महान व्यक्तित्व >> झाँसी की रानी झाँसी की रानीप्राणनाथ वानप्रस्थी
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प्रस्तुत है झांसी की रानी का जीवन परिचय...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दो शब्द
वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई भारतीय इतिहास की एक गौरव विभूति; एक प्रेरक
अध्याय हैं। उनका नाम आज भी अन्याय और अत्याचार के विरूद्ध संद्यर्ष
करनेवालों के हृदय में एक नवीन उत्साह का संचार कर देता है। उसका जीवन
आरोह-अवरोह का एक विचित्र समन्वय रहा है। एक सामान्य स्तर के व्यक्ति
मोरोपन्त ताम्बे की सात वर्षीया अबोध पुत्री परिस्थितियों वश झांसी के
प्रौढ़प्राय राजा गंगाधर राव की महारानी लक्ष्मीबाई बन गयी। अपने जीवन के
उन्नीसवें वर्ष में ही वह विधवा हो गयीं। यहीं से उनका संघर्षमय जीवन
आरम्भ हो गया। झांसी के अंग्रेजी राज्य में विलय के समय वह गरज उठीं
-‘‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।’’
उस समय उनके ये शब्द परिस्थितिजन्य आक्रोश की अभिव्यक्ति मात्र थे अथवा किसी निश्चित संकल्प के सूचक, इस विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता, किन्तु इसके चौथे ही वर्ष उन्हें अपनी झांसी की रक्षा के लिए तलवार उठानी पड़ी। यहां से वह एक वीरांगना के रूप में सामने आती हैं। पहले झांसी, फिर कालपी और अंत में ग्वालियर में अंग्रेजों के विरूद्ध युद्ध उनके जीवन रूपी महाकाव्य के सर्ग बने।
प्रायः बाईस वर्ष की अवस्था में; वह भी आज से लगभग सवा सौ वर्ष पहले, भारत के पुरुष प्रधान समाज में प्रबल पराक्रमी सर्वसाधन सम्पन्न अंग्रेजों के विरूद्ध उनका एक संघर्ष निश्चय ही एक क्रान्तिकारी कार्य था। उनमें एक श्रेष्ठ वीरांगना और योग्य सेनानायक के सभी गुण विद्यमान थे। इसे उनके शत्रु अंग्रेजों ने भी निःसंकोच स्वीकार किया, किन्तु इसे एक विडम्बना ही कहा जाएगा कि संघर्ष के उनके सहयोगियों ने उन्हें वह सम्मान नहीं दिया, जिसकी वह अधिकारिणी थीं। झांसी के संघर्ष की असफलता के बाद वह कालपी पहुंचीं, जहां से पेशवा साहब राव, वीर तात्या टोपे और बांदा के नवाब संघर्ष में उनके सहयोगी बने। महारानी लक्ष्मीबाई अपने इन सभी सहयोगियों से योग्य सेनानायिका थीं। इससे उनके ये सहयोगी भी अपरिचित नहीं थे, फिर भी पेशवा राव साहब पुरुष प्रधान समाज की अपनी मनोवृत्ति अपरिचित नहीं थे, फिर भी पेशवा राव साहब पुरुष प्रधान समाज की अपनी मनोवृत्ति से मुक्त नहीं हो सके; महारानी को युद्ध के संचालन का कार्यभार केवल इसीलिए नहीं सौपा गया कि वह एक स्त्री थीं, जिसे अबला कहा जाता है। महारानी ने अपने प्रशंसनीय कार्यों से यह सिद्ध कर दिखाया कि स्त्री अबला नहीं होती; अपितु पुरुष प्रधान समाज उसे अबला बनने के लिए बाध्य कर देता है, वहीं अबला समय आने पर वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई भी बन सकती है। उनके इन्हीं महनीय गुणों के कारण कुछ लेखकों ने उनकी तुलना फ्रांस की महान देशभक्त वीरांगना ‘जोन ऑफ आर्क’ से भी की है।
लघु आकार की पुस्तक में महारानी लक्ष्मीबाई के जीवन-चरित्र की अधिकतम सामग्री को संक्षिप्त रूप में देने का प्रयास किया गया है। आशा है, हिन्दी के पाठक इससे अवश्य लाभान्वित होंगे, यही इस पुस्तक के लेखक का उद्देश्य है।
इस पुस्तक को लिखने में महारानी के जीवन से सम्बद्ध श्री दत्तात्रेय बलवन्त पारसीयस, श्री कृष्ण रमाकान्त गोखले और श्री शान्ति नारायण की पुस्तकों के साथ ही श्री विनायक दामोदर सावरकर की कृति ‘1857 का स्वतन्त्रता युद्ध’ और महराष्ट्र, बुन्देलखण्ड एवं बांदा के इतिहास की पुस्तकों से सहायता ली गयी है। इन सभी पुस्तकों के लेखकों के प्रति मैं अपना विनम्र आभार प्रकट करता हूं।
उस समय उनके ये शब्द परिस्थितिजन्य आक्रोश की अभिव्यक्ति मात्र थे अथवा किसी निश्चित संकल्प के सूचक, इस विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता, किन्तु इसके चौथे ही वर्ष उन्हें अपनी झांसी की रक्षा के लिए तलवार उठानी पड़ी। यहां से वह एक वीरांगना के रूप में सामने आती हैं। पहले झांसी, फिर कालपी और अंत में ग्वालियर में अंग्रेजों के विरूद्ध युद्ध उनके जीवन रूपी महाकाव्य के सर्ग बने।
प्रायः बाईस वर्ष की अवस्था में; वह भी आज से लगभग सवा सौ वर्ष पहले, भारत के पुरुष प्रधान समाज में प्रबल पराक्रमी सर्वसाधन सम्पन्न अंग्रेजों के विरूद्ध उनका एक संघर्ष निश्चय ही एक क्रान्तिकारी कार्य था। उनमें एक श्रेष्ठ वीरांगना और योग्य सेनानायक के सभी गुण विद्यमान थे। इसे उनके शत्रु अंग्रेजों ने भी निःसंकोच स्वीकार किया, किन्तु इसे एक विडम्बना ही कहा जाएगा कि संघर्ष के उनके सहयोगियों ने उन्हें वह सम्मान नहीं दिया, जिसकी वह अधिकारिणी थीं। झांसी के संघर्ष की असफलता के बाद वह कालपी पहुंचीं, जहां से पेशवा साहब राव, वीर तात्या टोपे और बांदा के नवाब संघर्ष में उनके सहयोगी बने। महारानी लक्ष्मीबाई अपने इन सभी सहयोगियों से योग्य सेनानायिका थीं। इससे उनके ये सहयोगी भी अपरिचित नहीं थे, फिर भी पेशवा राव साहब पुरुष प्रधान समाज की अपनी मनोवृत्ति अपरिचित नहीं थे, फिर भी पेशवा राव साहब पुरुष प्रधान समाज की अपनी मनोवृत्ति से मुक्त नहीं हो सके; महारानी को युद्ध के संचालन का कार्यभार केवल इसीलिए नहीं सौपा गया कि वह एक स्त्री थीं, जिसे अबला कहा जाता है। महारानी ने अपने प्रशंसनीय कार्यों से यह सिद्ध कर दिखाया कि स्त्री अबला नहीं होती; अपितु पुरुष प्रधान समाज उसे अबला बनने के लिए बाध्य कर देता है, वहीं अबला समय आने पर वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई भी बन सकती है। उनके इन्हीं महनीय गुणों के कारण कुछ लेखकों ने उनकी तुलना फ्रांस की महान देशभक्त वीरांगना ‘जोन ऑफ आर्क’ से भी की है।
लघु आकार की पुस्तक में महारानी लक्ष्मीबाई के जीवन-चरित्र की अधिकतम सामग्री को संक्षिप्त रूप में देने का प्रयास किया गया है। आशा है, हिन्दी के पाठक इससे अवश्य लाभान्वित होंगे, यही इस पुस्तक के लेखक का उद्देश्य है।
इस पुस्तक को लिखने में महारानी के जीवन से सम्बद्ध श्री दत्तात्रेय बलवन्त पारसीयस, श्री कृष्ण रमाकान्त गोखले और श्री शान्ति नारायण की पुस्तकों के साथ ही श्री विनायक दामोदर सावरकर की कृति ‘1857 का स्वतन्त्रता युद्ध’ और महराष्ट्र, बुन्देलखण्ड एवं बांदा के इतिहास की पुस्तकों से सहायता ली गयी है। इन सभी पुस्तकों के लेखकों के प्रति मैं अपना विनम्र आभार प्रकट करता हूं।
अध्याय : 1
प्रारम्भिक जीवन
शताब्दियों की दासता के परिणामस्वरूप भारतीय समाज में नारी को अबला कहा
जाने लगा था। उसका स्थान अन्तःपुर अथवा घर की चाहरदीवारी तक सीमित रह गया
था। इस कुण्ठा के और दृढ़ होने पर घर में कन्या का जन्म होना ही अशुभ समझा
जाने लगा, जन्म लेते ही नृशंस लोग उसकी हत्या कर देते, सांसारिकता से
सर्वथा अनभिज्ञ बालिकाओं का विवाह कर दिया जाता। यदि इन अबोध बालिकाओं के
पति की मृत्यु हो जाती, तो उसे या तो सती होने के लिए बाध्य किया जाता है
अथवा जीवन-भर विधवा का अभिशप्त जीवन जीना पड़ता। मध्ययुगीन इतिहास यहाँ
अनेक वीरतापूर्ण कार्यों से भरा पड़ा है, वहां स्त्री जाति के इस प्रकार
के वीरतापूर्ण कार्यकलापों का उनमें प्रायः अभाव ही है, वहाँ सर्वत्र नारी
को मानसिक रूप से दास बना देने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। उसके पति का
अस्तित्व ही उसका अपना अस्तित्व माना जाने लगा। मेवाड़ का अथवा राजपूताने
का अन्य राज्यों के इतिहास में जौहर व्रतों की मुक्ति कण्ठ से प्रशंसा की
गई है। ऐसा लगता है उस काल में भारतीय नारी इतनी निर्बल हो गयी थी कि वह
शत्रु के समक्ष शस्त्र उठाने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी। वह शत्रु का
सामना करने की अपेक्षा अग्नि में जल कर मरना गौरवपूर्ण समझती थी।
इसे एक सुखद आश्चर्य ही कहा जाएगा कि महारानी लक्ष्मीबाई ने भारतीय नारियों की इस दासतापूर्ण मानसिकता को ध्वस्त कर दिखाया। उन्होंने यह आश्चर्यजनक कार्य ऐसे समय में किया, जब समग्र भारतीय नरेश अपनी आभा खो चुके थे या यों कहा जा सकता है कि वे सभी ब्रिटिश साम्राज्य के सूर्य की आभा के समक्ष तेजहीन हो चुके थे। महारानी लक्ष्मीबाई ने नारी के अबला होने की उस मिथ्या धारणा को निराधार कर दिखाया, जो शताब्दियों से भारतीय जनमानस में अपनी गहरी जड़े जमा चुकी थी। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि भारतीय नारी अबला नहीं है, उसे मानसिक रूप से अबला बना दिया गया है। समय आने पर वह सबला ही नहीं, अपितु परम वीरांगना भी बन सकती है। उन्होंने चिरकाल तक दासता की निद्रा में सोई हुई भारतीय नारी को उसकी निद्रा से जगाया और इतिहास में एक सर्वथा नवीन गरिमामय अध्याय की सर्जना की। निःसन्देह महारानी लक्ष्मीबाई नारी जाति का ही गौरव नहीं, एक प्रातः स्मरणीय ऐतिहासिक विभूति हैं।
इसे एक सुखद आश्चर्य ही कहा जाएगा कि महारानी लक्ष्मीबाई ने भारतीय नारियों की इस दासतापूर्ण मानसिकता को ध्वस्त कर दिखाया। उन्होंने यह आश्चर्यजनक कार्य ऐसे समय में किया, जब समग्र भारतीय नरेश अपनी आभा खो चुके थे या यों कहा जा सकता है कि वे सभी ब्रिटिश साम्राज्य के सूर्य की आभा के समक्ष तेजहीन हो चुके थे। महारानी लक्ष्मीबाई ने नारी के अबला होने की उस मिथ्या धारणा को निराधार कर दिखाया, जो शताब्दियों से भारतीय जनमानस में अपनी गहरी जड़े जमा चुकी थी। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि भारतीय नारी अबला नहीं है, उसे मानसिक रूप से अबला बना दिया गया है। समय आने पर वह सबला ही नहीं, अपितु परम वीरांगना भी बन सकती है। उन्होंने चिरकाल तक दासता की निद्रा में सोई हुई भारतीय नारी को उसकी निद्रा से जगाया और इतिहास में एक सर्वथा नवीन गरिमामय अध्याय की सर्जना की। निःसन्देह महारानी लक्ष्मीबाई नारी जाति का ही गौरव नहीं, एक प्रातः स्मरणीय ऐतिहासिक विभूति हैं।
वंश-परिचय
सतारा (महाराष्ट) के पास कृष्णा नदी बहती है। इसी कृष्णा नदी के तट पर वाई
नामक एक गाँव है। मराठा साम्राज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी महाराज के
उत्तराधिकारी आयोग्य सिद्ध हुए और साम्राज्य पर पेशवाओं का अधिकार हो गया।
पेशवाओं के शासनकाल में इसी वाई गाँव के कृष्णराव ताम्बे नामक एक ब्राह्मण
किसी उच्च राजकीय पद पर नियुक्त थे। उनका बलवन्त नाम का पुत्र
था, जो अत्यन्त वीर तथा पराक्रमी था। फलतः उसकी वीरता से प्रसन्न होकर
पेशवा द्वारा उसे सेना में एक सम्मानित पद प्राप्त हुआ था। इस प्रकार
पिता-पुत्र दोनों पर पेशवाओं की कृपादृष्टि रही तथा दोनों को उच्च पद
प्राप्त हुए। स्पष्ट है कि दोनों ने अपने-अपने पदों पर पूर्ण योग्यता से
कार्य किया, अन्यथा इस कृपा का परम्परागत रूप में बना रहना संभव न होता।
बलवन्त के पुत्र हुए मोरोपन्त तथा सदाशिव, ऊपर कहा जा चुका है कि इस
परिवार पर पेशवाओं की कृपादृष्टि दो पीढ़ियों से बनी आ रही थी। तीसरी
पीढ़ी में भी यह परम्परा अक्षुण्ण रही। पेशवा बाजीराव द्वितीय के भाई
चिमाजी आपा साहब तथा मोरोपन्त में अन्तरंग मित्रता थी। सन् 1818 में जब
पेशवा बाजीराव ने अंग्रेजों से आठ लाख वार्षिक की पेंशन लेकर पद से त्याग
पत्र दे दिया, तो अंग्रेजों ने चिमाजी आपा साहब के सम्मुख प्रस्ताव रखा कि
वह पेशवा का पद स्वीकार कर लें, किन्तु उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया,
क्योंकि अंग्रेजों के अधीन अधिकारविहीन पेशवाई को वह अर्थहीन समझते थे।
उसके मोरोपन्त ताम्बे भी बनारस आ गए। वह चिमाजी आपा साहब के सचिव का कार्य
करते थे, जिसके लिए उन्हें पचास रुपये प्रति माह वेतन मिलता था।
महारानी लक्ष्मीबाई के माता-पिता
वही मोरोपन्त ताम्बे वह व्यक्ति हैं, जिन्हें वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई
के पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इनकी पत्नी का नाम भागीरथीबाई था,
जो अत्यन्त रूपवती, पतिपरायणा, सुशीला तथा व्यवहारकुशल महिला थीं। दोनों
पति-पत्नी में परस्पर प्रगाढ़ प्रेम था। उनके इस प्रेम के विषय में श्री
दत्तात्रेय बलवन्त अपनी पुस्तक ‘झांसी की रानी
लक्ष्मीबाई’ में लिखते हैं-
‘‘पति और पत्नी में सदैव बड़ा प्रेम रहता था। संसार में प्रेम से बढ़कर कोई पवित्र वस्तु नहीं है। यदि वह प्रेम सच्चे और शुद्ध हृदय से किया गया हो। यदि दो मनुष्य प्रेमबद्ध होकर किसी दुस्तर-से-दुस्तर कार्य को करना चाहें, तो वह सरलतापूर्वक किया जा सकता है। किसी कवि ने ठीक ही कहा कि यदि दो दिल मिलकर चाहें, तो पहाड़ भी तोड़ सकते हैं। फिर यदि पति और पत्नी में परस्पर सच्चा प्रेम हो, तो यह बताने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती कि संसारयात्रा किस प्रकार उत्तम रीति से निर्वाह हो सकती है। ऐसा ही सच्चा प्रेम मोरोपन्त और उनकी पत्नी में था।
‘‘पति और पत्नी में सदैव बड़ा प्रेम रहता था। संसार में प्रेम से बढ़कर कोई पवित्र वस्तु नहीं है। यदि वह प्रेम सच्चे और शुद्ध हृदय से किया गया हो। यदि दो मनुष्य प्रेमबद्ध होकर किसी दुस्तर-से-दुस्तर कार्य को करना चाहें, तो वह सरलतापूर्वक किया जा सकता है। किसी कवि ने ठीक ही कहा कि यदि दो दिल मिलकर चाहें, तो पहाड़ भी तोड़ सकते हैं। फिर यदि पति और पत्नी में परस्पर सच्चा प्रेम हो, तो यह बताने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती कि संसारयात्रा किस प्रकार उत्तम रीति से निर्वाह हो सकती है। ऐसा ही सच्चा प्रेम मोरोपन्त और उनकी पत्नी में था।
जन्म एवं बाल्यकाल
मोरोपन्त की पत्नी भागीरथीबाई ने कार्तिक कृष्णा संवत् 1891 अर्थात् 16
नवम्बर, सन् 1835 ई० के दिन एक कन्या को जन्म दिया। यही कन्या आगे चलकर
इतिहास में महारानी लक्ष्मीबाई के नाम से प्रसिद्ध हुई। कन्या के जन्म पर
मोरोपन्त और उनकी पत्नी भागीरथीबाई को अपार हर्ष हुआ। उनके सभी
सम्बन्धियों तथा परिचितों ने उन्हें कन्यारत्न की प्राप्ति पर बधाइयां
दीं। नवजात शिशु को चिरायु होने का आशीर्वाद दिया तथा कामना व्यक्त की कि
वह बालिका ‘परम’ पराक्रमशालिनी तथा यशस्विनी बने।
सहजभाव से दिया गया यह आशीर्वाद कालान्तर में सत्य सिद्ध हुआ। कहा जाता है
इस कन्या के जन्म पर ज्योतिषियों ने भविष्वाणी की थी कि यह कन्या
राज्यलक्ष्मी युक्त तथा अनुपम शौर्यशालिनी होगी। उस समय नवजात अबोध बालिका
के शान्त, सौम्य एवं निश्छल मुख को देखकर कोई नहीं कह सकता था कि यह
बालिका अपने स्वाधीनता-प्रेम तथा राज्य की रक्षा के लिए इतिहास के एक
स्वर्णिम अध्याय की सर्जना करेगी। माता-पिता ने इस कन्या का नाम मनूबाई
रखा तथा प्रेम से उसका-पोषण करने लगे।
मोरोपन्त का बाजीराव की शरण जाना
बालिका मनूबाई चन्द्रमा की कलाओं के समान शनैः-शनै बढ़ने लगी। इसी बीच
मोरोपन्त को एक भीषण आघात लगा। उनके परम दयालु आश्रयदाता चिमाजी आपा साहब
का देहावसान हो गया। एक सच्चे सुहृद के चल बसने पर मोरोपन्त आश्रयविहीन हो
गए थे। उनके पास आजीविका-निर्वाह का भी कोई साधन नहीं रह गया था। उनके
सामने एक विकट समस्या उत्पन्न हो गई थी। उनकी कुछ भी समझ में नहीं आ रहा
था कि क्या करें। इस संकट की घड़ी में उन्हें पूर्व पेशवा बाजीराव ने
आश्रय देकर अपनी कुल-परम्परागत उदारता का परिचय दिया, जो स्वयं इस समय
महाराष्ट्र छोड़कर उत्तरी भारत में निर्वासित जैसा जीवन-यीपन कर रहे थे।
मोरोपन्त बाजीराव की इस उदारता से अभिभूति होकर उन्हीं के आश्रय में रहने
लगे। उन्हें अपने पारिवारिक दायित्वों के निर्वाह में कोई कठिनाई नहीं हुई।
मातृवियोग
बालिका मनूबाई अपने माता-पिता के साथ बनारस छोड़कर बाजीराव के आश्रय में आ
गयी थी। यहीं उसका बाल्यकाल व्यतीत हो रहा था, अभी वह केवल तीन-चार वर्ष
की ही थी कि उसे दुर्भाग्य के एक क्रूर विषाद का सामना करना पड़ा; उसकी
मां भागीरथीबाई की मृत्यु हो गई। पिता एवं पुत्री दोनों के ही लिए यह एक
भयंकर आघात था। बालिका मनूबाई भले ही मृत्यु का अर्थ अभी भली प्रकार नहीं
समझ सकती थी, फिर भी माँ के अभाव का उसके अबोध मन पर भारी आघात पहुंचा
होगा, मोरोपन्त को भी जीवनसंगिनी के वियोग से आघात तो भीषण लगा, किन्तु वह
तो विचिलित नहीं हुए। उन्होंने भावना पर नियन्त्रण रखा और पूर्ण मनोयोग से
कर्तव्य का निर्वाह करने लगे। उन्होंने पुत्री मनूबाई को माँ के अभाव का
अनुभव नहीं होने दिया और स्वयं उसका पालन-पोषण करने लगे। अब वही
उसके पिता थे और वही माँ भी। इस प्रकार नन्हीं बालिका मनूबाई पिता की
छत्रछाया में पलने और बढ़ने लगी। मोरोपन्त जहां भी जाते, उसे अपने साथ ले
जाते। इनका उठना-बैठना प्रायः पुरुषों के साथ ही होता। और मनूबाई भी उनके
साथ रहती। बालिका मनूबाई बाल्यकाल से ही बड़ी नटखट और सुन्दर थी। वह पिता
के साथ प्रायः बाजीराव के पास जाती रहती पेशवा बाजीराव का उस पर अपार
स्नेह था। वह मनूबाई को छबीली नाम से पुकारते थे।
नाना साहब के साथ
पेशवा बाजीराव द्वितीय पुत्रहीन थे। अतः उन्होंने 7 जून, 1827 को एक ढाई
वर्षीय बालक गोद ले लिया। यही बालक आगे चलकर प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता
संग्राम का अप्रतिम महारथी नाना साहब पेशवा बना। महाराष्ट्र के माथरेन
पहाड़ों की घाटी में एक गांव है-वेणूग्राम। इसी वेणूग्राम में माधवराव
नारायण भट्ट नामक एक कुलीन ब्राह्मण रहते थे। उनकी पत्नी गंगाबाई से 1824
ई० के अन्त में नाना साहब का जन्म हुआ था। नाना साहब के साथ ही बाजीराव ने
एक अन्य पुत्र रावसाहब को भी गोद लिया था।
बालिका मनूबाई को नाना साहब और रावसाहब की अच्छी मित्र-मण्डली मिल गई। तीनों बच्चे विभिन्न प्रकार के खेल खेलते रहते। तत्कालीन परम्परा के अनुसार मनूबाई चंचल तो थी ही, उस पर एकमात्र संतान और मातृविहीन भी। अतः वह नाना साहब को जो कुछ करते देखती, पिता से स्वयं भी वही मांग बैठती। पिता मोरोपन्त पुत्री की किसी भी इच्छा को मारना नहीं चाहते थे। नाना साहब घोड़े पर बैठकर घूमने जाते तो मनूबाई भी उनके साथ घोड़े पर बैठकर जाती। आखिर नाना साहब एक पूर्व पेशवा के पुत्र थे, जबकि मनूबाई पेशवा के आश्रित की पुत्री। भला बालिका मनूबाई इसे क्या समझ पाती; उसका तो केवल हठ करना भर था। कहा जाता है कि एक बार नाना साहब हाथी पर बैठकर घूमने जा रहे थे। उन्हें हाथी पर बैठा देख मनूबाई भी हाथी पर बैठने की हठ करने लगी। उसका हठ देख पेशवा बाजीराव ने नाना साहब को संकेत किया कि वह मनूबाई को भी हाथी पर बैठा लें, किन्तु नाना साहब भी तो अभी बच्चे ही थे। उन्हें मनूबाई पर अपना रौब जो गांठना था, अतः वह पिता के संकेत की अनदेखी कर चलते बने। इधर मनूबाई थी कि अपना हठ छोड़ती ही न थी, बार-बार अपने पिता से हाथी पर बैठने की जिद किये जा रही थी। खिन्न होकर मोरोपन्त कह बैठे-‘‘अरी क्यों व्यर्थ की हठ करती है, अपना भाग्य तो देख; तेरे भाग्य में हाथी पर बैठना लिखा भी है ?’’
पिता के शब्द सुनकर बालिका मनूबाई ने तपाक से उत्तर दिया, ‘‘हां-हां, लिखा है मेरे भाग्य में, एक छोड़ दस हाथियों पर बैठना लिखा है।’’ बात आई-गई हो गई, किन्तु उस समय कौन कह सकता था कि इन शब्दों में इतनी सच्चाई छिपी है।
नाना साहब के साथ ही मनूबाई की युद्ध, शारीरिक आदि शिक्षा सम्पन्न होती रही। ब्राह्मण की पुत्री होने पर भी वह युद्ध-कला में विशेष रूचि लेती थी। इसी विषय में वीर विनायक दामोदर सावरकर अपनी पुस्तक ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ में लिखते हैं-
‘‘नाना साहब और छबीली को शस्त्रशाला में असिलता घुमाने का अभ्यास करते देखने का भाग्यलाभ करनेवालों में किसकी आंखे असीम आनन्द से प्रसन्न नहीं हुई होंगी ? कभी लक्ष्मी की प्रतीक्षा में अश्वारूण नाना खड़ा रहता था, तो लक्ष्मी भी कमर में तलवार बांध वायु से बिखरे कुन्तलों को संवारती हुई अश्वारूढ़ होकर वहां आती थी। अपनी बैठक से उस तेज घोड़े को नियन्त्रित रखने का श्रम से उसकी उस समय नाना की अवस्था अठारह वर्ष की तथा लक्ष्मी सात वर्ष की थी।’’
कहने का आशय यही है कि मनूबाई को बचपन में पुरुष-समाज में ही उठने-बैठने का अवसर अधिक प्राप्त हुआ था। उसे शिक्षा भी प्रायः पुरुषों के ही समान मिली थी। फलतः उसमें पुरुषोचित गुणों का समुचित विकास हुआ। कदाचित् यही वह कारण रहा हो, जिसमें अंग्रेजों से टक्कर लेनेवाली वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई का निर्माण किया।
बालिका मनूबाई को नाना साहब और रावसाहब की अच्छी मित्र-मण्डली मिल गई। तीनों बच्चे विभिन्न प्रकार के खेल खेलते रहते। तत्कालीन परम्परा के अनुसार मनूबाई चंचल तो थी ही, उस पर एकमात्र संतान और मातृविहीन भी। अतः वह नाना साहब को जो कुछ करते देखती, पिता से स्वयं भी वही मांग बैठती। पिता मोरोपन्त पुत्री की किसी भी इच्छा को मारना नहीं चाहते थे। नाना साहब घोड़े पर बैठकर घूमने जाते तो मनूबाई भी उनके साथ घोड़े पर बैठकर जाती। आखिर नाना साहब एक पूर्व पेशवा के पुत्र थे, जबकि मनूबाई पेशवा के आश्रित की पुत्री। भला बालिका मनूबाई इसे क्या समझ पाती; उसका तो केवल हठ करना भर था। कहा जाता है कि एक बार नाना साहब हाथी पर बैठकर घूमने जा रहे थे। उन्हें हाथी पर बैठा देख मनूबाई भी हाथी पर बैठने की हठ करने लगी। उसका हठ देख पेशवा बाजीराव ने नाना साहब को संकेत किया कि वह मनूबाई को भी हाथी पर बैठा लें, किन्तु नाना साहब भी तो अभी बच्चे ही थे। उन्हें मनूबाई पर अपना रौब जो गांठना था, अतः वह पिता के संकेत की अनदेखी कर चलते बने। इधर मनूबाई थी कि अपना हठ छोड़ती ही न थी, बार-बार अपने पिता से हाथी पर बैठने की जिद किये जा रही थी। खिन्न होकर मोरोपन्त कह बैठे-‘‘अरी क्यों व्यर्थ की हठ करती है, अपना भाग्य तो देख; तेरे भाग्य में हाथी पर बैठना लिखा भी है ?’’
पिता के शब्द सुनकर बालिका मनूबाई ने तपाक से उत्तर दिया, ‘‘हां-हां, लिखा है मेरे भाग्य में, एक छोड़ दस हाथियों पर बैठना लिखा है।’’ बात आई-गई हो गई, किन्तु उस समय कौन कह सकता था कि इन शब्दों में इतनी सच्चाई छिपी है।
नाना साहब के साथ ही मनूबाई की युद्ध, शारीरिक आदि शिक्षा सम्पन्न होती रही। ब्राह्मण की पुत्री होने पर भी वह युद्ध-कला में विशेष रूचि लेती थी। इसी विषय में वीर विनायक दामोदर सावरकर अपनी पुस्तक ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ में लिखते हैं-
‘‘नाना साहब और छबीली को शस्त्रशाला में असिलता घुमाने का अभ्यास करते देखने का भाग्यलाभ करनेवालों में किसकी आंखे असीम आनन्द से प्रसन्न नहीं हुई होंगी ? कभी लक्ष्मी की प्रतीक्षा में अश्वारूण नाना खड़ा रहता था, तो लक्ष्मी भी कमर में तलवार बांध वायु से बिखरे कुन्तलों को संवारती हुई अश्वारूढ़ होकर वहां आती थी। अपनी बैठक से उस तेज घोड़े को नियन्त्रित रखने का श्रम से उसकी उस समय नाना की अवस्था अठारह वर्ष की तथा लक्ष्मी सात वर्ष की थी।’’
कहने का आशय यही है कि मनूबाई को बचपन में पुरुष-समाज में ही उठने-बैठने का अवसर अधिक प्राप्त हुआ था। उसे शिक्षा भी प्रायः पुरुषों के ही समान मिली थी। फलतः उसमें पुरुषोचित गुणों का समुचित विकास हुआ। कदाचित् यही वह कारण रहा हो, जिसमें अंग्रेजों से टक्कर लेनेवाली वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई का निर्माण किया।
विवाह
आज भले ही यह बात हास्यास्पद लगे, किन्तु वास्तविकता यही है कि मनूबाई का
विवाह केवल सात वर्ष की अवस्था में ही हो गया था। इस विवाह का घटनाचक्र भी
अपने-आपमें कम रोचक नहीं है। यद्यपि आजकल नगरों में बालिकाओं के विवाह
प्रायः अठारह वर्ष की अवस्था के बाद ही होते हैं, जो वैधानिक रूप में भी
आवश्यक है, फिर भी आए दिन बाल-विवाह के समाचार पढ़ने और सुनने को मिल जाते
हैं। उस समय तो प्रचलन ही बाल विवाह का था। मनूबाई अभी एक अबोध बालिका ही
थी कि सामाजिक प्रथा के अनुसार उनके पिता उनके विवाह के लिए चिन्तित होने
लगे। एक तो रूढ़िग्रस्त भारतीय समाज, वह भी उन्नीसवीं शताब्दी के
पूर्वार्द्ध का समय और मोरोपन्त हुए एक मराठा ब्राह्मण। कालचक्र के कारण
वह पूर्व पेशवा बाजीराव के आश्रय में ब्राह्मावर्त में रह रहे थे। वहां
उन्हें अपने कुल के अनुरूप कोई योग्य वर नहीं दिखाई दे रहा था। फलतः उनका
चिन्तित होना स्वाभाविक था।
इसी बीच एक बार झांसी राज्य के राजपुरोहित पण्डित तात्या दीक्षित पेशवा बाजीराव को मिलने आए। पण्डित तात्या दीक्षित प्रकांड ज्योतिषी थे। उनके आगमन से मोरोपन्त को बड़ी प्रसन्नता हुई। वह पण्डित दीक्षित से मिले और उनके सामने अपनी समस्या रखते हुए बोले, ‘‘महाराज ! यह मेरी एकमात्र कन्या है। इसकी माता का देहावसान हो चुका है। अब मैं ही इसका पिता हूं और मैं ही इसकी माँ भी। यदि आपकी दृष्टि में इसके योग्य कोई वर हो तो ध्यान रखिएगा। इसके हाथ पीले कर मैं चिन्तामुक्त हो जाना चाहता हूं।’’
पण्डित तात्या दीक्षित ने मनूबाई की जन्मकुण्डली देखी। ग्रहों की स्थिति पर सूक्ष्म विचार करने के बाद बोले, ‘‘भैया ! इस कन्या की जन्मकुण्डली में राजयोग है। इसका विवाह किसी साधारण घर में नहीं होगा। आप कुछ भी चिन्ता न करें। समय का खेल देखते जाइए, इसके लिए स्वयं कोई राजा आपके पास आएगा। इसके लिए मैं या आप कुछ नहीं कर सकते। हां फिर भी आप पिता हैं, प्रयत्न करना आपका कर्तव्य है। मैं भी प्रयत्न करूंगा। हमारे प्रयत्न केवल करने भर के लिए होंगे। प्रभु की इच्छा कोई नहीं जान सकता।’’
ज्योतिषी की भाविष्यवाणी सुनकर मोरोपन्त को अपार हर्ष हुआ। इसके बाद ज्योतिषी वापस चले गए। झांसी के राजा गंगाधर राव प्रौढ़ राव हो चले थे, किन्तु उनका कोई पुत्र नहीं था। पुत्र-प्राप्ति के लिए वह पुनः विवाह करना चाहते थे। उन्होंने अपनी यह इच्छा अपने सभासदों के सामने व्यक्त की। पण्डित तात्या दीक्षित ने मनूबाई के विषय में विस्तार से बताया, तो गंगाधर राव उनके साथ विवाह करने के लिए लालायित हो उठे। राज ज्योतिषी ने मनूबाई के रूप-सौन्दर्य, जन्मकुण्डली आदि के बारे में बताया तो राजा अपनी प्रौढ़ अवस्था को भी भूल गए। उन्होंने विचार किया, कदाचित् इसी स्त्रीरत्न से उसकी वंशबेल आगे बढ़ जाए।
इसी बीच एक बार झांसी राज्य के राजपुरोहित पण्डित तात्या दीक्षित पेशवा बाजीराव को मिलने आए। पण्डित तात्या दीक्षित प्रकांड ज्योतिषी थे। उनके आगमन से मोरोपन्त को बड़ी प्रसन्नता हुई। वह पण्डित दीक्षित से मिले और उनके सामने अपनी समस्या रखते हुए बोले, ‘‘महाराज ! यह मेरी एकमात्र कन्या है। इसकी माता का देहावसान हो चुका है। अब मैं ही इसका पिता हूं और मैं ही इसकी माँ भी। यदि आपकी दृष्टि में इसके योग्य कोई वर हो तो ध्यान रखिएगा। इसके हाथ पीले कर मैं चिन्तामुक्त हो जाना चाहता हूं।’’
पण्डित तात्या दीक्षित ने मनूबाई की जन्मकुण्डली देखी। ग्रहों की स्थिति पर सूक्ष्म विचार करने के बाद बोले, ‘‘भैया ! इस कन्या की जन्मकुण्डली में राजयोग है। इसका विवाह किसी साधारण घर में नहीं होगा। आप कुछ भी चिन्ता न करें। समय का खेल देखते जाइए, इसके लिए स्वयं कोई राजा आपके पास आएगा। इसके लिए मैं या आप कुछ नहीं कर सकते। हां फिर भी आप पिता हैं, प्रयत्न करना आपका कर्तव्य है। मैं भी प्रयत्न करूंगा। हमारे प्रयत्न केवल करने भर के लिए होंगे। प्रभु की इच्छा कोई नहीं जान सकता।’’
ज्योतिषी की भाविष्यवाणी सुनकर मोरोपन्त को अपार हर्ष हुआ। इसके बाद ज्योतिषी वापस चले गए। झांसी के राजा गंगाधर राव प्रौढ़ राव हो चले थे, किन्तु उनका कोई पुत्र नहीं था। पुत्र-प्राप्ति के लिए वह पुनः विवाह करना चाहते थे। उन्होंने अपनी यह इच्छा अपने सभासदों के सामने व्यक्त की। पण्डित तात्या दीक्षित ने मनूबाई के विषय में विस्तार से बताया, तो गंगाधर राव उनके साथ विवाह करने के लिए लालायित हो उठे। राज ज्योतिषी ने मनूबाई के रूप-सौन्दर्य, जन्मकुण्डली आदि के बारे में बताया तो राजा अपनी प्रौढ़ अवस्था को भी भूल गए। उन्होंने विचार किया, कदाचित् इसी स्त्रीरत्न से उसकी वंशबेल आगे बढ़ जाए।
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