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औरत

शिवप्रसाद सिंह

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1448
आईएसबीएन :81-7028-112-1

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एक रोचक सामाजिक उपन्यास


प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कथाकार का बयान

किसी आदरणीय सहायक मित्र के सहयोग को भुला देना कृतघ्नता है। मैं चाहता तो अपने समादरणीय मित्र डॉ. शिवेन्द्र को पी.एच.डी. उपाधि मिलते ही भुला देता। आजकल ऐसा ही होता है। पर शिवेन्द्र एक बड़ी हस्ती का नाम है। वह मात्र प्रवक्ता हैं समाज-शास्त्र विभाग में पर मेरे तो गुरु और मित्र दोनों हैं। दो साल बड़ा होना कोई मायने नहीं रखता, पर अपनी आत्मा में घुमड़ती सम्पूर्ण व्यथा को मेरे आग्रह पर उन्होंने जिस रूप में सुनाया वह तो बहुत गहरी मित्रता में विश्वास के कारण ही सम्भव हुआ। मैंने उनसे अनुरोध किया : ‘‘आपके जीवन की इन घटनाओं को जो मैंने प्रत्यक्ष देखी जो आपके मन में थीं उनका विवरण सुना, उसे प्रकाशित कराने के पहले आपको दिखा देना चाहता हूँ।’’ डॉ. शिवेन्द्र मेरे गुरु हैं। मेरे शोधकार्य के निर्देशक रहे। अब मैंने पी.एच.डी की उपाधि प्राप्त कर ली है।

चाहूं तो औरों की तरह मैं भी उन्हें ठेंगा दिखाकर अलग हो सकता हूं। जो देखा, जो सुना उसे रंग-रोगन लगाकर प्रेम की गाथा बना सकता हूं, पर नहीं, मैं कथाकार हूं, इसीलिए सत्य के प्रति प्रतिश्रुत हूं। मैंने इसी कारण उन्हें पूरी पांडुलिपि पढ़ने को दे दी। स्वभावतः हंसते हुए बोले-‘‘ले जाओ, प्रेम इसे छपवा दो। देखना क्या ? वैसे भी साहित्यकारों की खसलत से वाकिफ हूं। मैं न तो तुम्हें मानहानि का नोटिस दूँगा और न ही तुम्हारी कृति को अनचाहा महत्व दूँगा और न ही इसे झूठ और काल्पनिक कहकर तुम्हें पाठकों के सामने नंगा करूंगा। जाने क्या-क्या लोगों ने कहा और बका है मेरे बारे में; उसी भूसे की राशि पर यह गोबर भी रख दो। इसे देखना क्या ?’’ मैंने जिद पकड़ ली लाचार उन्हें पढ़ना पड़ा। पढ़कर पांडुलिपि देते वक्त बोले-‘‘आश्चर्य है तुमने डॉ. शर्मा की कहानी-कला की पूंछ छोड़ दी इस बार। बड़ा आकर्षक उपन्यास है यह। लेकिन प्यारे भाई तुमने उत्तम पुरुष ‘मैं’ के रूप में इतने नरेटर्स एक साथ जुटा दिए हैं कि पाठकों को भ्रम भी होगा और चिढ़ भी। कहीं नरेटर तुम हो, कहीं मैं हूं, कहीं हरीश हैं, कहीं मुनीश हैं-बड़ा घपला है। कौन ‘मैं’, किस ‘मैं’ से कह रहा है। उपन्यास पकड़ता है, पर अगर नरेशन का चपला न होता तो बेहतर होता।’’ ठीक है सोचूंगा। आपने इसे आकर्षक माना इतना ही पर्याप्त है। मैं आपसे कथा-साहित्य की रचना-प्रक्रिया पर बहस करने नहीं आया हूं। मैं किस्सागो नहीं हूं। ‘नरेशन’ को डिस्टॉरशन में बदलना चाहता हूं। हमारा पाठक सीधी-सपाट शैली को पढ़ते वक्त एक उपन्यास की कला को दूसरे की कला से बिलगा नहीं पाता। और भाषा की पारदर्शिता कथा-रस में उसकी बहाऊ शक्ति के कारण महत्त्वहीन बन जाती है। आखिर भोगा है आपने, मैंने सुना है, हरीश और मुनीश का विवरण भी आपने ही नरेट किया है। तो भाषा में दर्द समान नहीं हो सकता। मेरा नरेशन तटस्थ है, आपका आत्मभोग है। अतः ज्वलन में डूँबा है। ‘‘मारो गोली यार’’-शिवेन्द्र ने कहा-‘‘ई सारी बकवास किसी कहानी गोष्ठी में करना जहां उखड़े हुए बूढ़े और उदन्त बछरे सब एक दूसरे पर इकट्ठा कीचड़ उछालते हैं। तुम्हारी जमात की हैसियत है क्या इस देश में ? कहानीकार बने घूमो। कोई पान भी नहीं खिलायेगा। खुद ही पान खिलाकर कोई फंसे तो उसे नरेशन बताना। अपुन को छोड़ो भाई। जय हिन्द।’’
अव आप बताइये ऐसे अहंकारी को मैं क्या कहूं।
शिव प्रसाद सिंह



शिवेन्द्र मेरा दोस्त है। बहुत प्यारा आदमी है। मैंने कभी मजाक में कहा था-‘‘क्यों शिबू, आज फिर तुम्हें सावन की धानी चादर में लिपटी अपने गांव की वादियां और सीवान याद आ रहे हैं क्या ?’’
वह धीरे से बोला-‘‘छोड़ो यार। अब वे गांव रहे कहां। कभी तुमने कर्मनाशा के पनघट को देखा है ? कर्मनाशा ही क्यों तुमने किसी भी नदी, जलाशय, कुएँ के पनघट को देखा है ? लाल बालू पर बहती साफ स्वच्छ धारा से पानी भरते वक्त खिलखिलाती लड़कियों के गले की घंटियों की मीठी आवाज सुनी है ? कभी तुम्हें लगा है कि औरतों की इस भीड़ में पचास फीसदी वे लड़कियाँ हैं जो चार-पांच साल के अन्दर करमू यानी कर्मनाशा के पनघट को छोड़कर किसी और पनघट को खोजने चली जाएंगी ? शेष पचास फीसद तो पांच साल के भीतर यहां आई हुई ब्याहताएं हैं, जिनके मन को कोई जानता नहीं। पता नहीं वे भी जिस पनघट को छोड़कर आई हैं, वह इसी तरह से खिलखिलाती लड़कियों से गमकता था या नहीं, इस पनघट में वह प्यार है या नहीं। वह प्यार जिसे वे अपने मायके में पाती रहीं। औरत की भी क्या दुनिया होती है। तुमने वह लोकगीत सुना है प्रेमू...।’’

वह अचानक चुप हो गया।
‘‘कौन-सा लोकगीत ? शिवेन्द्र तुम इतना उदास क्यों हो गए ? कोई बात है क्या ? बोलो यार-सुनाओ न वह लोकगीत।’’ मैंने कहा।
‘‘अब छोड़ो भी। बात यह है दोस्त, कि मैं जब भी पनघट शब्द सुनता हूं, कहीं और जाने कहां, किसी और ही नदी के किनारे के पनघट में डूब जाता हूं। या कहीं कुएं के चबूतरे पर थककर बैठ जाता हूं। जहां नदी नहीं होती, वहां कुआं ही पनघट होता है। यह कमबख्त पनघट शब्द मुझे तोड़ने लगता है। इस दुनियावी पनघट से परे कोई और पनघट होता होगा। ‘बहुत कठिन है डगर है पनघट की’ खुसरो ने कहा है। पर मैं उनके पनघट पर नहीं भौतिक दुनिया के पनघट पर सोचता हूं। मैंने तो जिन्दगी भर दुनियावी पनघट की ठिठोलियां, कहकहे, छेड़-छाड़, यही सब देखे हैं। जब बावला मन कुहक उठता है तो वह जाने कहां डूब जाता है-
‘कइसन मेला लगा पनघट पर
मोरे बलमवां की बारी उमरिया
अंगुरी पकरि कहे ले चल डगरिया
संग की सहेली सब करैं ठिठोली
मारो गेडुंर नटखट पर


अपने पूर्वांचल में आज भी बड़ी उमर की दुलहिन का ‘बारो बलम’ आंगने में गिल्ली ही खेलता है। उसकी सयानी सहेलियां ताने देती हैं-
‘पनिया भरन गई ऊ कहे गोदी में ले ले
मारूंगी रसरिया की मार वो तो हंस के बोले
बलमा नादान मेरे आंगने में गिल्ली खेले।


‘‘सुनो यार शिवेन्द्र तुम मेरी नैया मझधार में लाकर छोड़ दोगे क्या ? मैं सचमुच बहुत परेशान हो गया-प्यारे मुझे पी-एच. डी न मिली तो खुदकुशी कर लूँगा। बहुत मुश्किल से नौकरी मिल रही है। बिहार में लेक्चरर बनने के लिए कम से कम दस हजार का डोनेशन देना होता है। वह सब मेरा बाप खेत को रेहन रखकर जुटाने को तैयार है। पर यार तुमने जो इतना मुश्किल सब्जेक्ट दे दिया जिसके लिए आंकड़े जुटाना और शोध-प्रबंध तैयार करना मेरे लिए तो ‘पंगु चढ़ै गिरिवर गहन’ जैसा एकदम असम्भव है। कुछ तो मदद करो दोस्त। मुझे किनारे लगाओ। एक हजार औरतों से इंटरव्यू लेकर ‘पूर्वांचल में नारी की स्थिति’ पर मैं क्या लिख पाऊंगा। प्यारे, तुम्हारे भरोसे ही यह सब टंट-घंट उठा रखा है मैंने ?’’ मैं गिड़गिड़ाता रहा।

वह मुस्कुराकर बोला-‘‘घोंचू ! आज तक जब समाजशास्त्र विभागों ने गांवों से बटोरे आंकड़ों के विश्लेषण से यही निष्कर्ष निकाला है कि आजादी के पहले यानी वेद के बाद और शोध-प्रबंध के पहले तक नारी की स्थिति के बारे में जो कुछ कहा गया है वह कूड़ा है। नारी के बारे में अपने समाजशास्त्री लोग कहते हैं कि अब भारत की नारी जग गई है। संविधान में उसके अधिकार हैं। उसे अब वे तमाम अवसर प्राप्त हैं जो अब तक पुरुषों को ही दिए जाते हैं। अब वह पुलिस में, न्यायपालिकाओं में, प्रशासन में सब जगह मर्द के साथ कंधे से कंधा मिलाए चल रही है। यही सर्वमान्य निष्कर्ष है। मेरे दोस्त प्रेम स्वरूप, तुम्हें भी यही सिद्ध करना है। क्योंकि तुम्हारे शोध प्रबंध के निर्णायक वे समाजशास्त्री ही होंगे जो नारी-जागरण पर शोध कराकर और करके विद्या-मंदिरों में ऊंची कुर्सियों पर बैठे हैं। रही बात आकड़ों की तो मैं हफ्ते-भर में सारे आंकड़े बने-बनाए, एकदम तैयार तुम्हें दे दूंगा। तुम्हें अपने को मूर्ख साबित तो कराना नहीं है न ? जब सारे आंकड़े एक जैसे हैं, तो तुम्हारे आंकड़े अलग कैसे हो सकते हैं ? आकड़े गांव-गांव घूमकर इकट्ठा करोगे ? भई वाह, ऐसा मूर्ख शोधकर्ता तो मैंने पहली बार देखा। गांव जाकर आंकड़े बटोरने में तुम्हारा बेहद नुकसान होगा। लोग प्रश्नवाचक निशानों से तुम्हारी थीसिस रंग देंगे। लिखेंगे-शोधकर्ता को इतना भी ज्ञान नहीं कि सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री डा. शिवेन्द्र ने यह सिद्ध कर दिया है कि अब नारी समस्या नामक कोई चीज बची ही नहीं।’’
‘‘यह सब तुमने सिद्ध कर दिया है शिवेन्द्र ?’’ मैंने व्यंग्य से उसे देखा।

‘‘हां जी मैंने सिद्ध कर दिया है।’’ वह मेरी आँखों में घूरते हुए बोला। एक बात तुम नई जरूर कर सकते हो। बशर्ते तुम्हारे मशीनी दिमाग में इन्सानियत के लिए कोई जज्बात हो। चलो आज शाम मैं तुम्हें अपने गांव ले चल रहा हूं। लेकिन याद रखना कि इस दौरे का मकसद आंकड़े बटोरना नहीं है। चने का होरहा, अधपके गेहूं, जौ की बालियों को भूनकर निकाले दाने की उम्मी तथा गन्ने का रस पीना और उस पर मंडराती गिद्धों की कतारें देखना है तो चलो। शायद कुछ दिनों बाद ये गांव इस काबिल भी नहीं रहेंगे कि तुम्हारे जैसे अतिथि के आने पर होरहा और ईख के रस से तुम्हारा स्वागत करें।’’
हम गांव में घुसे ही थे कि एक बहुत बड़ी कोठी के फाटक के सामने खड़े अधेड़ आदमी ने कहा-‘‘का हो शिवेन्दर, सुना चिरई गांव के बाद ई करमूपुरा के भी भाग जाग गए हैं। इहो विसेख विकास छेत्तर हुई गवा।’’
‘‘हमें नाहीं मालूम चाचा ?’’ शिवेन्द्र ने कहा-‘‘जो भी क्षेत्र बने, उसके चौधुरी तो आप ही बनोगे। इस इलाके में आप जैसा दिमाग किसी और को तो मिला नहीं चाचा।’’
‘‘अच्छा-अच्छा ई ‘कमरा’ लटकाए कौन साहब हैं भइया ?’’

‘‘ई हमारे दोस्त हैं चाचा प्रेम स्वरूप। आपके गांव पर खोज कर रहे हैं। कितना प्रेम सरपंच में है और कितना परजा-पौनी में, यह भी बतायेंगे। विशेष क्षेत्र बनने से गांव के सरपंच सुवर्ण राय जी ने करमूपुरा को स्वर्ग बनाने के लिए किस तरह एड़ी-चोटी का पसीना एक कर दिया। यह सब तो बताना ही होगा न चाचा ?’’
‘‘वाह, वाह हो शिवेन्दर तोहरे जबान पर ललका मिरचा के तिताई अबहीं जस के तस हैं। का बढ़िया बात कही भइया तुमने ? तो ई सोबरन राय के फोटू लेने आए हैं। हम तो समझत रहे भइया कि इहौ कोनौ चमत्कार हैं। खास छेत्तर के खबर मिलते हमरे करमूपुरा के लाश पर गीध-कौवा मंडराये लगे। ई हमरे गांव के गरीब परजा के भूखे पेट, फटे चिथड़े कपड़े, और हवा से उधराई उजड़ी झोपड़ियन के फोटू लेवे आए हैं ? सुनत हैं भइया गांव के जेतनै गन्दा गलीज का फोटो आवत है उतनै महंगा दाम पर ई विदेसन में बिकत है।’’

‘‘सही सुने हो सोबरन राय, ई सब फोटो तुम्हरे जैसे लोगों की करतूत के पक्के सबूत होते हैं। कैसे झोंपड़ी जलती है, कैसे करजा के भार के नीचे गरीब लोगों का बदन नंगा होता है, कैसे-कैसे तुम्हारे जैसे शोषक लोग जोंक की तरह गरीबों का खून चूसते हैं, कैसे जनता को बहकाने के लिए तुम्हारे जैसे लोग नकली घड़ियाली आंसू बहाते हैं। निहाय की चोरी करके सूई का दान करने वाले तुम्हारे जैसों के चेहरों की कुटिल भौहों और उस पर उभरी बहशी और जंगली सिकुड़न को ये कैमरे बहुत सही ढंग से पकड़ते हैं, हां ई जरूर है कि कैमरे अभी इतने अच्छे नहीं हैं कि तुम्हें बेनकाव करें, लेकिन गरीब लोग तुम्हारे जैसों के चेहरों की लकीरों में बहुत कुछ जान लेते हैं। चाचा। समझे ? चलो जी प्रेम स्वरूप।’’ शिवेन्द्र ने कहा।

‘‘ई तो जायेंगे ही भइया, इन्हें कोई जबर्दस्ती रोकेगा नाहीं। पर चेहरे से इहौ तुम्हारे जैसे बड़े कांइयां विद्वान लगत हैं।’’
‘‘चुप रहो सोबरन राय।’’ शिवेन्द्र बोला-‘‘ये हमारे दोस्त हैं। हमारे मेहमान हैं। हमने इन्हें होरहा और रस की दावत दी है। आप तो बहुत समझदार हो गए हो चाचा। इतना अन्तर आ गया है आप में कि पहचानना मुश्किल हो गया है। कर्मनाशा के पानी की तरह आपके दिल-दिमाग दोनों बड़े साफ और स्वच्छ हो गए हैं। हम तो इसे अपनी सरकार की विजय मानेंगे चाचा। वक्त के साथ बदलने की कला तो आपकी पुश्तैनी विरासत है। आपके लकड़ दादा गवर्नर को डलिया पहुंचाकर राय साहब बने थे। आपके बाप और हमरे आजा सुभगसिंह कल्क्टर के खातिर रोज एक बड़ा खस्सी और सैकड़ों मुर्गे जबह करके दावत देते थे। आप बुढ्डे हो गए हो चाचा, पर याददाश्त ज्यों की त्यों है। जगजीवन राम अपनी तश्तरी से मिठाई उठाकर आपकी तश्तरी में जब रखते थे आप धन्न-धन्न चिल्लाते उनके पैर पकड़ लेते थे। आजकल सुना है कि टिकैत के भगत होय गए हैं। चन्दौली वाली सभा में तो आप पूरे गांव में मुनादी कराके, खूब तैयारी के साथ बीसियों बैलगाड़ियों और ट्रैक्टर ट्रालियों में बच्चों से बूढ़ों तक को ठूंसकर आए और पूरा मैदान भर दिया था आदमियों से। क्यों चाचा यह जो खासमखास क्षेत्र बना है न, उसमें तो आपके जिगरी दोस्त बटेसर के तिवारी शिवशंकर का ही राज होगा। वे बिना आपसे पूछे तो घुसे न होंगे उसमें। वाह चाचा गिरगिट हो कोई तो आपकी तरह। आप महान हैं। चलो जी प्रेमस्वरूप।’’

‘‘अरे बुरा मान गए शिवेन्दर बेटा।’’ अचानक बूढ़े का चेहरा स्याह अलकतरे में डूब गया-‘‘अरे भइया, तू तो हमरे खानदान के हीरा हो। हमरी का हैसियत है कि तोहें गिरगिट के तरै रंग देखाई।’’ बुड्ढा बड़ी ही शैतानियत से मुस्कुराते हुए बोला-‘‘भइया, सही बेला में पधारे हौ, किरपा करौ और आपन बहिनियां सुरसतिया के बिआह में जो कर्जा तोहरे बाप देवेन्दर लिए रहे, बोहिका लौटाय दो। जेकरे पास एको बित्ता खेत नाहीं है, भइया उहै अपने दोस्त के होरहा खियावे और ईख के रस पियावे का न्यौता दे सकत हैं। तुमने भइया सौनवां, रुपवा का ता उद्दार कर दिए, अब एक बची है तेतरी। उसे भी पार घाट लगाकर जई हौ एह बार।’’
‘‘का बात हो सोबरन भाई ?’’
‘‘चल जा ओहर घूरे पंडित, अगर तू हमरे मामला में टांग अड़ायेगा तौ हम एकरे संगै तोरो जुबान खिंचवाय लेवेंगे। समझ लेओ। तुम लोग सारे पढ़वैया लोगन के संघ बनाय रहे हो। दरिदरी संघ से तुम लोग सोबरन को डरवाय दोगे ? सुन रे तोरे बाप ने एक हजार रुपया लिया था।’’
‘‘का कहो, का कहो, हो सोबरन।’’ हल्ला-गुल्ला की खबर पाते ही शिवेन्द्र के बाप आ गए-‘‘तू इतना झूठ काहे बक रहे हो। हम तो कुल पांच सौ रुपिया लिहे रहे।’’ देवेन्द्र हकलाकर बोले।

‘‘पांच सौ रूपिया लिहे रहे तो पांच साल का सूद भी तो लगेगा। रुपिया पीछे, चवन्नी सूद अबौ चलत है। अरे ई कहो कि हम ईमानदार हैं कि ‘चक्कर बुद्धी’ नाहीं लै रहे हैं। अउर एक साल का सूद माफौ कर दै रहे हैं। सवा सौ रुपिये का खाली चारै साल में रुपिया होय गया।’’
‘‘और जो तुम रेहन में खेत जोत रहे हो ?’’
‘‘ऊ खेत नाहीं है हो देवन्दर भाई, ऊ बंजर परती है। ओके जोते में हमार ट्रैक्टर स्साला भरभष्ट होई गवा। हजार रुपिया दिलाए तब ऊ ट्रैक्टर फिर चलने जोग बना। हम तो भइया हर तरै से तुम्हरी मदद कर रहे थे....। कौन था गांव में तोहरे जाकड़ी खेत के रेहन रखके ठनाठन गिनने वाला। ऊ मूरख तो सोबरन ही रहे हौ देवन्दर।’’
‘‘ई अनियाब है।’’ देवेन्द्र को तैश आया-‘‘तुम सड़-सड़ कै मरोगे। तुम्हारे बदन में पिलुवे पड़ेंगे। तुम हमरी गरीबी के फैदा उठाय रहे हो।’’

‘‘अच्छा, अच्छा, हम सड़ के मरेंगे तो मरेंगे, तोहरे लड़के जैसा नीच करम नाहीं करेंगे। हमरे खानदान के कौनो छोकरे ने किया होता तो हम जहर खाय लेते। मगर तुम हौ कमीने आदमी। अपने सड़े हाथ को काटकर फेंक दो देवेन्दर। नाहीं ई स्साला शिवेन्दर तोहरे पुरखों को इकट्ठा तार देवेगा। तोहरे यहां बिरादरी का कोई आदमी पिशाब करने भी नहीं जावेगा।’’
‘‘अबे हरामी।’’ शिवेन्द्र उछलकर चबूतरे पर कूद गया।
‘‘रुक जाओ शिवेन्दर।’’ उसके पिता ने पुकारा, ‘‘मच्छर मारने से भइया हाथ कुछौ नाहीं लगेगा। हमरी किस्मत खराब थी। हम गरीब न होते तो कर्जा क्यों लेते।’’ उन्होंने शिवेन्द्र को पकड़ा।
‘‘हट जाओ बाबू, ले स्साले, गिने ले एक हजार हैं।’’ शिवेन्द्र बोला-ससुर इस गांव में लगता है तोरे पड़दादा की जमींदारी फिर आ गई लौटकर। उसे उखाड़ कर ही गांव छोड़ूंगा, देखूंगा तुझे, देखूंगा। बकरी के मूत से तेरी डंक-मार मूंछ को सफाचट करवा कर ही गांव छोड़ूंगा। याद रखना सोबरन, अब पाला देवेन्दर से नाहीं शिवेन्दर से पड़ा है। देवेन्दर गुलाम हिन्दुस्तान में जन्मे थे। शिवेन्दर का जन्म आजाद हिन्द में हुआ है। गुलामी और आजादी का फर्क बताकर तुम्हें, गांव छोड़ूगा। हां।’’

‘‘काका यह गलत काम है।’’ शिवेन्दर के चचेर भाई नरैन ने कहा-‘‘आपने बिना लिखा-पढ़ी के खेत दिया क्यों। हमारे आंगन को बांटने वाली डंडवारी बहुत ऊंची हो गई है क्या ? ई स्साले सोबरना ने हमारे खानदान की इज्जत पर हमला किया है। क्या हम उसकी जमीन में बसे हैं ? आपके पास खेत नहीं है, पर उसी के बगल वाला हिस्सा भी तो आपका ही है ? इस हरामी की हिम्मत कैसे हुई कि एक बाहरी आदमी के सामने बक दिया कि जेकरे पास एकौ बित्ता खेत नाही है, उहै अपने दोस्त के होरहा खिआवै और ईख के रस पिआवै का न्यौता देई सकत है।’’
हल्का जाड़ा था। अभी बरामदे में बिछे पुवाल पर कम्बल और रजाइयां तहिया कर रखी रहती थीं। रात में रजाइयों की ज़रूरत नहीं थी, पर मोटी रजाई भी तो तेली के बैल की तरह आंख का अंटौतल बन सकती थी। मैं बहुत देर तक प्रतीक्षा करता रहा। हमीं दो आदमी थे भी। इसलिए वहां तीसरे का इन्तजार भी न था। शिवेन्द्र ने पूछा-‘‘क्यों, प्रेम ? तुम्हें यह सब बहुत गिजगिजा-गिजगिजा लग रहा होगा ? मैं जानता हूं कि तुम्हें नींद नहीं आ रही है कौन सा सवाल है तुम्हारे सीने में ? पूछ डालो ताकि नींद अच्छी आए।’’

‘‘सवाल नहीं है बन्धु, समस्या है-‘‘मैंने कहा-‘‘तुम्हारे पिता एकदम अकेले पड़ गए हैं। एक थी तुम्हारी बहन वह भी शादी के बाद ससुराल चली गई होगी। तुम्हारे पिता तुम्हारे चाचा के घर खाना खाते हैं। बूढ़े आदमी के लिए खाली खाना ही तो नहीं चाहिए। उनके सपनों का एक संसार रहा होगा। वे अपने आंगन को, चाहे वह आधा-आधा बंटकर छोटा ही रह गया हो, बच्चों की किलकारियों, बहू के पायल की झनकार से गूंजते देखना चाहते रहे होंगे। तुमने उनकी खबर पूछना भी छोड़ दिया है। यह तो बहुत बड़ा जुर्म है, और कोई इसे चाहे माफ भी कर दे, मैं तो माफ नहीं करूंगा। तुम इतने निर्मोही और निर्दयी हो, यह मैं नहीं जानता था।’’
‘‘सुनो प्रेमू, मैं तुम्हें गांव ले आया था इसीलिए कि तुम अपनी आंख से एक दोस्त की व्यथा-कथा समझ सको। तुम क्या समझते हो कि मैं अपने बाप से उनके मन से, उनकी इच्छाओं से कटकर अलग हो गया हूं।’’
‘‘फिर, यह सब दमघोंट सन्नाटा तुम्हारे आंगन में क्यों है ? सोनवां, रुपवा कौन थीं ? और यह तेतरी ? यह कौन है ?’’
वह चुप रहा।

‘‘बोलो भई, पाप कथा है क्या ? तुम मुझे भी अपनी निजी टोली से निकाल चुके हो क्या ?’’ मैंने कहा
‘‘नहीं प्रेमू ! वह पाप-कथा नहीं ताप-कथा है। तुम जानना चाहते ही हो तो सुना-सोनवां मेरे बचपन की साथी थी। माना उनकी जात छोटी है। वे ठाकुर, ब्राह्मण नहीं हैं। वह दुसाध हैं। ठीक है ठीक है। बीच में मत टोको। दुसाध चमार की तरह नीच नहीं माने जाते हैं। तुम समाजशास्त्री तो यह भी नहीं जानते होंगे कि दुसाध है क्या ? क्योंकि सोसियोलाजी के लिए इतिहास तो अब भी कम्पलसरी नहीं बना है न। प्राचीन भारत में हर बड़े राजा के पास एक ऐसी कोतल सेना होती थी जो दुश्मन पर हमला करने को तब भेजी जाती थी जब सामान्य सेना हार जाती थी। इसे दुस्साधिक कहते थे। छोड़ो वरना तुम कहोगे कि मैं हिस्ट्री पढ़ाने लगा। हां, तो सोनवां दुसाध थी। आजकल के गांवों की अछूत कहलाने वाली दुसाध जाति की लड़की। वह मेरे साथ पढ़ती थी। हम टाट पर सट-सट कर बैठते थे। वह मेरे भूजे की पोटली में से चना फरूई चुराकर खाती रहती थी। मैंने एक दिन उसे भूजा चुराते देख लिया और बिना कुछ सोचे-समझे जोर का थप्पड़ मार दिया। वह तिलमिला उठी। उसके कान के नीचे गाल पर उंगलियों की साटें उभर आईं।

‘‘उसने अपनी स्लेट और पेंसिल झोले में डाली। किताब कापी ठूंस कर झोले को कंधे से लटकाए चली गई। जाते वक्त उसने मेरी ओर एक नजर देखा। मैंने चुपचाप गर्दन झुका ली। वह चली गई। उस वक्त हम प्राइमरी कक्षा पांच में थे। उसका छोटा भाई शोभनाथ उससे दो साल छोटा था। वह कक्षा तीन में था। उसे कुछ भी पता नहीं था कि सोनवां और मेरे बीच झगड़ा हो गया है। तब हम तीनों बहुत छोटे थे, बच्चे थे। मैंने सोचा था कि सोनवां इस बात को भूल जाएगी। वह नहीं आएगी तो मैं ही जाकर माफी मांग लूंगा। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। रात को मैं चुपचाप लेटे आसमान के तारे गिन रहा ता कि शोभनाथ आया-‘शिबू भइया, ए शिबू भइया।’ उसने मेरी उंगली पकड़कर खींचा-‘तुमने सोनवां को देखा है ?’’
‘‘ ‘क्यों, सोनवां को क्या हुआ ?’
‘‘ ‘वह मिल नहीं रही है, मैंने सारा गांव ढूंढ लिया।’

‘‘हम दोनों लालटेन लिए करमू घाट की ओर दौड़े। करमू घाट रात के वक्त बिलकुल हमारा हो जाता था। जब गर्मी बहुत पड़ने लगती थी तो हम छुट भैया लोग सभी करमू घाट पर नदी में सारा बदन डुबोए, गर्मलू को ठेंगा दिखाते, किलोल करते थे। शायद सोनवां वहीं हो। हम लालटेन लिए घाट पर पहुंचे। वहां कोई नहीं था। मैंने एक मिनट अपनी उंगली से सिर को ठोंका। मत छेड़ो बीच में। तुम यही न पूछना चाहते हो कि उस वक्त मेरे भीतर अचानक इतनी प्रौढ़ता कहां से आ गई। सिर तो सिनेमा के हीरो ठोंकते हैं जब प्रेमिका छिप जाती है। सिनेमा वाले स्साले हम गरीब गांव वालों से चीजें चुराते हैं। भला बताओ कि सिर कौन ठोंकता है, वही न जो बेजबान होता है ? हमारे पास किसी गुमशुदा की तलाश के लिए न तो टेलीफोन होता है, न तो पुलिस। न तो अस्पताल जहां तहकीकात की जाती है कि आपके यहां कोई इस शक्ल और हुलिए का व्यक्ति ऐक्सीडेंट की वजह से तो नहीं आया है। देखो, कितनी सुविधाएं हैं शहर वालों को। फिर भी जब हीरो उंगली से सिर ठोंकता है तो बम्बइया फिल्मों के सौदाई पूर्वांचल के छोकरे यह सोचते हैं कि प्रेमिका जरूर न किसी क्लब में डांस कर रही होगी। और वे सच भी साबित होते हैं। वह दूसरे मर्द के साथ डांस कर रही होती है। और उसका प्रेमी हीरो चेहरे को गुस्से के गुलाल से रंग कर पैर पटकता लौट जाता है।
‘‘ ‘हो सकता है शोभनाथ कि वह बरुनी खंदे के पास बैठी हो ?’

‘‘ ‘बरुनी खंदे के...?’ शोभनाथ रोने लगा था। ‘वहां तो भइया लम्बे-लम्बे घड़ियाल तैरते रहते हैं। वहां तो कोई नहीं जाता। वहां तो अंधेरे में...।’ शोभनाथ ‘सोनवां, सोनवां’ चिल्लाता बरुनी खंदे की ओर दौड़ा। मूरख ने लालटेन करमू घाट पर ही रख दी थी। मैंने लालटेन उठाई और उसके पीछे पीछे दौड़ा। मैं मन ही मन अपने को धिक्कार रहा था। सोनवां अगर मर गई तो क्या जवाब दूंगा। न सही दूसरों को, क्योंकि अछूत लड़की के मरने से क्या फर्क पड़ता है उनको, पर अपने को मैं कभी माफ नहीं कर पाऊंगा।
‘‘ ‘आ जाइए शिबू भइया।’ शोभनाथ खुशियों से पागल हो गया था जैसे। चिल्लाया-‘यह है सोनवां...।’
‘‘मैं लालटेन लिए वहां पहुंचा। लालटेन उठाकर मैंने सोनवां के चेहरे को देखा। ‘क्या देखता है।’ वह गुस्से से बोली-‘देख ले, देख ले, ले देख। तेरी उंगलियों के निशान ज्यों के त्यों हैं। शोभू, चलो, लौट चलो। ई भइया नहीं, भेड़िया है। अपनी नई मां से भी गया गुजरा जानवर है। वह हमें चार-चार दिन रोटियां नहीं देती, और मैंने भूख से हारकर इसकी पोटली से एक मुट्ठी भूजा ले लिया तो इसने ऐसा थप्पड़ मारा कि मेरे कान के नीचे खून बहने लगा। भगाओ इसे। जा भाग, हरामी कहीं का, कमीना।’

‘‘ ‘क्यों री।’ शोभू बिगड़ा-‘तूने नई मां की सारी गालियां सीख लीं ? यही सलीका है क्या ? यह सब क्या भगवान की प्रार्थना के बोल हैं ? वह मुझे हरामी और कमीना कहती है, तुझे जंगरचोट्टी और नीच कहती है। देवेन्दर चाचा के घर क्या हंडे में रुपिया गड़ा है। सुरसतिया के बदन का झिंगुला देखा है तूने। शिबू भइया के नेकर देख ले। इनके पास तो तन ढंकने का भी कपड़ा नहीं है। ई धन्ना सेठ कबके हुइ गए। थोड़ा सा भूजा लाए होंगे पोटली में। तू कहती कि मैं भूखी हूं। वे खुद दे देते। तूने चोरी क्यों की ? बोल, चोरी क्यों ही ?’
‘‘ ‘वह चोरी नहीं थी। मैं समझती थी...’
‘‘ ‘क्या समझती थी ?’
‘‘ ‘तुमसे मतलब, मैं किसी को क्या समझती हूं। किसी को क्या कहती हूं। तुम क्या मेरे बाप हो। स्साले शोभू के बाप। मैं मारकर तेरी नाक तोड़ दूंगी। मैंने भूजा नहीं चुराया था। नहीं चुराया था, वह पोटली मेरी भी होगी, यही सोचकर एक मुट्ठी भूजा ले लिया था...’ वह हिचक-हिचककर रो रही थी, ‘‘मैं इनकी पोटली कभी नहीं छूऊंगी। अब कभी नहीं छूऊंगी।’ ’’
‘‘ ‘फिर ?’’ मैंने पूछा।

‘‘फिर क्या। एक दिन बड़ी अजीब-सी हवा चली। मुझे पता नहीं था कि अमोला एक विरिछ बन गया है। हमारे देहात में आम खाकर गुठली घूरे पर फेंक देते हैं। बरसात के दौगरे के साथ वह गुठली रंग बदल देती है। और एक दिन बहुत छोटा-सा पौधा जन्म ले लेता है। हमारे यहां लोग इस पौधे को अमोला कहते हैं। यह इतनी तादाद में उगता है कि सबको विरिछ बनाने की बात कोई किसान सोचता भी नहीं। इन अमोलों को उखाड़कर इनकी चटनी बनाते हैं। छोकरे गाते हैं-‘अनमोलवा के चटनी पूदीना मांगे ले। पिंजरे के सुगनी सलाम करे ले।’
‘‘एक दिन गांव आया तो देखा शोभानाथ की कच्ची बखरी से सटा आम का पौधा बहुत बड़ा हो गया है। सफेद साड़ी में लिपटी, पीठ पर कजरारे बालों को फेंकती एक युवती खड़ी है और सहसा वह आम की गाछ से लिपट जाती है। और यह लो, सारी गाछ मंजरियों से लद जाती है। कैसा लगा यह। लड़की छू दे तो बेमौसम आम फल जाता है क्या ? बोल प्रेम !’’
‘‘ ‘कौन है ?’ मैंने कहा।
‘‘ ‘ओफ कब आये ?’ वह मुस्कुराकर बोली।





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