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महान व्यक्तित्व >> भारत रत्न

भारत रत्न

विश्वमित्र शर्मा

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :237
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1446
आईएसबीएन :81-7028-222-5

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भारत के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित विशिष्ट व्यक्तियों के रेखाचित्र...

Bharat Ratna a hindi book by Vishwamitra Sharma - भारत रत्न - विश्वमित्र शर्मा

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘भारत-रत्न’ देश का सर्वोच्च सम्मान है। इस अलंकरण से केवल उन्हीं व्यक्तियों को विभूषित किया जाता है जिन्होंने देश के किसी भी क्षेत्र में ऐसे महत्त्वपूर्ण कार्य किए हों जिनसे देश की गरिमा में वृद्धि हो। अब तक जिन्हें यह विशिष्ट सम्मान प्राप्त हुआ है उनमें राजनीतिज्ञ, विचारक, वैज्ञानिक, उद्योगपति, लेखक और समाजसेवी हैं।
‘भारत-रत्न’ उन महान् व्यक्तियों की जीवन गाथा तो है ही, साथ में उन महापुरुषों के जीवन काल का इतिहास भी है। उहाहरण के लिए डा. विश्वेवरैया ने जल की आपूर्ति, बांध आदि की जो योजनाएं बनाईं और उन्हें साकार किया, उनकी उस समय कल्पना कठिन थी। महान् उद्योगपति जे.आर.डी. टाटा ने विमान-सेवा उस समय आरंभ की जब ठीक ढंग से हवाई अड्डे भी नहीं थे।
‘भारत-रत्न’ ऐसी विभूतियों का चरित्र-चित्रण है जिनके बिना देश का इतिहास अधूरा है।

दो शब्द


‘भारत-रत्न’ देश का सर्वोच्च सम्मान है। यह प्रतिवर्ष दिया जानेवाला अलंकरण नहीं। यह किसी व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व और देश के प्रति उसकी अत्यन्त समर्पण भावना के लिए ही यदा-कदा दिया जाने वाला अलंकरण है। पद्मश्री पद्म भूषण और पद्म विभूषण आदि से भी श्रेष्ठ है ‘भारत-रत्न’। यह उन आदर्श पुरुषों को ही दिया जाता है अथवा ऐसे लोगों को इससे अलंकृत किया जाता है जिनकी जीवन गाथाओं का परायण पुण्य-भागीरथी में उस स्नान के समान है जिसके बाद एक साधारण मनुष्य अपने आप को पाप और शाप से मुक्त, निर्मल पाता है। ‘भारत-रत्न’ में ऐसी विभूतियों के दिव्य चरित्र हैं जिन्होंन अपने जीवन को इतनी ऊँचाइयों तक पहुँचाया जहाँ तक सम्भवत: कोई कल्पना नहीं कर सकता। संभवत: इकबाल ने ऐसे ही महान पुरुषों के लिए कहा था-


खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले
खुदा बन्दे से खुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है ?

और इन व्यक्तियों ने तो उससे भी आगे बढ़कर अपनी रज़ामन्दी या अपनी ख्वाहिशों को देश की ख्वाहिशों में मिला दिया।
‘भारत-रत्न’ अनेक महान् व्यक्तियों की जीवन-गाथा तो है, परन्तु उसके साथ यह भारत के उस काल का इतिहास भी है, जिस काल से इन-इन आदर्श पुरुषों का संबंध रहा। ‘भारत-रत्न’ केवल राजनेताओं का ही अलंकरण नहीं, इसमें वे लोग भी आते हैं जिन्होंने देश को सर्वथा नई देन दी और प्रगति के मार्ग पर अग्रसर करने का यत्न किया। यह पुस्तक न केवल स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास अपने में समेटे हुए है बल्कि उसके साथ आज तक की भारत की प्रगति का लेखा-जोखा भी है।

-विश्वमित्र शर्मा

चक्रवर्ती राजगोपालाचारी
(1878-1972)


राजा जी को कांग्रेस का अथवा गांधीवादी क्षेत्र का चाणक्य कहा जाता था। इसका कारण उनकी बुद्धिमता थी। नेहरू जी ने उनका सबसे बड़ा गुण उनके बुद्धि-चातुर्य को ही बताया है। परन्तु नेहरू जी ने यह भी कहा है कि अपने गुणों के विरुद्ध जो कोई बात वह कभी कर जाते थे, वह भी उनके बुद्धि चातुर्य के कारण ही निकलती थी।
राजा जी के संबंध में एक बात और नेहरू जी ने कही है, यदि उसका मनन किया जाये और राजा के जीवन पर दृष्टिपात किया जाये तो वह कितनी सच्ची और खरी मालूम देती है-संभवत: यह बात उनके संबंध में लिखने वाले किसी भी व्यक्ति के ध्यान में नहीं आई- जिसे नेहरू जी ने दो-चार शब्दों में प्रकट किया है-
‘‘कांग्रेस के सारे इतिहास में राजा जी की क़द्र हुई, लेकिन कभी सोलह आने कांग्रेस में नहीं हुए वह। मेरा मतलब है कि कांग्रेस में जो हवाएं चलती थीं, उनसे वह कुछ अलग रहे।’’1

नेहरू जी ने आगे कहा है कि वह सदैव कांग्रेस की मुख्य विचारधारा से अलग रहे, परन्तु उनकी क़द्र सह लोग करते रहे-उनकी बुद्धिमता के कारण। परन्तु उन्होंने यह नहीं कहा कि कांग्रेस में नहीं रहे। उनके कहने का भाव यह है कि वह कट्टर कांग्रेसी, गांधीवादी होते हुए भी अपनी स्वतंत्र परन्तु तर्कसंगत विचारधारा भी रखते थे, और इस बात के लिए उन्होंने बड़े-से-बड़े व्यक्ति से भी समझौता नहीं किया। और यह भी विचित्र संयोग की बात है कि वह मुख्यमंत्री रहे, केंद्रीय सरकार में मंत्री रहे, गर्वनर रहे और सबसे बढ़कर लार्ड माउंटवेटन के बाद सर्वप्रथम गवर्नर-जनरल का सर्वोच्च पद उन्हीं को दिया गया, परन्तु कुछ भी कहो, उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष होने का सुअवसर प्राप्त नहीं हुआ।

यह बात नहीं कि जनता उन्हें प्यार नहीं करती थी; यह बात भी नहीं कि कांग्रेसी क्षेत्रों में उनका सम्मान न था। यदि यह दोनों बातें न होती तो वह इतने उच्च और उत्तरदायित्वपूर्ण पदों पर कैसे पहुँचते ? निष्कर्ष यही निकलता है कि उन्होंने सदैव भावना पर तर्क को महत्व दिया-यानी जब उन्होंने समझा कि कांग्रेस अपने पथ से भटक रही
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1. रामनारायण चौधरी:‘नेहरू जी अपनी ही भाषा में’

हैं तो उन्होंने बरसों के साथ की चिन्ता न कर उसे छोड़ दिया।
यह भी विचित्र संयोग ही है कि प्राय: कांग्रेस के सभी आन्दोलनों से प्रारम्भ में उनका मतभेद भी था और अन्त में कांग्रेस ने बहुत कुछ वही निर्णय लिये जैसा राजा जी सोचते थे। देश के विभाजन की महान् घटना को ही लीजिए, जिसकी भूमिका 1942 से आरंभ होती है; राजा जी ने अनुभव किया कि हिन्दू-मुस्लिम समस्या इतनी जटिल हो गई है कि जिसका एकमात्र निपटारा देश के विभाजन अर्थात् पाकिस्तान के निर्माण द्वारा ही हो सकता है, जबकि कांग्रेस देश की एकता के लिए दृढ़प्रतिज्ञ थी, परन्तु अंत में कांग्रेस ने उसी विभाजन को स्वयं स्वीकार किया। यदि राजा जी की बात उसी समय मान ली जाती तो संभवत: इतना रक्तपात न होता जितना 1947 में हुआ, और दोनों की भावनाएं इतनी चरम सीमा तक न पहुंचतीं। इसी मतभेद के कारण उस समय राजा जी ने कांग्रेस कार्यकारिणी की सदस्यता से त्यागपत्र भी दे दिया था।
वस्तुत: बात यह रही है कि उनकी कुशाग्र बुद्धि तर्कपूर्ण ढंग से एक बार जो निश्चय कर लेती, राजा जी उस पर एक दृढ़ व्रती की तरह अडिग रहते। उस समय उन्हें न काले झण्डों की परवाह रहती और न गालियों की। ऐसा उनके जीवन में एक बार नहीं, अनेक बार हुआ।

गाँधी जी ने 1930-31 में ब्रिटिश सरकार से असहयोग का आह्वान किया गया। उन्होंने छात्रों से कहा कि वे अंग्रेजों द्वारा स्थापित स्कूल-कालिज छोड़ दें; वकीलों से कहा कि वे न्यायालयों में न जाएं; नगरपालिकाएं भंग कर दें और प्रान्तीय असैम्बलियों के चुनाव न लड़े अर्थात् सरकार को किसी प्रकार का सहयोग न देने की अपील की गई। इसका बड़ा प्रभाव हुआ, परन्तु अनेक कारणों से यह असहयोग आंदोलन स्थगित करना पड़ा।

कांग्रेस की परीक्षा का यह बड़ा महत्वपूर्ण काल था। कुछ लोगों का कहना था कि जब असहयोग आंदोलन समाप्त कर दिया गया है, तो समग्र रूप से देखने में प्रान्तीय असैम्बलियों के चुनाव का बहिष्कार भी बन्द होना चाहिए। उनका कहना था कि हमें चुनाव जीत कर उन पर कब्जा कर लेना चाहिए और आज़ादी की लड़ाई वहां से लड़नी चाहिए। मोतीलाल नेहरू और सी. आर. दास आदि इस बात के समर्थक थे और बाद में यह लोग कांग्रेस से अलग हुए और स्वराज्य पार्टी के नाम से उन्होंने असैम्बलियों के चुनाव भी लड़े।

असैम्बलियों में जाने के विरोधी लोग कहते थे कि असैम्बलियों को कोई अधिकार नहीं हैं, इसलिए उनका चुनाव लड़ना व्यर्थ होगा और इससे स्वराज्य प्राप्ति का वास्तविक ध्येय नष्ट हो जायेगा। गांधी जी भी इसी दृष्टिकोण के थे। गांधी जी को इस विषय पर कांग्रेस में मतभेद से बड़ा दु:ख हुआ था, परन्तु उनके दृढ़ समर्थक और पृष्ठ-पोषक थे राजा जी। राजा जी ने बड़े-बड़े नेताओं का भी कड़ा विरोध किया। उनकी दृढ़ता तभी से स्पष्ट हो गई थी।

इसी प्रकार 1942 में अकेले राजा जी ने कांग्रेस कार्यकारिणी के सभी सदस्यों के विरुद्ध मत दिया। राजा जी कांग्रेस कमेटी के इलाहाबाद अधिवेशन में भाग लेने पहुंचे, तो उन्होंने हिन्दू मुस्लिम समस्या पर कुछ ऐसी बात कह दी जिस पर हिन्दू महासभा ने उन्हें काले झण्डे दिखाये। नेहरू जी को इस बात पर दु:ख हुआ, क्योंकि वह नेहरू जी के साथ ठहरने वाले थे। परन्तु नेहरू जी को यह बात भी अच्छी न लगी जो राजा जी ने कही थी। और जब राजा जी ने जब अपने प्रस्ताव अधिवेशन में रखे तो वे बहुत बुरी तरह भारी बहुमत से ठुकरा दिये गये। उनका पक्ष था-देश का विभाजन स्वीकार करना। जब उनकी बात मानी नहीं गई तो वह कांग्रेस से अलग हो गये। जनता ने उन्हें बहुत बुरा-भला कहा-पर राजा जी कहां डरने वाले थे, अपने निश्चय से वह कहां टलने वाले थे ? जनता के भयानक विरोध के बावजूद राजा जी के मन में निराशा और असंतोष नहीं पनपा और उन्होंने राष्ट्रविरोधी अथवा अपने हित साधन के लिए ऐसा कोई कार्य नहीं किया जिससे उन्हें बाद में चिंतित होना पड़ता अथवा अपने हित साधन के लिए ऐसा कोई कार्य नहीं किया जिससे उन्हें बाद में चिन्तित होना पड़ता अथवा भारत की स्वतंत्रता के बाद कोई कटु अनुभव होता। ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन में गांधी जी समेत प्राय: सभी नेता गिरफ्तार कर लिये गये, पर राजा जी ने इसमें भाग न लिया।

आजकल की पीढ़ी कहीं यह न समझ ले कि राजा जी कभी जेल गये ही नहीं और यों ही सरलता से देश के नेता बन गये ! ऐसी बात नहीं, हमारे देश के स्वाधीनता संग्राम को कोई भी नेता ऐसा नहीं जिसने कुर्बानियां न की हों, पांच-दस बरस जेलों में न बिताये हों। राजा जी ने 1919 में राजनीति में भाग लेना आरम्भ किया। प्रथम विश्व युद्ध के बाद भारतीयों को युद्ध में अंग्रेजों का सहयोग देने के फलस्वरूप रौलट एक्ट के रूप में दमन चक्र मिला, तो गांधी जी ने निश्चय किया कि सारे देश में सत्याग्रह आरम्भ किया जाये। 18 मार्च, 1919 के दिन सर सिडनी रौलट की सिफारिशों ने कानून का रूप धारण किया। कहां तो भारतीय औपनिवेशिक दर्जे की शुरूआत के स्वप्न देख रहे थे और कहा दमन चक्र जारी रखने के लिए अंग्रेजी हुकूमत ने कानून बना दिया। उस दिन गांधी जी मद्रास में थे। उन्होंने दूसरे दिन राजा जी से कहा, ‘‘रात को मुझे स्वप्न में विचार आया है कि हमें देश में हड़ताल के लिए आह्वान करना चाहिए।’’

सत्याग्रह की बात सारे देश में फूस की तरह फैल गई। सारे देश में हड़तालें हुईं और जनता में जोश इतना था कि कई स्थानों पर हिंसात्मक वारदातें हुईं। जलियांवाला बाग भयंकर नरमेध 13 अप्रैल, 1919 को हुआ। राजा जी ने मद्रास में सत्याग्रह किया और गिरफ्तार कर लिये गये। इस प्रकार उनका राजनीतिक जीवन बड़े भयंकर तूफानी दिनों में आरम्भ हुआ और राजा जी ने अपने आपको इसमें होम दिया।

राजा जी का जन्म मद्रास के सेलम ज़िले के होसूर के पास एक गांव में 1878 में हुआ। प्रारम्भिक शिक्षा के बाद बंगलौर के सेंट्रल कालिज और बाद में मद्रास में प्रेसिडेन्सी तथा ला-कालिज में शिक्षा ग्रहण की। राजा जी पढ़ाई में सदैव अच्छे छात्रों में गिने जाते रहे। कानून की पढ़ाई के बाद उन्होंने सेलम में वकालत आरंभ कर दी। शीघ्र ही उनकी वकालत चल निकली और प्रमुख वकीलों में उनकी गिनती की जाने लगी।

गांधी जी की दृष्टि बड़ी पैनी थी और उन्होंने दक्षिण अफ्रीका से भारत आने के बाद जब देश का दौरा किया तो उन्होंने धीरे-धीरे देश के बुद्धिमान और प्रमुख व्यक्तियों को भांपा। प्रसिद्ध अमरीकी पत्रकार लुई फिशर ने लिखा है, ‘गांधी जी के मित्रों में तलवार की धार जैसी पैनी बुद्धि वाले वकील राजा जी और भूलाभाई देसाई भी थे।’ इसलिए यदि उन्हें ‘गांधीवादी चाणक्य’ कहा गया है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं।

स्वातंत्र्य आंदोलन में वह पांच बार जेल गये। इस बात का उन्हें गर्व था, परन्तु जब भी उन्होंने समझा कि कांग्रेस ठीक काम नहीं कर रही तो बिना झिझक उसके कार्यक्रमों से अलग हट गये और जब उन्होंने देखा कि कांग्रेस उनके तर्क और प्रेरणा के अनुसार काम कर रही है तो उसे पुन: सहयोग देने में आनाकानी नहीं की। 1945 में ऐसा ही हुआ। अगस्त 1942 में अथवा उसके पश्चात् गिरफ्तार नेता 1945 में रिहा कर दिये गये और ब्रिटेन के मज़दूर दल की सरकार ने भारत को स्वतंत्रता देने के संबंध में बातचीत आरम्भ की, तो राजा जी फिर सक्रिय रूप से कांग्रेस में आ गये और उन्होंने बहुत ही बुद्धिमतापूर्वक बातचीत को आगे बढ़ाया।

यहां राजा के जीवन के संबंध में एक बात और कहना आवश्यक है। यदि कभी वह कांग्रेस से मतभेद के कारण जेल नहीं गये तो इसका मतलब यह नहीं कि वह गांधी जी से कभी पृथक् हुए। जब गांधी ‘यंग इंडिया’ नामक पत्र प्रकाशित करते थे और वह जेल चले गये तो पत्र का सम्पादन राजा जी ही करते रहे। हरिजनों के पृथक् निर्वाचन के प्रश्न पर गांधी जी ने अनशन किया था। उस समय डा.अम्बेड़कर हरिजनों को अधिक प्रतिनिधित्व और अधिक काल तक सुरक्षित सीटें दिलाने की ज़िद पर अड़े हुए थे, और गांधी जी अनशन के कारण निरन्तर कमज़ोर होते जा रहे थे, तब राजा जी ने अम्बेड़कर को इस बात पर राजी कर लिया कि इस प्रकार का प्रारंभिक संरक्षित चुनाव बाद में आपसी विचार-विमर्श के बाद तय किया जाये। वास्तव में यह मामला बहुत कुछ महाभारत के ‘अश्वत्थामा हत: नरो व कुंजरो वा’ जैसा ही था- और गांधी जी ने अनशन समाप्त कर दिया। गांधी जी के अनशन समाप्त करते ही देश में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। यह ठीक है कि इस अनशन को समाप्त कराने के लिए ब्रिटिश सरकार को भी भागदौड़ करनी पड़ी थी-परन्तु राजा जी का भाग कम नहीं था।

एक अन्य बात से भी राजा जी के निकट थे। गांधी जी के पुत्र देवदास और राजा जी की पुत्री लक्ष्मी 1927 में विवाह करना चाहते थे। पर राजा जी ब्राह्मण और गांधी जी वैश्य थे। हिन्दुओं में ऐसे विवाह सरलता से न होते थे-पर दोनों पिताओं ने यह शर्त लगाई कि दोनों पांच वर्ष पृथक् रहें, उसके बाद भी विवाह करना चाहें तो विवाह हो। अन्तत: 1933 में बड़ी धूमधाम से दोनों का विवाह हुआ। बाद में तो दोनों का ही विचार था कि अधिकाधिक अन्तर्जातीय विवाह हों। और सवर्ण लोग हरिजन कन्याओं से विवाह करें।




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