल-पुथल आने वाली है और उसमें उनको भी भाग लेना होगा। 18 वर्ष की आयु में उनकी यह धारणा दृढ़ हुई। वे जब विलायत में पढ़ते थे, तभी उन्होंने देश के लिए अपना सर्वस्व होम करने की ठान ली थी।
जब वे राजनीति में उतरे, देश को विदेशियों के चंगुल से छुड़ाने का किसी को कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। श्री अरविन्द ने देश को एक राजनीतिक दर्शन ही नहीं दिया, उसे क्रियान्वित करके भी दिखा दिया। एक ऐसा ज़माना था जब कलकत्ता का कोई पत्र श्री अरविन्द का लेख छापने का साहस नहीं करता था। उन्होंने कुछ ही दिनों में देश-भर में क्रांति की ऐसी लहर दौड़ा दी कि लोग तन से ही नहीं, मन से भी स्वदेशी बन गए। उन्होंने हमें दिखाया-‘‘सबसे पहले भारतीय बनो।’’
श्री अरविन्द के राजनीतिक जीवन में भी गीता पढ़ी जा सकती थी। उनमें संसार को वेद-उपनिषद् का जीता-जागता स्वरूप देखने को मिला।
श्री अरविन्द का जीवन एक प्रयोगशाला था। उस प्रयोगशाला से उन्होंने एक नई दुनिया को जन्म दिया। इस प्रयोगशाला में वह जीवन-भर अनुसंधान करते रहे।
श्री अरविन्द का सपना था–एक नई दुनिया, नया दर्शन, नया युग, नई हवा, नया मनुष्य–इतना नया जितना मनुष्य पशु के लिए नया था। उनकी दृष्टि मानव के भविष्य पर टिकी थी।
संसार के जितने महान कार्य हैं, वे सब कभी किसी न किसी के सपने ही थे। जब सपना आ गया है तो एक न एक दिन वह रूप भी ले ही लेगा। यह सपना कैसे सच होगा, यह भारत ही दिखा सकता है और समय आने पर दिखाएगा।
21 वर्ष की आयु तक श्री अरविन्द की योग में रुचि नहीं थी, फिर भी वह इतने बड़े योगी बन गए।
जन्म
1872 का साल। 15 अगस्त की पुण्य तिथि। इसी दिन पराधीन भारत की कलकत्ता
नामक नगरी में सुबह साढ़े चार बजे श्री अरविन्द का जन्म हुआ था। उस समय
कौन जानता था कि यह दिवस भारतीय आकाश में सुनहरे सितारे की तरह चमकेगा।
हमारी आज़ादी का दिन तो चुना गया था 3 जून, 1948; किन्तु बदलकर उसे कर
दिया गया 15 अगस्त, 1947। किसने किया ऐसा ? क्यों किया ? यह क्या अपने-आप
हुआ ?
बंगाल सदा से भारत का रत्न-गर्भित प्रांत रहा है। यहां हुगली नाम की एक नगरी है। राममोहन राय और श्रीरामकृष्ण परमहंस का यहीं जन्म हुआ था। इस नगरी के पास से हुगली नाम की नदी भी बहती है। इसीके किनारे कोननगर नामक एक छोटा-सा कस्बा है। यहीं श्री अरविन्द के पिता का जन्म हुआ था। उसका नाम था कृष्णधन।
19 वर्ष बाद की उम्र में डॉ. कृष्णधन का विवाह उस समय के सुप्रसिद्ध नेता राजनारायण बोस की कन्या से हुआ। उस समय वह 21 वर्ष की थीं। उनका नाम था स्वर्णलता। वह इतनी सुन्दर थीं कि लोग उन्हें ‘रंगपुर का गुलाब’ कहा करते।
बंगाल के लोगों में उन दिनों साहब बनने की धुन सवार थी। दल के दल युवक विलायत जा रहे थे। जिसमें जितना अंग्रेज़ीपन होता, जो जितना ठाठ से रहता उसकी उतनी कदर होती।
राजनारायण बोस ने भी अंग्रेज़ी शिक्षा पाई थी पर औरों की तरह उन्होंने अपने को विलायती सांचे में ढलने नहीं दिया। भारतीय गौरव से वह अपने को गौरवान्वित मानते थे। भारतीय सभ्यता को वह किसी दशा में नीचा देखना नहीं चाहते थे।
विवाह के बाद जब डा. कृष्णधन विलायत जाने लगे तो उनके मन में जो शंका उठी थी वह सही होकर रही। विलायत से डा. कृष्णधन पूरे साहब बनकर लौटे और भारत में ‘साहब डाक्टर’ नाम से विख्यात हुए। परन्तु बाहर से पूर्ण विलायती होने पर भी वह मन से पूर्ण भारतीय थे। बीज रूप से पिता का यह गुण श्री अरविन्द में भी आया।
भारतीयों में डा. घोष ही सबसे पहले सिविल सर्जन बने थे। उनके पहले आई. एम. एस. की उपाधि किसी भारतीय को नहीं मिली। उस समय इस पद का बड़ा मान था। खुलना में उनकी सबसे अधिक ख्याति हुई। वहां के घर-घर में, जन-जन की जिह्वा पर उनका नाम था। दूसरों की आंख के आंसू पोंछने में, बिलखते होंठों पर हंसी दौड़ा देने में वह अपने बच्चों तक की सुध भूल जाया करते थे। उनका घर पूर्व और पश्चिम का मिलन-स्थल था।
बंगाल सदा से भारत का रत्न-गर्भित प्रांत रहा है। यहां हुगली नाम की एक नगरी है। राममोहन राय और श्रीरामकृष्ण परमहंस का यहीं जन्म हुआ था। इस नगरी के पास से हुगली नाम की नदी भी बहती है। इसीके किनारे कोननगर नामक एक छोटा-सा कस्बा है। यहीं श्री अरविन्द के पिता का जन्म हुआ था। उसका नाम था कृष्णधन।
19 वर्ष बाद की उम्र में डॉ. कृष्णधन का विवाह उस समय के सुप्रसिद्ध नेता राजनारायण बोस की कन्या से हुआ। उस समय वह 21 वर्ष की थीं। उनका नाम था स्वर्णलता। वह इतनी सुन्दर थीं कि लोग उन्हें ‘रंगपुर का गुलाब’ कहा करते।
बंगाल के लोगों में उन दिनों साहब बनने की धुन सवार थी। दल के दल युवक विलायत जा रहे थे। जिसमें जितना अंग्रेज़ीपन होता, जो जितना ठाठ से रहता उसकी उतनी कदर होती।
राजनारायण बोस ने भी अंग्रेज़ी शिक्षा पाई थी पर औरों की तरह उन्होंने अपने को विलायती सांचे में ढलने नहीं दिया। भारतीय गौरव से वह अपने को गौरवान्वित मानते थे। भारतीय सभ्यता को वह किसी दशा में नीचा देखना नहीं चाहते थे।
विवाह के बाद जब डा. कृष्णधन विलायत जाने लगे तो उनके मन में जो शंका उठी थी वह सही होकर रही। विलायत से डा. कृष्णधन पूरे साहब बनकर लौटे और भारत में ‘साहब डाक्टर’ नाम से विख्यात हुए। परन्तु बाहर से पूर्ण विलायती होने पर भी वह मन से पूर्ण भारतीय थे। बीज रूप से पिता का यह गुण श्री अरविन्द में भी आया।
भारतीयों में डा. घोष ही सबसे पहले सिविल सर्जन बने थे। उनके पहले आई. एम. एस. की उपाधि किसी भारतीय को नहीं मिली। उस समय इस पद का बड़ा मान था। खुलना में उनकी सबसे अधिक ख्याति हुई। वहां के घर-घर में, जन-जन की जिह्वा पर उनका नाम था। दूसरों की आंख के आंसू पोंछने में, बिलखते होंठों पर हंसी दौड़ा देने में वह अपने बच्चों तक की सुध भूल जाया करते थे। उनका घर पूर्व और पश्चिम का मिलन-स्थल था।
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लोगों की राय
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