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सदाबहार >> गोदान

गोदान

प्रेमचंद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :327
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1442
आईएसबीएन :9788170284321

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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...


‘नहीं भाई साहब, मेरे पास इस वक्त बिलकुल रुपए नहीं हैं।’

‘रुपए जितने चाहें, मुझसे लीजिए। बैंक आपका है। हाँ, अभी आपने अपनी जिन्दगी इंश्योर्ड न करायी होगी। मेरी कम्पनी में एक अच्छी-सी पालिसी लीजिए। सौ-दो सौ रुपए तो आप बड़ी आसानी से हर महीने दे सकते हैं और इकट्ठी रकम मिल जायगी–चालीस-पचास हजार। लड़कों के लिए इससे अच्छा प्रबन्ध आप नहीं कर सकते। हमारी नियमावली देखिए। हम पूर्ण सहकारिता के सिद्धान्त पर काम करते हैं। दफ़्तर और कर्मचारियों के खर्च के सिवा नफे की एक पाई भी किसी की जेब में नहीं जाती। आपको आश्चर्य होगा कि इस नीति से कम्पनी चल कैसे रही है। और मेरी सलाह से थोड़ा-सा स्पेकुलेशन का काम भी शुरू कर दीजिए। यह जो सैकड़ों करोड़पति बने हुए हैं, सब इसी स्पेकुलेशन से बने हैं। रुई, शक्कर, गेहूँ, रबर किसी जीन्स का सट्टा कीजिए। मिनटों में लाखों का वारा-न्यारा होता है। काम जरा अटपटा है। बहुत से लोग गच्चा खा जाते हैं, लेकिन वही, जो अनाड़ी हैं। आप जैसे अनुभवी, सुशिक्षित और दूरन्देश लोगों के लिए इससे ज्यादा नफे का काम ही नहीं। बाजार का चढ़ाव-उतार कोई आकिस्मक घटना नहीं। इसका भी विज्ञान है। एक बार उसे गौर से देख लीजिए, फिर क्या मजाल कि धोखा हो जाए।’

राय साहब कम्पनियों पर अविश्वास करते थे, दो-एक बार इसका उन्हें कड़वा अनुभव हो भी चुका था, लेकिन मिस्टर खन्ना को उन्होंने अपनी आँखों से बढ़ते देखा था और उनकी कार्य-क्षमता के कायल हो गये थे। अभी दस साल पहले जो व्यक्ति बैंक में क्लर्क था, वह केवल अपने अध्यवसाय, पुरुषार्थ और प्रतिभा से शहर में पुजता है। उसकी सलाह की उपेक्षा न की जा सकती थी। इस विषय में अगर खन्ना उनके पथ-प्रदर्शक हो जायँ, तो उन्हें बहुत कुछ कामयाबी हो सकती है। ऐसा अवसर क्यों छोड़ा जाय। तरह-तरह के प्रश्न करते रहे। सहसा एक देहाती एक बड़ी-सी टोकरी में कुछ जड़ें, कुछ पत्तियाँ, कुछ फल लिये जाता नजर आया। खन्ना ने पूछा–अरे, क्या बेचता है?  देहाती सकपका गया। डरा, कहीं बेगार में न पकड़ जाय। बोला–कुछ तो नहीं मालिक! यही घास-पात है।

‘क्या करेगा इनका?’

‘बेचूँगा मालिक! जड़ी-बूटी है।’

‘कौन-कौन सी जड़ी बूटी हैं, बता?’

देहाती ने अपना औषधालय खोलकर दिखलाया। मामूली चीजें थीं जो जंगल के आदमी उखाड़कर ले जाते हैं और शहर में अत्तारों के हाथ दो-चार आने में बेच आते हैं। जैसे मकोय, कंघी, सहदेईया, कुकरौंधे, धतूरे के बीज, मदार के फूल, करजे, घुमची आदि। हर-एक चीज दिखाता था और रटे हुए शब्दों में उसके गुण भी बयान करता जाता था। यह मकोय है सरकार! ताप हो, मन्दाग्नि हो, तिल्ली हो, धड़कन हो, शूल हो, खाँसी हो, एक खोराक में आराम हो जाता है। यह धतूरे के बीज हैं मालिक, गठिया हो, बाई हो...।

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