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योग निद्रा

स्वामी सत्यानन्द सरस्वती

प्रकाशक : योग पब्लिकेशन्स ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :320
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 145
आईएसबीएन :0

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योग निद्रा मनस और शरीर को अत्यंत अल्प समय में विक्षाम देने के लिए अभूतपूर्व प्रक्रिया है।


कर्म के सिद्धान्त



योग निद्रा का अभ्यास आत्मिक ज्ञान की परतों को खोलकर उसे चेतन मन से परिचित कराता है। मस्तिष्क के प्रत्येक भाग में आदर्श के रूप में मूलभूत सिद्धान्त हजारों-लाखों की संख्या में एकत्र हैं। ये सिद्धान्त जीवन के सभी अनुभवों का निचोड़ हैं, जिन्हें हम कर्म कहते हैं। जैसे, कैमरा नेगेटिव के रूप में फोटो का आकार प्रस्तुत करता है, वैसे ही प्रत्येक अनुभव चेतन अथवा अचेतन मन द्वारा अवचेतन मन में संगृहीत होता रहता है। धीरे-धीरे यही कर्म सिद्धान्त का रूप धारण कर लेते हैं। जैसे, वृक्ष प्रति वर्ष अपने अल्पकालिक जीवन में ही हजारों-लाखों की संख्या में बीज देता है, उसी प्रकार मनुष्य हजारों-लाखों की संख्या में अपने अनुभवों के फल चखता रहता है। इन्हीं अनुभवों को कर्म, संस्कार अथवा मूलरूप आदर्श कहा जाता है।

मनुष्य केवल जीवशास्त्र का एक प्राणी नहीं है, वह सृष्टि का निर्माता भी है। त्रिभुवन का निर्माता ईश्वर को माना जाता है और सृष्टि का निर्माता मनुष्य को माना जाता है। ईश्वर का कार्य ब्रह्माण्ड, सूर्य, चन्द्र, तारों आदि का निर्माण करना है। मनुष्य का सूक्ष्मदर्शी मन अपने प्रत्येक अनुभव एवं क्रिया द्वारा कर्मों का निर्माण करता है।

ये कर्म अथवा संस्कार मनुष्य की भीतरी चेतना में एकत्र होते रहते हैं। चेतना की सबसे गहरी परत जिसमें संस्कार अंकित तथा संसाधित होते हैं, हमारा अचेतन मन है, जहाँ पर संस्कार प्रसुप्त एवं अव्यक्त पड़े रहते हैं। संस्कारों की दूसरी परत बहुत गहरी नहीं है। यह अवचेतन स्तर है, जहाँ संस्कार परिवर्तित भी होते हैं, प्रकट भी होते हैं तथा एकत्र भी होते रहते हैं। संस्कारों की तीसरी परत चेतन स्तर पर परिपक्वता एवं फलन की प्रक्रिया में है। कर्म के सिद्धान्त में इन तीन स्तरों को वर्तमान कर्म, संचित कर्म एवं प्रारब्ध कर्म कहा जाता है।

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